विश्व पर्यावरण दिवस पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, अनुपम मिश्र की किताब ‘बिन पानी सब सून’ से एक लेख— ‘पर्यावरण क्यों नहीं बनता चुनावी मुद्दा?’ यह लेख बीस साल पहले 2004 में लिखा गया था लेकिन आज यह उस समय से भी ज्यादा प्रासंगिक है।
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चुनाव में शामिल होने वाले दल पाँच साल से आगे का नहीं सोच सकते जबकि पर्यावरण का कैलेण्डर पाँच साल का नहीं होता। पर्यावरण की कोई भी समस्या पिछले बीस-पच्चीस साल का नतीजा होती हैं। लेकिन कोई भी सरकार उस तराजू पर अपनी उपलब्धियों को तौलना नहीं चाहती। जहाँ तक चुनाव में पर्यावरण की भूमिका का सवाल है तो कहीं-कहीं ही इसने अहम भूमिका निभायी। जैसे मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार आम जनता की निगाह में कुल मिलाकर एक अच्छी सरकार थी मगर विपक्षी पार्टी भाजपा ने पानी और बिजली के गम्भीर सवाल पर चुनाव लड़ा और मैदान जीत लिया। पर्यावरण जहाँ उनके काम आता है वहाँ वे पर्यावरण को अपने मुद्दों में शामिल कर लेते हैं। किस चीज़ के इस्तेमाल से वोट हासिल किये जा सकते हैं यह उनके लिए बड़ी बात है। चुनाव के समय कांग्रेस सरकार यदि पानी ठीक से मुहैया करा भी रही होती तो भी उससे बेहतर पानी की सुविधा का आश्वासन देकर चुनाव जीता जा सकता था।
दीगर बांत यह है पानी का संकट चुनाव में कहीं नजर नहीं आ रहा है। पानी का संकट दो राज्यों, दो जिलों और दो गाँवों में युद्ध की सी स्थिति पैदा कर रहा है। दो राज्यों में अगर एक ही पार्टी की सरकार होगी तो भी पानी का मामला, नदी का मामला, नदी जोड़ने का मामला तकलीफ़ पैदा करेगा। उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा की सरकार है परन्तु नदी जोड़ने जैसी रद्दी परियोजना को लेकर मध्य प्रदेश के ही लोग तैयार नहीं हुए। दो-तीन बैठकों के बाद भी राजस्थान में आम सहमति नहीं बन पायी है। मध्य प्रदेश में भी नदियों को जोड़ने के सवाल पर दो जिलों के लोगों और अधिकारियों के बीच भी आम सहमति नहीं बन पायी। आश्चर्य की बात है कि यह गम्भीर प्रश्न चुनाव के दायरे में नहीं आ सका है। असन्तोष के दायरे में जमकर है।
दिल्ली में पानी का संकट और गहरायेगा। वस्तुस्थिति की हमें उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। दिल्ली अपने हिस्से का सम्पूर्ण पानी बहुत पहले खत्म कर चुकी है। आज वह पड़ोसी राज्यों-हरियाणा, उत्तर प्रदेश से उदार, कृपा और दादागिरी से पानी खींचकर ला रही है। अलग-अलग राज्यों में क्षेत्रीय दलों के होने से यह संकट और गम्भीर होता जा रहा है। आज की तारीख में दिल्ली में कितना पानी है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ऐसे में जो भी पार्टी सत्ता में आयेगी वह आराम से पाँच साल सो नहीं पायेगी।
चुनाव का अपना एक अलग गणित होता है। राजनीतिक पार्टियाँ दलितों को उजाड़ती भी हैं और दलितों के नाम पर वोट भी इकट्ठा करती हैं। यह सब विचित्र घालमेल है। पर्यावरण की कोई भी उथल-पुथल निचले तबके के लोगों को सबसे पहले शिकार बनाती है, मगर पर्यावरण संकट सम्पन्न तबके को भी आराम से नहीं रहने देता। फिर भी निचला तबका पर्यावरण विस्थापित की श्रेणी में आ जाता है। यह एक बहुत अमानवीय स्थिति है। आजकल हर तरफ़ फीलगुड की बात हो रही है मगर इसमें पर्यावरण का मुद्दा नहीं है। यह अजीब है कि कृषि प्रधान देश में आजादी के बाद से किसी भी सरकार ने किसान के हितों को नहीं देखा, चाहे उस सरकार में प्रधानमन्त्री किसान नेता ही क्यों न रहा हो, किसान के हितों को नहीं देखा गया। कृषि का व्यापारीकरण, खादों का, बीजों व पेस्टीसाइड्स की बिक्री पर ही ज़्यादा ध्यान दिया गया है। विडम्बना है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की जो माँगें हैं वे भी मुफ़्त बिजली, कम लागत तक ही सीमित हैं। एक तरह से यह भटके हुए किसानों की माँगें हैं। ये किसान नगदी फ़सल ही उगाना और बेचना पसन्द करते हैं। उन्हें अपनी मूल फ़सलों पर ही लौटना होगा। किसानों की आत्महत्या की ख़बरें उन्हीं राज्यों से आ रही हैं जहाँ नगदी फ़सलें ही उगायी और बेची जाती हैं। ग़रीब राज्यों से आत्महत्या की ख़बरें नहीं आतीं। ऐसी ख़बरें पंजाब, आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक से ही मिलती हैं। पश्चिम के प्रभाव में ग़लत कृषि नीति के कारण ही ऐसा होता है।
अकाल के बाद यज्ञ, अनुष्ठान व रामकथा का आयोजन नये जमाने के प्रतीक हैं। धर्म में अकाल जैसी घटना का कारण बढ़ते पाप और अत्याचार को माना जाता था। 1990 से पहले अकाल के पश्चात् तमिलनाडु में मुख्यमन्त्री वगैरह ने जहाज से दवा छिड़क कर कृत्रिम वर्षा की कोशिश की थी। इस तरह की कोशिश अमेरिका में भी की गयी। यह निरा अन्धविश्वास है।
संसद की जाँच समिति की रिपोर्ट आने पर भी आज कोल्ड ड्रिंक्स की बोतल घर-घर पहुँच रही है। केरल में कोकाकोला के प्लांट को आबाद करने में कई कुओं, नदियों व जलस्रोतों को सुखाया जा रहा है। बाज़ार में इनका बड़ा हिस्सा है। सरकार को ऐसी नीतियों के कारण ही इनसे चन्दा मिलता है। चुनाव चूँकि वायदा का दौर है, इसलिए सत्ता के लिए हर पार्टी तमाम वायदे करती है लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्हें आसानी से भुला दिया जाता है।
पानी में परम्परागत वोटों का, ट्रालरों का एक ख़ास दूरी तक स्थान तय होना था। सख़्त क़ानून बनाने की बात उठी थी परन्तु नयी राजनीति व नया पैसा जो आया है, वह परम्परागत ढंग से मछली पकड़ने के बदले एक रात में अमीर होने का सपना दिखाता है। ट्रालर उसका बहुत बड़ा प्रतिनिधि है। समुद्र के पेट में पड़े ख़ज़ाने का दोहन कर फटाफट अमीर होने की सोच ने सब बरबाद कर दिया। पुराने मछुआरे के जाल का छेद तय होता था। समुद्र से सिर्फ़ ब्याज़ निकालते थे, मूलधन नहीं। एक परम्परा यह भी थी कि मछली के प्रजनन के समय मछुआरे समुद्र में जाल नहीं फेंकते थे। ट्रालर ऐसी बातों को गया-बीता मानते हैं। इस नयी परम्परा से मछली उत्पादन में भारी गिरावट आयी है। इसका आँकड़ा पूरी दुनिया में है। फिर भी निराश होने की जरूरत नहीं है। इस सबके ख़िलाफ़ दुनिया भर में एक वातावरण तैयार हो रहा है। जीओ और जीने दो का एक सार्थक प्रयोग होना चाहिये।
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