नासिरा शर्मा की कहानी — नये रंग की गंध

राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, नासिरा शर्मा की लिखी कहानी— ‘नये रंग की गंध’। यह कहानी उनके कहानी संग्रह ‘सुनहरी उँगलियाँ’ में संकलित है। 

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शादी तो उसने अपनी मर्जी और पसन्द से की थी सब कुछ जानते-बूझते हुए। माँ के समझाने बुआ के धमकाने के बावजूद!

उसके पास हर बात का एक ही जवाब था—

“मैं ऐसी नहीं हूँ... वह जमाना लद गया... वे चरित्र क्रिस्से-कहानियों में ढल गए हैं बुआ!” मैं एक समझदार इनसान हूँ माँ, मानव अधिकार के महत्त्व को समझती हूँ!

“तू यह सब पुण्य कमाने के लिए...।”

“उफ़! भाभी! प्लीज़ मुझे इस तरह समझकर अपमानित न करो, मैंने उस शख़्स से प्यार किया है, उसकी हर चीज़ से मुझे प्यार है, उसके लिए मैं कुछ भी कर सकती हूँ समझीं आप?”

“यहाँ तक कि सौतेली माँ भी बन सकती है?” भाई के कटाक्ष भरे वाक्य को सुनकर झिलमिल तिलमिला-सी गई और आँखों में आए आँसुओं को पीती हुई धीमे से बोली—

“इस बार आपने कहा तो कहा मगर इसके बाद फिर कभी यह शब्द मुँह से मत निकालिएगा... उनकी एक ही माँ है और वह है सगी माँ, यानी मैं।”

“कुएँ में गिरती है तो गिरने दो माँ, हम समझा सकते हैं जबरदस्ती तो नहीं कर सकते हैं। तीस साल बहुत होते हैं अपना अच्छा-बुरा समझने के लिए। कोई बच्ची हो तो बात बहकाने और फुसलाने की करूँ।” भर्राए गले से भाई ने क्रोध मिश्रित स्वर में कहा और कमरे से बाहर निकल गया।

बहू ने सास के दुखी चेहरे को ताका और लम्बी साँस लेकर धीमे से बोली— “झिलमिल, रमेश और गौहर का क्या होगा जो तुम्हारे लिए कुछ भी कर सकते हैं। उनका प्यार तुम्हें क्यों नज्जर नहीं आता?”

“भाभी! प्यार हो जाता है, किया नहीं जाता है। दोनों मेरे अच्छे दोस्त और कुलीग हैं... बस! इससे ज्यादा नहीं।”

“दुनिया हमने देखी है, जो रिश्ता बरसों से काँटों की झाड़ी बना है उसमें तू गुलाब खिलाने का ख़्वाब पाले है... तजुर्बा... इन आँखों और कानों ने बहुत कुछ सुना और देखा है, अनुभवों को मैं कैसे झुठला दूँ...। “मुझे भी अनुभव करने दो माँ! दुनिया में हर चीज़ के दो रुख होते हैं तुमने अभी तक नकारात्मक देखा है, मैं उसे सकारात्मक रूप से तुम्हारे सामने शायद रख सकूँ।”

“उफ़!” भाभी इतना कह कमरे से निकल गई। यह देख माँ बोली, “मेरी बात की गहराई को समझ बेटी! यह शादी मुझे किसी कोण से ख़ुशी नहीं दे रही है। माँ का दिल है... आनेवाली घटना को भाँप लेता है। थोड़ा रुक जा, जल्दी में फ़ैसला मत कर मेरी लाडो।”

“माँ, यह रिश्ता एक-दो दिन का नहीं पूरे तीन वर्ष का है। बच्चे मुझसे हिले हुए हैं, उन्हें मेरा इन्तजार है। इससे ज्यादा देर की तो फिर समझो बच्चों का जहन...।” 

“पता नहीं तुझे कैसे समझाऊँ! तेरी और कुमार की उम्र में पूरे बारह साल का फ़र्क़ है।”

“बस माँ! मुझे और मत डराओ, तुम्हारी यह बातें मेरा फ़ैसला नहीं बदल सकती हैं।”

झिलमिल के तेवर और लहजे का फ़ैसलाकुन अन्दाज माँ को तोड़ गया और वह न चाहने के बावजूद फफककर रो पड़ी।

झिलमिल कुछ देर माँ को रोता देखती रही फिर उसका दिल उमड़ा कि वह सब कुछ कह दे जो उसका सच है, तब शायद माँ को इत्मीनान हो। मगर क्या वह यह सब सह पाएगी? उसने माँ को डबडबाई आँखों से देखा और सर झुका लिया। कुमार का रिश्ता झिलमिल से नापतौल का नहीं बना था। इत्तफ़ाक़ था जो दोस्ती में बदल घर बसाने की राह पर चल पड़ा था। कुमार को भी कई तरह से ख़ौफ़ सताते थे। सौतेली माँ की परछाईं का भूत वहाँ भी मँडराता था कि यदि कल झिलमिल का मिजाज बदल गया तो वह किधर जाएगा? बच्चों की तरफ़ या हर क़िस्से-कहानी की तरह वह जोरू का गुलाम बन, जवान पत्नी का चेहरा ताकेगा और अपने ही बच्चों से आँखें मूंद लेगा?

शादी कई तरह की अड़चनों के बावजूद बड़ी अच्छी तरह से निबट गई। दिलों के मैल भी धुले और नये रिश्तों ने वातावरण को बदला। तीन और पाँच साल के मासूम बच्चों ने अपने बर्ताव से सबका दिल जीतना शुरू कर दिया और महीना-भर बाद ही माँ को लगने लगा कि उनका भय कितना फ़जूल था। तो भी वह एक जुमला नहीं भूलती कल जाने क्या होगा?

साल पलक झपकते गुजर गया और माँ की आशा अब निराशा में बदलने लगी कि अब तक बेटी ने ख़ुशी का समाचार नहीं सुनाया, आख़िर वह कब तक ज़िन्दा बैठी रहेगी? साठ के बाद तो ज़िन्दगी पर से विश्वास यूँ ही डगमगा जाता है कि जाने कब मौत आवाज़ दे दे। दामाद और बेटी के खिले चेहरे पर वह अपनी इच्छा का साया नहीं डालना चाहती थी। इसलिए वह अन्दर-अन्दर घुटती और बेटी की सूनी गोद देखकर कुढ़ती थी।

झिलमिल ने पहले तो नौकरी से इस्तीफ़ा दिया मगर वह मंजूर नहीं हुआ। साल-भर की छुट्टी जरूर मिल गई। अब वह नौकरी पर जाती, बच्चे नर्सरी और स्कूल, कुमार अपने नये बिजनेस में, जिन्दगी आहिस्ता मगर बड़े आराम से गुज्जर रही थी। जिन्हें उनका यह सुकून खलता था और वे इनकी जिन्दगी में जहर घोलना चाहते तो भी वे कामयाब नहीं हो पाते थे। सौतेली माँ का मुहावरा कहीं काम नहीं कर पा रहा था। यह इत्तफ़ाक़ कहें या फिर नई सोच का फ़लक, जिसने रिश्तों के समीकरण को बिलकुल नई परिभाषा दे डाली थी।

झिलमिल जब भी घर में तनहा होती तो उसका जहन अक्सर पुरानी जिन्दगी की तरफ़ भटक जाता था। वे रातें भी उसे याद आतीं जो आँसुओं से भीगी थीं। एक तरफ़ माँ का शादी के लिए इसरार और दूसरी तरफ़ यह सच कि वह कभी माँ नहीं बन सकती है। डॉक्टर की इस पेशनगोई को उसने कई जगह और चेक कराया था फिर ख़ुद ही रो-धोकर सब्र कर लिया, मगर ममता को कैसे दबाती, सुलाती और भूल जाती उस तमन्ना को जो माँ बनने के लिए उसे उकसाती और जब रमेश और बख़्तियार उसकी तरफ़ बढ़ते तो घबराकर पीछे हट जाती थी। ऐसे मौक़ों पर वह अपने सीनियर कुलीग के साथ उनके घर पहुँच जाती और अपनी चिन्ताओं से निकलकर उनकी चिन्ता में डूब जाती जहाँ उनकी दो माह की बच्ची आया के सहारे पूरे दिन तनहा घर में रहती थी। कभी-कभार का यह मिलना, बढ़ता गया और धीरे-धीरे झिलमिल के दिमाग़ में यह सवाल उभरने लगा कि मैं परिवार चाहती हूँ, परिवार वाला भरा-पूरा चहकता घर, अगर मुझे शादी ही करना है तो फिर किसी ऐसे आदमी से शादी करूँ जो पहले से औलाद वाला हो और... वह सोचते-सोचते ठहर जाती।

“क्या ऐसा हो सकता है? बच्चों वाले बाप से क्या उसे इश्क़ हो सकता है? कहाँ मिलेगा ऐसा मर्द... जवान मर्द? क्या वह मर्द भी उसे प्यार दे पाएगा?”

इन्हीं सवालों से उलझती हुई वह अपनी मेडिकल रिपोर्ट के बारे में न माँ से न भाभी से कुछ बता पाई, उस सदमे से तो वह बाहर निकल आई थी, अब उसे नई ज़िन्दगी का नक़्शा बनाना था। हँसी-हँसी में वह रमेश और बख़्तियार का दिल टटोल चुकी थी कि क्या कोई मर्द किसी बाँझ औरत से शादी कर सकता है? उनका जवाब तड़ से आया, मुश्किल है। बात आई-गई हो गई, मगर उसके लिए एक नई समस्या कि अब आगे क्या होगा?

वह उन लड़कियों में से नहीं है जो सच को छुपाए और न उनमें से जो परिवार के बिना तन व तनहा ‘वर्किंग गर्ल’ बन सारी जिन्दगी तनहा नौकरी करते गुजार दे? फिर... शादी के बिना भी तो लड़कियाँ लावारिस बच्चों को गोद ले रही हैं। यह, वह भी तो कर सकती है फिर चिन्ता काहे की?

अब तो वह आज़ाद है कि रमेश की तरफ़ बढ़े या बख्तियार की तरफ़। उनकी आँखों के ख़ामोश पैगाम को वह अनपढ़ा छोड़कर रास्ता बदल ले। उसके लिए यही बेहतर है... माँ कुछ भी कहे... भाई, भाभी कुछ भी समझें। उसका सच भी तो एक सच है जिसके साथ उसे जीना है।

ज़िन्दगी तो झिलमिल की उस दिन बदली जिस दिन कुमार की बेटी ने उसकी तरफ़ लपक... म.. ममा कहा। पहला शब्द! 

सभी एकाएक भौचक रह गए।

आया हँस पड़ी। कुमार मुस्कुरा पड़े। किसने क्या सोचा क्या नहीं सोचा मगर उसके अन्दर कुछ चिटका था।

उस चिटकन के नीचे ममता की सरिता धीमे-धीमे बह रही थी। अपना यह अनुभव यह अनुभूति किसे सुनाए किससे कहे कि वह माँ बन सकती है?

बेटा भी बहन की देखादेखी उसे मम्मी कहने लगा और वह जाने किस जज्बे से बँधी कुमार के घर हर दूसरे-तीसरे दिन पहुँचने लगी।

कुमार अनजाने में झिलमिल की तरफ़ बढ़ रहे थे या नहीं मगर उनको अपनी हक़ीक़त पता थी कि कुँवारी, स्मार्ट और बढ़िया कमानेवाली शालीन घर की लड़की पति के रूप में उन्हें कभी पाना नहीं चाहेगी, इसलिए वह अपनी हर भावना से अनजान ही रहे मगर झिलमिल नहीं।

झिलमिल को अपने और कुमार का यह दोस्ताना रिश्ता विवेचना की माँग कर बैठा क्योंकि उसके सामने ज़िन्दगी ने दरवाज़ा खोला था।

कुमार शरीफ़ इनसान था।

अच्छा कमाता और बच्चों का ध्यान रखता... और क्या पता... उसके अन्दर कैसा और कितना रोमांटिक आदमी छुपा है जो रिश्ते के बनते ही उसके कुँवारे जज़्बात, को पूरे अरमान से समझे।

झिलमिल को चन्द माह के लम्बे फ़िक्र व कई बार इम्तहानों से गुजर यह महसूस हो गया कि वह कुमार को पसन्द करती है, दो दिन से तीसरा दिन गुजर जाए तो वह कुमार के बच्चों को मिस करती है। उनके बीच जो शालीनता का पर्दा पड़ा है वह दरअसल उनकी ऑफ़िस की स्थिति के कारण है... वे अपने को सहकर्मी समझते हैं दोस्त प्रेमी नहीं।

कुमार के मन की बात भी उसे समझनी होगी मगर कैसे...

“यार तुम लोग शादी क्यों नहीं कर लेते?” बचपन के दोस्त ने एक दिन दोनों से कह दिया, पता नहीं मजाक में या कटाक्ष में, कुमार सिटपिटा गया और झिलमिल मुस्कुरा दी। जो भी हो शरारत से कहा वह जुमला दोनों के सामने एक रुपहली राह खोल गया।

आधुनिक समय की प्रेमगाथा, या आधुनिक रिश्तों का नया समीकरण... नहीं

आधुनिक दौर में रिश्तों की नई परिभाषा लेकर आख़िर क्या?

सोचते-सोचते झिलमिल हँस पड़ी।

बन्द दरवाजे के पीछे से बच्चों की चहकार सुनाई पड़ी तो वह चौंक पड़ी। वे दोनों आया के साथ पार्क से लौटे हैं। उसने आगे बढ़कर दरवाज़ा खोला।

दोनों भागते हुए उसके पैरों से लिपट गए। उसने बेटी को गोद में उठाकर चूमा और बेटे के सर को सहलाती खाने की मेज़ की तरफ़ बढ़ी जहाँ उसने अपने हाथों पकाकर कुछ रखा था।

फ़ोन की घंटी बजी।

“हलो! माँ का फ़ोन था। उसने माँ से वायदा किया कि वह कल जरूर ऑफ़िस की वापसी पर उनके पास आएगी। होली उन्हीं के साथ मनाएगी।”

बच्चों को कहानी सुनाते हुए वह सोच रही थी क्यों न कल माँ को भी अपनी सच्ची कहानी सुना ही डाले ताकि वह चैन की साँस ले सके। उनके मन में फँसी फाँस भी निकल जाए और वह उसकी नज़र से भी इस दुनिया को देखकर अपनी पुरानी सोच से बाहर निकल आएँ कि उनकी बेटी ने आख़िर कुछ अलग अनुभव किया है।

 

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