संविधान दिवस पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, संविधानविद् अनूप बरनवाल 'देशबन्धु' की नवीनतम कृति 'भारतीय संविधान की निर्माण-यात्रा' का एक अंश, जिसमें संविधान पारित होने के ठीक पहले की महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन है।
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9 दिसम्बर, 1946 से आरम्भ हुई संविधान-सभा की कार्यवाही कुल ग्यारह सत्रों में सम्पन्न हुई। प्रथम सत्र से छठवें सत्र के दौरान उद्देश्य संकल्प, मूल अधिकार समिति, संघीय संविधान समिति, संघीय शक्ति समिति, प्रान्तीय संविधान समिति, अल्पसंख्यक समिति एवं अनुसूचित जाति एवं जनजाति समिति द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्टों पर विचार किया गया और सातवें से लेकर ग्यारहवें सत्र के दौरान प्रारूप संविधान पर विचार किया गया।
16 नवम्बर, 1949 को अन्तिम संशोधन पर निर्णय लेने के बाद संविधान-सभा के सदस्यों द्वारा संविधान को अन्तिम रूप से अंगीकृत करना था और इसके पूर्व इन्हें विचार रखने की आजादी भी थी। डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने सभाध्यक्ष को सुझाव दिया कि “यह उचित है कि आप बोलने के लिए इच्छुक सभी सदस्यों से उनके नाम माँगें। ऐसा करने से समयसीमा को निर्धारित करने में सुविधा होगी।” इस सुझाव पर सभाध्यक्ष ने उन सदस्यों का नाम आमंत्रित किया, जो इस अवसर पर बोलना चाहते थे।
अगले दिन 17 नवम्बर, 1949 को डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने हर्षध्वनि के साथ निम्न प्रस्ताव रखा—
“संविधान, जैसा सभा द्वारा निश्चित किया गया है, को पारित किया जाए।”
इसके बाद सभाध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सुझाव देते हुए कहा कि कुल 71 सदस्यों द्वारा नाम दिये गए हैं। कुछ और नाम आए हैं। यदि हम आठ दिन बैठते हैं, तो हमारे पास कुल 24 घंटे होंगे और इस तरह 20 मिनट प्रति वक्ता के हिसाब से 72 सदस्य बोलेंगे। इस दौरान एच. वी. कामथ ने चार घंटे प्रतिदिन बैठने का सुझाव दिया। किन्तु सभाध्यक्ष ने प्रतिदिन 10 बजे सुबह से 1 बजे दोपहर तक तीन घंटे बैठने की ही व्यवस्था दी।
इसके उपरान्त 26 नवम्बर, 1949 तक 113 माननीय सदस्यों ने संविधान-सभा के समक्ष विचार व्यक्त किए। पहले वक्ता के रूप में वी. आई. मुनिस्वामी पिल्लई, 112वें वक्ता के रूप में मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. बी. आर. आंबेडकर और अन्तिम वक्ता के रूप में संविधान-सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान-सभा को सम्बोधित किया।
यहाँ डॉ. बी. आर. आंबेडकर द्वारा 25 नवम्बर, 1949 को दिये गए सम्बोधन और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा 26 नवम्बर, 1949 को दिये गए अध्यक्षीय सम्बोधन के महत्त्वपूर्ण विचारों का उल्लेख करना समीचीन है।
डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने मसौदा समिति के अध्यक्ष का दायित्व देने के लिए संविधान-सभा का आभार व्यक्त किया और कहा कि “वह केवल अनुसूचित जाति के हित को सुरक्षित रखने के लिए संविधान-सभा में आए थे। दूर-दूर तक सोच में नहीं था कि इतनी बड़ी जिम्मेदारी के लिए बुलाया जाएगा। इसलिए सभा द्वारा मुझे चुने जाने पर आश्चर्य हुआ, जबकि सर अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर जैसे ज्यादा सक्षम लोग इस मसौदा समिति में मौजूद थे।” संविधान परामर्शदाता बी. एन. राव, मसौदाकर्ता एस. एन. मुखर्जी के अमूल्य योगदान को भी याद करते हुए डॉ. आंबेडकर ने आगे कहा कि “यदि सभा के अन्दर सब कुछ अनुशासित तरीके से चला है, तो यह कांग्रेस पार्टी के अनुशासन के कारण सम्भव हो पाया है। किन्तु यदि सभी लोगों द्वारा पार्टी के इस अनुशासन को माना गया होता तो संविधान-सभा की कार्यवाही बोरियत वाला और जी हुजूरों का जमावड़ा जैसा हो जाता। इसलिए मि. कामथ, डॉ. पी. एस. देशमुख, मि. सिधवा, प्रो. सक्सेना, ठाकुर दास भार्गव, प्रो. के. टी. शाह, हृदयनाथ कुंजरू द्वारा उठाए गए सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। इनके सवालों को अस्वीकार करने से इनका महत्त्व कम नहीं हो जाता है और न इनके द्वारा सभा की प्रक्रिया को संजीदा बनाने में की गई सेवा कम हो जाती है।”
सभा का कुशल संचालन करने के लिए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को धन्यवाद देने के साथ डॉ. आंबेडकर ने अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर एवं टी. टी. कृष्णमाचारी के सहयोग को संविधान का बचाव करने के लिए महत्त्वपूर्ण बताया। केन्द्रीकरण और केन्द्र को राज्यों पर प्रभावी शक्ति देने को लेकर की जा रही आलोचना को मिथ्याधारणा पर आधारित बताते हुए डॉ. आंबेडकर ने स्पष्ट किया कि “संघवाद का मूल तत्त्व यह है कि केन्द्र एवं राज्य में विधायी एवं कार्यपालिकीय शक्तियों का बँटवारा, केन्द्र के किसी कानून द्वारा नहीं, बल्कि स्वयं संविधान द्वारा हो। यही यह संविधान करता है। हमारे संविधान में राज्य अपने विधायी एवं कार्यपालिकीय कार्य के लिए केन्द्र पर निर्भर नहीं हैं। इस मामले में केन्द्र और राज्य एक समान हैं। यह देखना कठिन है कि कैसे ऐसे संविधान को केन्द्रीकृत कहा जा सकता है। यह हो सकता है कि दूसरे संघीय संविधान की तुलना में केन्द्र को अवशिष्ट शक्ति सहित कुछ ज्यादा विधायी एवं कार्यपालिकीय कार्य प्रदान किए गए हों। किन्तु यह संघवाद का मूल तत्त्व नहीं होता है।”
गुलामी के इतिहास का उल्लेख करते हुए डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने देश को आगाह भी किया। डॉ. आंबेडकर के शब्दों में— “क्या यह देश अपनी आजादी को बनाए रख पाएगा या इसे पुन: खो देगा? यह पहला विचार मेरे मन में आता है। विचारणीय बिन्दु यह है कि यह अपनी आजादी को एक बार खो चुका है। क्या यह इसे दूसरी बार खो देगा? यही एक विचार है, जो मुझे भविष्य के लिए ज्यादा चिन्तित करता है। जो बात मुझे सबसे ज्यादा उद्वेलित करती है कि न केवल भारत ने अपनी आजादी को एक बार खोया है, बल्कि उसने इसे अपने ही लोगों के विश्वासघात एवं दगाबाजी के कारण खोया है। सिन्ध पर मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के समय राजा दहार के सेनापति ने मोहम्मद बिन कासिम के जासूस से घूस ले लिया और अपने ही राजा की तरफ से लड़ने से मना कर दिया। यह जयचन्द था, जिसने मोहम्मद गोरी को भारत पर आक्रमण करने और पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ लड़ने के लिए आमंत्रित किया था। जब शिवाजी हिन्दुओं की आजादी के लिए लड़ रहे थे, तो दूसरे मराठा एवं राजपूत राजा मुगल बादशाह की तरफ से लड़ रहे थे। जब ब्रिटिश, सिख शासकों को नष्ट करने की कोशिश कर रहे थे, तो प्रमुख सेनापति गुलाब सिंह चुप होकर बैठ गया और सिख शासकों के बचाव के लिए सहायता नहीं की। 1857 में जब भारत के अधिकांश भाग ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आजादी के लिए युद्ध लड़ रहा था, तो सिख घटना का मूक दर्शक होकर बैठ गया।”
देश में कई राजनीतिक पार्टियों के होने पर भी चिन्ता व्यक्त करते हुए डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने सवाल किया कि “क्या इतिहास पुन: अपने को दोहराएगा? यह चिन्ता इस तथ्य से और भी गहरी हो जाती है कि जाति एवं नस्ल के स्वरूप में अपने पुराने शत्रुओं के अलावा हम परस्पर विरोधी राजनीतिक मत वाली अलग-अलग कई राजनीतिक पार्टियों को रखने जा रहे हैं। मुझे नहीं पता है कि क्या भारतीय लोग देश को इन नस्लों से ऊपर रखेंगे या इन नस्लों को देश के ऊपर रखेंगे? किन्तु यह निश्चित है कि यदि राजनीतिक पार्टियाँ नस्लों को देश के ऊपर रखेंगी, तो हमारी आजादी दूसरी बार खतरे में हो जाएगी और सम्भवत: हमेशा के लिए इसे खो देंगे। हम सभी को इसका ध्यान रखना होगा। हमें अपने खून के अन्तिम बूँद तक अपनी आजादी को बचाना होगा।” (हर्षध्वनि)
इसी तरह लोकतंत्र को बनाए रखने का सवाल उठाते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा, “26 जनवरी, 1950 को भारत इस विचार के साथ एक लोकतांत्रिक देश हो जाएगा कि इस दिन से भारत के पास जनता की, जनता द्वारा और जनता के लिए सरकार होगी। इसे बनाए रखने के लिए पहला कार्य यह करना होगा कि हमें अपने सामाजिक एवं आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक उपाय अपनाने होंगे। इसका मतलब यह है कि हमें क्रान्ति के रक्तरंजित तरीकों से अवश्य ही बचना होगा। हमें अब सिविल अवज्ञा, असहयोग एवं सत्याग्रह के तरीकों से बचना होगा। जब आर्थिक एवं सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु संवैधानिक तरीकों के लिए कोई रास्ता नहीं बचे, तभी असंवैधानिक तरीकों को औचित्यपूर्ण बनाया जाना चाहिए। किन्तु जहाँ संवैधानिक तरीकों के लिए रास्ता खुला है, वहाँ असंवैधानिक तरीके औचित्यपूर्ण नहीं हो सकते हैं। ये तरीके कुछ और नहीं, बल्कि अराजकता का आमंत्रण हैं और जितनी जल्दी हम इनका त्याग कर दें, उतना ही हमारे लिए अच्छा है।”
डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने आजादी, समानता एवं बन्धुत्व को राजनीतिक एवं सामाजिक लोकतंत्र की बुनियाद बताते हुए कहा कि “बन्धुत्व का मतलब सभी भारतीयों के मध्य आपसी भाईचारा है। यही एक सिद्धान्त है, जो सामाजिक जीवन में एकता और एकात्मता लाता है। संयुक्त राज्य में जातीय समस्या नहीं है। भारत में जातियाँ हैं। ये जातियाँ राष्ट्रविरोधी हैं। सर्वप्रथम इसका कारण यह है कि ये सामाजिक जीवन में भेद लाती हैं। ये इस कारण भी राष्ट्रविरोधी हैं क्योंकि ये जातियों में परस्पर ईर्ष्या और द्वेष पैदा करती हैं। लेकिन यदि हम वास्तव में एक राष्ट्र होना चाहते हैं तो हमें इन सब कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करनी है। क्योंकि बन्धुत्व तभी सत्य हो सकता है जब कि एक राष्ट्र हो। बिना बन्धुत्व के समानता एवं आजादी दिखावे से अधिक कुछ नहीं है।”
अन्त में डॉ. आंबेडकर द्वारा ‘जनता के लिए सरकार’ और ‘जनता द्वारा सरकार’ के मध्य पैदा अन्तर के कारण होने वाले खतरे से सावधान किया गया। उनके शब्दों में, “नि:सन्देह आजादी आनन्द का विषय है, किन्तु यह आजादी हमारे ऊपर एक बड़ी जिम्मेदारी भी है। आजादी प्राप्त करने के साथ अब हम किसी भी गलती के लिए ब्रिटिश हुकूमत को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं। अब यदि कोई गलती होती है, तो अब सिवाय खुद के किसी दूसरे पर दोषारोपण नहीं कर सकेंगे। अब गलत कार्य के बहुत खतरे हैं। समय तेजी से बदल रहा है। लोग नए-नए विचार के साथ आगे बढ़ रहे हैं। वह ‘जनता द्वारा सरकार’ से थकान महसूस करते हैं। वह ‘जनता के लिए सरकार’ रखने के लिए तैयार हैं और इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है कि सरकार जनता की है या जनता द्वारा है। यदि हम संविधान को सुरक्षित रखना चाहते हैं, जिसमें जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा सरकार के सिद्धान्त को प्राप्त करने की इच्छा है, तो हमें संकल्पित होना होगा कि हम उन बुराइयों को समझने में देरी न करें, जो हमारे मार्ग में पड़ी हुई हैं और जो लोगों को ‘जनता के लिए सरकार’ को ‘जनता द्वारा सरकार’ पर वरीयता देने के लिए प्रेरित करती हैं, और इसे समाप्त करने हेतु पहल करने के लिए कमजोर न हों। देश की सेवा करने का यही एक तरीका है। इससे अच्छा कुछ भी नहीं है।”
अगले दिन 26 नवम्बर को बैठक की शुरुआत वल्लभभाई पटेल की इस घोषणा के साथ हुई कि प्रथम अनुसूची के भाग ‘ख’ में उल्लिखित हैदराबाद रियासत सहित सभी नौ रियासतों ने इस संविधान को स्वीकार करने पर अपनी सहमति उस तरीके से दे दी है, जैसा 12 अक्टूबर, की उद्घोषणा में बताया गया है।
बी. दास ने सभाध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से जानना चाहा कि क्या यह घोषणा की जा रही है कि हमारा राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् होना चाहिए और हमारा राष्ट्रगान क्या होगा। सभाध्यक्ष ने जवाब दिया कि अभी हम ऐसी किसी बात की घोषणा नहीं करने जा रहे हैं। यदि आवश्यक हुआ तो जनवरी में होने वाली बैठक के समय इस पर विचार किया जाएगा। इसके बाद सभाध्यक्ष ने श्री प्रकासा एवं डॉ. सच्चिदानन्द सिन्हा द्वारा भेजे गए शुभकामना सन्देश को पढ़कर सुनाया।
तत्पश्चात अलगू राय शास्त्री ने सभाध्यक्ष को याद दिलाया कि पूर्व में उनके द्वारा यह घोषणा की गई थी कि देश के इस संविधान का अनुवाद राष्ट्रीय भाषा में किया जाएगा, किन्तु इस सम्बन्ध में कोई घोषणा नहीं की गई है। शास्त्री ने आगे सुझाव दिया कि हमें इस संविधान को इस देश की भाषा में पारित करना चाहिए, भले ही हमें दो-तीन दिन के बाद पुन: बैठना पड़े। यह भाषा (अंग्रेजी) लोगों की भाषा नहीं है, यह आमजन की भाषा नहीं है। इसलिए भारतीय लोगों के नाम पर इस सम्बन्ध में एक निश्चित घोषणा की जानी चाहिए।
किन्तु सभाध्यक्ष ने कहा कि “अगले पन्द्रह वर्ष तक अंग्रेजी केन्द्र की आधिकारिक भाषा रहेगी और यदि आवश्यक हुआ तो हिन्दी को भी स्थान दिया जाएगा। इस समय इस संविधान को हिन्दी में रखना सम्भव नहीं है। कोशिश की जाएगी कि 26 जनवरी तक संविधान का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो जाए।”
इसके बाद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपना अध्यक्षीय सम्बोधन दिया।
एक कठिन कार्य की साधना करने के लिए सभा को बधाई देते हुए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि “इतनी बड़ी जनसंख्या एवं इतनी तरह की विभिन्नताओं के बावजूद हम एक संविधान बनाने में सफल रहे हैं।” भारतीय रियासतों की समस्या से निपटने में वल्लभभाई पटेल के योगदान को याद करते हुए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि “अभी उनके द्वारा की गई घोषणा के बाद अब भारतीय रियासतों और प्रान्तों के मध्य अन्तर समाप्त हो गया है। अब ये सभी राज्य हो गए हैं।” उन्होंने यह भी बताया कि संविधान निर्माण पर 22 नवम्बर तक कुल 63 लाख, 96 हजार 7 सौ 29 रुपये खर्च आया है। इस दौरान डॉ. प्रसाद ने संविधान की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं यथा संसदीय शासन-प्रणाली, राष्ट्रपति एवं मंत्रिपरिषद, केन्द्रीय विधायिका, वयस्क मताधिकार, ऊपरी सदन की स्थिति, स्वतंत्र संस्थानों जैसे न्यायपालिका, लोक सेवा आयोग, नियंत्रक महालेखा परीक्षक एवं चुनाव आयोग का महत्त्व, अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों का कल्याण एवं सुरक्षा, केन्द्र एवं राज्य के मध्य शक्तियों का वितरण, भाषा, संशोधन, निदेशक सिद्धान्त, मूल अधिकार का भी विस्तार से उल्लेख किया।
भाषा के सवाल पर बोलते हुए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि “एक समस्या जिसके समाधान ने संविधान-सभा का सबसे अधिक समय लिया है, वह देश के आधिकारिक प्रयोग के लिए भाषा से सम्बन्धित है। यह स्वाभाविक इच्छा है कि हमारे पास अपनी भाषा होना चाहिए और देश में भाषायी बहुलता की समस्या होने के बावजूद हम हिन्दी को, जिसे इस देश में सबसे अधिक लोगों द्वारा समझा जाता है, स्वीकार करने में समर्थ हुए हैं। यह हमारे अनुकूल होने की आत्मशक्ति और एक देश के रूप में संगठित होने के संकल्प को दर्शाता है कि उन्होंने, जिनकी भाषा हिन्दी नहीं है, इसे स्वेच्छा से आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया है। इतिहास में पहली बार हमने एक भाषा को स्वीकार किया है, जो पूरे भारत में आधिकारिक उद्देश्य से प्रयोग की जाने वाली भाषा होगी और विश्वास है कि यह राष्ट्रीय भाषा के रूप में विकसित होगी, जिसमें हम सभी समान रूप से गर्व का अनुभव करें।”
महात्मा गांधी द्वारा साधन की पवित्रता पर जोर देने के लिए दी गई शिक्षा को याद करते हुए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने आगे कहा कि “गांधी का आशय इस पवित्रता को केवल तनाव एवं संघर्ष के दौरान बनाए रखना नहीं है, बल्कि यह आज भी उतने ही महत्त्व की है, जितनी पहले हुआ करती थी।”
संविधान निर्माण में डॉ. बी. आर. आंबेडकर के योगदान की डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने भूरि-भूरि प्रंशसा की। डॉ. प्रसाद ने कहा कि “अध्यक्ष की इस कुर्सी पर बैठकर सभा की कार्यवाही को देखते हुए जो मैंने महसूस किया है, वह और कोई नहीं कर सकता कि कितने उत्साह और लगन से मसौदा समिति के सदस्यों ने, खासकर इसके अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर ने अपने प्रतिकूल स्वास्थ्य के बावजूद, कार्य किया है। इससे अच्छा कभी कोई निर्णय नहीं होता या हो सकता था, जब हमने उन्हें मसौदा समिति में रखा और उन्हें अध्यक्ष बनाया। उन्होंने न केवल अपने चयन को सही साबित किया, बल्कि उन्होंने किए गए कार्य में अभूतपूर्व सौन्दर्य प्रदान किया है।” अन्त में सभाध्यक्ष ने संविधान परामर्शदाता बी. एन. राव, संविधान-सभा के सचिव एच. वी. आर. येनगर, उपसचिव जुगल किशोर खन्ना, अनुवादन समिति के अध्यक्ष घनश्याम सिंह गुप्ता के योगदान को महत्त्वपूर्ण बताते हुए संविधान-सभा के सभी लोगों को धन्यवाद ज्ञापित किया।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के सम्बोधन के बाद संविधान-सभा ने डॉ. आंबेडकर के प्रस्ताव कि ‘संविधान, जैसा सभा द्वारा निश्चित किया गया है, को पारित किया जाए’ को करतल हर्षध्वनि के साथ अंगीकृत कर लिया।
तत्पश्चात सत्यनारायण सिन्हा ने प्रस्ताव किया कि संविधान-सभा को 26 जनवरी के पूर्व अगली तिथि तक के लिए, जैसा सभाध्यक्ष निर्धारित करें, स्थगित कर दिया जाए। इस प्रस्ताव को सभाध्यक्ष द्वारा रखे जाने के बाद संविधान-सभा ने स्वीकार कर लिया। इसके बाद सभा में उपस्थित सभी सदस्यों ने एक-एक करके सभाध्यक्ष से हाथ मिलाया।
इसके उपरान्त संविधान-सभा की अगली और अन्तिम बैठक 24 जनवरी, 1949 को आहूत की गई। सभाध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने राष्ट्रगान के सम्बन्ध में निर्णय लेने हेतु प्रस्ताव लाने के बजाय एक घोषणा जारी करने की आवश्यकता व्यक्त की और कहा कि ‘जन-गन-मन’ के रूप में जानी जाने वाली रचना इस प्रतिबन्ध के साथ भारत का राष्ट्रगान है कि सरकार द्वारा इसके शब्दों में बदलाव किया जा सकता है और गीत ‘वंदे मातरम्’, जिसने आजादी के आन्दोलन के लिए किए गए संघर्ष में ऐतिहासिक योगदान निभाया है, का भी समान रूप से आदर और समान प्रतिष्ठा होगी। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की इस घोषणा को संविधान-सभा ने हर्षध्वनि के साथ स्वीकार कर लिया।
इसी दौरान प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना ने जानना चाहा कि क्या संविधान का हिन्दी अनुवाद तैयार हो गया है। सभाध्यक्ष ने हाँ में जवाब दिया।
इसी दिन संविधान-सभा के सचिव और चुनाव अधिकारी एच. वी. आर. येनगर ने संविधान-सभा को बताया कि राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए केवल एक नामांकन-पत्र प्राप्त हुआ है। प्रत्याशी डॉ. राजेन्द्र प्रसाद हैं। उनका नामांकन जवाहरलाल नेहरू ने और समर्थन वल्लभभाई पटेल ने किया है। इसके बाद सर्वसहमति होने के आधार पर येनगर ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को देश का प्रथम राष्ट्रपति चुने जाने की घोषणा की।
तत्पश्चात घनश्याम सिंह गुप्ता ने राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को संविधान के हिन्दी अनुवाद की प्रति सौंपी। इस तरह संविधान-सभा की मेज पर संविधान की तीन प्रतियाँ—पहली अंग्रेजी में हस्तलिखित प्रति, दूसरी अंग्रेजी में मुद्रित प्रति और तीसरी हिन्दी में हस्तलिखित प्रति रखी गईं। हस्ताक्षर आरम्भ होने के पूर्व डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि प्रधानमंत्री को सार्वजनिक कार्य के लिए बाहर जाना है, इसलिए उनसे निवेदन है कि वह पहले हस्ताक्षर कर लें।
इसके बाद जवाहरलाल नेहरू ने इन सभी तीन प्रतियों पर हस्ताक्षर किया। तत्पश्चात सभाध्यक्ष ने सदस्यों से दाहिनी ओर से, मद्रास की तरफ से एक-एक कर आकर हस्ताक्षर करने के लिए कहा। उपस्थित सभी सदस्यों ने अपने-अपने हस्ताक्षर किए।
सबसे अन्त में खुद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपना हस्ताक्षर किया और घोषणा की कि यदि कोई छूट गया है तो वह बाद में कार्यालय आकर हस्ताक्षर कर सकता है। हस्ताक्षर करने से मना करने वाले एकमात्र उपस्थित सदस्य हसरत मोहानी थे।
अन्त में सभी सदस्यों द्वारा पहले श्रीमती पूर्णिमा बनर्जी के नेतृत्व में ‘जन-गन-मन’ का और बाद में लक्ष्मीकान्त मैत्रे के नेतृत्व में ‘वंदे मातरम्’ का सामूहिक गान किया गया। इसके पश्चात संविधान-सभा को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया।
भारतीय संविधान की मूल प्रति में कुल दस पृष्ठों पर संविधान-सभा सदस्यों द्वारा हस्ताक्षर किए गए हैं। पहला पृष्ठ आठवीं अनुसूची वाला पृष्ठ है, जिस पर 14 भाषाओं के नाम शामिल हैं। इस पृष्ठ पर यद्यपि पहला हस्ताक्षर जवाहरलाल नेहरू का है, किन्तु सभाध्यक्ष/राष्ट्रपति के रूप में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का हिन्दी एवं अंग्रेजी में हस्ताक्षर इसके ऊपर किया गया है। उस समय संविधान-सभा के पहले अस्थायी अध्यक्ष सच्चिदानन्द सिन्हा उपस्थित नहीं थे। इसलिए संविधान की मूल प्रति पर सच्चिदानन्द सिन्हा का हस्ताक्षर प्राप्त करने के लिए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद विशेष विमान से उनके पटना स्थित आवास पर गए और उनका हस्ताक्षर प्राप्त किया। सिन्हा जी का हस्ताक्षर 276 वें स्थान पर अंकित है। इसके तुरन्त बाद संविधान सलाहकार बी. एन. राव का और सात अन्य सदस्यों के हस्ताक्षर हैं। इस तरह सभी दस पृष्ठों पर कुल 284 सदस्यों के हस्ताक्षर अंकित हैं।
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