रंग याद है : गली में ढफ बजने लगे थे

‘रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में राजकमल ब्लॉग पर पढ़ें, कृष्ण कल्पित की रंगयाद : “गली में ढफ बजने लगे थे” 

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जब मैं घाघरा पहनकर नाचा

गली में ढफ बजने लगे थे!

होली का दिन था। मैं घर में अकेला था। माँ कुछ देर पहले बाहर गयी थी। चिरंजीलाल मिश्राजी की हवेली में। यह लक्ष्मणगढ़-शेखावाटी की बात है, जहाँ मेरी माँ लड़कियों के एक स्कूल में प्रधान-अध्यापिका थी। मैं छठी कक्षा में बगड़िया स्कूल में पढ़ता था, जहाँ मेरी सभी सहपाठियों से कुट्टी थी।

१२ बरस मेरी उम्र होगी। फागुन का महीना था। चढ़ता हुआ दिन था। ढफ की आवाज़ से मेरे पाँव थिरकने लगे थे।

मैं उठा। मैंने नेकर और बुशर्ट उतारा और माँ का घाघरा, क़ब्ज़ा पहना और लूगड़ी ओढ़ कर दौड़कर बाहर गया और ढफ मण्डली में नाचने लगा। भीड़ लगी हुई थी। सब फगुनाहट से बेसुध थे। नाच रहे थे, गा रहे थे और चिल्ला रहे थे।

और मैं क्या नाच रहा था। क्या बताऊँ ? जैसे पृथ्वी घूमती हुई मेरे पाँवों की परिक्रमा करती हो। और मेरी पतली कमर के झटके!

यह नृत्य डेढ़-दो घंटे से कम क्या चला होगा। पूरे मोहल्ले में हल्ला हो गया। सारी स्त्रियाँ, बच्चे, बुज़ुर्ग दरवाजों और छतों पर इकट्ठा हो गये मेरा नृत्य देखने।

तभी अचानक किसी ने मेरे बाल पकड़कर मुझे खींचा। माँ मुझे घसीटते हुए घर तक ले गई और मुझे पीटने लगी।

“कितनी मुश्किल से लड़का पैदा किया था और तुझे लड़की बनने का शौक़ पैदा हुआ है।” कहकर माँ ने मेरे एक ज़ोरदार चनपट जड़ा।

माँ अधिक देर नाराज़ नहीं रही। मुझे नहलाया। मुझे मेरे कपड़े पहनाए और रात को केसरिया खीर खिलाई।

वह मेरा अन्तिम नृत्य था

आख़िरी रक़्स!

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‘रंग याद है’ शृंखला की अगली कड़ी में पढ़ें, विनीत कुमार की रंगयाद : “जमात-ए-होली—में घर नहीं गए”