रंग याद है : बचपन की होली और ठिठोली

होली के दिन माँ, एकाएक बच्ची बन जाती थी और अल्मोड़े की अपने बचपन की बीहड़ होली को नया जीवन दे देतीं। पिता सकुचाते रहते। उनका लड़कपन और जवानी लखनऊ में बीते थे। उन्हें अवध की संयत शालीन होली श्री रामचन्द्र और सिया माता वाली अधिक रास आती थी। शाम को इस लखनवी होली मिलन का समारोह खुले मैदान में हर किसी के साथ इत्र, सूखे-सुवासित रंगों और छोटे टीके के साथ सम्पन्न होता। माँ, उन्हें उलहाना देती रहती, “क्या हो गया है तुम्हें पियु, तुम तो सिर्फ़ नाम के ही कृष्ण हो। क्या ऐसे खेलते थे कृष्ण राधा के साथ होली वृन्दावन में?” फिर धमकी वाले अन्दाज में चेतावनी देतीं, “अभी तो बची है बरसाने की लठमार होली।” 

‘रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में राजकमल ब्लॉग पर पढ़ें, पुष्पेश पंत के बचपन की रंगयाद : “बचपन की होली और ठिठोली” जिसमें उन्होंने मुक्तेश्वर नामक एक छोटे से पहाड़ी क़स्बे की होली की यादों को ताजा किया है।

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बात बचपन की है, आज से कोई सत्तर साल पहले मुक्तेश्वर नामक एक छोटे से पहाड़ी क़स्बे की। यह जगह कई मायने में अनोखी थी। आठ हज़ार फुट की ऊँचाई पर यह स्थान इंडियन वेट्रनरी रिसर्च इंस्टिट्यूट का मुख्यालय था। इस प्रयोगशाला की स्थापना अंग्रेज वैज्ञानिकों ने उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में की थी और इसका विकास एक मिनी हिन्दुस्तान के रूप में हुआ था। अंग्रेज मुट्ठीभर थे और हजार-बारह सौ की कुल आबादी में बंगाली, मद्रासी, पंजाबी, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई की गिनती पन्द्रह से बीस फ़ीसदी रही होगी। अधिकांश नेपाली मूल के डोटियाल कुली, पास-पड़ोस के गाँव के निर्धन पहाड़ी मज़दूर और गिने-चुने मैदानों से आए सफ़ाई कर्मचारी (जो तब मेहतर या भंगी कहलाते थे)। होली में इन सबकी भागीदारी के कारण इस तैयार के रंग निराले हो जाते थे।

सच बात तो यह है कि होली की पदचाप रंग खेले जाने वाले दिन—धुलैणी—से बहुत पहले सुनाई देने लगती थी। कुमाऊँ के पहाड़ों में अल्मोड़ा, नैनीताल जैसी जगहों में बैठी होती (बैठकी होली) का रिवाज जाने कब से चला आ रहा है। मेज़बान बारी-बारी से पारम्परिक होली गायकों को न्योता देते हैं जो शास्त्रीय संगीत पर आधारित राग, काफ़ी और खमाज पर आधारित बन्दिशें सुनाते हैं। होलियार गायक एक-दूसर से होड़ लेते हैं अपने गायन और भाव भंगिमा से दर्शकों-श्रोताओं का मन मोह लेने की। हमारे लाल टीन की छत वाले मकान में यह अल्मोड़िया परम्परा जीवित थी। स्कूल से नन्दन कर्नाटक हैड मास्टर साहब, अस्पताल से कम्पाउडर साहब के बेटे बुद्धि बल्लभ तिवारी तबला, हारमोनियम के साथ महफ़िल जमाते थे। कभी नटखट भँवरे को नायिका-प्रेमिका के अगों का रस लेने से रोका-टोका जाता और प्यारी धमकी दे उड़ाया जाता—

उड़-उड़ भँवरा कुचन बीच बैठा, चल उड़ जा भँवर तो को मारेंगे!

या

भर पिचकारी उर बिच मारी, हो गई अंगिया तंग!

इन बोलों के साथ ही बैठक में हँसी की फुहारें और ‘क्या बात है’ की दाद। तब यह समझने की उम्र नहीं थी कि भँवरा क्यों अंग विशेष पर ही मँडरा रहा है। यह कोई ज़हरीली मधुमक्खी है या रक़ीब जो प्रेमी को ईर्ष्या-दग्ध कर रहा है। मगर कुछ ऐसा होता था माहौल में कि किशोरावस्था में प्रवेश के पहले ही इस सुरीली छेड़-छाड़ से शरीर उत्तेजित होने लगता था। महफ़िल को गर्म रखने के लिए बीच-बीच में आलू के गुटके, घर की बनी गुजिया और गर्मा-गरम गटपट चाय परोसी जाती थी। चाय में अदरक, काली मिर्च का पुट रहता था ताकि गाने वालों का गला तर रहे।

पहाड़ी होली में एक और रस्म थी, चीर मैय्या के पूजन की और होलिका दहन की। होली के पहले पूरे घर की सफ़ाई की जाती जिसे अंग्रेज़ी मुहावरे में ‘स्प्रिंग क्लिनींग’ का नाम दिया जाता है। घर का सारा कूड़ा-कचरा निकालकर सलीके से बाहर खुले  मैदान में रख दिया जाता जहाँ भक्त प्रह्लाद की दुष्ट बुआ होलिका की मूर्ति के साथ इसे होली के पहले दिन जला दिया जाता। यह हमारे यहाँ बहुत सूक्ष्म और प्रतीकात्मक रूप से ही होता था क्योंकि मुक्तेश्वर के वासी अलग-अलग बंगलों में या सरकारी क्वार्टरों में रहते थे और इंस्टिट्यूट का सेनिटरी विभाग नियमित रूप से कूड़े-कचरे का निपटान करता रहता था।

खड़ी होली का नशा खुमार पर आता था धुलैणी के दिन। यह शहरी, कस्बाती नहीं, देहाती ठाठ वाली होली थी। भंग की तरंग या कच्ची शराब के सुरूर में लापरवाह। पुरुष गले में गाँव वाले ढोलक बाँधे, झूमते-गाते टोलियों में पास-पड़ोस के गाँव में जाते थे। जो होली गाई जाती थी वह लोक धुनों वाली होती थी। जब किसी आँगन में थोड़ा ठहरती तो एक चिर परिचित ललकारनुमा मुबारकबाद का नारा बुलन्द होता—“आज को बसन्त यो कैको घरा? हो-हो होलक रे!” जवाब में मेज़बान का नाम लेकर उसे आशीर्वाद दिया जाता, जुग जुग जीने, फलने-फूलने का। देहाती होली में गीले रंग शामिल नहीं थे। अबीर, गुलाल का टीका या सफ़ेद कपड़ों पर रंगो के कुछ छीटे ही काफ़ी समझे जाते थे।

मुक्तेश्वर में खड़ी होली की टोलियाँ किश्तों में हमारे घर तक पहुँचती थीं—डॉक्टर साहब के यहाँ जो सबका इलाज करते थे, मीठा बोलते थे और छुआछूत नहीं मानते थे। हमें सबसे अजीब लगती थी भंगियों की टोली जिसमें छोटे-बड़े सभी किसी-न-किसी नशे में धुत, नंगई की नुमाइश करते नज़र आते थे। कुछ ऐसी तुकबन्दियाँ थीं जिनका अर्थ समझना कठिन था। “मेरी भैंस को डंडा क्यों मारा? ग़र भैंस का बच्चा मर जाता?” फिर पहुँचते डोटियाल अपनी ख़ास चाल-ढाल में एक-दूसरे के काँधे पर हाथ डाल क़दमताल मिलाते हुए, छोटा-सा घेरा बना मर्दाना घूमर नाच दिखलाते। रोज़मर्रा के पैबन्द वाले कपड़ों में ही वैसे ही मैले-कुचैले—होली के रंग उनकी सूरतें बदलने में नाकाम रहते। बारी-बारी से पहुँचते डेरी प्रयोगशाला पावर हाऊस में काम करने वाले। दूर से ही सुनाई दे जाती ढोल की थाप, हुड़दंग, गाली-गलौज—बुरा ना मानो होली है। यह दिन था मन की भड़ास निकालने का या हवस मिटाने का जो सालभर जाने कहाँ गला घोंटकर दबी-छिपी रहती थी। साली-जीजा और देवर-भाभी के बीच अश्लील मज़ाक़ के आदान-प्रदान खुल्लम-खुल्ला होते थे। जब कभी निःसन्तान मंजुला मौसी होली के दिन घर पर होती तो बेचारे चिर कुमार मोहन चा की जान पर बन आती। वह बचते-छिपते फिरते पर मौसी उन्हें घेर-घार कर पकड़ ही लेती और चिपटकर-रगड़कर होली खेलती। पहाड़ में औरतों की होली की एक ख़ास शैली थी स्वाँग वाली। जिसमें सूट-बूट-हैट धारण कर कोयले या काजल से मूँछ बना औरतें पुरुष वेश धारण करती थीं। बहुत बरस बाद यह बात समझ आ सकी कि पितृसत्तात्मक समाज में लिंग-भेदी अन्याय और अत्याचार के प्रति अपनी शिकायत दर्ज कराने का यह भी एक मासूम बेअसर तरीक़ा था।

तरुणाई में सविता देवी के कंठ से बनारसी होली और झूला सुनने का मौक़ा मिला। बचपन की होली की यादें अचानक बिजली की तरह मन में कौंध गई। एक गीत में सलोने श्याम को जबरन साड़ी पहनाकर नर से नारी बनाने की साज़िश रची जा रही है जो सिर्फ़ ‘फागुन के दिन चार’ का खिलवाड़ नहीं लगती। दमित-कुंठित समलैंगिकता और वर्जित यौन आकर्षण को भी इस दिन मुखर किया जा सकता था होली के बहाने। घूमते-फिरते रंग खेलते कितने बुजुर्ग या अधेड़ कमसिन चिकने साथी लड़कों को बारम्बार जबरन बाँहों में भरकर चूम लेते थे। प्रेम-पात्र भी हल्के मादक नशे में ना-नुकुर नहीं करता। यह सब भी एक पहेली-सा लगता था, उत्तेजक एक मीठी खुजली की तरह।

होली के दिन माँ, एकाएक बच्ची बन जाती थी और अल्मोड़े की अपने बचपन की बीहड़ होली को नया जीवन दे देतीं। पिता सकुचाते रहते। उनका लड़कपन और जवानी लखनऊ में बीते थे। उन्हें अवध की संयत शालीन होली श्री रामचन्द्र और सिया माता वाली अधिक रास आती थी। शाम को इस लखनवी होली मिलन का समारोह खुले मैदान में हर किसी के साथ इत्र, सूखे-सुवासित रंगों और छोटे टीके के साथ सम्पन्न होता। माँ, उन्हें उलहाना देती रहती, “क्या हो गया है तुम्हें पियु, तुम तो सिर्फ़ नाम के ही कृष्ण हो। क्या ऐसे खेलते थे कृष्ण राधा के साथ होली वृन्दावन में?” फिर धमकी वाले अन्दाज में चेतावनी देतीं, “अभी तो बची है बरसाने की लठमार होली।”

पिता के शरमाने-घबराने के वाजिब कारण थे, वह यक्ष्मा के मरीज़ रह चुके थे। जब यह रोग लाइलाज था, भरसक ठंडे पानी से बचने की कोशिश करते थे कि कहीं सर्दी-जुकाम बिगड़ ना जाए।

हम बच्चे बाहर प्यारेलाल मिस्त्री की बनाई टीन की पिचकारी से रंगीन पानी की लम्बी धार की मार से आगन्तुकों को भिगाने में लगे रहते थे जिन्हें इन सब से कोई ख़ास परेशानी नहीं होती थी। पीतल और किसी अन्य धातु की पिचकारियाँ मुक्तेश्वर तक नहीं पहुँचती थीं। बाल्टी में घोले जाने वाला रंग जब और कुछ हाथ ना लगे तो स्याही की टिकियाओं को घोल कर बनाया जाता था। कुछ टुष्ट होलियार जिससे खुन्दक हो उसके चेहरे पर गोबर, ग्रीन, सिल्वर पेंट या कालिख मलकर सुखी होते थे। ख़ुद इन खलनायकों के चेहरे ऐसे कालिख पुते होते कि नशे में फैली, पीली, बड़ी आँखों के सिवा कुछ नज़र नहीं आता। उनको पहचानना कठिन था। तब तक पानी भरे ग़ुब्बारे फेंकने का चलन शुरू नहीं हुआ था। धूल और गुलाल के बादल ही इधर-उधर छितराते थे। मुक्तेश्वर में अन्य पहाड़ी जगहों की तरह पानी का अभाव था और ज़्यादातर बसन्त के पहुँचने के बाद भी ठंड बनी रहती थी। इसलिए नहाने का पानी गरम करना, मलमल कर रंग छुड़ाना बड़े झंझट का काम था।

नहाने के बाद होली की थकान चढ़ने लगती थी। दिन का खाना कढ़ी-चावल ही होता था जिसे निपटाने के बाद पलकें नींद से झपकने लगती थीं। होली बीत जाती, बची रहती यादें। हाँ, माँ हमें शिक्षित सुसंस्कृत बनाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ती थीं। सो होली के बाद भी कई दिन तक मुग़ल राजपूत लघुचित्रों में ब्रज की होली, कथक का भाव अभिनय और संस्कृत नाटकों में मदनोत्सव के बहाने होली के रंग हमें बहलाते रहते।

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