"किसी काम से मैं पटना गया हुआ था। मि. ब्राउन के फ़्लैट पर गया, तो पाया कि बाहर दरवाजे पर बड़ा-सा ताला लटक रहा है। मैंने सोचा कि निकले होंगे कहीं। एक घंटे बाद फिर गया। पर ताला ज्यों-का-त्यों लटक रहा था। ठीक बगल के फ़्लैटवाले से मैं पूछने हो जा रहा था कि कहीं मि. ब्राउन हजारीबाग तो नहीं चले गए, तभी मि. ब्राउन का पुराना नौकर अलबर्ट पीटर मुझे आता दिख गया। पूछने पर उसने जो कुछ भी बताया, सुनकर तो हँसते-हँसते मेरा बुरा हाल हो गया था। दरअसल रॉबिन, उनके नौकर अलबर्ट पाकर में बताया कि वह जब सब्जी वगैरह खरीदने बाजार जाता है तो अन्दर फ़्लैट में ब्राउन साहब के होने पर भी बाहर गेट पर ताला मार जाता है, क्योंकि यही उनका आदेश है। मैंने बताया न तुम्हें कि वह लोगों से ज्यादा मिलना-जुलना पसन्द नहीं करते।”
आजादी के बाद जब देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई तो भारत में रह रहे एंग्लो-इंडियन समुदाय के अधिकारों की सुरक्षा के लिए संविधान के अनुच्छेद-79 के तहत इस समुदाय के दो लोगों को देश की लोकसभा में और एक-एक प्रतिनिधि को हरेक प्रान्त की विधानसभा में नामजद करने का प्रावधान किया गया था। इसी प्रावधान के तहत लम्बे समय तक बिहार विधानसभा के सदस्य रहे हेक्टर एंगस ब्राउन की आज 29वीं पुण्यतिथि है। राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, दुनिया के एकमात्र एंग्लो इंडियन गाँव पर आधारित विकास कुमार झा के उपन्यास ‘मैकलुस्कीगंज’ का एक अंश, जिसमें उन्होंने हेक्टर एंगस ब्राउन के व्यक्तित्व के बारे में विस्तार से लिखा है।
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शाम के साथ घर की याद ज्यादा आती है, उसे यहाँ आकर महसूस हो रहा है। ऐसा क्यों होता है भला? शाम में ही क्यों? साँझ और घर का क्या सम्बन्ध है? गहरे आकाश में सफ़ेद पक्षियों का आख़िरी झुंड उड़ा जा रहा है। वह अपलक पक्षियों के उस दल का उड़ना बरामदे पर खड़ा होकर निहारता रहा। पक्षियों के पंखों में कितनी विचित्र आतुरता है! जल्दी घर पहुँचने की, अपने गाँव पहुँचने की...! वह भी तो अपने गाँव पहुँच गया है। वह भला इस साँझ में क्यों आतुर या उदास हो? पापा-मम्मी से कल सुबह साढ़े नौ बजे की बस से राँची जाकर फ़ोन पर वह बात कर लेगा। फ़िलहाल तो ‘गंज’ की यह शाम उसे अपने में समेट रही है। गेट पर हल्की-सी आहट हुई है। धीरे-धीरे डग भरते हुए मि. मेंडेज़ अन्दर दाखिल हो रहे हैं। रॉबिन ने सीढ़ियाँ उतरकर आगे बढ़ते हुए कहा, ‘अंकल, यू आर टू लेट... कब से इन्तजार कर रहा हूँ...!’
मि. मेंडेज ने झेंपते हुए कहा, ‘दरअसल, हम लोग आराम पार्टी हैं रॉबिन! खाने के बाद थोड़ी आँख लग गई। अभी कुछ देर पहले जब आँख खुली, तो देखा, शाम काफ़ी चढ़ गई है। तुम इन्तजार कर रहे होगे। बस, सीधा चला आ रहा हूँ। तुम्हारी आंटी ने कहा भी कि चाय तो पीते जाइए लेकिन मैंने कहा— नहीं, पहले ही देर हो गई है मुझसे। रॉबिन वहाँ कब से मेरी राह देख रहा होगा।’ कहते हुए मि. मेंडेज बरामदे पर आ गए हैं। मि. मिलर ने कहा, ‘मि. मॅडेज, बैठिए, मैं आपको अच्छी चाय पिलवाता हूँ—जैक के हाथ की स्पेशल चाय...। वैसे भी काफ़ी देर हो चुकी है। मिलने-जुलने का प्रोग्राम कल-परसों... अब तो लगातार चलता ही रहेगा यह सब।’ फिर रॉबिन की तरफ सहमति पाने की मुद्रा में मि. मिलर ने कहा, ‘है न रॉबिन? धीरे-धीरे सबसे तो मिल ही लोगे।’ रॉबिन ने कहा, ‘हाँ, अंकल! कोई जल्दबाज़ी नहीं। वैसे अभी आप अच्छी चाय पिलवाने की बात कह रहे थे।’
मि. मिलर हँस पड़े, ‘हाँ, प्योर दार्जिलिंग टी।’ उन्होंने जैक को आवाज लगाई, ‘जैक! सुनना तो जरा...।’
जैक आ गया। बगैर कुछ बोले अपनी प्रश्नवाचक आँखों से मि. मिलर की तरफ एक विनम्र सेवक की तरह उसने देखा।
मि. मिलर ने कहा, ‘जैक, जरा दिल लगाकर कुछ चाय-पाय तो करो। दार्जलिंग लीफ़....।’ जैक ने अपनी ख़ास फ़रमाबरदारी मुद्रा में सिर हिलाया और चला गया।
मि. मेंडेज ने बातचीत की बागडोर अपने हाथों में लेते हुए कहा, ‘तब मि. मिलर और कोई नई ख़बर? लेटेस्ट न्यूज़ ?’
मि. मिलर ने स्थायी मन्द स्वर में कहा, ‘मि. ब्राउन की चिट्ठी आई है। गाँव में पानी की समस्या को ख़त्म कराने के लिए मि. ब्राउन ने एश्योरेंस दिया है। ‘गंज’ में कुछ किलोमीटर रोड़ भी वे बनवा देंगे। पहले भी अपने असेम्बली फंड से उन्होंने यहाँ थोड़ी दूर तक सड़क बनवाई ही थी।’
मि. मेंडेज ने मुँह बनाते हुए कहा, ‘लगता है, मि. ब्राउन को हजारीबाग से कुछ फुरसत मिली है।’
मि. मिलर ने कुर्सी पर पहलू बदलते हुए कहा, ‘यही बीमारी है हम लोगों में मि. मेंडेज। हम कभी सटिस्फायड ही नहीं हो पाते। हजारीबाग में भी तो कुछ एंग्लो-इंडियन परिवार रहते हैं। उनके लिए भी तो मि. ब्राउन की ज़िम्मेदारी बनती है कि सिर्फ़ एक यही... मैकलुस्कीगंज ही है उनके लिए...? फिर हजारीबाग में वे ख़ुद रहते भी तो हैं... वहाँ घर है उनका...।’
मि. मिलर की नाक की टुनगी जैसे कुछ और नुकीली हो गई है, ‘कुछ ही दिन पहले कोई बता रहा था कि पटना के डॉनबास्को स्कूल वाले मि. ब्राउन से जाकर मिले थे कि स्कूल के सामने की सड़क बेहद ख़राब है...। अपनी ही कम्यूनिटी के मि. रोजारियो द्वारा चलाये जा रहे इस स्कूल में जबकि पटना के एक-से-एक अफ़सर और बड़े लोगों के बच्चे पढ़ते हैं...। ‘सबसे सड़क ठीक करवाने के लिए रिक्वेस्ट किया पर कुछ नहीं हो सका आज तक...। कहाँ जाते... आपके पास आए हैं,’ डॉनबास्को स्कूल के लोगों की बात सुनकर मि. ब्राउन ने अपने फंड से वहाँ के लिए सड़क की मंजूरी तुरन्त करवा दी। अब एक आदमी से कहाँ तक उम्मीद करेंगे आप? मि. ब्राउन की भी एक सीमा है न! बिहार सरकार की जो हालत है.... उसमें मि. ब्राउन जो भी करा लेते हैं, वह कम नहीं।’ मि. मिलर के प्रवचन का असर मि. मेंडेज पर शायद धर्मवाक्य की तरह पड़ा, सो गहरी साँस लेकर वे बोले, ‘ठीक कह रहे हैं। इस माहौल में वे जो ही काम करा देते हैं, वही बहुत है।’
जैक चाय मेज पर रख गया है।
मि. मिलर ने कहा, ‘लीजिए मि. मेंडेज...लो रॉबिन...।’
रॉबिन ने चाय की प्याली उठाते हुए कहा, ‘अंकल, कौन हैं मि. ब्राउन?’ मि. मेंडेज ने चाय की पहली घूँट का स्वाद लेकर कहा, ‘राबिन, मि. ब्राउन इकलौते एम.एल.ए. हैं बिहार के हम एंग्लो-इंडियनों के। कभी आनेवाले किसी महीने में सम्भव हो तो हजारीबाग या पटना जाकर मिल लेना उनसे भी...। वैसे, छठे-छमासे ब्राउन साहब ‘गंज’ भी आते रहते हैं। बिहार क्या, पूरे देश में एंग्लो-इंडियन कम्यूनिटी की स्थिति के बारे में तुम्हें इनसे काफी जानकारी मिलेगी...।’
रॉबिन ने थोड़ी हैरानी से पूछा, ‘क्या बिहार में एंग्लो-इंडियंस का कोई सुरक्षित चुनाव क्षेत्र भी है?’
मि. मिलर ने मन्द मुस्कान के संग हस्तक्षेप करते हुए कहा, ‘अरे नहीं, ऐसा नहीं है। बिहार असेम्बली में एंग्लो-इंडियन मि. हेक्टर एंगस ब्राउन ही एक ऐसे विधायक है, जिनका कोई चुनाव क्षेत्र नहीं है। जो बिना चुनाव लड़े एम.एल.ए. बनते हैं।’ मि. मेंडेज ने बिहँसते हुए कहा, ‘पटना में, बिहार असेम्बली में उनको देख बड़ा तमाशा लगता रहता है, रॉबिन। कुछेक बार जब सेशन के दौरान में पटना गया, तो मैंने भी देखा। अपनी बुर्राक गोराई और लम्बी-चौड़ी क़द-काठी के कारण लगभग बहत्तर-तिहत्तर वर्षीय मि. हेक्टर एंगस ब्राउन ख़ालिस अंग्रेज़ लगते हैं। उन्हें देखकर जो लोग उनके बारे में ठीक से नहीं जानते, वे हैरानी में पड़ जाते हैं। बिहार के ठेठ देहाती इलाक़ों से अपने काम के चक्कर में आम लोग अपने क्षेत्र के विधायकों के पीछे-पीछे भटकते हुए बिहार की राजधानी पटना में क़ायम बिहार असेम्बली की लॉबी में सेशन के दौरान पहुँचते हैं और अचानक जब देहात के वे लोग ब्राउन साहब को विधानसभा की बैठक में शरीक होने के लिए जाते हुए देखते हैं, तो एकदम से ठक्क रह जाते हैं। सहसा उन लोगों को अपनी आँखों पर यकीन नहीं होता। दूर-दराज के गाँवों से वहाँ आए वे निपट देहाती लोग उधेड़बुन में उलझ जाते हैं कि आख़िर अंग्रेज-सा दीखनेवाला यह आदमी बिहार के किस चुनाव क्षेत्र से जीत कर आता है? उन लोगों को लगता है, जैसे ऐलिस के आश्चर्यलोक से ही यह अंग्रेजों सरीखे हुलियेवाला बूढ़ा एम.एल.ए. सीधा यहाँ चला आ रहा है। उन लोगों का कोई अनुमान अन्त तक काम नहीं करता है। यहाँ तक कि बहुत से दूसरे एम.एल.ए. भी, जो नये-नये जीत कर आए होते हैं, मि. ब्राउन को असेम्बली में देखकर शुरू में चौंक पड़ते हैं। मि. ब्राउन दरअसल कई टर्म से एम.एल.ए. हैं।’
मि. मिलर ने कहा, ‘रॉबिन, मि. ब्राउन ज्यादातर अंग्रेजी में ही बात कर पाते हैं। हिन्दी उनकी बहुत अच्छी नहीं। इसलिए बिहार के मैक्सिमम एम.एल.ए. अपनी कमजोर अंग्रेजी के कारण मि. ब्राउन से बातचीत करने का सिरदर्द मोल लेना ही नहीं चाहते हैं।’ मि. मिलर की यह बात सुनकर रॉबिन को हँसी आ गई, ‘अच्छा... ऐसा...!’
मि. मेंडेज ने गम्भीर स्वर में कहा, ‘मि. ब्राउन सन् 1969 से ही बिहार में लगातार एम.एल.ए. होते आ रहे हैं। इस लिहाज से रॉबिन, उनका यह चौथा पाँचवाँ टर्म है। पर इन बीते वर्षों में उनकी शैली में कोई चेंज नहीं आया है। खामोशी से वे असेम्बली जाते हैं। कुछ देर चुपचाप अपनी सीट पर बैठते हैं और चले आते हैं।’
‘पर अंकल, ये बिहार असेम्बली में भला चुनकर...?’ रॉबिन ने जैसे वाक्य पूरा नहीं करना चाहा, वैसे ही।
मि. मॅडेज ने मुस्कुराकर मि. मिलर की तरफ देखा, ‘कुछ समझ रहे हैं..? अंग्रेजी डिक्शनरी में एक वर्ड है ‘नैकर— के…एन...ए...सी…के….इ…आर…। इसका माने होता है— बूढ़े घोड़ों को मार डालने... किल करने के लिए खरीदनेवाला आदमी...। लगता है, रॉबिन सवाल पूछ-पूछकर हम दोनों बूढ़ों को मार डालेगा...।’
मि. मिलर ने तब बिहँसकर शब्दों को जैसे दाँत से कूचते हुए कहा, ‘अब इन लद्दू घोड़ों का क्या? रेस से ख़ारिज हम बूढ़े घोड़े अब किस यूज के हैं? हम लोग तो अब इस धरती पर ऊपरवाले का आटा ही गीला कर रहे हैं न...!’ बात बहकती देख रॉबिन ने हँसते हुए कहा, ‘अंकल, ओल्ड इज गोल्ड...।’
बस, मि. मेंडेज़ धीरे-धीरे विस्तारपूर्वक शुरू हो गए, ‘बिहार असेम्बली में 324 एम.एल.ए. खुले चुनाव में जबरदस्त जोर-आजमाइश का इस्तेमाल कर आ पाते हैं। इसलिए, बहुत लोगों को आज तक यही भ्रम है कि बिहार असेम्बली में सिर्फ 324 सीट ही हैं। पर रॉबिन, एक सीट और है, जिस पर बगैर चुनाव लड़े एंग्लो-इंडियन कम्यूनिटी का एक प्रतिनिधि नामजद किया जाता है यानी 325वीं सीट। इसके लिए ‘एंग्लो-इंडियन एसोसिएशन’ नाम प्रपोज़ करता है। बिहार असेम्बली में यही तीन सौ पच्चीसवें एम.एल.ए. हैं अपने हेक्टर एंगस ब्राउन। दरअसल, आज़ादी के बाद ‘ऑल इंडिया एंग्लो-इंडियन एसोसिएशन’ के प्रेजिडेंट मि. फ्रैंक एंथोनी की पहल पर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने भारत में रह रही एंग्लो-इंडियन कम्यूनिटी के अधिकारों की सुरक्षा के लिए संविधान के आर्टिकिल-79 के तहत इस कम्यूनिटी के दो लोगों को देश की लोकसभा में और एक-एक प्रतिनिधि को हरेक प्रान्त की असेम्बली में नामजद करने का प्रविजन कराया था, जो आज तक चल रहा है। रॉबिन, इसी प्रविज़न के तहत मि. ब्राउन लगातार बिहार असेम्बली के सदस्य के रूप में नामजद किये जाते रहे हैं। आजादी के बाद से अब तक बिहार असेम्बली में मि. ब्राउन तीसरे एंग्लो-इंडियन एम.एल.ए. हैं।’
देर से सुन रहे मि. मिलर ने कहा, ‘बिहार में सबसे पहले एंग्लो-इंडियन एम.एल.ए. के रूप में नॉमिनेट किये गए थे मि. माइकेल मॉरिस, जो कभी ब्रिटिश शासन में सीनियर पुलिस अफ़सर हुआ करते थे। क्यों, है न मि. मेंडेज़?’
मि. मिलर ने तनिक आँखें सिकोड़ते हुए मि. मेंडेज़ से अपनी बात की पुष्टि चाही, तो मि. मॅडेज़ ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘बिलकुल। आपने ठीक कहा, मि. मॉरिस ही बिहार असेम्बली के पहले एंग्लो-इंडियन एम.एल.ए. नामजद हुए थे। और आपको मालूम? नामजद होने के पहले वे हजारीबाग म्यूनिसिपैलिटी के चेयरमैन थे। उनका बड़ा बेटा एरिक भी तो हजारीबाग़ का एस.पी. था। मि. मॉरिस की इकलौती बेटी मिस मेरी मॉरिस अभी भी हज़ारीबाग़ में रहती हैं। मेरी ने हेयर ड्रेसिंग की ट्रेनिंग लन्दन में ली थी और बहुत दिनों तक जयपुर महारानी की हेयर ड्रेसर रही थीं। पर देश-दुनिया घूमने के बाद वह हजारीबाग़ चली आईं। अस्सी साल पार कर चुकीं मेरी मॉरिस के बारे में आज हजारीबाग में कौन जानता है कि किस ग्रेट हस्ती की बेटी हैं यह। खैर, यही दुनिया है... पर मि. मिलर, एक गुजारिश करना चाहूँगा आपसे, अगर आप परमिशन दें तो?’
मि. मिलर ने तनिक चौंकते हुए कहा, ‘परमिशन की क्या जरूरत है? आप कहिए।’ मि. मेंडेज ने मुस्कुराकर कहा, ‘आपकी ऑर्थोडॉक्स दार्जलिंग-टी वाकई बहुत अच्छी थी। अगर एक बार वही फ़ाइनल-टी हो जाए, तो मजा आ जाए।’
मि. मिलर अपनी स्थायी मन्द मुद्रा के हिसाब से ही ठठाकर हँस पड़े, ‘ओह, मि. मेंडेज, मैं तो डर ही गया था कि ऐसी कौन-सी बात कहने की इजाजत माँग रहे हैं आप।’ फिर मि. मिलर ने जैक को आवाज लगाई।
जैक आया तो मि. मिलर ने कहा, ‘जैक मि. मेंडेज तुम्हारी चाय के फैन हैं। एक बार और हो जाए तो..।’
जैक हल्के से मुसककर रसोईघर में चला गया, ‘हाँ, क्यों नहीं। अभी तुरन्त।’
जैक गया तो रॉबिन ने मि. मेंडेज को कुरेदते हुए कहा, ‘हाँ, तो अंकल…।
मि. मेंडेज भभाकर हँस पड़े, बोले, ‘मान गया कि खुरच-खुरचकर बातों को निकालने में तुम्हारा जवाब नहीं। मि. मिलर ने ठीक ही कहा, बिहार में सबसे पहले एंग्लो-इंडियन संग एल.ए. मि. माइकेल मॉरिस हुए थे। पर मि. मॉरिस जब गुजर गए, तो मिसेज ओसिया चामक एक महिला, जो कभी वन विभाग में अधिकारी रह चुकी थीं, को एंग्लो-इंडियन नाम से बिहार में एम.एल.ए. बनाया गया। एक दिन जब मिसेज ओसिया भी इस दुनिया से कूच कर गई, तो नये सिरे से एंग्लो-इंडियन नस्ल के एक प्रॉपर आदमी की तलाश शुरू हुई। उसी समय ब्राउन महाशय को ढूँढ़ निकाला गया और बिहार असेम्बली में एम.एल.ए. के पद पर नोमिनेट कर दिया गया।’
मि. मिलर ने चश्मा उतारकर उसे रूमाल से पोंछते हुए कहा, ‘रॉबिन, ब्रिटिश राज में मि. ब्राउन सेट्लमेंट अफसर हुआ करते थे। उनकी नौकरी का ज्यादातर समय बिहार के मुजफ्फरपुर, बक्सर और हज़ारीबाग़ में बीता था। नौकरी से रिटायरमेंट के कुछ पहले मि. ब्राउन बिहार के सहरसा जिले में एक्टिंग डी.एम.... जिलाधिकारी भी बनाये गए थे।' मि. मॅडेज ने तभी हल्की हुंकार के साथ कहा, 'कुछ समय के लिए तो वे डी.एम. भी हुए ही थे। और हाँ, एक बात और बता दूँ कि मि. ब्राउन के फ़ादर मि. के.सी. ब्राउन कई वर्षों तक पटना हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार थे।’
जैक ने चाय की ट्रे कुर्सियों के बीच पड़ी पुरानी-सी मेज पर लाकर फिर रख दी।
मि. मेंडेज ने आभार भरे स्वर में कहा, ‘थैंक्यू जैक! कुछ ज़्यादा परेशान कर दिया न तुम्हें।’ जैक ने रसोई घर की तरफ़ जाते हुए किंचित् हँसी के संग कहा, ‘हरगिज नहीं...। क्या कहूँ, यह सब कितना अच्छा लग रहा है। आप सबके साथ रॉबिन बाबू भी हैं। ऐसे दिन क्वींस कॉटेज में बराबर बने रहें।’
चाय का प्याला तीनों ने बारी-बारी से उठा लिया। रॉबिन ने चाय की पहली घूँट भरकर सरल भाव से पूछा, ‘मि. ब्राउन के बेटे-बेटियाँ क्या करते हैं?’ मि. मेंडेज तनिक मायूस स्वर में बोले, ‘परिवार कहाँ? मि. ब्राउन तो अनमैरेड हैं। हजारीबाग़ के अपने पुश्तैनी मकान में वे एक नौकर के साथ निपट अकेला जीवन गुजारते हैं। पटना में भी उन्हें बतौर एम.एल.ए, प्रेजिडेंट चैम्बर में एक छोटा-सा फ़्लैट मिला हुआ है, जिसमें वे सेशन के दौरान आकर टिकते हैं। बड़े मस्तमौला आदमी हैं वे। हालाँकि, लोगों से वह कम ही मिलते-जुलते हैं। या तो किताब पढ़ते रहेंगे या म्यूज़िक सुनते रहेंगे, बस, यही उनका जीवन है। रॉबिन, एक बार की रोचक घटना तुम्हें बताता हूँ। किसी काम से मैं पटना गया हुआ था। मि. ब्राउन के फ़्लैट पर गया, तो पाया कि बाहर दरवाजे पर बड़ा-सा ताला लटक रहा है। मैंने सोचा कि निकले होंगे कहीं। एक घंटे बाद फिर गया। पर ताला ज्यों-का-त्यों लटक रहा था। ठीक बगल के फ़्लैटवाले से मैं पूछने हो जा रहा था कि कहीं मि. ब्राउन हजारीबाग तो नहीं चले गए, तभी मि. ब्राउन का पुराना नौकर अलबर्ट पीटर मुझे आता दिख गया। पूछने पर उसने जो कुछ भी बताया, सुनकर तो हँसते-हँसते मेरा बुरा हाल हो गया था। दरअसल रॉबिन, उनके नौकर अलबर्ट पाकर में बताया कि वह जब सब्जी वगैरह खरीदने बाजार जाता है तो अन्दर फ़्लैट में ब्राउन साहब के होने पर भी बाहर गेट पर ताला मार जाता है, क्योंकि यही उनका आदेश है। मैंने बताया न तुम्हें कि वह लोगों से ज्यादा मिलना-जुलना पसन्द नहीं करते।’
रॉबिन को हँसी आ गई. ‘मि. ब्राउन तो अद्भुत इनसान हैं।’
मि. मिलर ने आँखें चौड़ी करते हुए कहा, ‘अद्भुत? रॉबिन, ऐसे इनसान विरले ही मिलेंगे। दुनियादारी से कोसों दूर। एक तो परिवार में बेचारे का कोई रहा नहीं। वैसे भी पूरे हजारीबाग में अब सिर्फ चार एंग्लो-इंडियन परिवार ही रह गए हैं। परिवार के नाम पर कह लो तो मि. ब्राउन की एक बहन थी और इस बहन की भी बस, एक लड़की थी। उसका नाम था—प्रिया। मि. ब्राउन की बहन तो बहुत पहले ही गुजर गई थीं। इस संसार में अपना कहने को बस बहन की वह बेटी प्रिया रह गई थी। बेहद प्यार करते थे प्रिया को वे। प्रिया ने एक फ़िल्म एक्टर इंदर ठाकुर से शादी की थी। एक बच्चा भी हुआ था उसे इंदर से। पर कनिष्क हवाई दुर्घटना में वे सभी दुनिया से चल बसे। इंदर, प्रिया और उसका बच्चा तीनों ‘एयर क्रैश’ में ख़त्म हो गए। मि. ब्राउन उस दिन से बुरी तरह टूट गए। प्रिया की मौत ने उन्हें बुढ़ापे में तोड़कर रख दिया।’
मि. मिलर का स्वर कहते-कहते डूब-सा गया। एक हल्की-सी उदासी पल भर के लिए तिर गई। रॉबिन ने उसाँस लेकर कहा, ‘ओह, दुनिया में कोई पूरी तरह सुखी नहीं। एक न एक दुःख सबके जीवन में नत्थी है।’
मि. मेंडेज़ ने चाय ख़त्म कर प्याली मेज पर रखते हुए कहा, ‘हाँ, ऐसा है रॉबिन! पर आदमी हरदम दुःखों में नहीं रह सकता। रहेगा, तो जी नहीं पाएगा। जीने के लिए इनसान कोई-न-कोई प्यारी शगल या बहाना तलाश ही लेता है। जैसे मि. ब्राउन की ही बात कर रहे हैं न हम लोग। सही है कि प्रिया की मौत का गहरा सदमा उन्हें लगा, पर कुछ ही दिनों बाद उन्होंने अपने को इससे उबारा और म्यूजिक सुनने... किताबों को पढ़ने के अलावा बागबानी के शौक़ में जुट गए। ब्राउन महाशय को म्यूजिक से तो बेहद लगाव है ही, अमरीकी उपन्यासों को भी पढ़ने का नशा है। यही नहीं, हजारीबाग़ में अपनी एक एकड़ जमीन में फल उपजाने के शौक़ में भी वे जुनून की हद तक जुटे रहते हैं।’
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