मंगलेश डबराल की जयंती पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उनके नवीनतम कविता संग्रह ‘पानी का पत्थर’ से कुछ कविताएँ। यह संग्रह उनके जाने के बाद संकलित किया गया है। जो कविताएँ इसमें शामिल हैं उनमें कई कविताएँ ऐसी हैं जिन पर वे अभी काम कर रहे थे, और कुछ शायद ऐसी जो पहली कौंध में अभी उतारना शुरू ही हुई थीं, जिन्हें वे अभी और विस्तार देते, लेकिन अपने मौजूदा स्वरूप में भी उन्हें सम्पूर्ण कहा जा सकता है।
कविता संग्रह - पानी का पत्थर
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पानी और घास
घास रात में बढ़ती है जब आसपास निर्जन होता है
रात में देखना सम्भव होता तो उसे बढ़ते हुए देखा जा सकता है
दिन में कोई उसे बढ़ते हुए नहीं देख सकता
सुबह लोग उठते हैं और देखते हैं
वह कुछ और लम्बी हो गई है
कल जहाँ बंजर था वहाँ भी कुछ उग आई है
रात का उन्मुक्त पानी घास के बीच बहता रहता है
उसकी आवाज़ में रात थरथराती रहती है
और हवा में एक धीमी आदिवासी गंध तैरती है
घास के लिए पानी जितना तरल हो अच्छा है
पानी को घास की हरी मांसलता बहुत प्रिय है
रात उनका स्थायी पता है
पानी और घास एक शाश्वत प्रेमकथा के पात्र हैं।
[पृ.सं. 14]
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घर का पत्थर
यह पत्थर मनुष्यों के घर बनाता है
इसे आप बेघर मत समझिए जो यों ही लावारिस पड़ा रहता हो
बर्फ़ बारिश और धूप की मारें झेलता हुआ
इसका भी एक घर है
ठीक वहाँ जहाँ यह मनुष्यों के लिए घर बनाता है।
[पृ.सं. 18]
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ईश्वर
ईश्वर हमेशा हमसे ऊपर रहता है
हम आसमान की ओर इशारा करते हुए कहते हैं
सब कुछ उसकी कृपा से चल रहा है
या वह सबकुछ देख रहा है
लेकिन हम जानते हैं वह हमसे नाराज़ रहता है
हम उसे खुश रखने की कोशिश करते हैं
तब भी उसके क्रुद्ध रूप दिखते रहते हैं बादलों के बीच
तीखी हवा में जंगल जाने वाले रास्तों पर या रात में तारों के बीच
वह चाहता है हम बार-बार उसे धूप-दीप-नैवेद्य दें
साल में दो-चार बार बकरों की बलि दें
हम अभ्यर्थना करते हैं
ईश्वर हमें धन-धान्य दो योग्य संतति दो बलिष्ठ बैल दो
जो खेतों में देर तक हल चला सकें
हमारे घरों को मजबूती दो जिन्हें बार-बार छवाना न पड़े
मौसमों का सुखद चक्र दो
तेज़ घाम के बाद वर्षा बर्फ़ के बाद खिली हुई धूप दो
रात में आसमान में तारों की चमकती हुई छत दो
लेकिन ईश्वर हमें देता है अक्सर अवर्षण अक्सर दुर्भिक्ष
अक्सर आँधी-तूफ़ान अकाल मृत्यु
रात के तारे जो बुझते और टूटकर आते हैं पृथ्वी पर
हम कहते रहते हैं ईश्वर
इन काले पहाड़ों को स्याही की तरह समुद्र के पात्र में घोलें
और समूची पृथ्वी के काग़ज़ पर
वाणी की देवी रात-दिन लिखने बैठे
तब भी कठिन है तुम्हारे गुणों का बखान
लेकिन ईश्वर कभी खुश नहीं होता
वह अक्सर हमें शाप देने की मुद्रा में खड़ा रहता है
कई बार हम मनुष्यों की वजह से
उसे अपना सिंहासन डोलता हुआ महसूस हुआ है
वह मौक़ा खोजता रहता है कि कब कैसे अमंगल कर सके
कैसे हमारी फ़सलें बर्बाद हों
कब हम अपने घर छोड़कर जाने को विवश हो जाएँ
हम बार-बार उसे पूजते हैं
कभी-कभी लगता है वह अचानक खुश हो उठा है
और मुस्कुरा रहा है
और वरदान दे रहा है
लेकिन यह कुछ ही देर के लिए होता है
महज़ एक ख़याल कि हमारे अलावा कोई और भी है
जो हमारा भला चाहता है।
[पृ.सं. 22-24]
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प्रेमियो!
ओ प्रेमियो, तुम्हारी प्रेमिका हर रोज़
तुम्हारे रंग की साड़ी में बँधी रसोई में खड़ी क्यों दिखती है
क्यों तुम्हारा प्यार पकवान बनाती उसकी उँगलियों पर आ ठिठकता है!
तुम क्यों देह के उस पोर से प्रेम करते हो जिसमें तुम्हें प्रेमानन्द मिले
कहो तुम प्रेमिका की फैंटेसी लिखते-लिखते थककर सो गए रूप में क्यों नहीं बना पाते?
तुम्हें रसोई में सिर झुकाई और मेज पर सिर टिकाई लड़की में फ़र्क़ क्यों नहीं सूझता!
तुम्हारी फैंटेसी में प्रेमिका रोज आरती गाती नज़र आती है
क्यों तुम्हारा आदर्श प्रेमिका के कंधे पर सवार होकर आता है
तुम हर बार अव्वल आ जाते हो
तुम्हारे बेडरूम में प्रेमिका का इनकार तुम्हें अपना अपमान लगता है
सुनो प्रेमियो, स्त्री का प्रेम मन जीतने से शुरू होता है
देह में थोपी सभ्यता वो नहीं चाहती
वो थोड़ा सकुचाकर शुरू करती है प्रेम
विश्वास पक्का चाहती है और मग्न हो जाती है प्रेम में
जिसे तुम निर्लज्जता कहते हो
कहो तुम्हारे जीवन से दूर तुम्हारी फैंटेसी तक में नहीं अँट पाती प्रेमिका
और तुम प्रेमी बने फिरते हो!
ओ प्रेमियो तुम्हें अब अपने प्रेम-पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए।
[पृ.सं. 32-33]
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शीर्षकहीन
चतुर्दिक व्याप्त भ्रष्टाचार में
मुखौटों और भोंपुओं की जयकार
जिनके भीतर है भीषण जीभों और दाँतों की भरमार
जिनके लिए एक प्राचीन सभ्यता का मतलब है
भाले त्रिशूल और तलवार
जो मचाते उपद्रव लगाते आग अफ़वाहें जिनका हथियार
उसकी जय जो कहता कुछ करता कुछ और
जो ढहाता कुचलता दौड़ाता विजय-रथ हर ओर
जय उसकी जो उगलता ही जाता आग
और उसकी भी जो झूठ को बतलाता सच
वह जो कहता चुपके से उजाड़ो यह घर
और वह जो उजाड़ता डंके की चोट पर निडर
जय उसकी जो हरदम करता किसी शत्रु की खोज
और एक शत्रु को दिखलाता हर रोज़
जय हो छल की कायर झूठ कुटिल हँसी की जय
जय विध्वंस जय धौंस जय घृणित स्वर
जय विष, जय विद्वेष, जय विस्फोट,
जय धूल जय उसकी जो रोटी के एवज में देता बम
जय उसकी जिसने मानवता को दिया निष्कासन
जय भाषा जिसमें नहीं रहा कुछ अर्थ
जय उसकी जिसने जय है जय है किया।
[पृ.सं. 40-41]
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हिटलर के बारे में
बहुत सारी जानकारियाँ प्रकाश में आ चुकी हैं। लेकिन तमाम इतिहासकार, समाजशास्त्री, मनोशास्त्री और व्यवहारविद उसे पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं और लगातार कुछ न कुछ नया सामने लाते रहते हैं। ऐसा इसलिए भी है कि बड़े या छोटे हिटलरों का पैदा होना भी बन्द नहीं हुआ है। वे जगह-जगह चुनाव जीतकर या बगैर चुनाव के भी उभरते रहते हैं। यह तो सभी जानते हैं कि हिटलर अपनी पोशाक बेहद चुस्त-दुरुस्त रखता था और बहुत कम सोता था। हाईस्कूल की कक्षा से उसे निकाल दिया गया था और कुछ समय तक उसने कलाकृतियों वाले पोस्टकार्ड भी बेचे। यह भी सब जानते हैं कि उसने किस तरह यहूदियों और गैर-आर्यों का जनसंहार करवाया। लेकिन ख़ास बात यह है कि इतने रक्तपात और यातनाओं को अंजाम देनेवाले इस आदमी को दाढ़ी बनाने की ब्लेड से बहुत डर लगता था और जब वह बाल बनवाता तो कपड़ों के नीचे काँपता रहता।
हैरत की बात यह है कि इतिहास का इतना बड़ा आदमखोर मांसाहारी नहीं, पूर्णतः शाकाहारी था और उसके भीतर कूट-कूट कर कड़वाहट और नफ़रत भरी हुई थी, लेकिन उसे मिष्ठान्न बहुत प्रिय था, रोज़ क़रीब डेढ़ किलो चॉकलेट खा जाता था। और अपनी शराब तक में चीनी मिलाता था। इतना ही अजीबोगरीब उसका यौन-जीवन भी था। उसने कभी दूसरों के सामने कपड़े नहीं उतारे और यह बात तब भी सच थी जब वह बिस्तर पर अपनी प्रेमिका ईवा ब्राउन के साथ होता था या अपनी ही भतीजी गेली रौशेल्ल के साथ जिसने बाद में ख़ुद को गोली मार दी थी। सच तो यह है कि उसका एक ही अंडकोष था और उसका लिंग भी बहुत छोटा और बेडौल-विरूप था। और वह अक्सर बैल के वीर्य के इंजेक्शन लिया करता था। उसे खेतों में काम करती किसान औरतों के उठे हुए स्कर्ट बहुत पसन्द थे और वह ईवा ब्राउन को भी स्कर्ट उठाये हुए आने के लिए कहता था। यही नहीं, वह चाहता था कि कोई उसे पीछे से लात मार कर उत्तेजित करे, उस पर शौच और पेशाब कर दे। और इस काम के लिए उसने कुछ कलाकारों को भी रख छोड़ा था। सन् 1938 में मशहूर टाइम पत्रिका ने उसे ‘मैन ऑफ़ द इयर’ बनाया और अगले साल 1939 में उसका नाम नोबेल पुरस्कार के लिए भी भेजा गया।
[पृ.सं. 64-65]
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तानाशाह इतिहास को पसन्द नहीं करता
वह हमेशा वर्तमान में रहना चाहता है
एक सतत लगातार वर्तमान
उसे पसन्द है ख़बरों में बने रहना
अखबारों विज्ञापनों पोस्टरों टेलीविज़न के परदे पर
वह चाहता है वह जो कुछ बोले खबर बन जाए
उसकी हर बात हर अदा भंगिमा उसकी वेशभूषा दर्ज होती रहे।
और जब कभी वह अपनी आँखें नम करे तो वह क्षण भी दूर-दूर तक पहुँचता रहे।
जाहिर है तानाशाह जो चाहता है वह होता है और खबरें उसके मुताबिक़ चलती हैं।
वह बोलता जाता है घंटों दिनों और महीनों तक
उसे पता है कि यह सब ख़बर है।
लेकिन जैसे ही कोई पलटकर सवाल करता है
वह परेशान नाराज़ आगबबूला हो उठता है
और धमकी के स्वर में कहता है कि मैं धमकी नहीं दे रहा हूँ
लेकिन यह सवाल बिलकुल गलत है।
आपका काम ख़बर देना है, पलटकर सवाल करना नहीं।
उसका दिमाग़ नोट कर लेता है कि बाद में कैसे बदला लिया जाएगा।
तानाशाह को पता है कि सवाल ख़बरों को लाँघकर इतिहास में चले जाते हैं।
तानाशाहों को इतिहास बहुत परेशान करता है।
वे ख़बरों से ख़ुश और इतिहास से परेशान रहते हैं।
इतिहास में उनके काले कारनामे हैं लोगों की कराहें और विलाप हैं क़ब्रें हैं खून के धब्बे और मारे गए लोग हैं।
इसीलिए वह अकेले में इतिहास को पोंछने में लगा रहता है।
इसीलिये जब हमें किसी ख़ास दौर का इतिहास नहीं मिलता तो इसका कारण यही है कि तानाशाह उसे मिटाने में कामयाब हुए।
हमारे समय का इतिहास यह है कि इतिहास को पोंछने वाले तानाशाह लम्बे समय तक ख़बरों में बने रहते हैं।
और उनकी मृत्यु के बाद उनके बड़े से परिवार के लोग भी इतिहास को पोंछने के कारोबार में लगे रहते हैं।
[पृ.सं. 93-94]
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