‘रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में राजकमल ब्लॉग पर पढ़ें, त्रिलोकनाथ पांडेय की रंगयाद : “भौजाइयों संग होली की याद”
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भौजाइयों बिना होली बेकार है। अब मुझ बूढ़े को भौजाइयाँ मुश्किल से नसीब होती हैं। यादें रह गई हैं।
जब मैं बहुत छोटा था तो गाँव में मेरी दो खास भौजाइयाँ थीं, जो बड़ी सरहँग थीं। मेरे बड़का बाऊजी के चार बेटे थे—दो मुझसे बड़े और दो छोटे। दो बड़े भाइयों की बीवियाँ थीं वे भौजाइयाँ। मैं अपने माँ-बाप का अकेला बेटा था—थोड़ा दुलरुआ भी था। वे दोनों भौजाइयाँ मुझसे खासतौर से होली खेलती थीं। खासतौर पर इसलिए कि होली खेलते-खेलते वे मेरा जाँघिया खींचकर नंगा कर देती थीं। मैं उन्हें मारने दौड़ता था, वे हँसते हुए आँगन में गोल-गोल भागती थीं। मैं बच्चा ही था। मुझे छकाने में उन्हें मजा आता था।
छोटकी भौजी खासा सुन्दर थी—लम्बा छरहरा बदन, पतली कमर, उन्नत उरोज, कजरारी बड़ी-बड़ी आँखें और गोरा-चम्पई रंग। मेरा किशोर मन उन पर लहालोट हो जाता था, यद्यपि दिल गीता के पास गिरवी था। छोटकी भौजी जब गाती थी तो मेरे पेट में हुदबुदी उठने लगती थी, खासकर होली के नजदीक के दिनों में जब रात को आँगन में पड़ोसिन महिलाओं के जुटान में गाकर ठुमकती थीं। उनके एक होली गीत की एक लाइन मेरे दिमाग पर चढ़ गई थी और अभी भी याद है—
पातर मोर करियहियाँ लहंगवा भुईयां दरेर
कुछ वर्षों बाद ऐसे मौके पर जब छोटकी भौजी और गीता साथ-साथ गाते हुए सहनृत्य करती थीं तो घर में समाँ बँध जाता था। उनके सहगान का एक गीत मुझे अब भी याद है—
गौरा कै घलबै दूसर बियाह नयन रतनारे
कहाँ पइबा बाबा अलसा-से कलसा
कहाँ पइबा बाबा हरियर बाँस
कोंहरा घरे पाइब गौरा अलसा-से कलसा
गौरा कोठिया में हरियर बाँस
कहाँ पइबा भोले बाबा चुनरी और पीयरी
बाबा कहाँ पइबा कन्या कुँआरी
बिसातिया घरे पाइब गौरा चुनरी और पीयरी
गौरा राजा घरे पाइब कन्या कुँआरी...
बाद के भी वर्षों में होली के मौके पर गाँव जाता रहा और मुख्य आकर्षण वही छोटकी भौजी रही। यह सिलसिला छोटकी भौजी के स्वर्गवासी होने से अब बन्द हो गया है। लेकिन, छोटकी भौजी की याद मन में अब भी तरोताजा रहती है, खासकर होली के दिनों में।
दिल्ली-प्रवास में एक दूसरी भौजी मिलीं, जो मस्ती से भरपूर थीं। उन्हें मैं और गीता आपस में ‘गोटइलकी’ कोड नाम से पुकारते थे। भौजी सचमुच की गोटाइल, मांसल जवानी वाली थीं। वह थोड़ा साँवर थीं, पर कटीले नैन-नक्श वाली। वह अपने पति की दूसरी पत्नी थीं, जो एक सरकारी दफ्तर में बड़े पद से रिटायर ही होने वाले थे। वे हमारे पड़ोसी थे—दो-तीन घर छोड़कर। गोटइलकी भौजी मुझे दरोगा जी कहकर चिढ़ातीं थीं और अक्सर मुझे कहीं जाते हुए देखकर अपनी ड्रॉइंग रूम की खिड़की से चुहुल करती थीं—दरोगा जी, कहाँ... (जा रहे हो)?
कॉलोनी के उस ब्लॉक में वे लोग बहुत पहले से रहते थे। हम बाद में वहाँ रहने गए थे। भौजी ने गीता से बहुत जल्दी बहनापा गाँठ लिया था। भौजी के पति काफी सीनियर होने के साथ-साथ बुजुर्गियत की सीमा में पहले ही प्रवेश कर चुके थे। हम और गीता, भौजी के बारे में आपस में बतिया कर रस लेते थे।
मौका-मुहूर्त देखकर भौजी चुहल की सीमा कभी-कभी पार करने लगती थीं, खासकर होली के दिन। एक बार होली के दिन वह कुछ ज्यादा ही रसियाई हुईं थीं। हम सीमा के पार पहुँचने ही वाले थे कि मैं भाग खड़ा हुआ। भौजी जान गईं कि मैं डरपोक और दब्बू हूँ।
बाद में भौजी अपने नवनिर्मित निजी मकान में चली गईं, लेकिन फोन पर गीता के सम्पर्क में रहती थीं, मुझसे भी बात करती थीं। बीच-बीच मे कई बार कॉलोनी के उस मकान मे पति-संग पधारती भी रहती थीं। अतिथि की गरिमा और पवित्रता के साथ हम लोग उनका स्वागत-सत्कार करते थे। ये मुलाकातें समय के साथ कम होती गईं। फोन पर बातों की आवृत्ति भी काफी घट गई और धीरे-धीरे सम्पर्क टूट गया। हमलोग बनारस आ गए तो सम्पर्क एकदम ही समाप्त हो गया।
बनारस में एक भौजी हैं—मशक्कली। मशक्कली उनका असली नाम नहीं, बल्कि कोड नाम है, जिसे मैं और गीता अपनी निजी वार्ता में बस प्रयोग करते हैं। यह नाम उनको हम लोगों ने उनकी मस्तानी चाल और खिलखिलाहट-भरी हँसी की वजह से दिया है। लेकिन, यह भौजी अब बुढ़ियाय गई हैं, यद्यपि अभी भी मुझे खिलखिलाते हुए ही छेड़ती हैं।
होली आने पर भौजाइयों की याद अपने-आप आ जाती है। भौजाइयों बिना होली का क्या मजा!
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