संजीव की कहानी — यह दुनिया अब भी सुन्दर है

साहित्य अकादेमी से पुरस्कार से सम्मानित कथाकार संजीव के जन्मदिन पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, कोरोना काल के भयावह समय में इंसानियत की अद्भुत मिसाल पेश करती कहानी— ‘यह दुनिया अब भी सुंदर है’। यह कहानी इसी वर्ष प्रकाशित उनके कहानी संग्रह ‘प्रार्थना’ में संकलित है। 

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छीजते चाँद की जर्द रोशनी फूस और नारियल के जीर्ण-शीर्ण झोंपड़ों में कोई रंग नहीं भर पाई थी अभी। फिर भी चेन्नई के इस नेटटकपम गाँव में थोड़ी हलचल जाग गई थी। सर्वप्रासी कोरोनाकाल की इस रात का शेष पहर था यह। अपने पंजों में मुँह दबाकर बैठे कुत्तों ने माहौल की अस्वाभाविकता को अचरज से सूँघा और आँकने की कोशिश की। पहले दो-चार जन निकले, फिर उनकी संख्या बढ़ते-बढ़ते सात हो गई।

श्रीनिवासन ने एक बार फिर साइकिल की हवा चेक की, ब्रेक को परखा, पीछे कैरियर पर चादर की गद्दी को ठीक किया, पड़ोसी के हाथ से भात और आलू की पोटली को थैले से लटका दिया, साथ में पानी की बाटली भी, नीम अँधेरे में काग़ज़ों की उपस्थिति का अनुमान किया और हाथ की घड़ी को देखकर बुदबुदाया ‘पाँच!’

पत्नी कन्नीमनी को औरतें ले आईं-सफ़ेद आँख, सूखी मछली-सा चीमड़ चेहरा। पीछे कैरियर पर पत्नी को पड़ोसिनों ने एहतियात से बैठा दिया। दोनों ने हाथ जोड़कर पड़ोसियों का अभिवादन किया। सबने प्रणाम का उत्तर देते हुए हाथ हिलाकर उन्हें विदा किया। गर्दन घुमाकर पीछे बैठी पत्नी से पूछा, “ठीक है?”

“ठीक!” जवाब पाकर चल पड़ा।

यह बीतते मार्च की सँवलाई-सँवलाई भोर थी। अलसाई-अलसाई चिपचिपी हवा। सड़क सन्नाटे भरी। इस सन्नाटे को कोरोना का कर्फ्यू और भी गाढ़ा कर रहा था। कुल दो-चार स्त्री-पुरुष और चन्द सरकारी वाहनों के अलावा एकदम वीरान। मील का पहला पत्थर सामने आया—पुड्डुचेरी 89 किलोमीटर। 80वें किलोमीटर पर सड़क के ऐन सिरे पर सूरज निकला-लाल टह-टह सूरज! इस बीच दो-तीन बार उसने पीछे बैठी पत्नी की उपस्थिति को छूकर आँक लिया था।

“अभी दस किलोमीटर ही आए हैं।” उसने पत्नी से यूँ ही कहा। उसे मालूम था कि उसकी ओर से कोई भी प्रतिक्रिया नहीं आएगी, फिर भी पत्नी की उपस्थिति के अहसास को जगाए रखने के लिए ऐसी बर्राहट जरूरी थी।

इसके पहले कि थकान उस पर हावी हो जाए, इसके पहले कि सूरज हाथ से फिसल जाए उसे ज्यादा-से-ज्यादा दूरी तय कर लेनी है। वह चक्कर खाती मशीन बन गया था। कडलूर आते-आते सूरज सिर पर आकर खड़ा हो गया तो उसने एक बन्द गुमटी के पास अपनी लम्बी टाँगें टेक दीं, “रुकते हैं। उतर तो जाओगी? मैं सँभाल रहा हूँ। ऐ! शाबास!” पत्नी के सकुशल उतर जाने पर बह उतरकर उसे सहारा देकर गुमटी तक ले गया पास के बैठके पर बिठाकर पानी की बाटली निकाली, फिर पूछा, “आलू खाओगी या भात?”

चम्मच से लगा खिलाने। “लक्ष्मी अम्मा बड़ी होशियार है, रोटी न देकर भात दिया।”

“तुम्हारे दाँतों के लिए यही मुफीद है।”

“तुम!” पहली बार बोली थी पत्नी।

“खाएँगे साथ-साथ।”

“हूँ।”

“बस? और खा लो न!”

“खाकर तुम्हारा वजन नहीं बढ़ाना।”

“पत्नी का मज़ाक़ सुखद लगा। उसने पत्नी को मुस्कराकर देखा।”

“और कुछ करना हो तो सामने...!”

“पुड्डुचेरी अभी बावन किलोमीटर है। चलो बैठो। सँभल के।”

उसने कपड़े से अपना और पत्नी का चेहरा, गर्दन रगड़कर पोंछा। चार-चार घूँट पानी हलक़ से उतारे और चल पड़ा। श्रीनिवासन ने अपने मुँह के मास्क को ठीक किया, कन्नीमनी के मास्क को भी।

इस लॉक डाउन ने सड़क का सारा जीवन सोख लिया है, वरना इस सड़क पर ऐसे चल पाते हम?

आगे एक सिपाही के डंडे ने टोका, “कहाँ जा रहे हो।” हड़बड़ाकर वह रुका। पत्नी को धीरे से उतारा। थैले से अस्पताल के काग़ज़ात निकाला, “पुड्डुचेरी हॉस्पिटल सर! कीमो है।”

“कहाँ से आ रहे हो?”

“नेट्टकूपम से।”

“साइकिल से? वह भी डबल सवारी?” सिपाही की आँखें फैल गईं।

“डबल कहाँ साब, ये तो मेरी वाइफ़ है!”

“ओह!” सिपाही श्रीनिवासन का पसीने से नहाया मुँह ताकने लगा।

“अभी जितना आए हो, उतना ही और आगे जाना है, मालूम?”

“मालूम है साहब।”

“तुम्हारे पहुँचते-पहुँचते तो हॉस्पिटल बन्द हो जाएगा। वैसे भी लॉक डाउन है, हॉस्पिटल खुला होगा?”

“डेट तो आज का ही दिया हुआ है?”

“तो भाई मेरे कोई सवारी का साधन कर लिये होते।”

“बहुत दौड़-धूप की, दस हजार से कम पर कोई राजी नहीं हुआ, अपने पास उतने पैसे कहाँ...।”

“जाओ-जाओ देर न करो तब।” पुलिस के सिपाही ने पत्नी को कैरियर की सीट पर बैठाने में मदद की। श्रीनिवासन दोबारा चल पड़ा।

थोड़ा आगे जाने पर पत्नी ने भन्न-से जाने क्या कहा! शायद फ़ोन-बोन जैसा कुछ।

“दो बार हॉस्पिटल फ़ोन किया, सम्पर्क ही न हुआ। अब तक नहीं सोचा तो आगे क्या सोचना। ईश्वर का नाम लेकर चलते हैं। आधा चले आए, बानी आधा भी चले चलेंगे। जब चल पड़े तो पीछे मुड़कर क्या देखना। है कि नहीं?”

“ठीक!”

अब सूरज उसके दाएँ कन्धे पर था। वह तेज़-तेज़ पैडिल मारने लगा। पोंगल के बाद की धान की फसल के कटे हुए खेत, मकान, दुकान, पेड़-पौधे, इनसान-सब तेजी से पीछे भागते जा रहे थे। मील के पत्थर जल्दी-जल्दी आने लगे। पुड्डुचेरी पैंतालीस, पुड्डुचेरी चौवालीस तैंतालीस... चालीस... सूरज कन्धे से नीचे लुढ़कता जा रहा था। अब साइकिल को आगे बढ़ने और सूरज के तेजी से लुढ़कने में एक होड़-सी मच गई— कौन किसे हरा पाता है! यद्यपि सड़क पर अब भीड़ बढ़ चली थी, फिर भी उसे लगा, इस पूरे ब्रह्मांड में इस समय वह अकेला यात्री है पत्नी के साथ, जो इस भवसिन्धु में उतरा हुआ है। इतने भयानक सन्नाटे में साइकिल को किई-किई, खटर-पटर से अलग कोई भी आवाज़ नहीं रह गई है।

तेज, तेज और तेज... लो चेन उतर गया!

उतरकर पत्नी को उतारा। इस चेन को भी अभी ही उतरना था।

शुकर है, चेन ही उतरा था, बाकी कोई गड़बड़ी नहीं दिख रही।

चेन चढ़ाकर कालिख लगे हाथ को बगल की घास पर उसने रगड़कर साफ़ किया। आस-पास कोई गड्ढा-वड्ढा नहीं दिख रहा था।

“पानी पी लो दो घूँट!” पत्नी से कहा।

दो घूँट उसे पिलाकर, खुद भी दो घूँट पिया। “घड़ी पाँच बजा रही थी। और मील का पत्थर बीस किलोमीटर धवला कुम्पम,  श्रीनिवासन ने खुद से कहा।”

“तुम हमें वह जरूर दिखा देना।”

“कौन-सा?”

“वही ईस्ट कोस्ट रोड वाली जहाँ लहरें छर्र-छर्र बजकर धुआँ-धुआँ हो उठती हैं।”

“जरूर।”

“आ गए क्या?" कन्नीमनी ने पूछा, “यह कौन-सी नदी है?”

“नदी नहीं! बैक वाटर है समुद्र का।”

कन्नीमनी ने कुछ नहीं कहा। श्रीनिवासन उसे बहलाने की कोशिश करता रहा, “अरे वो समुद्र है न, बीच-बीच में उसका पानी घुस आता है। इसे कहीं-कहीं क्रिक भी कहते हैं। पर उसने देखा कन्नीमनी के चेहरे का भाव नहीं बदला। थके-थके क़दमों से पैदल चलकर उसने पुलिया पार की। किनारे के पक्षी चोंच में मछलियाँ पकड़कर उड़ान भर रहे थे। उसने अपनी पत्नी को प्रसन्न करने की कितनी कोशिशें की। पर उसका सपाट चेहरा सूखी मछली-सा रुक्ष बना रहा। लाख-लाख किल-बिल करती मछलियाँ हैं सागर में, मगर उनकी नसीब में यही सूखी चीमड़ बेजान मछली है। नहीं। उनमें से किसी ने ऐसा-वैसा कुछ नहीं कहा।”

साइकिल फिर चल पड़ी। ईस्ट कोस्ट सड़क की सुन्दर सड़क पर आ गए वे। दूर सागर की गर्जना सुनाई पड़ रही थी। लहरें आतीं और किनारे के काले पत्थरों पर टकराकर छर्र-छर्र बिखर जातीं। इसी ख़ूबसूरत दृश्य के लिए वह पति से इतना इसरार कर रही थी।

और अब जबकि वह दृश्य सामने था, उसके लिए उसका कोई महत्त्व नहीं रह गया। वह लिये जैसे उसका इस खूबसूरत नज़ारे के ऊपर-ऊपर संतरण कर रहा था। मन जैसे असम्पृक्त उसके प्रस्तर मन को एक भी बूँद नम नहीं बना पा रही थी। अब उसे दूसरी चिन्ता सता रही थी-बच तो जाएगी न। पर उससे भी ज़्यादा असम्पृक्त थी कन्नीमनी।

मन-ही-मन उसके अरविन्द आश्रम को प्रणाम किया और मन्नत मानी-अगली बार मत्था टेकने जरूर आएँगे हम दोनों।

पति के कपड़े पसीने से लथपथ थे। शहर की बत्तियाँ जल उठी थीं। वह अभी भी साइकिल चलाते हुए किसी अँधेरी गुफा में समाता जा रहा था। हे भगवान! मेरे चलते उसे कुछ हो न जाए। पलकें थिर नहीं थीं, बार- बार मूर्च्छा-सी आ जाती। पर कीमो की टेबुल पर पहुँचाए बिना उसे मरने तक की मुहलत कहाँ! शायद थवलाकुप्पम आ गया। वो रही ईस्ट कोस्ट की सड़क। अब बस चन्द किलोमीटर और...। इस दुनिया-जहान में और भी बहुत कुछ है। कैंसर हॉस्पिटल के सिवा, लेकिन श्रीनिवासन के लिए कुछ नहीं, उसे सिर्फ़ अस्पताल दिख रहा था जहाँ पहुँचने में उसे पहले ही काफ़ी देर हो चुकी है।

अँधेरा झरने लगा। बत्तियाँ जल उठीं। पसीने से नहाए बदन को समुद्र की नमकीन हवा सहलाने लगी। पुड्डुचेरी दस।

“पुड्डुचेरी नौ!”

“पुड्डुचेरी आठ।”

और लो, वो झिलमिलाने लगी हास्पिटल की बत्तियाँ। और वो रही हॉस्पिटल की बिल्डिंग।

आख़िर पहुँच ही गए अन्त-अन्त तक।

साइकिलवाले मुख्य सड़क से नहीं जा सकते। वह पत्नी को लेकर बगल  के साइकिलवाले द्वार से ले जाने लगा तो सुरक्षा प्रहरी का डंडा आ गया। “कीमो है साहब। आज की डेट!” पाँव मन-मन भर के हो रहे थे और जबान भी...।

हट गया डंडा पर अस्पताल तो बन्द है। अब?

वह रुआँसा हो गया।

पत्नी को वहीं खड़ी कर इधर-उधर आ-जा रहा था कि एक चपरासी ने टोका, “क्या बात है?”

“कीमो है साहब, वाइफ़ का— वो खड़ी है, नब्बे किलोमीटर दूर से...।” धीरे-धीरे और दो-एक जन जुटे।

कुछ डॉक्टर और दो नर्सें जुटीं।

विचार-विमर्श चलता रहा।

नाइंटी किलोमीटर से डबल सवारी साइकिल करके पेशेंट लेकर आया है। कीमो की डेट आज की है। फ़ोन से कॉन्टैक्ट नहीं हो सका। पैसे थे नहीं। क्या कसूर है उसका? बैठे-बैठे ही झपकी और झपकी में ही सपना... श्रीनिवासन सपना देखता है। “बच तो जाएगी न साब?” वह जिस-तिस स्टाफ़ से पूछ रहा है।

“डेट फेल मत करना। डॉक्टर ने कहा था। हमने डेट फेल होने नहीं दी। वह जिस-तिस को बता रहा है।”

“आज की ही डेट थी?” कोई पूछता है।

“आज की ही।...बच तो जाएगी न सर?” वह पूछता है।

“तुम अपना काम कर चुके यहाँ पहुँचाकर, बाक़ी भगवान पर छोड़ दो।” कोई आश्वस्त करता है।

“कानों में आवाजें बज रही हैं इत्ती रात को।”

“सौ किलोमीटर से ला रहा है, वह भी डबल सवारी।”

कोरोना का कर्फ्यू-काल है। कोई सवारी-उवारी नहीं मिली होगी।

मिल भी जाए तो इस ग़रीब के पास पैसे कहाँ!

“पता नहीं अन्न का कोई दाना भी पेट में गया होगा इनके या नहीं।” आलू और भात था शायद उधर फेंका हुआ है, कुत्ते ने भी सूंघकर छोड़ दिया। बासी हो चुका था।

साइकिल कहाँ पड़ी है और जिस्म कहाँ पड़े हैं कोई सुधि नहीं। थकान का एक अथाह सागर है। मक्खियों-सी भनकती आवाजें धीरे-धीरे किसी और लोक से आती-सी लगीं धीरे-धीरे वे भी बुझ गईं।

कब किसने उठाया, कौन गया, किसने पत्नी को बेड पर लिटाया, कब कीमो सम्पन्न हुआ—उन्हें कुछ ख़बर नहीं। हॉस्पिटल का स्टाफ़ पति-पत्नी को देख रहा था—एक बेड पर, एक चेयर पर दोनों थककर बेतरह सो रहे। डॉ. रंगनाथन धीमे-धीमे बुदबुदा रहे थे— “बुढ़िया ग्यारह साल के लड़के-सी दिख रही है बाल झड़ चुके हैं, चेहरे पर कोई रंगत नहीं, लावण्य विहीन, चुचकी लत्ते-सी छातियाँ। आँखों के कोये उजले। कोई देखे तो डर जाए! यह औरत बचेगी भी या नहीं-पता नहीं। बच भी गई तो दैहिक दृष्टि से इसकी क्या उपयोगिता होगी। श्रीनिवासन के लिए। फिर भी रक्त की अन्तिम बूँद तक बचाने की कोशिश कर रहा है वह-नब्बे किलोमीटर दूर से लादकर ले आया पत्नी को।”

श्रीनिवासन नहीं जानता कि कौन था शाहजहाँ, बेपनाह प्यार करता था अपनी पत्नी बेगम मुमताज को, उसकी याद में ताजमहल बनवा दिया था, नहीं जानता दशरथ माँझी को, जिसने पत्नी की याद में पहाड़ काटकर रास्ता बना दिया...। इस तरह के सारे नामों और चेहरों से अनजान है वह। उसने गीता नहीं पढ़ी, कुरान नहीं पढ़ा, बाइबिल नहीं पढ़ी होगी, धर्म क्या है, कर्म क्या है, नहीं जानता। उसे सिर्फ़ उसकी इस पत्नी की जान सलामत चाहिए जो भी हो, जैसे भी हो। कैसे-कैसे कट गई रात। रात या रातें... श्रीनिवासन को कुछ नहीं पता। उसे तो यह भी पता नहीं होगा किलौटनेवाली एम्बुलेंस के बाहर अभी भी क्या हो रहा है। पता होता तो वह जानता कि सुपरिंटेंडेंट मुरलीधरन साहब और कैंसर विभाग का पूरा स्टाफ़ विदा दे रहा है अपने पेशेंट को।

एम्बुलेंस की बैक लाइट उजली है, जैसे कन्नीमनी की आँखें। टूटी हुई साइकिल एम्बुलेंस पर लादी गई सहसा ही एम्बुलेंस स्टार्ट हुई, उजली लाइट लाल हुई विदा के हाथ हिले...।

कन्नीमनी को होश नहीं है, श्रीनिवासन को होश नहीं है उनसे थोड़ी दूर पर बैठे जेम्स के पास उनके लिए चार हजार रुपये, दो महीने की दवा, खाने-पीने का सामान उनके कुछ एक कपड़े वगैरह हैं जिन्हें हॉस्पिटल के स्टाफ़ ने दिये हैं उनके लिए। कैसे पहचानते पति-पत्नी, कि जहाँ इस दुनिया में कोरोना काल में लाखों को असुरक्षित हाँक देनेवाले हैं, वहाँ ऐसे लोग भी हैं। सबके चेहरों पर तो मास्क लगे हुए हैं उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम की इस गहन कोरोना काल में सब कुछ ख़त्म ही नहीं हो गया, अभी भी बहुत कुछ शेष है, यकीन न हो तो नकाब उलट देख ले श्रीनिवासन, देनेवालों की आँखें नम हैं, कह रही हैं, “क्षमा करना हमें, हम तुम्हारे लिए कुछ ख़ास न कर सके।”

 

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