22 मई 1987 की आधी रात ग़ाज़ियाबाद शहर से सिर्फ़ पन्द्रह-बीस किलोमीटर दूर मकनपुर गाँव की नहर की नीम अँधेरी पुलिया पर स्तब्ध खड़ा मैं स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े हिरासती हत्याकांड का गवाह बना था। सामने मद्धम गति से दिल्ली की ओर बहता हुआ गंदला पानी था, जो किनारे उगी सरकंडे की घनी झाड़ियों से टकरा कर टूट-टूट जा रहा था और पानी तथा सरकंडों के गुंजलकों में कुछ इंसानी लाशें थीं, जिनके ज़ख़्मों से तब भी ख़ून टपक रहा था। सब कुछ इतना अविश्वसनीय और लोमहर्षक था कि उस घटना-स्थल पर मिले एकमात्र जीवित बाबूदीन के दिए गए विवरण प्रारंभ में हमें किसी रहस्यलोक की प्रेतगाथा की तरह लगे। अगले कुछ घंटों तक हमने उसके बयान, घटना-स्थल से मिले सबूतों और मुरादनगर क़स्बे के दूसरे घटनास्थल गंग नहर से हासिल जानकारियों को जब टुकड़े-टुकड़े कर के जोड़ा तो हमारे सामने भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के आपसी रिश्तों को परिभाषित करने वाली और किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को झकझोर देने वाली एक ऐसी अपराध कथा उद्घाटित हुई, जो किसी भी धर्मनिरपेक्ष समाज के लिए एक बड़ी चुनौती साबित हो सकती थी। उस रात मैंने दो फ़ैसले किए—पहला, एक पुलिस अधिकारी के रूप में कि इन बर्बर हत्याओं के लिए दोषियों को उनकी तार्किक परिणति तक पहुँचाऊँगा और दूसरा, मेरे भीतर बैठे लेखक ने तय किया कि मुझे इस घटना को एक रचनात्मक अभिव्यक्ति देनी है।
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हाशिमपुरा हत्याकांड के 10 अभियुक्त पी.ए.सी. जवानों को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दे दी है। राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, गाज़ियाबाद के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक विभूति नारायण राय की किताब ‘हाशिमपुरा 22 मई’ का एक अंश। यह किताब उस हत्याकांड का आँखों देखा ब्यौरा प्रस्तुत करने के साथ ही उसके कारणों और उसके बाद चले मुकदमे और उसके फैसले के नतीजों को जानने की कोशिश करती है।
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उस रात दस-साढ़े दस बजे हापुड़ से ग़ाज़ियाबाद वापस लौटा था। साथ में जिला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी थे, जिन्हें उनके बँगले पर उतारता हुआ मैं पुलिस अधीक्षक निवास पर पहुँचा। निवास के गेट पर जैसे ही कार की हेडलाइट पड़ी, मुझे घबराया हुआ और उड़ी रंगत वाला चेहरा लिए सब इंसपेक्टर वी.बी. सिंह दिखाई दिया, जो उस समय लिंक रोड थाने का इंचार्ज था। मेरा अनुभव बता रहा था कि उसके इलाक़े में कुछ गम्भीर घटा है। मैंने ड्राइवर को कार रोकने का इशारा किया और नीचे उतर गया।
वी.बी. सिंह इतना घबराया हुआ था कि उसके लिए सुसंगत तरीक़े से कुछ भी बता पाना सम्भव नहीं लग रहा था। हकलाते हुए और असंबद्ध टुकड़ों में उसने जो कुछ मुझे बताया, वह स्तब्ध कर देने के लिए काफ़ी था। मेरी समझ में आ गया कि उसके थाना क्षेत्र में कहीं नहर के किनारे पी.ए.सी. ने कुछ मुसलमानों को मार दिया है। क्यों मारा? कितने लोगों को मारा? कहाँ से लाकर मारा? स्पष्ट नहीं था। कई बार उसे अपने तथ्यों को दोहराने के लिए कह कर मैंने पूरे घटनाक्रम को टुकड़े-टुकड़े जोड़ते हुए एक नैरेटिव तैयार करने की कोशिश की। जो चित्र बना उसके अनुसार वी.बी. सिंह थाने में अपने कार्यालय में बैठा हुआ था कि लगभग 9 बजे उसे मकनपुर की तरफ़ से फ़ायरिंग की आवाज़ सुनाई दी। उसे और थाने में मौजूद दूसरे पुलिसकर्मियों को लगा कि गाँव में डकैती पड़ रही है।
आज तो मकनपुर गाँव का नाम सिर्फ़ रेवेन्यू रिकार्ड्स में है। इस समय की गगनचुम्बी आवासीय इमारतों, मॉल और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों वाले मकनपुर में 1987 में दूर-दूर तक बंजर ज़मीन पसरी हुई थी। इसी बंजर ज़मीन के बीच की चक रोड पर वी.बी. सिंह की मोटरसाइकिल दौड़ी। उसके पीछे थाने का एक दारोग़ा और एक अन्य सिपाही बैठा था। वे चक रोड पर सौ गज भी नहीं पहुँचे थे कि सामने से तेज़ रफ़्तार से आता हुआ एक ट्रक दिखाई दिया। अगर उन्होंने समय रहते हुए अपनी मोटरसाइकिल चक रोड से नीचे न उतार दी होती, तो ट्रक उन्हें कुचल देता। अपना सन्तुलन सँभालते-सँभालते जितना कुछ उन्होंने देखा, उसके अनुसार ट्रक पीले रंग का था, उसके पिछले हिस्से पर 41 लिखा हुआ था और सीटों पर खाकी कपड़े पहने कुछ लोग बैठे थे। किसी पुलिसकर्मी के लिए यह समझना मुश्किल नहीं था कि पी.ए.सी. की 41वीं बटालियन का ट्रक कुछ पी.ए.सी. कर्मियों को लेकर उनके सामने से गुज़रा था। पर इससे गुत्थी और उलझ गई।
इस समय मकनपुर गाँव से पी.ए.सी. का ट्रक क्यों आ रहा था? गोलियों की आवाज़ के पीछे क्या रहस्य था? वी.बी. सिंह ने मोटरसाइकिल वापस चक रोड पर डाली और गाँव की तरफ़ बढ़ा। मुश्किल से एक किलोमीटर दूर जो नज़ारा उसने और उसके साथियों ने देखा, वह रोंगटे खड़ा कर देने वाला था। मकनपुर गाँव की आबादी से पहले चक रोड एक नहर को काटती थी। नहर आगे जाकर दिल्ली की सीमा में प्रवेश कर जाती थी। जहाँ चक रोड और नहर एक-दूसरे को काटते थे वहाँ एक पुलिया थी। पुलिया पर पहुँचते-पहुँचते वी.बी. सिंह की मोटरसाइकिल की हेडलाइट जब नहर के किनारे उगे सरकंडों की झाड़ियों पर पड़ी, तो उन्हें गोलियों की आवाज़ का रहस्य समझ में आया। चारों तरफ़ ख़ून के ताज़ा थक्के थे। अभी ख़ून पूरी तरह से जमा नहीं था और ज़मीन पर उसे बहते हुए देखा जा सकता था। नहर की पटरी पर, झाड़ियों के बीच और पानी के अन्दर रिसते हुए ज़ख़्मों वाले शव बिखरे पड़े थे। वी.बी. सिंह और उसके साथियों ने घटनास्थल का मुलाहिजा कर अन्दाज़ लगाने की कोशिश की कि वहाँ क्या हुआ होगा? उनकी समझ में सिर्फ़ इतना आया कि वहाँ पड़े शवों और रास्ते में दिखे पी.ए.सी. की ट्रक में कोई सम्बन्ध ज़रूर है। साथ के सिपाही को घटनास्थल पर निगरानी के लिए छोड़ते हुए वी.बी. सिंह अपने साथी दारोगा के साथ वापस मुख्य सड़क की तरफ़ लौटा।
थाने से थोड़ी दूर ग़ािज़याबाद-दिल्ली मार्ग पर पी.ए.सी. की 41वीं बटालियन का मुख्यालय था। दोनों सीधे वहीं पहुँचे। बटालियन का मुख्य द्वार बन्द था। काफ़ी देर बहस करने के बावजूद भी सन्तरी ने उन्हें अन्दर जाने की इजाज़त नहीं दी। तब वी.बी. सिंह ने जिला मुख्यालय आकर सब कुछ मुझे बताने का फ़ैसला किया। जितना कुछ आगे टुकड़ों-टुकड़ों में बयान किए गए वृत्तांत से मैं समझ सका, उससे स्पष्ट हो गया कि जो घटा है वह बहुत ही भयानक है और दूसरे दिन ग़ािज़याबाद जल सकता था। पिछले कई हफ़्तों से बगल के ज़िले मेरठ में साम्प्रदायिक दंगे चल रहे थे और उसकी लपटें ग़ािज़याबाद पहुँच रही थीं। मैंने सबसे पहले जिला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी को फ़ोन किया। वे सोने जा ही रहे थे। उन्हें जगे रहने के लिए कह कर मैंने जिला मुख्यालय पर मौजूद अपने एडिशनल एस.पी., कुछ डिप्टी एस.पी. और मजिस्ट्रेटों को फ़ोन कर करके जगाया और तैयार होने के लिए कहा। मुझे पता था कि 41वीं बटालियन के कमान्डेंट जोधसिंह भंडारी शहर में रहते थे, क्योंकि अभी बटालियन में निर्माण कार्य शैशवावस्था में ही था। उन्हें भी सूचना देने की व्यवस्था की गई और अगले चालीस-पैंतालीस मिनटों में सात-आठ वाहनों में लदे-फँदे हम मकनपुर गाँव की तरफ़ लपके। वहाँ पहुँचने में हमें मुश्किल से पन्द्रह-बीस मिनट लगे होंगे।
नहर की पुलिया से थोड़ा पहले हमारी गाड़ियाँ खड़ी हो गईं। नहर के दूसरी तरफ़ थोड़ी दूर पर ही मकनपुर गाँव की आबादी थी, लेकिन कोई गाँव वाला वहाँ दिखाई नहीं दे रहा था। लगता था कि दहशत ने उन्हें घरों में दुबकने को मजबूर कर दिया था। थाना लिंक रोड के कुछ पुलिसकर्मी ज़रूर वहाँ पहुँच गए थे। उनकी टाॅर्चों की रोशनी के कमज़ोर वृत्त नहर के किनारे उगी घनी झाड़ियों पर पड़ रहे थे, पर उनसे साफ़ देख पाना मुश्किल था। मैंने गाड़ियों के ड्राइवरों से नहर की तरफ़ रुख़ करके अपने हेडलाइट्स ऑन करने के लिए कहा। लगभग सौ गज चौड़ा इलाक़ा प्रकाश से नहा उठा। उस रोशनी में जो कुछ दिखा वह किसी दु:स्वप्न की तरह मेरी स्मृति में टंका है।
गाड़ियों की हेडलाइट्स की रोशनियाँ झाड़ियों से टकरा कर टूट-टूट जा रही थीं, इसलिए टाॅर्चों का भी इस्तेमाल करना पड़ रहा था। झाड़ियों और नहरों के किनारे ख़ून के थक्के अभी पूरी तरह से जमे नहीं थे, उनमें से ख़ून रिस रहा था। पटरी पर बेतरतीबी से शव पड़े थे—कुछ पूरे झाड़ियों में फंसे तो कुछ आधे तिहाई पानी में डूबे। शवों की गिनती करने या निकालने से ज़्यादा ज़रूरी मुझे इस बात की पड़ताल करना लगा कि उनमें से कोई जीवित तो नहीं है। वहाँ मौजूद हम सबने अलग-अलग दिशाओं में टाॅर्चों की रोशनियाँ फेंक-फेंक कर अन्दाज़ लगाने की कोशिश की कि कोई जीवित है या नहीं। बीच-बीच में हम हाँक भी लगाते रहे कि यदि कोई जीवित हो तो उत्तर दे...हम दुश्मन नहीं दोस्त हैं...उसे अस्पताल ले जाएँगे। पर कोई जवाब नहीं मिला। निराश होकर हममें से कुछ पुलिया पर बैठ गए।
मैंने और जिला मजिस्ट्रेट ने तय किया कि समय खोने से कोई लाभ नहीं है। हमारे पड़ोस में मेरठ जल रहा था और 60 किलोमीटर दूर बैठे हम उसकी आंच से झुलस रहे थे। अफ़वाहों और शरारती तत्त्वों से जूझते हुए हम निरंतर शहर को इस आग से बचाने की कोशिश कर रहे थे। यह सोचकर दहशत हो रही थी कि कल जब ये शव पोस्टमार्टम के लिए जिला मुख्यालय पहुँचेंगे तो अफ़वाहों के पर निकल आएँगे और पूरे शहर को हिंसा का दावानल लील सकता है। हमें दूसरे दिन की रणनीति बनानी थी, इसलिए जूनियर अधिकारियों को शवों को निकालने और ज़रूरी लिखा-पढ़ी करने के लिए कह कर हम लिंक रोड थाने के लिए मुड़े ही थे कि नहर की तरफ़ से खाँसने की आवाज़ सुनाई दी। सभी ठिठक कर रुक गए। मैं वापस नहर की तरफ़ लपका। फिर मौन छा गया। स्पष्ट था कि कोई जीवित है लेकिन उसे यक़ीन नहीं है कि जो लोग उसे तलाश रहे हैं वे मित्र हैं। हमने फिर आवाज़ें लगानी शुरू कीं, टाॅर्च की रोशनी अलग-अलग शरीरों पर डालीं और अन्त में हरकत करते हुए एक शरीर पर हमारी नज़रें टिक गईं।
कोई दोनों हाथों से झाड़ियाँ पकड़े आधा शरीर नहर में डुबोये इस तरह पड़ा था कि बिना ध्यान से देखे यह अन्दाज़ लगाना मुश्किल था कि वह जीवित है या मृत! दहशत से बुरी तरह काँप रहा और काफ़ी देर तक आश्वस्त करने के बाद यह विश्वास करने वाला कि हम उसे मारने नहीं बचाने वाले हैं। जो व्यक्ति अगले कुछ घंटे हमें इस लोमहर्षक घटना की जानकारी देने वाला था, उसका नाम बाबूदीन था। गोली दो जगह उसका मांस चीरते हुए निकल गई थी। भय से निश्चेष्ट होकर झाड़ियों में गिरा तो भाग-दौड़ में उसके हत्यारों को पूरी तरह यह जाँचने का मौक़ा नहीं मिला कि वह जीवित है या मर गया। दम साधे वह आधा झाड़ियों और आधा पानी में पड़ा रहा और इस तरह मौत के मुँह से वापस लौट आया। उसे कोई ख़ास चोट नहीं आई थी और नहर से सहारा देकर निकाले जाने के बाद अपने पैरों पर चलकर वह गाड़ियों तक आया था। बीच में पुलिया पर बैठकर थोड़ी देर सुस्ताया भी।
लगभग 21 वर्षों बाद जब हाशिमपुरा पर किताब लिखने के लिए सामग्री इकट्ठा करते समय मेरी उससे मुलाक़ात हाशिमपुरा में उसी जगह हुई, जहाँ से पी.ए.सी. उसे उठा कर ले गई थी, वह मेरा चेहरा भूल चुका था, लेकिन परिचय जानते ही जो पहली बात उसे याद आई वह यह थी कि पुलिया पर बैठे उसे मैंने किसी सिपाही से माँग कर बीड़ी दी थी। बाबूदीन ने जो बताया उसके अनुसार उस दिन अपराह्न तलाशियों के दौरान पी.ए.सी. के एक ट्रक पर बैठाकर चालीस-पचास लोगों को ले जाया गया तो उन्होंने समझा कि उन्हें गिरफ़्तार कर जेल ले जाया जा रहा है। वे लगातार प्रतीक्षा करते रहे कि जेल आएगा और उन्हें उतार कर उसके अन्दर दािख़ल कर दिया जाएगा। वे सभी वर्षों से मेरठ में रह रहे थे और कुछ तो यहीं के मूल बाशिंदे थे—इसलिए कर्फ़्यू लगी सूनी सड़कों पर जेल पहुँचने में लगने वाला वक़्त कुछ ज़्यादा तो लगा पर बाक़ी सब कुछ इतना स्वाभाविक था कि उन्हें थोड़ी देर बाद जो घटने वाला था, उसका ज़रा भी आभास नहीं हुआ। जब नहर के किनारे एक-एक को उतार कर मारा जाने लगा तब उन्हें रास्ते भर अपने हत्यारों के ख़ामोश चेहरों और फुसफुसा कर एक-दूसरे से बात करने का राज़ समझ में आया।
इसके बाद की कथा एक लम्बी और यातनादायक प्रतीक्षा का वृत्तांत है, जिसमें भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्ते, पुलिस का ग़ैर पेशेवराना रवैया और घिसट-घिसट कर चलने वाली उबाऊ न्यायिक प्रणाली जैसे मुद्दे जुड़े हुए हैं। मैंने 23 मई, 1987 को जो मुक़दमे गाज़ियाबाद के थाना लिंक रोड और मुरादनगर में दर्ज कराए थे, वे 28 वर्षों तक विभिन्न बाधाओं से टकराते हुए अदालतों में चलते रहे और 21 मार्च 2015 को सभी 16 अभियुक्तों की रिहाई के साथ उनका पहला चरण ख़त्म हुआ है।
मैं लगातार सोचता रहा हूँ कि कैसे और क्योंकर हुई होगी ऐसी लोमहर्षक घटना? होशोहवास में कैसे एक सामान्य मनुष्य किसी की जान ले सकता है? वह भी एक की नहीं पूरे समूह की? बिना किसी ऐसी दुश्मनी के, जिसके कारण आप क्रोध से पागल हुए जा रहे हों, कैसे आप किसी नौजवान के सीने से सटाकर अपनी राइफ़ल का घोड़ा दबा सकते हैं? बहुत सारे प्रश्न हैं जो आज भी मुझे मथते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने के लिए हमें उस दौर को याद करना होगा जब यह घटना घटी थी। बड़े ख़राब थे वे दिन। लगभग दस वर्षों से उत्तर भारत में चल रहे राम जन्मभूमि आन्दोलन ने पूरे समाज को बुरी तरह से बाँट दिया था। उत्तरोत्तर आक्रामक होते जा रहे इस आन्दोलन ने ख़ास तौर से हिन्दू मध्यवर्ग को अविश्वसनीय हद तक साम्प्रदायिक बना दिया था। देश विभाजन के बाद सबसे अधिक साम्प्रदायिक दंगे इसी दौर में हुए थे। स्वाभाविक था कि साम्प्रदायिकता के इस अंधड़ से पुलिस और पी.ए.सी. के जवान भी अछूते नहीं रहे थे।
पी.ए.सी. पर तो पहले से भी साम्प्रदायिक होने के आरोप लगते रहे हैं। मैंने इस किताब के सिलसिले में वी.के.बी. नायर, जो दंगों के शुरुआती दौर में मेरठ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे, से एक लम्बा इंटरव्यू लिया था और जो घटनाएँ 23 साल बाद भी उन्हें याद थीं, उनमें से एक घटना बड़ी मार्मिक थी। दंगे शुरू होने के दूसरे या तीसरे दिन ही एक रात शोर-शराबा सुनकर जब वे शयनकक्ष के बाहर निकले, तो उन्होंने देखा कि उनके दफ़्तर में काम करने वाला मुसलमान स्टेनोग्राफ़र बंगले के बाहर बीवी-बच्चों के साथ खड़ा है और बुरी तरह से दहशतज़दा उसके बच्चे चीख़-चिल्ला रहे हैं। पता चला कि पुलिस लाइन में रहने वाले इस परिवार पर वहाँ कैंप कर रहे पी.ए.सी. के जवान कई दिनों से फ़िकरे कस रहे थे और आज अगर अपने कुछ पड़ोसियों की मदद से वे भाग नहीं निकले होते तो सम्भव था कि उनके क्वार्टर पर हमला कर उन्हें मार दिया जाता। पूरे दंगों के दौरान यह परिवार वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक निवास में शरण लिए पड़ा रहा। इन्हीं दिनों जब मेरठ से कुछ मुसलमान क़ैदी फतेहगढ़ जेल ले जाए गए तो उनमें से कई को वहाँ के बन्दियों और वार्डरों ने हमला करके मार डाला।
हाशिमपुरा कांड के लिए उत्तरदायी 41वीं बटालियन के ही एक मुसलमान कांस्टेबल ड्राइवर इफ़्तख़ार अहमद के साथ जो कुछ घटित हुआ, वह उस समय के सच को अच्छी तरह से परिभाषित कर सकता है। 21 मई को दोपहर बाद वह ट्रक नं. URU1352 से फ़ोर्स लेकर मेरठ पुलिस लाइंस पहुँचा। इसी ट्रक में उसके साथ बाद में इस प्रकरण का आरोपी बना प्लाटून कमांडर सुरेन्द्र पाल सिंह भी मेरठ आया था। पुलिस लाइन में पी.ए.सी. जवानों द्वारा मुसलिम बन्दियों के साथ हो रही मारपीट को जब उसने रोकने की कोशिश की तो उसके सहकर्मियों ने उसी के ऊपर हमला कर दिया और अफ़सरों को उसे छिपाकर उसकी जान बचानी पड़ी। ऐसे ही भयानक थे वे दिन। इन दिनों के बारे में विस्तार से मैं आगे लिखूँगा।
फिर भी वे इस हद तक कैसे गए होंगे—मैं इस गुत्थी को सुलझाना चाहता था। मैं हत्यारों की उस मानसिकता को समझना चाहता था, जिसके तहत बिना किसी पूर्व परिचय या व्यक्तिगत दुश्मनी के उन्होंने निहत्थे और अपनी अभिरक्षा में मौजूद नौजवान लड़कों को एक-एक करके भून डाला और असहाय, ज़मीन पर छटपटाते घायलों पर भी तब तक गोलियाँ चलाईं, जब तक उन्हें यक़ीन नहीं हो गया कि उनका काम तमाम हो गया है। मैंने 23 साल इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने में लगाए हैं और अब जब काफ़ी हद तक यह गुत्थी सुलझ गई है, मैं अपनी किताब पर काम करने बैठा हूँ। मुझे अफ़सोस है कि प्लाटून कमांडर सुरेन्द्र पाल सिंह, जो इस पूरी कथा का नायक या खलनायक है, अब मर चुका है और उसके साथ बिताए वे बहुत सारे घंटे बेकार हो गए हैं, जिनके दौरान मैंने उस मानसिकता को समझने का प्रयास किया था, जिसके चलते वह अपने नेतृत्व वाली एक छोटी सी टुकड़ी से ऐसा जघन्य काम करवा पाया होगा। मेरी स्मृति और बातचीत के बाद लिए गए छिटपुट नोट्स में कई दिलचस्प चीज़ें दर्ज हैं।
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मृत्यु से ऐसा निकट का साक्षात्कार कि जब आपकी आँखें खुलें, तो आप अपने अगल-बगल लेटे मृत और अर्द्धमृत शरीरों को छूकर आश्वस्त होना चाहें कि आप अभी जीवित हैं। पिघला हुआ लोहा जब आपकी माँसपेशियों को चीरता हुआ बाहर निकले, तब तक आपकी इन्द्रियाँ इतनी सुन्न हो चुकी हों कि जीवन से मृत्यु में प्रवेश रुई के फाहों-सा आकाश में उड़ना हो। जहाँ और कुछ भी हो पर दर्द न हो, भय न हो और इतना समय भी न हो कि स्मृतियाँ आपको परेशान कर सकें। आपके इर्द-गिर्द गरजती हुई राइफ़लों का शोर हो और हों उस शोर को हिंस्र उत्तेजना से भरती हुई हत्यारों की चीख़ भरी गालियाँ, और इन दोनोंं के बीच सुन्न चेतना से उस क्षण की प्रतीक्षा, जब अगल-बगल से गुज़रती कोई गोली आपके शरीर में इस तरह प्रवेश करे कि आपका शरीर एक क्षण के लिए ज़मीन से ऊपर उछले और ऐंठता हुआ गिर पड़े। ऐसी मौत को आप क्या कहेंगे? ख़ास तौर से तब जब कि अपने हत्यारे को आप पहली बार ग़ौर से देख रहे हों और लाख कोशिश करने पर भी आपको ऐसा कोई कारण नज़र न आए कि आप उसके हाथों क़त्ल हों। बाबूदीन, मुजीबुर्रहमान, मो. नईम, आरिफ़, ज़ुल्फ़िकार नासिर या मो.उस्मान को कैसा लगा होगा, जब मौत से चन्द सेकेण्ड दूर उन्होंने अपने मित्रों, रिश्तेदारों या साथ मेहनत मजूरी करने वालों को मरोड़ खा ऐंठते और ज़मीन पर गिर कर छटपटाते देखा होगा और सुन्न इन्द्रियों वाले उनके शरीर भागने जैसी स्वाभाविक प्रतिक्रिया भी नहीं कर सके होंगे? जान बचाने के लिए सबने एक जैसी ही हरकत की थी। शरीर के किसी हिस्से में गोली लगने के बाद सभी अलग-अलग तरह से ज़मीन पर गिरे पर आसन्न मृत्यु से बचने का प्रयास एक जैसा ही हुआ। दोनोंं घटनास्थल, जहाँ इन 42 व्यक्तियों को उतार कर गोली मारी गई थी, एक जैसे ही थे। दोनों नहरों के किनारे थे और दोनों ही नहरों में तेज़ रफ़्तार से पानी बह रहा था।
हर बचने वाले ने गोली लगने के बाद धरती पर निश्चेष्ट-निःशब्द लेट कर हत्यारों को धोखा देने की कोशिश की कि वह मर चुका है। सभी नहर के पानी में अपने धड़ का ज़्यादा हिस्सा डुबोए, सरकण्डे या दूसरे किसी झाड़-झंखाड़ को पकड़े मृत-अर्द्धमृत शरीरों के बीच इस तरह पड़े रहे कि मारने वाले अपना दायित्व पूरा करने का सन्तोष लेकर वहाँ से हट जाएँ। हत्यारों के चले जाने के बाद भी वे देर तक ख़ून, पानी और कीचड़ में लथपथ बिना किसी हरकत के पड़े रहे। उन्होंने मनुष्य स्वभाव की उस सहज प्रवृत्ति का भी उल्लंघन किया, जिसके तहत मुसीबत में पड़ा व्यक्ति अपने जैसे दो हाथों दो पैरों वाले जीव को देखते ही उसकी तरफ़ मदद के लिए झपटता है। हत्यारों के जाने के घंटों बाद भी घटनास्थल पर आने वाला हर मनुष्य उन्हें उन्हीं हत्यारों के गिरोह का सदस्य लगता था और उसे देख कर मदद मांगना तो दूर, वे और ज़्यादा अपने खोल में सिकुड़ जाते थे। ख़ास तौर से अगर बाद में आने वाला खाकी में हो।
गोली लगने के लगभग तीन घंटे बाद बाबूदीन से मेरी मुलाक़ात हुई। एक मरियल, पिचके गालों वाला औसत क़द का लड़का भीगे परों वाली किसी गौरैया सा सहमा हुआ हमारे सामने खड़ा था। पतलून के पाँयचों में नहर की तलहटी का कीचड़ भरा था और क़मीज़ इतनी तर थी कि अगर उसे उतार कर निचोड़ा जाता तो एकाध लीटर पानी निकल आता। मई की उस सड़ी गर्मी में भी उसका शरीर बीच-बीच में सिहर जाता था। मैंने ग़ौर किया कि 19-20 साल का चेचकरू चेहरे वाला लड़का बोलते समय हकला ज़रूर रहा था, पर उसकी आवाज़ में अजीब तरह की निर्लिप्त तटस्थता व्याप्त थी। मृत्यु के इतने क़रीब पहुँचे व्यक्ति में आस-पास पसरे हुए के प्रति ऐसी उदासी? जिस निर्वैयक्तिकता के साथ उसने हाशिमपुरा से मकनपुर की यात्रा का बयान किया, उससे मुझे अपने शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ती महसूस हुई थी, पर आज दो दशकों के बाद मैं सोचता हूँ तो लगता है कि मौत जब हमारी तरफ़ झपटती है तब हमें दहशत ज़रूर होती है, पर अगर कुछ देर तक वह हमारी सहयात्री रहे और फिर हमें छोड़ती हुई आगे चली जाए तो शायद हम इसी तरह की अनासक्त उदासी से भर जाते हैं।
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