हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
....जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।
शमशेर बहादुर सिंह की जयंती पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उनकी कविता 'टूटी हुई, बिखरी हुई'। यह कविता इसी शीर्षक से प्रकाशित उनके कविता संग्रह और 'प्रतिनिधि कविताएँ' में संकलित है।
टूटी हुई, बिखरी हुई चाय
की दली हुई पाँव के नीचे
पत्तियाँ
मेरी कविता
बाल, झड़े हुए, मैल से रूखे, गिरे हुए, गर्दन से फिर भी
चिपके
कुछ ऐसी मेरी खाल,
मुझसे अलग-सी, मिट्टी में
मिली-सी
दोपहर बाद की धूप-छाँह में खड़ी इंतज़ार की ठेलेगाड़ियाँ
जैसे मेरी पसलियाँ―
खाली बोरे सूजों से रफू किए जा रहे हैं जो
मेरी आँखों का सूनापन हैं
ठंड भी एक मुस्कराहट लिए हुए है
जो कि मेरी दोस्त है।
कबूतरों ने एक गज़ल गुनगुनाई…
मैं समझ न सका, रदीफ़ काफ़िए क्या थे,
इतना ख़फ़ीफ़, इतना हलका, इतना मीठा
उनका दर्द था।
आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही है।
मैं उसी में कीचड़ की तरह रहा हूँ
और चमक रहा हूँ कहीं…
न जाने कहाँ।
मेरी बाँसुरी है एक नाव की पतवार-
जिसके स्वर गीले हो गए हैं,
छप्-छप्-छप् मेरा हृदय कर रहा है…
छप् छप् छप्।
वह पैदा हुआ है जो मेरी मृत्यु को सँवारनेवाला है।
वह दूकान मैंने खोली है जहाँ 'प्वाइजन' का लेबुल लिए हुए
दवाइयाँ हँसती हैं-
उनके इंजेक्शन की चिकोटियों में बड़ा प्रेम है।
वह मुझ पर हँस रही है, जो मेरे होठों पर एक तलुए
के बल खड़ी है।
मगर उसके बाल मेरी पीठ के नीचे दबे हुए हैं।
और मेरी पीठ को समय के बारीक तारों की तरह
खुरच रहे हैं
उसके एक चुंबन की स्पष्ट परछाईं मुहर बनकर उसके
तलुओं के ठप्पे से मेरे मुँह को कुचल चुकी है
उसका सीना मुझको पीसकर बराबर कर चुका है।
मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं
एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ।
मुझको सूरज की किरनों में जलने दो-
ताकि उसकी आँच और लपट में तुम
फौवारे की तरह नाचो।
मुझको जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो,
ताकि उसकी दबी हुई ख़ुशबू से अपने पलकों की
उनींदी जलन को तुम भिगो सको, मुमकिन है तो
हाँ, तुम मुझसे बोलो, जैसे मेरे दरवाज़े की शरमाती चूलें
सवाल करती हैं बार-बार मेरे दिल के
अनगिनती कमरों से
हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
....जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।
आईनो, रोशनाई में घुल जाओ और आसमान में
मुझे लिखो और मुझे पढ़ो।
आईनो, मुस्कराओ और मुझे मार डालो।
आईनो, मैं तुम्हारी ज़िंदगी हूँ ।
एक फूल ऊषा की खिलखिलाहट पहनकर
रात का गड़ता हुआ काला कंबल उतारता हुआ
मुझसे लिपट गया।
उसमें काँटें नहीं थे- सिर्फ एक बहुत
काली, बहुत लंबी ज़ुल्फ़ थी जो ज़मीन तक
साया किए हुए थी…जहाँ मेरे पाँव
खो गए थे।
वह गुल मोतियों को चबाता हुआ सितारों को
अपनी कनखियों में घुलाता हुआ, मुझ पर
एक ज़िंदा इत्रपाश बनकर बरस पड़ा।
और तब मैंने देखा कि मैं सिर्फ एक साँस हूँ जो उसकी
बूँदों में बस गई है।
जो तुम्हारे सीनों में फाँस की तरह ख़ाब में
अटकती होगी, बुरी तरह खटकती होगी।
मैं उसके पाँवों पर कोई सिजदा न बन सका,
क्योंकि मेरे झुकते न झुकते
उसके पाँवों की दिशा मेरी आँखों को लेकर
खो गई थी।
जब तुम मुझे मिले, एक खुला फटा हुआ लिफाफा
तुम्हारे हाथ आया।
बहुत उसे उलटा-पलटा-उसमें कुछ न था-
तुमने उसे फेंक दिया: तभी जाकर मैं नीचे
पड़ा हुआ तुम्हें 'मैं' लगा। तुम उसे
उठाने के लिए झुके भी, पर फिर कुछ सोचकर
मुझे वहीं छोड़ दिया। मैं तुमसे
यों ही मिल लिया था।
मेरी याददाश्त को तुमने गुनाहगार बनाया- और उसका
सूद बहुत बढ़ाकर मुझसे वसूल किया। और तब
मैंने कहा- अगले जनम में। मैं इस
तरह मुस्कराया जैसे शाम के पानी में
डूबते पहाड़ ग़मगीन मुस्कराते हैं।
मेरी कविता की तुमने खूब दाद दी-मैंने समझा
तुम अपनी ही बातें सुना रहे हो।
तुमने मेरी कविता की
ख़ूब दाद दी।
तुमने मुझे जिस रंग में लपेटा, मैं लिपटता गया:
और जब लपेट न खुले-तुमने मुझे जला दिया।
मुझे, जलते हुए को भी तुम देखते रहे : और वह
मुझे अच्छा लगता रहा।
एक खुशबू जो मेरी पलकों में इशारों की तरह
बस गई है, जैसे तुम्हारे नाम की नन्हीं सी
स्पेलिंग हो, छोटी-सी प्यारी-सी, तिरछी स्पेलिंग,
आह, तुम्हारे दाँतों से जो दूब के तिनके की नोक..
उस पिकनिक में चिपकी रह गई थी,
आज तक मेरी नींद में गड़ती है।
अगर मुझे किसी से ईर्ष्या होती तो मैं
दूसरा जन्म बार-बार हर घंटे लेता जाता :
पर मैं तो जैसे इसी शरीर से अमर हूँ-
तुम्हारी बरकत!
बहुत-से तीर बहुत-सी नावें, बहुत-से पर इधर
उड़ते हुए आए, घूमते हुए गुज़र गए
मुझको लिए, सबके सब। तुमने समझा
कि उनमें तुम थे। नहीं, नहीं, नहीं।
उनमें कोई न था। सिर्फ़ बीती हुई
अनहोनी और होनी की उदास
रंगीनियाँ थीं। फ़क़त।
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