1581 के बाद दर्ज अकबर के क़ौलों समेत असन्दिग्ध साक्ष्यों से पता चलता है शुरू के वर्षों में वह एक दीनदार मुस्लिम ही नहीं था बल्कि हिन्दुओं के प्रति कि असहिष्णु भी था। वह अफ़सोस के साथ स्वीकार करता है कि उन शुरू के वर्षों में उसने अनेक हिन्दुओं को इस्लाम स्वीकार करने पर मजबूर किया था।" अकबर को तब अनेक रूढ़िवादी मुसलमान कुफ्र से इस्लाम की रक्षा के लिए वचनबद्ध एक दीनदार मुसलमान समझते थे। दिल्ली के सुप्रसिद्ध शेखजादा रिज़्कुल्लाह मुश्ताक़ी ने 1580 के आसपास लिखा था कि हेमू के दमन से इस्लाम की रक्षा करने के लिए ख़ुदा ने ही अकबर को भेजा था। अपनी एक हलकी-फुलकी टिप्पणी में बदायूँनी संकेत देते हैं कि अपने शासन के प्रारम्भिक वर्षों में अकबर सिलसिला नक्शबंदिया के प्रभाव में था।
मगर लगता है कि 1562 के बाद हिन्दू धार्मिक कर्मकांडों और उपासना पद्धतियों के बारे में उसका रवैया अपमानजनक और शत्रुवत् नहीं रहा जब उसने राजपूत सरदारों की बेटियों और भतीजियों से विवाह किए। बदायूँनी कहते हैं कि अपनी शुरुआती जवानी (उफ़वाने-शबाब) में अकबर अपनी हिन्दू पत्नियों के साथ 'होम' किया करता था। उन वर्षों में अकबर के अनेक समकालीनों ने अपने इस्लामी रुझान के बावजूद उसे हिन्दू रीति-रिवाजों के व्यवहार के प्रति उदासीन नहीं पाया। तीर्थयात्रा कर के उन्मूलन (1563), जज़िया के उन्मूलन (1564) तथा वृन्दावन के एक मन्दिर की सहायता के लिए एक 'इनाम' दान की घोषणा (1565) जैसे क़दमों से इस छाप की पुष्टि होती है।
फिर भी इसी काल में उसने उन मुस्लिम फ़िरक़ों के प्रति स्पष्ट रूप से दमन का रवैया अपनाया जिनकी रूढ़िवादी धर्मद्रोही कहकर निन्दा करते थे। 1560 के दशक में असन्तुष्ट तूरानियों के ख़िलाफ़ ईरानी कुलीनों, ज़्यादातर शियों का हौसला बढ़ाया और उन्हें इस्तेमाल किया गया। पर साथ ही उनकी अपने विश्वासों को मानने और उन पर अमल करने की आज़ादी को भी कम करने की कोशिश की गई। इसका एक स्पष्ट उदाहरण यह है कि 1567 में शेख अब्दुन्नबी के सुझाव पर दिल्ली में अमीर ख़ुसरो के मक़वरे के पास (जवार में) मौजूद एक क़ब्र से मुर्तजा शरीफ़ी शीराजी की लाश खोदकर निकाली गई। दलील यह थी कि एक 'धर्मद्रोही' को एक प्रसिद्ध सूफ़ी सन्त की क़ब्र के इतने पास दफ़्न रहने की इजाजत नहीं दी जा सकती। बिना शुबहा यह एक अतिवादी क़दम था; बदायूँनी तक ने नाइंसाफी कहकर इसकी आलोचना की है। परचना बिलग्राम के मोहतसिब अब्दुस्समद के नाम 1572 के आसपास अकबर के फरमान में उन्हें निर्देश दिया गया था कि वे परगना से धर्मद्रोह और कुचाल को खत्म करने में मदद करें। यह 1570 के फ़ौरन बाद के वर्षों तक शियों के प्रति दमन के रवैये के जारी रहने का संकेत देता है।
मेहदवियों के प्रति अकबर की दुश्मनी और भी ऐलानिया थी। यह 1573 तक जारी रही जब कहा गया कि उसने गुजरात में सख्ती के साथ उनको कुचल दिया। इसी दमन के क्रम में प्रमुख मेहदवी धर्मगुरु मियाँ मुस्तफा बन्दगी को गिरफ्तार किया और जंज़ीरों में जकड़कर दरबार में लाया गया।
मोटे तौर पर 1571 के बाद अकबर अधिकाधिक सर्वेश्वरवादी सूफ़ी सिद्धान्तों के प्रभाव में आता गया, और इससे उसकी विश्व-दृष्टि में एक घोर परिवर्तन आया। इसी के कारण उसने जिसे वह परम्परागत धर्मगुरुओं (फ़क़ीहाने-तकलीदी) का इस्लाम समझता था, उसे आखिरकार छोड़कर इस्लाम की एक नई पूरी तरह भिन्न धारणा अपनाई जो विभिन्न धर्मों (केश-हा) को अलग करनेवाली सीमाओं का अतिक्रमण करती थी और जिसका सारतत्त्व, अकबर के मुताबिक, यह नहीं था कि अपने अक़ीदों की तोतारटन्त की जाए या खतना कराया जाए बल्कि यह था कि व्यक्ति बेपनाह ताक़तवर दुनियावी इच्छाओं और वासनाओं (नफ़्से-अम्मारा) के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार और समर्थ हो। इन विचारों से अकबर का परिचय बहुत पहले, 1560 की दहाई में ही हो चुका था जब वह पहले-पहल अजमेर और सीकरी के चिश्ती खानकाहों के सम्पर्क में आया था उससे भी पहले शेख ग़ौस ग्वालियारी से उसके सम्पकों ने भी 'फ़ना' और "वहदतुल- वुजूद' के सर्वेश्वरवादी सिद्धान्तों से उसे परिचित होने का अवसर दिया होगा। अकबर 1573 तक शैख मुईनुद्दीन चिश्ती को अपना आध्यात्मिक गुरु मानने लगा था। कहा गया है कि मियाँ मुस्तफ़ा बन्दगी के साथ एक बातचीत के दौरान अकबर ने वह ऐलान किया था 'मेरे पीर हज़रत ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती हैं...जो कोई यह कहता है कि ये गुमराह थे, वह काफ़िर है। ऐसा कहनेवाले शख्स को मैं अपने हाथों से मारूंगा इसकी पुष्टि बदायूँनी के इस साक्ष्य से होती है कि 1575 तक अकबर चिश्तिया सिलसिले द्वारा निर्धारित आध्यात्मिक तरकीबों का नियमित रूप से अभ्यास करने लगा था। 1575 के बाद किसी समय उसने शेख चाय लड्ढा से चिल्ल-ए-माकूस की कला सीखने की कोशिश भी की। (इसमें चालीस दिन और रात तक कुएं में उलटे सिर लटककर ईश्वर पर ध्यान लगाया जाता है।)
'फ़ना' के सर्वेश्वरवादी सूफ़ी सिद्धान्त ही, लगता है कि दर्शन में अकबर की दिलचस्पी को बढ़ा दिया। 1578-82 के दौरान शेख मुबारक, अबुल फल्ल, गाजी खान बदख्शी, हकीम अबुल-फ़त्ह और दूसरे बुद्धिवादी विचारकों की सोहबत में अन्ततः "वहदतुल-वुजूद' के सिद्धान्त की एक सुव्यवस्थित प्रस्तुति से उसका परिचय हुआ; एक व्यापकतर दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में इसका प्रतिपादन इब्न अल-अरबी ने किया था। जैसा कि इरफ़ान हबीब ने दिखाया है, एक बौद्धिक आधार से वंचित होने के बावजूद इब्न अल-अरबी का सर्वेश्वरवाद इस्लाम में ग़ज़ाली के बाद के परम्परावाद के लिए एक ज़ोरदार वैचारिक चुनौती बनने में समर्थ था। अकबर पर और उससे अहम यह कि उसके सामाजिक-राजनीतिक विचारों पर 1578-82 के दौरान इब्न अल-अरबी के विचारों के प्रभाव का यही गुण था जिसे अबुल फ़ज़्ल ने एक 'ऊँचे मुकाम' (बुलन्द पायगी) तक 'बुद्धि' (ख़िरद) का उत्थान कहा है। इब्न अल-अरबी का विचार था कि वह सब जो एक देवी यथार्थ का अंग नहीं, माया है। इसी के चलते अकबर इस विचार तक पहुँचा कि सभी धर्म या तो एक समान सच्चे हैं या एक समान भ्रामक हैं। यह एक ऐसा विचार था जिसकी लाज़मी तौर पर सभी प्रकार के रूढ़िवादी मतों ने सन्मार्ग से भटकाव कहकर निन्दा की यह विचार उस समय दरबार में मौजूद जेसुइट पादरियों के लिए भी उसी प्रकार अस्वीकार्य था। अकबर ने 1581 में जलाल रोशनी को अपने मत के पालन की स्वतन्त्रता देने का जो आश्वासन दिया था, उस पर टिप्पणी करते हुए मॉसेरेट ने कहा था : 'बादशाह इस बात का शायद ही ख्याल करता था कि हरेक को अपना मजहब मानने की आज़ादी देकर वह हक़ीकत में सभी की ख़िलाफ़वर्जी कर रहा था। दरवार में इस नई वैचारिक प्रवृत्ति के उदय ने, लगता है कि अकबर की विश्व-दृष्टि के बारे में बहुत-से विद्वानों को भ्रम में डाला। मिसाल के लिए अब्दुल क़ादिर बदायूँनी 1581 के आसपास दरबार के बौद्धिक वातावरण को सुन्नत पर शिया मल की विजय समझते थे।" कुछ भी हो, यह अकबर की विश्व-दृष्टि का एक और निर्णायक मोड़ था जिसके चलते वह सुस्वीकृत इस्लामी विश्वासों और प्रथाओं से उतनी दूर निकल गया जितना कि इस्लामी रहस्यवाद की सर्वेश्वरवादी धारणाओं के दायरे में मुमकिन ही नहीं था।
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