“मेरी तरह इतने करीब से तो उनको और किसी ने भी नहीं देखा है। उस रवि ठाकुर को कितने लोग जानते-पहचानते हैं, मैं जिन्हें पहचानती हूँ, जानती हूँ। मैं लिखना नहीं जानती। वे कितनी सुन्दरता से सजा-सँवारकर मन की बातें कह देते हैं। मैं एकदम ही नहीं कर पाती।”
रवीन्द्रनाथ ठाकुर की जयंती पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, रंजन बद्योपाद्याय के उपन्यास ‘मैं रवीन्द्रनाथ की पत्नी’ का एक अंश। इस उपन्यास में लेखक ने यह सोचने की कोशिश की है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की पत्नी मृणालिनी ने यदि कोई आत्मकथा लिखी होती तो वह उसमें क्या लिखतीं? मूलरूप से बांग्ला भाषा में लिखे गए इस उपन्यास का हिन्दी में अनुवाद शुभ्रा उपाध्याय ने किया है।
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वे कहते हैं, उनके विवाह की कोई कहानी नहीं है।
उनके विवाह की कहानी होगी भी तो कैसे? मेरी तरह अति साधारण, अल्प शिक्षित एक ग्राम्य बालिका के साथ विवाह की कोई कहानी न होना ही तो स्वाभाविक है।
किन्तु मेरे विवाह की बड़ी मजेदार कथा है।
रवि ठाकुर के साथ विवाह-कहानी नहीं होगी?
मेरा सम्पूर्ण जीवन ही तो मेरे विवाह की कथा है। मेरा विवाह हुआ लगभग दस वर्ष की उम्र में।
और रवि ठाकुर की पत्नी बनकर रही लगभग उन्नीस वर्ष।
तो मेरे जीवन में कुछ है ही नहीं—एक के बाद एक उनकी सन्तानों की माँ बनना, एवं उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करना तथा क्रमशः एकाकी और रुग्ण होते जाने के सिवा।
ना ना, और भी है। वही बात तो बड़ी बात है।
वह है मेरे परिचय की गौरव गाथा। महिमा।
धीरे-धीरे मैं समझ रही हूँ कि वैसा कुछ न करके भी मैं अमरत्व को प्राप्त कर रही हूँ।
उनकी तेजस्विता ही मेरा तेज है।
उनकी महत्त यात्रा और निर्मित होते इतिहास में मेरा स्थान अक्षुण्ण है।
मेरी तरह इतने करीब से तो उनको और किसी ने भी नहीं देखा है।
यह सौभाग्य तो सिर्फ मेरा है।
मेरे ऊपर ईश्वर की करुणा का अन्त नहीं।
सब तरह से ही कितनी साधारण और तुच्छ हूँ मैं।
फिर भी मैंने ही देखा है चाँद का पृष्ठतल। यह तो ईश्वर का आशीर्वाद ही है।
उस रवि ठाकुर को कितने लोग जानते-पहचानते हैं, मैं जिन्हें पहचानती हूँ, जानती हूँ।
पहले ही बताया है कि मैं लिखना नहीं जानती। वे कितनी सुन्दरता से सजा-सँवारकर मन की बातें कह देते हैं।
मैं एकदम ही नहीं कर पाती।
उनके साथ घर बसाया— यदि इसे घर बसाना कहें तो—जो भी हो, इतने वर्ष एक साथ गुजारे हैं— लेकिन चाहकर भी लेखन-कला की अभ्यस्त नहीं हो सकी।
किन्तु फिर भी, जितना ही शारीरिक दृष्टि से कमजोर हो रही हूँ, जितना ही घर-परिवार के दायित्वों को वहन करने में असमर्थ हो रही हूँ, जितना ही अकेलापन खल रहा है, उतना ही मन कर रहा है कि कुछ लिखकर समय काटूँ।
देखा है, लिखते रहने से कितना समय कट जाता है।
लेकिन क्या लिखूँ?
क्यों, आत्मकथा।
मैं तो लेखक नहीं हूँ उनकी तरह कि बना-बनाकर लिखूँ। अपनी कहानी ही लिखती हूँ। बनाना नहीं पड़ता। एकदम रेडीमेड गल्प।
अपनी कहानी लिखूँ कैसे?
अपनी तरह से मैंने अपने जीवन को जैसा देखा है वैसे। वही सब लिख डालती हूँ।
वह देखना आपके रवि ठाकुर की तरह का नहीं भी हो सकता है। वह न होना ही तो स्वाभाविक है।
वे यदि कभी हमारी कहानी लिखेंगे, हम लोगों को लेकर अपने जीवन की कहानी—लिखेंगे भी क्या कभी? वह लिखा तो मुद्रित अक्षरों में निकलेगा। सभी पढ़ेंगे। बिलकुल अलग ही दृष्टिकोण से, रचना की तरह रचना। आखिर रवि ठाकुर की रचना है भाई।
तब हमसे अधिक रचना ही महत्त्वपूर्ण हो उठेगी। मैं तो इसे छापने के लिए लिख नहीं रही हूँ। छिपाकर रखने के लिए लिख रही हूँ।
जैसे उन्हें लिखी मेरी चिट्ठियाँ—वे सारी चिट्ठियाँ, मुझे मालूम है, मेरे साथ चिता पर आरूढ़ होंगी। कोई कभी भी उन्हें ढूँढ़कर नहीं पढ़ सकेगा। इस लिखे के भाग्य में क्या है कौन जाने! मेरे विवाह के कुछ साल बाद। वे शिलाईदह में जमींदारी की देखभाल में व्यस्त थे।
कितना कुछ लिख रहे थे। कहानी। कविता। गीत।
उनके कार्य और उनकी ख्याति क्रमशः बढ़ रही थी। मैं तो उतना कुछ समझती भी नहीं। दूर से ही केवल उनका मंगल चाहती हूँ। वे इतने दूर हैं। मन अजीब-सा करता है। कितने दिन उन्हें देख नहीं पाती। किन्तु यह भी सोचती हूँ कि दूर हैं मतलब अच्छे हैं।
अपने मन मुताबिक काम कर पा रहे हैं।
जोड़ासाँको की बाड़ी में विशेषकर महिला-महल में कूटनीतियों का कोई अन्त नहीं।
केवल दुनियावी उठापटक।
सभी अपनी स्वार्थ-सिद्धि में लगे हुए हैं।
उसी नोच-खसोट के बीच मैं सड़ रही हूँ।
जितना हो सकता है मानकर चलने की चेष्टा करती हूँ।
कभी-कभी मन में आता है कि घर-गृहस्थी, बाल-बच्चे सब दायित्व क्या सिर्फ मेरा ही है?
उनको क्या कभी भी अपने पास नहीं पाऊँगी?
कहूँ तो मैं ही अभी इस गृह की स्वामिनी हूँ। जबकि मैं इस घर की छोटी बहू हूँ।
उनको सुविधा-असुविधा बताने का कोई उपाय ही नहीं है।
वे तो दिन-रात पूर्वी बंगाल की नदियों के विहार पर हैं। पद्मा तट पर, किसी अज्ञात प्रान्त के पास नौका पर ही वे दिन काट रहे हैं।
कभी इछामती पर तो कभी दीर्घा के नदी-पथ पर। तो कभी सुदूर नोयालंग में एकाकी।
उनके साथ सम्पर्क बनाने का कोई जरिया नहीं है।
कभी ऐसा हुआ कि उनकी चिट्ठी आई कालिग्राम से। उसके पश्चात खबर आई कि वे नाटोर में हैं। वे पतीसर में हैं। वे कुष्ठिया में हैं। मैं जब अपने बारे में सोचती हूँ तो पाती हूँ कि पन्द्रह साल से, वास्तव में जोड़ासाँको की बाड़ी की परिचारिका हो गई हूँ।
इसके सिवाय कोई उपाय भी तो नहीं है।
बाड़ी की बड़ी बहू सर्वसुन्दरी, बहुत समय हुआ, मरते-मरते बची हैं। बड़ी बहू यानी मेरे बड़े भसुर द्विजेन्द्रनाथ की पत्नी।
मेरी मझली जिठानी ज्ञानदानन्दिनी, अर्थात सत्येन्द्रनाथ की पत्नी, वे तो विलायत रिटर्न मेम साहब हैं, तिस पर प्रथम भारतीय आई.सी.एस. की पत्नी होने की ठसक, वे जोड़ासाँको का घर-परिवार छोड़कर साहबों के इलाके पार्क स्ट्रीट में रहती हैं। बड़े लोगों की बड़ी बात! बाबा मोशाय भी आजकल कलकत्ता आते हैं तो वहीं रहते हैं। मझली जिठानी के एक पुत्र, एक पुत्री है।
सुरेन और इन्दिरा।
और एक बेटा हुआ था। देखने में बहुत प्यारा था। उसका नाम रखा गया था कवीन्द्र। लेकिन सब उसे चोबि कहकर बुलाते थे। उसकी मृत्यु विलायत में हुई दो वर्ष की उम्र में। लगता है विलायत की ठंड सहन नहीं कर सका।
अब अपनी सँझली जिठानी नीपमयी की बात बताती हूँ।
मेरे सँझले भसुर हेमेन्द्रनाथ का देहान्त चालीस वर्ष की उम्र में हुआ।
ग्यारह बाल-बच्चे लेकर नीपमयी विधवा हुईं और विधवा होने के बाद से ही वे घर-परिवार में एक कटोरी भी इधर से उधर नहीं करतीं। धरम-करम के साथ बिलकुल अलग-थलग रहने लगी हैं।
मेरी और भी एक जिठानी हैं। ये हैं मेरे श्वसुर के चतुर्थ पुत्र वीरेन्द्रनाथ की पत्नी प्रफुल्लमयी। प्रफुल्लमयी नीपमयी की छोटी बहन हैं। नीपमयी का तो विवाह हुआ हेमेन्द्रनाथ के साथ और उनके बाद के भाई ने विवाह किया नीपमयी की छोटी बहन प्रफुल्लमयी के साथ। कारण यह कि इनके पिता हरदेव चाटुर्ज्या मेरे श्वसुर मोशाय के बड़े भक्त थे। अतएव भक्त की दो कन्याओं को अपने दो बेटों की पत्नी बनाकर बाबा मोशाय घर ले आए। भाग्य से उनका सुख देखा न गया। अचानक ही प्रफुल्लमयी के पति वीरेन्द्रनाथ विक्षिप्त हो गए।
आपके रवि ठाकुर ने हँसते हुए एक दिन मुझसे कहा, “मेरे दादा पूर्ण विक्षिप्त हैं और मैं अर्द्धविक्षिप्त।”
मैंने कहा, “राम-राम, तुम क्यों विक्षिप्त होने लगे?”
वे बोले, “कवि मात्र ही अर्द्धविक्षिप्त होते हैं।”
मेरे जेठ जब उन्माद रोग से पीड़ित थे तभी उनके एकमात्र पुत्र बलेन्द्रनाथ का जन्म हुआ।
बलेन्द्र की मात्र उनतीस वर्ष की उम्र में मृत्यु हो गई।
बलू ने ही मुझे संस्कृत, अंग्रेजी आदि सब सिखाया था। वह मेरा घनिष्ठ मित्र था। उसकी मृत्यु से मैं और भी अकेली हो गई। बलू के विषय में बाद में बताती हूँ। जितना कहा जा सकता है, उतना ही कहूँगी, अपने और बलू के बन्धुत्व के विषय में। हाँ, अभी तो मैं जोड़ासाँको के जटिल परिवेश के विषय में बता रही हूँ जिसके बीच मैंने अकेले ही साल-दर-साल काटे हैं और कहा जा सकता है कि समाप्त हो गई हूँ। उन्हें कभी अपने पास नहीं पाया, तभी सारा जीवन, चरम एकाकीपन में रहना पड़ा है। बलू की मृत्यु के पश्चात बाबा मोशाय ने एक अत्यन्त निष्ठुर कार्य किया। मैं मन से उसे स्वीकार नहीं कर पाई। किन्तु उन्होंने बाबा मोशाय का समर्थन किया था। मेरे मन की पीड़ा को वे समझ न सके।
बलू की मृत्यु के पश्चात बाबा मोशाय ने अपनी अन्तिम वसीयत में उन्मादग्रस्त पुत्र वीरेन्द्र को पैतृक सम्पत्ति से बेदखल कर दिया। कारण दिखाया कि बलू की मृत्यु के बाद वीरेन्द्र का और कोई उत्तराधिकारी नहीं है। और वह स्वयं विक्षिप्त है। इसलिए उसे सम्पत्ति का हिस्सेदार बनाना उचित नहीं होगा। वीरेन्द्र की विधवा पत्नी प्रफुल्लमयी के विषय में बाबा मोशाय ने एक बार भी नहीं सोचा। प्रफुल्लमयी अर्थ-चिन्ता में टूट गईं। जोड़ासाँको का पारिवारिक परिवेश जैसे मानो अन्धकारपूर्ण और जटिल हो उठा।
वे दूर से इसे कितना कुछ महसूस कर पा रहे थे, नहीं पता। मुझे लग रहा था कि बाबा मोशाय ने प्रफुल्लमयी के साथ अन्याय किया है। किन्तु आपके रवि ठाकुर ने बाबा मोशाय के ही सिद्धान्तों का समर्थन करते हुए एक चिट्ठी में मुझे लिखा था— “अपनी एकमात्र सन्तान को खो देने के बाद भी सँझली भाभी जिस प्रकार रुपए-पैसे, कम्पनी के कागजात, क्रय-विक्रय आदि मामलों में उलझी रहती हैं उसे देखकर सभी को आश्चर्य और वितृष्णा हो रही है…” चिट्ठी पढ़कर मुझे लगा, कम से कम मेरे पति अत्यन्त चिढ़े हुए हैं। आपके रवि ठाकुर ने यह भी बताया कि मानव स्वभाव की विडम्बनाओं को ध्यान में रखते हुए वे सँझली भाभी के इस कार्य-व्यापार को भी शान्त भाव से ग्रहण करने की चेष्टा कर रहे हैं।
मुझे, पहली बार पति की चिट्ठी पाकर तुरन्त उसका जवाब लिखने की तीव्र इच्छा हुई थी। और उस चिट्ठी मैं उनसे एक प्रश्न पूछना चाह रही थी।
किन्तु चिट्ठी नहीं लिखी, प्रश्न भी न पूछ सकी। हिम्मत ही नहीं हुई।
अपनी इस अस्त-व्यस्त किन्तु एकदम खरी आत्मजीवनी में वही प्रश्न आपके रवि ठाकुर के निमित्त लिख छोड़ रही हूँ—
तुम क्या भूल गए थे कि तुम्हारे विक्षिप्त भाई के एकमात्र पुत्र बलू का जब देहान्त हुआ तो वह अपने पीछे छोड़ गया था पन्द्रह वर्षीय विधवा पत्नी—साहाना को?
उसके भरण-पोषण का उत्तरदायित्व क्या सँझली भाभी के ऊपर नहीं आ गया था?
बाबा मोशाय यह बात कैसे भूल गए?
और तुमने भी चूँ तक न की।
तुम्हारे इस व्यवहार से मैं जितना चकित थी उससे कहीं ज्यादा शर्मिन्दगी महसूस हुई थी।
और भी एक घटना घटी थी मेरी आँखों के सामने।
साहाना मान करके अपने पिता के घर इलाहाबाद चली गई। साहाना के पिता मेजर फकीर चाटुर्ज्या प्रभावशाली व्यक्ति थे। वे पन्द्रह वर्षीय विधवा पुत्री के पुनर्विवाह की कोशिश में लग गए।
साहाना बारह वर्ष की उम्र में बलू की पत्नी बनकर आई थी।
तीन वर्षों में उसकी कोई सन्तान न हुई। यह एक राहत थी। ज्यों ही बाबा मोशाय के कर्ण-कुहरों में साहाना के पुनर्विवाह के प्रयत्नों की बात पहुँची उनके तन-बदन में जैसे आग लग गई। वे विधवा-विवाह के घोर विरोधी थे।
इसके अतिरिक्त उन्हें लगा, ठाकुरबाड़ी की किसी विधवा के अन्यत्र विवाह से उनकी वंश-मर्यादा को ठेस पहुँचेगी।
बाबा मोशाय ने अपने सन्देशवाहक के रूप में तुम्हें ही इलाहाबाद भेजा। तुम्हारा एकमात्र कार्य था पन्द्रह वर्षीय विधवा साहाना के पुनर्विवाह को रोककर उसे फिर से जोड़ासाँको बाड़ी के कैदखाने में हाँक लाना।
मुझे लगता है, यदि तुम्हारे मझले भइया को बाबा मोशाय यह कार्य करने को कहते तो वे प्रतिवाद करते।
एकमात्र उनके ही अन्दर बाबा मोशाय से स्पष्ट बात करने की हिम्मत मैंने देखी है। तुम भाइयों में इस विषय में वे निपट अकेले हैं। अवश्य ही इसकी एक बड़ी वजह है उनका प्रथम भारतीय आई.सी.एस. होना। अच्छी-खासी रकम उनका मासिक वेतन है। वे बाबा मोशाय की वसीयत में मुकर्रर हाथ खर्च पर निर्भर नहीं करते।
बाबा मोशाय ने ज्यों ही तुम्हें इलाहाबाद जाने को कहा आनन-फानन तुम इलाहाबाद के लिए दौड़ पड़े।
ठीक वैसे ही जैसे बाबा मोशाय के कहने पर आनन-फानन मुझसे विवाह किया। मुझसे विवाह करना तो सिर्फ पितृ-आज्ञा पालन ही था। है ना?
क्यों किया था विवाह-बोलो?
तुम भी दुख पा रहे हो। और मैं? मेरी बात छोड़ो। कम से कम अभी। बाद में तो करनी ही होंगी वे सब बातें। अभी मैं जो बात कर रही थी—तुम इलाहाबाद चले गए। किस उद्देश्य से इलाहाबाद जा रहे हो, स्पष्ट तौर पर मुझे भी नहीं बताया था।
मैंने पूछा भी था।
तुमने कहा, “एक बार साहाना के घर जाना पड़ रहा है।”
“साहाना के पिता के घर! वह तो इलाहाबाद में हैं। उसके यहाँ जाने की क्या जरूरत आन पड़ी?”
“बाबा मोशाय का आदेश है।”
“वह बेचारी इस घर में एकदम ठीक न थी। बहुत अकेली हो गई थी। हर समय रोती रहती।”
“शुरू-शुरू में तो रोएगी ही। इतनी कम उम्र में विधवा हो गई। लेकिन क्या है कि जानती हो छोटी बहू, धीरे-धीरे आदत पड़ जाती है। इस घर में इतने लोग हैं। उसे अभी लोगों के साथ की जरूरत है।”
“उसे क्या वापस लिवाने जा रहे हो?”
“देखते हैं।”
“पिता के घर जाकर यदि बेचारी चैन से रह सक तो रहने दो न। अभी ही उसे वापस लाना होगा?”
“तुम नहीं समझोगी छोटी बहू। साहाना ठाकुरबाड़ी की बहू है। इस घर में ही उसकी जगह है। उसका मन यदि अन्यत्र कहीं लगता है तो यह उसके भविष्य के लिए अच्छा नहीं होगा।”
मैंने दूसरों के मुँह से सुना कि साहाना को इतनी जल्दी वापस लाने की जरूरत क्यों आन पड़ी थी।
बाबा मोशाय ने तो आजीवन विधवा-विवाह का विरोध किया है। लेकिन तुम्हारा कोई अपना मत न था?
तुमने तो मुझसे कितनी बार कहा है कि तुम विधवा-विवाह के पक्षधर हो। तथापि बाबा मोशाय देवेन्द्रनाथ ठाकुर के सिद्धान्त के प्रतिवाद स्वरूप एक शब्द बोलने का भी साहस तुममें न हुआ।
मैं तुम्हें अत्यन्त श्रद्धा करती हूँ।
बहुत प्रेम करती हूँ।
इसीलिए जब तुम साहाना को बहला-फुसलाकर जोड़ासाँको की ठाकुरबाड़ी में वापस लाने के लिए इलाहाबाद गए, मुझे अपार कष्ट हुआ था। बहुत लज्जित भी हुई थी।
और हाँ, मैं जानती थी कि साहाना के पितृगृह में तुम्हारी बात रख ली जाएगी। साहाना तो ऐसे ही अबोध लड़की—उसका कैसा मतामत। मेरे मन में जरा-सा भी सन्देह न था। तुम जब उसे लेने जा रहे हो तो वह ठीक ही चली आएगी। और उसका शेष जीवन विधवा के रूप में ही व्यतीत होगा।
तुम्हारे साथ बातचीत, तर्क-वितर्क और समझाने की कला में कौन पार पा सकता है?
तुम तो भाषा के भगवान हो।
तुम्हारी बातों में जो जादू है, उसके कितने ही प्रमाण सारा जीवन मैंने पाए हैं।
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