"टोले के कुछ विशेष घरों में फाग-गायन के वक़्त अब्बा मुझे अपने साथ लेकर जाया करते थे। मुझे यह बात अजीब लगती थी कि हमें अलग किसी ऊँचे स्थान पर बैठाया जाता था और हम पर रंग नहीं डाला जाता था। बाद में समझ में आया कि हमारे देश का सामान्य से सामान्य आदमी भी कितना समझदार है कि दूसरों की आस्थाओं का पूरा ध्यान रखता है। लेकिन रंग के मामले में इस प्रकार का भेदभाव मुझे जँचता नहीं था।"
‘रंग याद है’ शृंखला की पहली कड़ी में राजकमल ब्लॉग पर पढ़ें, ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास से ख्यात कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह के बचपन की रंगयाद : “रंग में भंग और फिर रंग”
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होली जब-जब आती है, बचपन की होली याद आ जाती है।
मेरा बचपन मध्यप्रदेश में गुज़रा। नर्मदा के तट पर बसे, डिंडोरी (उन दिनों मंडला) ज़िले के एक गाँव में। पूरा इलाक़ा जंगलों-पहाड़ों से घिरा हुआ था। छोटी-छोटी पहाड़ी, नदियाँ और चारों ओर हर्रा, बहेरा, साजा, तेन्दू, पलाश, सेमल आदि के वृक्ष थे। फागुन आते ही पलाश और सेमल के वृक्ष लाल-लाल फूलों से लद जाते थे। फगुनहट बहने लगती थी। ऐसे में होली आ जाती थी।
होली का पर्व दो दिनों का होता था। होलिका-दहन की रात और रंग का दिन। दस-बारह दिन पहले ही ‘होलिका’ बनाने की तैयारी शुरू हो जाती थी। गाँव बहुत बड़ा था। नौ टोले थे। हर टोले की अलग होली होती थी। हमारे टोले में, आबादी से बाहर एक ऊँचे टीले पर होलिका स्थापित की जाती थी। वहाँ लकड़ी का एक लम्ब-सा कुंदा गाड़ा जाता था और उसके चारों तरफ़ छोटी-बड़ी लकड़ियाँ आड़े-तिरछे करके टिकाई जाती थीं। जंगल में लकड़ियों की कमी नहीं थी, मगर हम बच्चों को भला कहाँ से सन्तोष? होलिका-दहन वाली रात शरारत सूझती। शरारत ऐसी कि लकड़ी से बनी तमाम उपयोगी वस्तुएँ होलिका में डाल दी जाएँ। और हम अपने अभियान पर निकल पड़ते।
आदिवासियों का इलाक़ा था। होलिका-दहन का कोई मुहूर्त पता होता था या नहीं, दहन का कार्यक्रम आधी रात के बाद ही होता था, जब सारे लोग सो जाते थे। हम भी खा-पीकर टीले की तरफ़ निकलते थे और वहीं पूरी योजना तैयार होती थी, जिसके कर्ताधर्ता बड़ी उम्र के लड़के होते थे। वे हमें सिखाते थे कि कहाँ-कहाँ से कौन-कौन सी चीज़ें चुरानी हैं और उन्हें लाकर होलिका में डालना है। हमारी नज़र सबसे पहले चारपाइयों पर होती। लोगों के घर छोटे थे, इसलिए चारपाइयाँ प्राय: बाहर पड़ी होती थीं। गर्मियों में लोग बाहर सोते थे। होली पर जाड़ा रहता था, इसलिए पूरा परिवार घर के भीतर ही ज़मीन पर सो रहता। हालाँकि लोग इतने सतर्क होते थे कि होली के मौक़े पर किसी न किसी तरह चारपाइयाँ अन्दर रख लेते थे। फिर भी एकाध चारपाई तो हमारे हाथ लग ही जाती थी और उसे हम होलिका देवी को समर्पित कर देते थे। इसके अलावा आसपास के किसी खेत में हल पड़ा हुआ मिल जाता था। वह भी होलिका की भेंट चढ़ जाता था।
चूँकि देर रात तक हम सबको भूख भी लग जाती थी, इसलिए हमारी नज़र खेत की फ़सलों पर भी होती थी। गेहूँ पककर तैयार हो जाता था। हम उसकी बालियाँ उखाड़ लाते थे और होलिका-दहन के वक़्त उन्हें भून कर खाया करते थे।
एक बार क्या हुआ कि होलिका-दहन वाली रात में हमारा ध्यान पास के मटर वाले खेत की ओर पहुँच गया और हम चार-पाँच बच्चे मटर उखाड़ने के लिए चल पड़े। होलिका वाले टीले और मटर के खेत के बीच एक छोटी-सी पहाड़ी नदी थी। हमने उसे पार किया और खेत में जा घुसे। हमें नहीं पता था कि खेत का मालिक खेत में ही एक किनारे मड़ई में रहकर खेत की रखवाली करता है और जंगली सुअरों से फ़सल की रक्षा के लिए अपने साथ बन्दूक रखता है। हमने जैसे फलियों से लदे मटर के पौधे उखाड़ने शुरू किए, आवाज़ सुनकर उसने हमारी तरफ़ गोली दाग दी। गोली की आवाज़ सुनते ही हम सर पर पैर रखकर भागे। गिरते-पड़ते किसी तरह नदी पार की और टीले पर चढ़ते-चढ़ते बेदम हो गए। ग़नीमत यही रही कि गोली किसी को लगी नहीं। फिर भी रंग में भंग तो हो ही गया। हमें चोरी की शिक्षा देनेवाले लड़के ज़्यादा परेशान थे, मगर यह देखकर कि कोई अनहोनी नहीं हुई, वे अचानक ख़ुश हो गए। फिर क्या था! होलिका को आग लगा दी गई और सब मिलकर फाग गाने लगे। फाग के शब्द तो नहीं; मगर उनकी धुनें आज भी, होली आने पर मेरे कानों से टकराने लगती हैं।
होलिका-दहन के बाद वाला दिन—रंग-गुलाल का। सुबह से ही हुड़दंग मच जाता। मैं बहुत छोटा था— लगभग नौ-दस बरस का; इसलिए उस हुड़दंग में शामिल नहीं हो पाता था। हाँ, वहाँ एक रस्म और थी। लड़कियाँ और स्त्रियाँ किसी का गमछा, किसी की पगड़ी या किसी की टोपी छीन लेतीं और फिर ‘नेग’ मिलने के बाद ही वापस करतीं। यही इकन्नी-दुअन्नी का नेग! लेकिन मेरे पास क्या था जिसे कोई लड़की छीनती? आज़ादी के बाद का पहला दशक था, शायद इसीलिए गांधी टोपी का ख़ूब प्रचलन था। काफ़ी लोग लगाते थे। स्कूली लड़कों के लिए तो लगभग अनिवार्य-सा था। मैं भी लगाया था। मगर केवल स्कूल में। गाँव या टोले में लगाना अच्छा नहीं लगता था। इसलिए छीनने को कुछ होता ही नहीं था और मुझे बड़ी कोफ़्त होती थी। अत: होली से पहले वाले रविवार को मैंने डिंडोरी में लगनेवाले बाज़ार से रेशमी-से कपड़ों का एक टुकड़ा ज़बर्दस्ती, ज़िद करके ख़रिदवा लिया। अगले दिन मैं उसी कपड़े को अपने गले में डालकर बड़ी शान के साथ बाहर निकला और हुड़दंगी लड़के-लड़कियों के बीच घूमने लगा। मगर आश्चर्य! मेरी ओर कोई लड़की ध्यान ही नहीं दे रही थी। नतीजा यह हुआ कि मैं रुआँसा हो गया। मेरी आँखें डबडबा आईं। मैं निराश मन से घर की तरफ़ लौटने लगा। तभी अचानक से एक लड़की मेरे पास आई और मेरे गले से वह कपड़ा छीन कर ले भागी। वाह! क्या कहने! मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं। मैं दौड़ता हुआ अम्माँ के पास पहुँचा और उनसे मैंने चवन्नी माँगी। ‘नेग’ देने के लिए। कपड़े का वह टुकड़ा शायद आठ-दस आने का था। उसके लिए चवन्नी का नेग! अम्माँ इकन्नी दे रही थीं, मगर मैं चवन्नी पर अड़ा रहा। मामला कपड़े का नहीं, भावना का था— यह मैंने बाद में समझा। वह लड़की तो बग़ैर चवन्नी लिए ही कपड़ा देने लगी...
उसके लिए वह ‘नेग’ शायद बहुत ज़्यादा और अविश्वसनीय-सा था! होली की वह मात्र दिल्लगी नहीं थी, एक पवित्र भावना थी।
दोपहर बाद फाग गाने वालों की टोली बाहर निकलती। अपने वाद्य-यंत्रों के साथ वे लोग घर-घर जाते और आँगन में बैठकर ख़ूब फाग गाते। गृह-स्वामी लोटे में रंग भरकर उनके ऊपर अत्यन्त सम्मानजनक ढंग से उसे छिड़कता। हमारे आँगन में भी फाग गाया जाता था। फाग गानेवालों पर मेरी अम्माँ रंग छिड़कतीं। वे उस गाँव की बेटी जो थीं। अब्बा रंग से दूर रहा करते थे। मुझे भी दूर रखा जाता था।
टोले के कुछ विशेष घरों में फाग-गायन के वक़्त अब्बा मुझे अपने साथ लेकर जाया करते थे। मुझे यह बात अजीब लगती थी कि हमें अलग किसी ऊँचे स्थान पर बैठाया जाता था और हम पर रंग नहीं डाला जाता था। बाद में समझ में आया कि हमारे देश का सामान्य से सामान्य आदमी भी कितना समझदार है कि दूसरों की आस्थाओं का पूरा ध्यान रखता है। लेकिन रंग के मामले में इस प्रकार का भेदभाव मुझे जँचता नहीं था। हमारे टोले में एक गोंड़ परिवार बहुत समृद्ध और सम्मानित था। वहाँ तो हम ज़रूर ही जाते थे। उस परिवार के एक लड़के से मेरी दोस्ती-जैसी थी, यद्यपि उम्र में वह मुझसे बड़ा था। अबकी होली पर मैंने उनसे अकेले में बात की और कहा कि हम जब तुम्हारे घर आएँ तो अपने पिताजी से कहकर मेरे ऊपर भी रंग डलवा देना। वह डर गया। बोला, मुंशी जी नाराज़ हो जाएँगे। (गाँव में एकमात्र पढ़ा-लिखा बुज़ुर्ग होने की वजह से मेरे अब्बा को सब मुंशी जी कहा करते थे।) मैंने कहा, मैं उनसे बात कर लूँगा।
ख़ैर, हम गए और हमें एक चबूतरे पर अलग बैठा दिया गया। फाग गानेवाले आए। भाँति-भाँति के फाग गाए गए। फिर रंग डालने का कार्यक्रम शुरू हुआ। उस लड़के ने इशारों-इशारों में मुझसे कुछ पूछा और मेरी आँखों के पता नहीं किस भाव से उसने समझ लिया कि मुझे रंग डलवाने की अनुमति मिल गई है, हालाँकि मैंने अपने पिताजी से कोई बात नहीं की थी। उस लड़के ने अपने पिता से कुछ कहा और वे रंग वाला लोटा नीचे ज़मीन पर रखकर अब्बा के सामने आकर खड़े हो गए। बोले, मुंशीजी! अगर आपकी अनुमति हो तो लड़के पर रंग डाल दें। अब्बा ने मुझे घूर कर देखा। मैं डरा। अब्बा मुस्कराए। बोले, नीचे जाओ। फिर गृह-स्वामी से कहा, डाल दो रंग।
मैं अब क्या था! कूदकर आँगन में चला गया और मुझे रंग से नहला दिया गया। मैंने गृहस्वामी से रंग का लोटा ले लिया और मैं भी सभी फाग गानेवालों पर रंग डालने लगा। स्त्रियों-पुरुषों की खिलखिलाहट से पूरा वातावरण गूँज उठा।
फिर तो मैं हर होली पर पिचकारी की ज़िद करने लगा...मगर दो-तीन साल बाद ही सब कुछ बदल गया। मेरी माँ का निधन हो गया और हम इलाहाबाद ज़िले के अपने पैतृक गाँव में आ गए। बचपन की वह होली वहीं छूट गई।
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‘रंग याद है’ शृंखला की अगली कड़ी में पढ़ें, मृणाल पाण्डे के बचपन की रंगयाद : “होलियाँ जो खेलीं, न खेलीं”