भिखारी ठाकुर के संग : तीन लोग रंग

भिखारी ठाकुर की जयन्ती पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उनके कृतित्व की समग्रता में पड़ताल करती तैयब हुसैन की किताब ‘भिखारी ठाकुर : अनगढ़ हीरा’ का एक अंश जिसमें लेखक ने उनके व्यक्तित्व को तीन अलग-अलग पहलूओं के जरिए समझने की कोशिश की है।

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बिहार विभिन्न भाषाओं का राज्य रहा है। भोजपुरी, मैथिली और मगही तो इस प्रदेश में जैसे त्रिवेणी-सी प्रवाहित है। हिन्दी के बाद भोजपुरी इनमें से सर्वाधिक व्यापक भाषा के रूप में रही है। इसका प्रचार-प्रसार न केवल देश बल्कि नेपाल, मॉरीशस, ट्रिनिडाड, ब्रिटिश, गुयाना, फिजी आदि विदेशों में भी है। इस भाषा से सम्बन्धित विषयों पर शोध-कार्य की एक लम्बी शृंखला तो है ही, इसने कबीरदास, ग्रियर्सन, राजेन्द्र प्रसाद, राहुल सांकृत्यायन, शिवपूजन सहाय, महेन्द्र मिश्र, सच्चिदानन्द सिन्हा, मनोरंजन प्रसाद और महेन्द्र शास्त्री जैसे लोगों को भी अपनी ओर आकर्षित किया है।

लोक कलाकार स्व. भिखारी ठाकुर इसी भाषा के आकर्षण थे जिन्होंने अपने जीवन-काल में एक विशाल जनसमुदाय में अपनी लोकप्रियता का पताका फहराया और अपनी बिदेसिया नाट्य शैली के कारण दूर-दूर तक चर्चित रहे।

इन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर कहा गया है और जगदीशचन्द्र माथुर ने इन्हें भरतमुनि की नाट्य-परम्परा में माना है। यह इनके भीतर का कलाकार ही था जिसने 1942 में अंग्रेजों से ‘रायबहादुर’ की उपाधि तक ले गया, 1954 में बिहार के राज्यपाल श्री अनन्त शयनम अयंगार से ताम्र-पत्र पाया और बम्बई के प्रोड्यूसरों को ‘बिदेसिया’ फिल्म में सादर आमंत्रित करने को प्रेरित किया।

ठाकुर जी लगभग अट्ठाईस पुस्तकों के प्रणेता हैं लेकिन इनकी सारी रचनाएँ फुटपाथी संस्करण के रूप में होने के कारण बुद्धिजीवी समाज में समादृत नहीं हो सकीं। हाँ, इस क्षेत्र में इन दिनों स्तुत्य प्रयास हो रहा है और वह दिन दूर नहीं जब तुलसी और प्रेमचन्द की तरह इनका भी मूल्यांकन होगा। भिखारी ने अपने विषय में कहा भी है—

अबहीं नाम भइल बा थोरा।

जब ई छूट जाइ तन मोरा॥

तेकरा बाद नाम हो जइहन।

पंडित कवि सज्जन जस गइहन॥

नइखीं पाट पर पढ़ल भाई।

गलती बहुत लउकते जाई॥

अस्तु, हम अन्यत्र न भटककर भिखारी को अगर उनकी रचनाओं में परखें तो उनके तीन रूप हमारे हाथ मुख्य रूप से लगेंगे। एक—भक्त का, दो—समाज-सुधारक का, और तीन—रंगकर्मी और नाट्यकार का। हाँ, तीनों में उनका लोकरंग बराबर उपस्थित मिलेगा। यथा—

भक्त भिखारी

तुलसी राम-भक्त थे, सूर कृष्ण-भक्त और कबीर को निर्गुण ब्रह्म प्यारा था लेकिन भिखारी ने अपनी भक्ति सम्बन्धी रचनाओं में लोक प्रचलित सारे देवी-देवताओं की खिचड़ी पकाई है। वास्तव में वह शक्ति का पुजारी है लेकिन शक्ति के ये जो विभिन्न रूप गाँवों और कस्बों में व्याप्त हैं, उनका प्रतिनिधि होने के कारण भिखारी ने उनसे अपना दामन नहीं बचा पाया है।

इसलिए उसने शिव की वन्दना की है—

हरदम बोलो शिव बम-बम-बम

राम की उपासना की है—

ए रघुवर चरन कमल बलिहारी।

महाबीर को गुहराया है—

महावीर जी राखऽ लाज।

बिगड़ल सकल सँवारऽ काज।

कृष्ण की स्तुति गाई है—

मम हिय परबत कानन गाछी।

तेहि के मध्य चरावहु बाछी।

गंगा की पुजाई की है—

गंगा मइया जनम-जनम दीह दरस तरस

बारे साँझभोर हो।

गणेश को आराधा है—

श्री गणेश के चरन में नावत बानी सीस

आदि शक्ति के आगे सर झुकाया है—

मइया पटकत बानी माथ

आदि भवानी चरन में तोहरा।

यहाँ तक कि गुरु और स्थानीय देवी-देवताओं से भी अपनी कला की सफलता के लिए हथजोड़ी की है जो हर पुस्तक के प्रारम्भ में ‘सुमिरन’ के रूप में विद्यमान है।

कहना न होगा कि यह भिखारी के भक्त का लोक रूप है जिसमें इतनी उदारता है।

समाज-सुधारक भिखारी

भिखारी पढ़े-लिखे नहीं थे। भगवान नामक गुरु ने केवल उन्हें अक्षर-ज्ञान कराया था। फिर संगति से उन्होंने रामायण की चौपाइयाँ टो-टा के बाँची थी और आज भी उनकी हस्तलिखित पांडुलिपियाँ ‘कैथी’ लिपि में देखने को मिलती हैं। अतः आज की विसंगतियों की गहराई तक पहुँचने में वे असमर्थ थे। उसी तरह उनका सतही समाधान ही वे दे सकते थे जो उन्होंने अपनी कृतियों में दिया है। तब भी अपने आसपास के परिवेश से वे अनभिज्ञ नहीं थे। धर्म में बाह्य आडम्बर, रूढ़िवादिता, बेमेल विवाह, दहेज के कुफल, विधवा-विवाह, पारिवारिक वैमनस्य, नशा के दुष्परिणाम और बुढ़ापे की समस्याएँ उन्होंने अपनी रचनाओं में उठाई हैं तथा अपने ढंग से उनका समाधान भी ढूँढ़ा है।

भिखारी जाति के नाई थे। पेशे से यह जाति घर-घर की बिल्ली समझी जाती है। फिर तब के सम्भ्रान्त कहे जानेवाले परिवार में और आर्थिक दृष्टि से डाँवाडोल परिवार में भी नारी की क्या स्थिति होती है, भिखारी ने उसे नजदीक से देखा था। इसलिए ‘पियवा निसइल’ में पियक्कड़ पति की पत्नी की फरियाद, ‘बेटी-बेचवा’ में बूढ़े पति की युवा नारी की करुणा और फिर ‘गंगा स्नान’ तथा ‘गबर घिंचोर’ में सन्तान के लिए विह्वला नारी का हृदय सजीव हो उठा है भिखारी के नाट्य गीतों में।

‘बिदेसिया’ तो इस क्षेत्र का दस्तावेज है जो तत्कालीन समाज में पनप रहा आर्थिक अभाव का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता पेट की खातिर यहाँ के गबरू जवानों को पूरब देश (आसाम और कलकत्ता) जाने की विवशता की कहानी कहता है और परिणामस्वरूप उधर बाजारू औरतों की कुसंगति में पति का भेड़ बन जाना इधर अकेली अबला पर समाज के बुरे लोगों की कुदृष्टि से एक ही सिक्के के दोनों पक्ष सामने ला रखता है।

जायसी के पद्मावत की तरह इस नाटक की एक व्याख्या सूफी अध्यात्म भी है।

रंगकर्मी भिखारी

रंगकर्मी भिखारी एक तरफ अगर सुमिरण (मंगलाचरण), सूत्रधारीय, लबार (विदूषक) आदि से लेकर भरत मुनि की नाट्य परम्परा में हैं तो दूसरी तरफ जनता के बीच, जनता से मिलकर, जनता की कहानी कहने के कारण अद्यतन नाट्य शैली के समीप।

भरी महफिल के बीच थोड़ी-सी जगह उसका रंगमंच है। कलाकार लोगों के सामने ही बहुधा अपना परिधान बदल लेते हैं व मेकअप की तामझाम पूरा कर लेते हैं और समय पर अपनी भूमिका करने को उठ खड़े होते हैं। लोगों को कोई भी अन्यमनस्कता नहीं होती।

दृश्य-विधान तो इतना सरल कि एक फटी चादर तानकर एक तरफ कोहबर घर का आभास कराया जाता है दूसरी तरफ खमाखम भीड़ और चहल-पहल से भरी दरवाजे लग रही बारात का।

कभी-कभी तो काँधे पर पड़ा गमछा माथे पर लपेटकर सारंगीवादक अपना काम छोड़ उठ खड़ा होता है और जब सारंगी के डंडे से ही बन्दूक चलाने का पोज करता है तब लोगों के सामने जंगल उपज आता है और जब उसी डंडे से हल चलाने का स्वाँग भरता है तो दर्शक उसे किसान के रूप में देखने लगते हैं। तब तक नारी की भूमिका निभाता कलाकार उसकी जगह बैठ गया होता है और लोगों को कुछ भी अटपटा नहीं लगता।

आज का नाटक लोगों से कटा कोई तमाशा नहीं, जीवन का एक अंग है। अतः दर्शकों की सहभागिता इसमें अपेक्षित समझी जाने लगी है।

बिदेसिया शैली का कलाकार अपनी भूमिका के दौरान लोगों से बातें भी करता चलता है और दर्शक भी जहाँ-तहाँ उसे टोकते रहते हैं।

संवाद बहुधा पद्य में और अभिनय इतना स्वाभाविक कि कई स्थानों पर भिखारी को खलनायक की भूमिका के लिए गालियों के गुलदस्ते और जूतों के हार मिले हैं।

 

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