रंग याद है : कोड़ों के प्रहार और पानी के छपाके

धुलेंडी के दिन लगभग ग्यारह बजे पूरे जाटव मोहल्ले की चहल-पहल और रौनक देखते ही बनती थी। एक-एक कर कुछ हुरियारिनें मुँह पर ढाठा लगा, हाथ में धोतियों या गमछे को बल देकर बनाये गये कोड़ों के साथ बीच मैदान में आ जातीं। इसी तरह उतने ही हुरियारे हाथों में खाली बाल्टी थामे पानी से लबालब भरी तामड़ियों के पास आ जाते। और जैसे ही संकेत मिलता होली शुरू हो जाती। हुरियारे तामड़ियों से बाल्टी भर-भर कर हुरियारिनों के मुँह पर छपाटे मारते और हुरियारिनें कोड़ों से उन पर प्रहार करतीं। जैसे-जैसे कोड़े भीगने लगते वैसे-वैसे उनकी मार तीखी होती जाती। होली का यह खेल तब तक चलता, जब तक पानी से भरी तामड़ियाँ खाली नहीं हो जातीं।

‘रंग याद है’ शृंखला की तीसरी कड़ी में राजकमल ब्लॉग पर पढ़ें, भगवानदास मोरवाल के बचपन की रंगयाद : “कोड़ों के प्रहार और पानी के छपाके

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जिन भारतीय पर्वों का हर नागरिक को सबसे अधिक इन्तज़ार रहता है, उनमें दीपावली और होली प्रमुख है। पर्वों के बारे में मेरा मानना है कि इनको मनाने का सबसे ज्यादा उल्लास, आनन्द और ख़ुशी अपने समाज और समुदाय के बीच ही होती है। अपने-अपने मूल निवासों से विस्थापित होने के बाद हम शहरों और महानगरों में आ तो जाते हैं किन्तु इन पर्वों का वह उत्साह और जोश नहीं रहता, जो अपने मूल निवास में होता है। अपने गाँव से दिल्ली शहर में आने के बाद कुछ सालों तक तो मैं इन पर्वों पर अपने गाँव जाता रहा लेकिन जैसे-जैसे गाँव छूटता गया, वैसे-वैसे ये पर्व भी छूटते चले गए। आज इनकी कुछ मटमैली स्मृतियाँ ही बची रह गई हैं। हालाँकि इन स्मृतियों को फिर से ताज़ा करने की गरज़ से कुछ साल पहले कई सालों तक मैं सपरिवार गाँव जाता रहा, विशेषकर होली के अवसर पर। एकाध बार दशहरे के अवसर भी गया परन्तु ये फिर से छूट गए।

होली से जुड़ी अनेक ऐसी स्मृतियाँ हैं, जिनकी आज जब-जब याद आती है तो मन रह-रह कर गाँव जाने को मचल उठता है। जैसाकि मेरा सम्बन्ध दक्षिण हरियाणा के उस मेवात से है जिस पर हरियाणा से अधिक प्रभाव ब्रज-संस्कृति का है। जब मेरे सामाजिक और सांस्कृतिक लोक-व्यवहार ब्रज से संचालित हैं, तो स्वाभाविक है मेवात में होली भी ब्रज में मनाई जाने वाली होली के अनुसार मनाई जाती है।

मुझे याद है बसन्त पंचमी के दिन हमारे गाँव के उत्तर में भोंदू के नोहरे के पास डांडा गाड़ दिया जाता था, और यह परम्परा आज तक चली आ रही है। डांडा दरअसल उसे कहते हैं जहाँ होलिका दहन होता है। धुलेंडी से एक दिन पूर्व, रात के लगभग आठ बजे हमारे सैनी मोहल्ले के युवा, अधेड़ और बुज़ुर्ग समूह में अपनी पंचायती टामक (बड़ा नगाड़ा) को बजाते हुए  होलिका दहन के लिए निकलते थे। इनके साथ गाँव के अन्य लोग भी शामिल हो जाते थे और फगुआ गाते हुए वहाँ पहुँचते थे।

जब होलिका दहन का समय होता था तो मैं देखता था कि मेरे पिता गेहूँ/जौ की अधपकी बालियों का गुच्छा बना कर ले जाते और उसे होलिका दहन की ऊँची उठती लपटों में भूनकर लाते। होलिका दहन या कभी-कभी धुलेंडी के दिन हमारे मोहल्ले में, हमारे गाँव से मात्र दो किलोमीटर दूर शुरू होनेवाले राजस्थान के एक गाँव लपाड़ा, जो काला पहाड़ (अरावली) की खोह में बसा हुआ है, एक व्यक्ति कच्ची शराब लेकर आता था। जिस रबड़ के बड़े ब्लेडर में वह अपनी बनाई दूसरे तोड़ की शराब लेकर आता था, उस ब्लेडर को वह चुपचाप हमारे गैत, जिसमें ईंधन के साथ तूड़े का ढेर लगा रहता था, उसमें लाकर दबा देता। दबाने के बाद वह सबसे पहले मेरे पिता को अपने आने की सूचना देता। इसके बाद वह पूरे मोहल्ले में एक चक्कर लगाता। उसे देखते ही लोग समझ जाते थे कि ‘माल’ आ गया है। मोहल्ले को सांकेतिक सूचना देने के बाद वह अपने ब्लेडर के पास आ जाता और इन्तज़ार करता अपने ग्राहकों का। जब तक वह अपने ब्लेडर को तूड़े से बाहर निकालता, तब तक अनेक खाली बोतल, अद्धा, पव्वा उसके पास पहुँच जाते। वह एक-एक कर ब्लेडर की लम्बी नली को खाली बोतल, अद्धा, पव्वा के मुँह में डालता और माल भरने के बाद उनसे पैसा लेता। इस तरह देखते-देखते उसके ब्लेडर का पेट खाली हो जाता। मुझे याद है उन दिनों दूसरे तोड़ की एक बोतल का रेट उसने दो रुपये रखा हुआ था।

हमारा घर खटीकों के मोहल्ले से सटा हुआ है। उसके बाद बाल्मिकियों और उनसे लगा जाटवों का मोहल्ला था। इसलिए धुलेंडी वाले दिन कोई न कोई खटीक पन्द्रह-सोलह किलो के हृष्ट-पुष्ट बकरे की गोट करता। गोट का मतलब होता कि पहले से इच्छुक हमारे मोहल्ले और जाटव मोहल्ले के लोगों से पूछ लिया जाता था कि उन्हें कितना मीट चाहिए। माँग के अनुसार ही बकरे का चयन होता कि लगभग कितने किलो का बकरा हलाल कराना है। हलाल, इस शब्द को सुनकर चौंकिए मत क्योंकि हमारे मेवात में हिन्दू खटीक खुद बकरे को नहीं काटते हैं, बल्कि उसे मुसलमान फकीर के हाथों हलाल करवाया जाता है। हाँ, हलाल के बाद पूरी प्रक्रिया को वे स्वयं पूरा करते हैं। इस परम्परा का पालन खटीकों में ही नहीं बल्कि उन हिन्दू परिवारों में भी किया जाता है, जिनके यहाँ अपने कुल देवी-देवताओं को बकरे की बलि चढ़ायी जाती है। यह परम्परा मेवात में ही नहीं बल्कि पूर्वी राजस्थान सहित पूरे ब्रज में प्रचलित है। इसका किसी धर्म या मज़हब से कोई वास्ता नहीं है। इसका संबंध आस्था से है। इस तरह जब होली खेलने के दौरान दूसरे तोड़ और देसी शराब के जाम छलक रहे होते, बीच-बीच में नमक, कटी हुई प्याज, ताज़ा हलाल बकरे की बोटियाँ और पकौड़े भी उनके साथ चल रहे होते।

मेरे पिता दिनभर मजदूरी करने के कारण बेहद थक जाया करते थे। इसलिए वे अक्सर देसी और होली के अवसर पर और कभी-कभार आनेवाली दूसरे तोड़ की शराब पिया करते थे। पिया क्या करते थे, शराब के लगभग आदी थे। मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता था। एक बार पता नहीं, मुझे क्या सूझा कि मैंने उस शराब लाने वाले से कहा कि यदि तूने यहाँ आकर यह कच्ची शराब बेचनी नहीं छोड़ी, तो मैं तेरी शिकायत पुलिस में कर दूँगा।

बहरहाल, दिल्ली आने के सालों बाद एक बार मैं जब गाँव गया तो बातों-बातों में मैंने अपने मोहल्ले के एक व्यक्ति से पूछा कि जो व्यक्ति होली पर शराब लेकर आता था, क्या वह अब भी आता है ? उसने जो उत्तर दिया मैं एक पल के लिए मानो विचलित-सा हो गया। उसने कहा कि तूने ही तो उसे धमकाया था कि अगर उसने यहाँ शराब लाकर बेचनी नहीं छोड़ी, तो मैं तेरी शिकायत पुलिस में कर दूँगा। उसके बाद उसने यहाँ आना छोड़ दिया।

मुझे पहली बार एक तरह की आत्मग्लानि-सी हुई कि एक तो मैंने किसी की आजीविका पर ठोकर मारी, दूसरा मेरे कारण होली की एक लोक-परम्परा समाप्त हो गई। उन्हीं दिनों मुझे अपने पिता की शराब पीने की आदत का एहसास हुआ कि जो व्यक्ति दिनभर मज़दूरी करेगा, अपनी शारीरिक थकान को दूर करने के लिए वह शराब नहीं पिएगा तो क्या करेगा ! बहुत लोगों को शायद भूमिहीन मज़दूरों द्वारा शराब पीने की आदत के मनोविज्ञान के बारे में नहीं पता। दरअसल, पूरे दिन की थकान के चलते व्यक्ति को आसानी से नींद नहीं आती है। इसीलिए अपनी थकान मिटाने के लिए वह शराब पीता है ताकि आसानी से नींद आ जाए, जो आगे जाकर उसकी आदत बन जाती है।

धुलेंडी की रात को हम किशोर एक शरारत और करते थे। वह यह कि बाज़ार में जो दुकानदार अपनी ऐंठ में रहते थे, उन्हें सबक सिखाने की गरज़ से उनकी बन्द दुकानों के दरवाज़े के बाहर ‘बिल्टी’ फोड़कर आते थे। अब आप सोचेंगे कि यह बिल्टी क्या बाला है। बिल्टी का मतलब होता था कि कुछ शरारती लड़के मिट्टी की घड़िया या मटके में किसी नाली से बदबूदार कीचड़ भरते और रात के अँधेरे में जिसे सबक सिखाया जाता, या जिसे तंग किया जाता, उसकी दुकान के बाहर फोड़ आते। बाज़ार के दुकानदारों को इसका इन्तज़ार रहता था कि इस बार किस-किसकी दुकान के सामने बिल्टी फोड़ी गयी है। इसी तरह उसी रात पूरे बाज़ार में जगह-जगह छोटे-छोटे पम्फलेट चिपकाए जाते और उनमें गाँव के मौजिज़ लोगों को मज़ेदार विशेषणों से सुशोभित किया जाता। जैसे किसी के नाम के आगे ‘जोरू का गुलाम’ लिखा होता, किसी के आगे ‘रंडुओं का सरदार’ लिखा होता, तो किसी के नाम के आगे कुछ और। इस पोस्टर का भी लोगों को बेसब्री से इन्तज़ार रहता कि इस बार किसको किस विशेषण से नवाज़ा गया है। जो छूट जाते वे मन मसोस कर रह जाते। इन सब कारिस्तानियों को राजेन्द्र जैन उर्फ़ टूंगा के नेतृत्व में अंजाम दिया जाता।

तो इस तरह धुलेंडी वाले दिन दस बजते-बजते कहीं से रेडियो पर बजते ‘कटी पतंग’ के मशहूर गीत ‘आज न छोड़ेंगे बस हमजोली, खेलेंगे हम होली...चाहे भीगे तेरी चुनरिया, चाहे भीगे रे चोली खेलेंगे हम होली’, तो कहीं से ‘मदर इंडिया’ के चर्चित गीत ‘होली आई रे कन्हाई रंग छलके सुना दे ज़रा बाँसरी’ या फिर बाद में फ़िल्म ‘शोले’ के गाने ‘होली के दिन दिल खिल जाते हैं रंगों में रंग मिल जाते हैं’ के बीच शराब के अद्धे, बोतल और पव्वा खुल जाते। इस तरह चाय के कपों और गिलासों में इनके मुँह से गिरती नाज़ुक पतली धार के नाद के साथ ये हलक से नीचे उतरने लगते। हम जैसे छोटे-छोटे किशोर और युवा पहले रंग-गुलाल और पिचकारियों से एक-दूसरे के साथ होली खेलने की शुरुआत करते, लेकिन जिस लोकप्रिय और प्रचलित तरीके का इन्तज़ार रहता, उसकी शुरुआत कौन करता उसका पता ही नहीं चलता। और यह तरीका था आसपास की बहती कच्ची नालियों में भरी कीचड़ से होली खेलना। बस फिर क्या, एक-दूसरे के साथ कीचड़ से जो होली खेली जाती, उसका फायदा यह होता कि पूरे मोहल्ले की नालियाँ दोपहर तक एकदम सफाचट हो जातीं।

हमारे मोहल्ले से कुछ दूर जाटवों के मोहल्ले की वह होली आज भी स्मृतियों में बसी हुई है, जिसे देखने के लिए दूसरे मोहल्ले के मेव पुरुष-स्त्रियों की जाटवों की चौपाल के आसपास भीड़ लग जाती थी। यह होली उस मोहल्ले के हुरियारों और हुरियारिनों अर्थात देवर-भाभियों के बीच खेली जाती थी। इसकी तैयारी एक दिन पहले शुरू हो जाती। इन तैयारियों में सबसे पहले कुछ बाल्टियों तथा उस मोहल्ले और अन्य मोहल्ले की पंचायती पीतल की बड़ी-बड़ी तामड़ियों, जिनका उपयोग उन दिनों शादी-विवाह और दूसरे बड़े समारोहों में पानी भरने के लिए होता था, का इन्तजाम किया जाता। इन तामड़ियों में भरे पानी का इस्तेमाल खाना बनाने से लेकर बारातियों और दूसरे अतिथियों के जीमने के दौरान पीने के लिए होता था। जब इनकी व्यवस्था ही जाती तब उन्हें पानी से लबालब भर दिया जाता। इसके बाद मोहल्ले से उन हुरियारिनों अर्थात नई और प्रौढ़ भाभियों को चिह्नित किया जाता, जो इसमें भाग लेने की इच्छुक होतीं। इसमें इस बात का विशेष  ध्यान रखा जाता था कि इसमें शामिल होने वाली हुरियारिनें हट्टी-कट्टी यानी चपल-चंचल होने के साथ ताक़तवर भी होनी चाहिए। इसी तरह मोहल्ले के कुछ गबरू किस्म के हुरियारों को चिह्नित किया जाता, जो इन हुरियारिनों का सामना कर सकें।

धुलेंडी के दिन लगभग ग्यारह बजे पूरे जाटव मोहल्ले की चहल-पहल और रौनक देखते ही बनती थी। एक-एक कर कुछ हुरियारिनें मुँह पर ढाठा लगा, हाथ में धोतियों या गमछे को बल देकर बनाये गये कोड़ों के साथ बीच मैदान में आ जातीं। इसी तरह उतने ही हुरियारे हाथों में खाली बाल्टी थामे पानी से लबालब भरी तामड़ियों के पास आ जाते। और जैसे ही संकेत मिलता होली शुरू हो जाती। हुरियारे तामड़ियों से बाल्टी भर-भर कर हुरियारिनों के मुँह पर छपाटे मारते और हुरियारिनें कोड़ों से उन पर प्रहार करतीं। जैसे-जैसे कोड़े भीगने लगते वैसे-वैसे उनकी मार तीखी होती जाती। होली का यह खेल तब तक चलता, जब तक पानी से भरी तामड़ियाँ खाली नहीं हो जातीं। इस खेल का सबसे दिलचस्प पहलू यह होता कि देखने वालों को यह पता ही नहीं चलता कि इन हुरियारिनों में कौन किसकी बहू है। जब-जब किसी ताक़तवर हुरियारिन का कोड़ा बाल्टी में भरे पानी के तेज़ वार से बचते हुए सामने वाले हुरियारे के बदन पर पड़ता, दर्शकों की भीड़ किलक उठती। जब यह खेल खत्म होता और खाली तामड़ियाँ रह जातीं तो बीच मोहल्ले में दूर तक फैले पानी को देख लगता मानो अभी-अभी कोई पानी युद्ध समाप्त हुआ है।

ब्रज की तरह हमारे मेवात में एक रिवाज़ है कि जो-जो देवर अपनी कथित-कथाकथित अर्थात सगी और रिश्ते में लगने वाली भाभियों के साथ दिन में होली खेलते थे, शाम को अपनी-अपनी क्षमतानुसार उन्हें गुन्जियाँ देकर आते। धुलेंडी वाले दिन जो पकवान बनाए जाते उनमें चावल का पुलाव, पकौड़े, उबले हुए चावल जिन्हें घी-बूरे के साथ खाया जाता है, बनते। होली खेलने से पहले मेरे पिताजी उबले हुए चावल और घी-बूरे के साथ सात थालियाँ भरते थे। इन सात थालियों के भरने के पीछे क्या कारण है, मैंने कभी जानने की कोशिश नहीं की। हाँ, इस परम्परा का दिल्ली आने के बाद आज भी मेरे घर में पालन होता है। जहाँ पहले इन्हें मेरे पिताजी भरते थे, अब मैं भरता हूँ।

मुझे याद है एक बार मैंने मज़े-मज़े में धुलेंडी के दिन भाँग के पकौड़े खा लिए थे। कहते हैं कि भाँग के पकोड़े खाने अथवा लस्सी पीने वाला व्यक्ति तरह-तरह की हरकतें करता है। मैंने सुना हुआ था कि इनके सेवन करने के बाद यदि व्यक्ति हँसना शुरू कर दे तो हँसता रहता है। रोना शुरू कर दे तो रोता रहता है। इसी धारणा की पुष्टि के लिए उस बार मैंने भाँग के पकौड़े खा लिए थे। अब आप पूछेंगे कि क्या मेरे साथ भी ऐसा हुआ था, तो मित्रों बिलकुल हुआ था। जिस चारपाई पर मैं लेटा हुआ था, वह आसमान में किस तरह उड़ती रही, उसे मैं ही जानता हूँ।

इसी तरह एक घटना बड़ी मजेदार है जिसे मैं आजतक नहीं भुला पाया हूँ।

हुआ दरअसल यह कि मेरे गाँव के गलियों से होकर हुरियारों की टोली गुलाल और रंग-अबीब बरसाती हुई ढोल-ताशों के साथ जैसे ही मुख्य चौक गोहरवाली में पहुँची, मेरे मन में न जाने क्या आया कि ढोल-ताशे की धुन के साथ एक तरफ खड़ा होकर हाथ के दोनों अँगूठों को नचाने लगा। मेरी इस क्रिया को देख कुछ देर बाद मेरे आसपास खड़े हुरियारे आपस में कह रहे थे कि यार देख, भगवानदास ने तो ठोक कर पी हुई है! यह सुनकर मुझे लगा इस अवसर का मुझे भरपूर लाभ उठाना चाहिए। और जब तक होली खेलती टोली सब्जी मंडी के सामने लगे अस्थायी मंच के सामने नहीं पहुँच गई, मेरे दोनों हाथों के अँगूठे नृत्य करते रहे। इस बीच उस जुलूस में सभी को यह विश्वास हो गया कि सचमुच मैंने ठोक कर पी हुई है। क्योंकि मेरी मुद्रा और भाव-भंगिमा में कोई फर्क नहीं आया। अब मैंने यह पंगा मोल तो ले लिया लेकिन मुझे लोगों की धारणा टूटने का डर सताने लगा कि यदि मैं सामान्य अवस्था में लौटता हूँ तो मेरी बड़ी किरकिरी होगी। क्योंकि लोगों को यह पता चल जाएगा कि मैं बिना नशा किये यह नाटक कर रहा था। जैसा मैं अभिनय कर रहा था, वैसा आदमी नशे में ही कर सकता था। इस बीच इसकी सूचना मेरे घर तक पहुँच गई। बहुत लोगों को यह देखकर हैरानी हुई कि जो लड़का इन व्यसनों से कोसों दूर है, उसने यह शौक कब से पाल लिया!

बहरहाल, मैं जान-बूझ कर नशे की हालत बना कर घर की और लौट पड़ा। जब-जब मैं किसी खाली गली से गुजरता तो मैं एकदम सामान्य हो जाता और जैसे ही कोई दिखाई देता मैं पुनः लड़खड़ाने की मुद्रा अपना लेता। चूँकि मेरे घर इसकी सूचना पहुँच चुकी थी, तो मैं चुपचाप अपने घर के बाहर बने छप्पर में बिछी चारपाई पर आकर लेट गया।

थोड़ी देर बाद जैसे ही मेरी माँ को पता चला वह मेरे पास आई और मेरे सिरहाने बैठ मेरे बालों में अपनी अँगुलियों को सरसराते हुए चिन्तित स्वर में बोली, ‘ऐ रे भगमान, भैया तैने कब ते सराब पीनी सुरू कर दी ?’ मेरी माँ मुझे भगवान की जगह भगमान ही कहकर बुलाती थी।

पहले तो मैं एक पारंगत शराबी की तरह हाँ-हूँ करता रहा। मगर जब देखा कि एक ऐसा बेटा जिसने कभी शराब तो दूर की बात रही, कभी बीड़ी-सिगरेट को छुआ तक नहीं, वह शराब के नशे में अपनी माँ के सामने पड़ा है, मैं सामान्य स्थिति में आ गया। मैं सोचने लगा कि वह यह सोचकर बेचैन हो रही होगी कि बाप क्या कम था, जो अच्छा-भला बेटा भी शराबी हो गया। माँ की बेचारगी मुझसे देखी नहीं गयी और अपने सिर को उसकी गोद में रखते हुए बोला,’जीजी, यह सब डिरामा था। भला मैं शराब पी सकता हूँ ?’

माँ ने पहले एक आश्वस्ति भरी साँस ली और मुझे सुनाते हुए बोली, ‘जभी तो मैं कहूँ कि मेरो ललमुँहा ऐसो करी ना सके।’ माँ मुझे लाड़ से कभी-कभी ललमुँहा भी कहती थी।

सच कहूँ, अब तो होली-दिवाली वाले खेल-तमाशे परम्पराओं के नाम पर केवल औपचारिकताओं में सिमट कर रह गए हैं। शहरों में आने के बाद हम अपने आपको ही तेज़ी से भूलते जा रहे हैं। ब्रज की एक और परम्परा गोवर्धन पूजा भी अब सांकेतिक हो गई है वरना शाम होते ही चहुँओर से जब ‘बोल गोबरधन महाराज की जय’ और ‘बोल पूछड़ी के लोठा की जय’ के उद्घोष हवा में गूँजते, तो उस अलौकिक दृश्य की छटा ही कुछ और होती। कई बार सोचता हूँ की काश राजस्थान की सीमा में काला पहाड़ (अरावली) की खोह में बसे लपाड़ा का वह व्यक्ति कच्ची शराब लेकर फिर से आने लगे। जाटव मोहल्ले में बड़ी-बड़ी तामड़ियाँ फिर से भरी जाने लगें। लेकिन अस्सी के दशक में शुरू हुए पलायन ने बहुत सी हमारी ग्रामीण संस्कृति को एक तरह से छीज दिया। पूरे के पूरे आज खाली और उदास हैं। अब तो सिर्फ़ और सिर्फ़ ऐसे दृश्य हमारी स्मृतियों में अटक कर रह गये हैं, जो गाहे-बगाहे ऐसे अवसरों पर ताज़ा हो उठती हैं।

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