श्रीकान्त वर्मा की जयंती पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ संग्रह में संकलित उनकी कुछ कविताएँ…
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प्रक्रिया
मैं क्या कर रहा था
जब सब जयकार कर रहे थे?
मैं भी जयकार कर रहा था—
डर रहा था जिस तरह
सब डर रहे थे।
मैं क्या कर रहा था
जब सब कह रहे थे,
‘अजीज मेरा दुश्मन है?’
मैं भी कह रहा था,
‘अजीज मेरा दुश्मन है।’
मैं क्या कर रहा था
जब सब कह रहे थे,
‘मुँह मत खोलो?’
मैं भी कह रहा था,
‘मुँह मत खोलो
बोलो जैसा सब बोलते हैं।’
ख़त्म हो चुकी है जयकार,
अजीज मारा जा चुका है,
मुँह बन्द हो चुके हैं।
हैरत में सब पूछ रहे हैं,
यह कैसे हुआ?
जिस तरह सब पूछ रहे हैं
उसी तरह मैं भी,
यह कैसे हुआ?
***
कलिंग
केवल अशोक लौट रहा है
और सब
कलिंग का पता पूछ रहे हैं
केवल अशोक सिर झुकाये हुए है
और सब
विजेता की तरह चल रहे हैं
केवल अशोक के कानों में चीख गूँज रही है
और सब
हँसते-हँसते दोहरे हो रहे हैं
केवल अशोक ने शस्त्र रख दिये हैं
केवल अशोक
लड़ रहा था।
***
हस्तक्षेप
कोई छींकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की शान्ति
भंग न हो जाय,
मगध को बनाये रखना है, तो,
मगध में शान्ति
रहनी ही चाहिए
मगध है, तो शान्ति है
कोई चीखता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की व्यवस्था में
दखल न पड़ जाय
मगध में व्यवस्था
रहनी ही चाहिए
मगध में न रही
तो कहाँ रहेगी?
क्या कहेंगे लोग?
लोगों का क्या?
लोग तो यह भी कहते हैं
मगध अब कहने को मगध है,
रहने को नहीं
कोई टोंकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध में
टोकने का रिवाज न बन जाय
एक बार शुरू होने पर
कहीं नहीं रुकता हस्तक्षेप—
वैसे तो मगधनिवासियो
कितना भी कतराओ
तुम बच नहीं सकते
हस्तक्षेप से—
जब कोई नहीं करता
तब नगर के बीच से गुजरता हुआ
मुर्दा
यह प्रश्न कर हस्तक्षेप करता है—
मनुष्य क्यों मरता है?
***
प्रजापति
खुशकिस्मत हैं वे, जो खुशी-खुशी जी रहे हैं!
मुबारक हो उन्हें उनका जन्मदिन
जिन तक उन लोगों की सूचना नहीं पहुँची,
जो पैदा होते ही
स्पेन में, कांगों में अथवा वियेतनाम में
मार दिये गये!
खुशकिस्मत हैं वे,
जो चुप रहकर देखते रहे सारा दृश्य,
गिनते रहे शव,
सुनते रहे
क्रिकेट और मौसम के समाचार!
मुबारक हो उन्हें यह समय,
जिन्हें सबकुछ
सुनायी पड़ता रहा—
यहाँ तक कि पत्ते का गिरना भी—
केवल सुनायी नहीं पड़ी
उस स्त्री की चीख जिसका पति
घर से निकलते ही ढेर कर दिया गया
टाइम स्क्वेयर पर,
न्यूयार्क के टाइम स्क्वेयर पर
मियाफेरो की तसवीर चमता हुआ
नशे में धुत्त एक फौजी बड़बड़ाता है
‘मुझे एक कैलेंडर चाहिए
जिस में तारीख न हो’
वह अनन्तता में जीना चाहता है,
पृथ्वी की अनन्तता में नहीं
जो कछुए की तरह
एक नहीं, दो नहीं,
कई खरब वर्षों से
चली आ रही है,
हत्या की अनन्तता में—
हत्या जो दिखायी नहीं देती,
चीख़ों की अनन्तता में—
चीखें जो सुनायी नहीं पड़ती!
इस भयानक समय में कैसे लिखूँ
और कैसे नहीं लिखूँ!
सैकड़ों वर्षों से सुनता आ रहा हूँ
घृणा नहीं, प्रेम करो—
किससे करूँ प्रेम?
मेरे चारों ओर हत्यारे हैं!
नागरिको! सावधान,
रास्ते के दोनों ओर वधिक है—
जुपिटर के महल से चुरायी हुई बिजलियाँ
आस्तीन में छिपाये हुए सैनिक हैं!
इसी रास्ते पर मारा गया था स्पार्टाकस,
इसी रास्ते पर घसीटा गया था गुलाम,
इसी रास्ते पर सम्बोधित करते हुए
वधिकों की भीड़ को कहा था हेरोद ने,
ईसा हत्यारा है, ईसा की मौत!
द्रोणाचार्य! इन्हें मत सिखाओ
धनुर्विद्या,
ये सत्य के लिए नहीं,
सत्ता के लिए लड़ रहे हैं!
एथेंस में बत्तियाँ बुझायी जा चुकी हैं,
रोम जल रहा है,
पेरिस की सड़कों पर
भूखों और नंगों की भीड़ है—
चीखती है जनता, गुर्राती है जनता,
माथे से पसीना पोंछती हुई
घर की ओर लौटती है
जनता!
कुहरे में डूब गये हैं कुछ नारे,
धूल में पड़े हैं कुछ शब्द,
उठाओ, इन शब्दों को उठाओ,
क्रान्ति की प्रतीक्षा करती हुई
जनता सो गयी है!
अमूर्त! कितनी अमूर्त है, कविता!
कहाँ है इन सारी कविताओं में वह चेहरा,
जो जितना मेरा है उतना ही दूसरे का!
हृदय! मेरा हृदय!
मैं कहाँ बेच आया अपना हृदय!
आँखें! मेरी आँखें!
मैं कहाँ छोड़ आया अपनी आँखें—
नंगा घुमायी जा रही है
जुए में हारी हुई स्त्री!
मैं देख नहीं सकता!
मुबारक हो, गोएबेल्स, मुबारक हो,
खाकी वर्दी पहने तुम
किस का पता पूछ रहे हो?
मुबारक हो, हेनरी, मुबारक हो,
लौटते हुए वियेतनाम से
तुम किसे ढूंढ़ रहे हो—
अपने अतीत को?
भविष्य को?
हिरोशिमा की अन्तरात्मा को?
कोरिया की दबी हुई सिसकी को!
कायर,
धोने आये हो तुम,
एशिया की नदियों में
खून से रँगे अपने हाथ!
हत्यारे, लौट जाओ!
छोड़ दो मुझे मेरे हाल पर
काल पर छायाएँ फेंकता
अंगकोर वाट
सुनता है
नगरों-महानगरों का प्रलाप!
किसी को नहीं पश्चात्ताप!
कोई नहीं करता स्वीकार—
‘ईश्वर क्षमा करना!
मैंने हत्या की है—
मैं ही हूँ क्लॉड ईथरले,
मैं ही हूँ गोडसे,
मैं ही हेरोद!’
न्यायालय बन्द हो चुके हैं,
अर्जियाँ हवा में उड़ रही हैं,
कोई अपील नहीं,
कोई कानून नहीं,
कुहरे में डूब गयी हैं
प्रत्याशाएँ
धूल में पड़े हैं
कुछ शब्द!
जनता थककर सो गयी है!
***
अन्तिम वक्तव्य
[इसके बाद कुछ कहना बेकार है]
आदमी से प्रेम करने का ठेका
ले रखा है
क़साई ने :
मुझे न औरों से
प्रेम है
न अपने से!
मैं टकटकी लगाये
देख रहा हूँ
कैसे गिरती है इमारत
धरती के कँपने से!
न कँपती है धरती
न होता है युद्ध
सब कुछ अवरुद्ध है!
मैं कहना कुछ चाहता हूँ
कुछ और
कह जाता हूँ—
झूठे हैं समस्त कवि
गायक
पत्रकार
आत्माएँ
राजनीतिज्ञों की
बिल्लियों की तरह
मरी पड़ी हैं
सारी पृथ्वी से
उठती है सड़ांध!
कोई भी जगह नहीं रही
रहने के लायक़
न मैं आत्महत्या
कर सकता हूँ
न औरों का खून!
न मैं तुमको जख्मी
कर सकता हूँ
न तुम मुझे निरस्त्र!
तुम जाओ
अपने बहिश्त में
मैं जाता हूँ
अपने जहन्नुम में!
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