'पाश' की कविताएँ

अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की जयंती पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें उनके कविता संग्रहों— ‘बीच का रास्ता नहीं होता’ और ‘समय ओ भाई समय’ में संकलित चुनिंदा कविताएँ। ‘पाश’ की कविताओं का पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद और इन संग्रहों का सम्पादन प्रो. चमन लाल ने किया है। 

***

भारत

भारत―

मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द

जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए

बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं

 

इस शब्द के अर्थ

खेतों के उन बेटों में हैं 

जो आज भी वृक्षों की परछाइयों से

वक्त मापते हैं

उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं

और वह भूख लगने पर

अपने अंग भी चबा सकते हैं

उनके लिए जिंदगी एक परंपरा है 

और मौत के अर्थ हैं मुक्ति 

जब भी कोई समूचे भारत की 

‘राष्ट्रीय एकता’ की बात करता है

तो मेरा दिल चाहता है―

उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ

उसे बताऊँ

कि भारत के अर्थ

किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं

वरन खेतों में दायर हैं

जहाँ अन्न उगता है

जहाँ सेंध लगती है…

***

दो और दो तीन

मैं सिद्ध कर सकता हूँ― 

कि दो और दो तीन होते हैं 

वर्तमान मिथिहास होता है 

इंसानी शक्ल चमचे-जैसी होती है

 

आप जानते हैं―

अदालतों, बसअड्डों और पार्कों में

सौ-सौ के नोट घूमते फिरते हैं

जो डायरियाँ लिखते, चित्र खींचते

और रिपोर्टें भरते हैं

कानून-रक्षाकेंद्र में

बेटे को माँ पर चढ़ाया जाता है 

खेतों में ‘डाकू’ दिहाड़ी पर काम करते हैं 

माँगें माने जाने की घोषणा 

बमों से की जाती है 

अपने लोगों से प्यार का अर्थ 

‘दुश्मन देश’ का एजेंट होना होता है 

और ज्यादा से ज्यादा गद्दारी का तमगा 

बड़े से बड़ा रुतबा हो सकता है।

तो―

दो और दो तीन भी हो सकते हैं 

वर्तमान मिथिहास हो सकता है 

इंसानी शक्ल चमचे-जैसी भी हो सकती है।

***

घास 

मैं घास हूँ

मैं आपके हर किए धरे पर उग आऊँगा

 

बम फेंक दो चाहे विश्वविद्यालय पर 

बना दो होस्टल मलबे के ढेर 

सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोंपड़ियों पर 

मुझे क्या करोगे?

मैं तो घास हूँ, हर चीज ढक लूँगा 

हर ढेर पर उग आऊँगा

 

बंगे को ढेर कर दो 

संगरूर को मिटा डालो 

धूल में मिला दो लुधियाना का जिला 

मेरी हरियाली अपना काम करेगी… 

दो साल, दस साल बाद 

सवारियाँ फिर किसी कंडक्टर से पूछेंगी―

“यह कौन-सी जगह है?

मुझे बरनाला उतार देना 

जहाँ हरे घास का जंगल है।”

 

मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूँगा 

मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा।

***

मैं पूछता हूँ

मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से

क्या वक़्त इसी का नाम है 

कि घटनाएँ कुचलती चली जाएँ

मस्त हाथी की तरह

एक समूचे मनुष्य की चेतना को?

कि हर सवाल

केवल परिश्रम करती देह की गलती ही हो?

 

क्यों सुना दिया जाता है हर बार

पुराना लतीफ़ा

क्यों कहा जाता है हम जीते हैं

ज़रा सोचें―

 

कि हममें से कितनों का नाता है 

जिंदगी जैसी किसी चीज़ के साथ!

 

रब्ब की वह कैसी रहमत है

जो गेहूँ गोडते फटे हाथों पर

और मंडी के बीच के तख़्तपोश पर फैले मांस के

उस पिलपिले ढेर पर

एक ही समय होती है?

 

आखिर क्यों 

बैलों की घंटियों

और पानी निकालते इंजनों के शोर में

घिरे हुए चेहरों पर जम गई है

एक चीखती खामोशी?

कौन खा जाता है तलकर 

टोके पर चारा लगा रहे

कुतरे हुए अरमानों वाले पट्टों की मछलियाँ?

 

क्यों गिड़गिड़ाता है

मेरे गाँव का किसान

एक मामूली पुलिसवाले के सामने?

 

क्यों किसी कुचले जा रहे आदमी के चीखने को

हर बार 

कविता कह दिया जाता है?

मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से

***

 

ईश्वर न करे कि हम भूल जाएँ 

बर्छी की तरह हड्डियों में धँसे बरसों को

जब हर पल किसी अकड़ाए शरीर की तरह सिर पर गरजता रहा

जब क्षितिज पर 

कर्ज़ से बनी मिसाल से 

नीलामी के दृश्य तैरते रहे 

जब हम फूल-सी बेटियों की 

आँखों में आँखें डालने से सहमे 

ईश्वर न करे कि हम भूल जाएँ 

जब हमें इस्तेमाल किया गया 

धमकी भरे भाषण सुनने के लिए 

ईश्वर न करे कोई भूल जाए 

कैसे धरती के मासूम कपोलों पर 

रक्त छिड़का गया 

जब चुने हुए विधायक 

अपनी बारी के लिए कुत्तों की तरह उत्तेजित होते रहे 

और सड़कों पर हड़ताली मज़दूरों का शिकार होता रहा 

जब रक्त सनी आँखों को 

अखबारों के पन्ने चिढ़ाते रहे 

और असेंबलियों में हुई ठाठ-बाठ की चर्चा 

बंगलौर में सीने छननी होने की सुर्खी 

निगल जाती रही 

जब रेडियो साबित रहा 

और मगरमच्छ मुख्यमंत्री 

पेट में पड़ी लाशों को बेटों की जगह बताता रहा 

जब धुन दिए गए शाहकोट की चीखों को 

एक ठिगने से डी.एस.पी. का ठहाका जाम करता रहा।

 

[अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की किताबें यहाँ से प्राप्त करें।]