सफ़दर हाशमी की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, हबीब तनवीर का लेख—कौन था जो मार दिया गया। यह लेख ‘सफ़दर हाशमी का व्यक्तित्व और कृतित्व’ किताब में संकलित है।
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एक आर्टिस्ट, एक क्रांतिकारी सफ़दर हाशमी को आप क्या कहेंगे? थियेटर और क्रांति सफ़दर के लिए दो अलग-अलग चीजें नहीं थीं, बल्कि ये दोनों उसकी शख़्सियत में कुछ ऐसी घुलमिल गई थीं कि इन्हें अलग-अलग नहीं देखा जा सकता।
सफ़दर ने थियेटर और क्रांति दोनों का सपना एक साथ देखा था। इनके पिता हनीफ़ हाशमी मेरे दोस्त थे। हम दोनों ही सोवियत इन्फार्मेशन डिपार्टमेंट में एक अरसे तक नौकरी करते रहे। सफ़दर की उम्र कोई आठ-नौ वर्ष की होगी, जबकि एक दिन मुलाक़ात कराते हुए उनके पिता ने मुझसे कहा—“इनसे मिलिए, ये आपके नक़्श-ए-क़दम पर चले हैं, एक्टिंग भी करने लगे हैं और बहुत इन्कलाबी भी हो रहे हैं। आपके सारे ड्रामे देख चुके हैं।” मैं ख़ुद तो यह सुनकर झेंपा ही था, सफ़दर भी एक तरफ़ खड़े कुछ शर्माते, मुस्कुराते रह गए थे।
ज़माने का व्यंग्य देखिए कि ठीक उस समय जबकि वे एक मँझे हुए क्रांतिकारी आर्टिस्ट की हैसियत से हमारे सामने आने लगे थे, उन्हें मंज़र-ए-आम से ज़ुल्म के हाथों ने हटा दिया। क्रांति और आर्ट दोनों ही सफ़दर की फ़ितरत में एक साथ नक़्श हो गए थे। उनकी सारी मेहनत इन्हीं दोनों चीज़ों को समझने में लगी; अध्ययन के ज़रिए भी और अनुभव के द्वारा भी। एक तरफ़ राजनीतिक, सामाजिक समस्याओं और दूसरी तरफ़ रंगकर्म की बारीकियों को समझने में उन्होंने अपना समय लगाया, और यह काम बड़ी मेहनत, हौसलामंदी और दृढ़ता से करते रहे।
उनकी जानकारी का दायरा बहुत व्यापक था। उर्दू, हिंदी, अंग्रेज़ी, तीनों भाषाओं पर अच्छा ख़ासा अधिकार था। हिंदी की क़स्बाती बोलियाँ समझते भी थे और अपने लेखन में इनका प्रयोग भी करते थे। बातचीत का विषय कोई भी हो, सफ़दर के साथ बैठकर बातचीत करने में मज़ा आता था। साहित्य, राजनीति, चिकित्सा, विज्ञान—हर विषय में सफ़दर जानकारी से बहस करने की योग्यता रखते थे।
पिछले अक्तूबर में मैंने अपना नाटक ‘मंगलो दीदी’ लिखने के बाद सफ़दर के ड्रामा ग्रुप ‘जन नाट्य मंच’ के कुछ सदस्यों को एक विशेष गोष्ठी में सुनाया। नाटक सुनकर सफ़दर ख़ूब हँसे और कहने लगे, “यह नाटक कुछ हद तक लिसिस्ट्राटा (Lysistrata) की याद दिलाता है। इसी दिशा में इसे आप कुछ और क्यों नहीं उभारते?” यहाँ सफ़दर के ज़ेहन के दो पहलू उजागर होते हैं।
एक तो सफ़दर को अरिस्टोफनीस (Aristopanes) की यह महान शास्त्रीय कॉमेडी मालूम थी, जिस पर मुझे ज़्यादा आश्चर्य इसलिए नहीं हुआ कि मैं सफ़दर को इस हद तक तो जानता था कि जिसके आधार पर यह कह सकूँ कि शेक्सपीयर के सारे नाटक और यूनान के तमाम क्लासिक उनकी नज़र से ज़रूर गुज़रे होंगे। दूसरा पहलू जिसे जानकर मुझे ज्यादा हैरत हुई, वह था सफ़दर का साहित्य में श्रृंगार (Erotics) की तरफ़ रवैया। और वह भी यह देखते हुए कि सफ़दर मेहनतकश तबकों के एक सामाजिंक और राजनीतिक नेता भी थे और हिंदुस्तानी वातावरण में काम कर रहे थे। इस बात को और ज़्यादा साफ़ करने के लिए मैं एक और मिसाल पेश करूँ।
पिछले जून के महीने में जब हम दोनों प्रेमचंद की कहानी पर आधारित नाटक ‘मोटेराम का सत्याग्रह’ पर काम कर रहे थे, तो उसमें एक नए दृश्य की रचना की गई। यह दृश्य था— एक तवायफ़ का कोठा। ज़ाहिर है कि इसका कोई संबंध प्रेमचंद की कहानी से न था। मैंने इस दृश्य पर जो दोबारा काम किया तो इसमें बेडरूम कॉमेडी के जितने पहलू संभव हो सकते थे, वह सब सामने आ गए। सफ़दर की पत्नी मलयश्री तवायफ़ का पार्ट कर रही थीं और सफ़दर ख़ुद उस मजिस्ट्रेट का, जो कोठे पर जाता है। सभी लोगों को इस दृश्य में बहुत आनंद आ रहा था, न सिर्फ इसलिए कि दृश्य बहुत हँसानेवाला था, बल्कि इसलिए भी कि नाटकीयता के दृष्टिकोण से यह दृश्य नाटक का सबसे ज़्यादा प्रभावशाली दृश्य था।
हालाँकि सफ़दर ख़ुद रिहर्सलों के दौरान इस दृश्य में बहुत आनंद लेते हुए और बहुत खुलकर पार्ट कर रहे थे, पर एक दिन यकायक उन्हें एक वसवसे ने आ घेरा। उन्होंने कहा, हालाँकि दृश्य बहुत मज़ेदार है और शायद राजनीतिक ऐतबार से अर्थपूर्ण भी है, फिर भी उन्हें इस बात पर शक है कि जब प्यारे लाल भवन और अन्य थियेटरों के प्रारंभिक चंद शो के बाद वह सड़कों पर इस नाटक को लेकर जाएँगे तो वहाँ जनता पर इस दृश्य का क्या प्रभाव होगा। बात उनके दिल में कुछ इस तरह की थी।
दिल्ली के थियेटरों में जानेवाले, जो आमतौर पर मध्यम वर्ग के पढ़े-लिखे नागरिक होते हैं, उन्हें तो शायद इस तरह के दृश्य के हास्य से लुत्फ़अंदोज़ होने की आदत है, लेकिन शहर की जनता, जिसमें अधिकतर ग़रीब तबक़ों के लोग शामिल हैं, कहीं उन पर ऐसे हास्य का उल्टा प्रभाव न पड़े, और कहीं ऐसा न हो कि नाटक के वास्तविक उद्देश्य से उनका ध्यान हट जाए। मुझे बात कुछ गंभीर लगी, क्योंकि हमारा उद्देश्य तो प्रेमचंद की कही हुई बात को आगे बढ़ाना था। उनकी कहानी ‘सत्याग्रह’ दरअसल एक व्यंग्य है जिसमें राजनीति को धर्म के साथ मिलाकर खिचड़ी पकानेवालों की खिल्ली उड़ाई गई है। इस विषय पर प्रेमचंद की कुछ कहानियाँ, जो हमारे सामने थीं, उनमें से इस कहानी का चयन, हमने इसी आधार पर किया था कि विषय का यह पहलू हमारे वर्तमान राजनीतिक हालात से बहुत समानता रखता है। मैंने फौरन सब कलाकारों की एक मीटिंग बुलाने का फ़ैसला कर लिया।
कोई तीस से ज़्यादा कलाकार होंगे। सब इस बात पर विचार करने के लिए बैठ गए। लगभग सबका फैसला यही निकला कि जहाँ तक नुक्कड़ नाटक के दर्शकों का संबंध है, इस दृश्य को उनके सामने प्रस्तुत करने में सरासर ख़तरा है। मैंने प्रस्ताव रखा कि फिलहाल इस दृश्य को काट दिया जाए और कलाकारों के मित्रों, संबंधियों को एकबार बुलाकर रिहर्सल दिखाया जाए। इस दृश्य के हटा देने से नाटक में कुछ उलटफेर करना लाज़िमी था, जो मैंने फौरन कर लिया। नए संवाद की जहाँ ज़रूरत थी, लिख दिए गए, कुछ महत्त्वपूर्ण बातें जो अब छूट गई थीं, उन्हें नए रूप में उजागर किया गया। कलाकारों ने आवश्यकतानुसार तैयारी मुकम्मल की, और एक बार फिर सारे नाटक का रिहर्सल लोगों को दिखाया गया। परिवर्तन से मूल कहानी में कोई ख़ास फर्क नहीं आया था। जिन्होंने पहला रिहर्सल नहीं देखा था, उन्हें किसी तरह की कमी का एहसास भी न हुआ, लेकिन जो पहले रिहर्सल देख चुके थे, उनकी दो राय बनीं। एक पुराने दृश्य के पक्ष में और दूसरी उसके ख़िलाफ। कलाकारों की राय शामिल करने के बाद बहुमत पुराने दृश्य के खिलाफ़ बरकरार रहा।
यहाँ यह बता देना शायद ज़रूरी है कि सफ़दर के अपने ख़यालात इस मामले में वही थे जो एक रोशन ख़याल साहित्यकार और कलाकार के हो सकते हैं। इस समस्या पर सफ़दर ने जो मुझसे बातें की थीं उनसे साफ़ ज़ाहिर हो गया था कि वह साहित्य और नैतिकता (Morality, Prudery) के सिलसिले में कट्टर हरगिज़ नहीं थे। हम दोनों इस बात पर सहमत थे कि इन मामलों में मुल्लापन साहित्यकारों और कलाकारों को शोभा नहीं देता, चाहे आम आदमी का इस सिलसिले में कुछ भी रवैया हो। हम इस बात पर भी सहमत थे कि श्रृंगारिक नैतिक मामलों में कट्टरपन की खिल्ली उड़ाना जनता के राजनीतिक प्रशिक्षण का एक ज़रूरी अंग (Essential element) होना चाहिए।
जहाँ हमारी राय अलग-अलग थी वह राजनीतिक मसलेहत का मामला था, यानी किन बातों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, वर्तमान राजनीतिक सामाजिक पृष्ठभूमि में कौन-सी बातों को सबसे ज्यादा महत्व देना चाहिए, वास्तविक राजनीतिक उद्देश्य प्राप्त करने के लिए किन बातों को एक हद तक नज़रअंदाज़ कर देना ज़रूरी है, मौक़ा महल के राजनीतिक तकाज़े क्या हैं, आदि-आदि। वैसे जहाँ तक इन समस्याओं का संबंध है मेरी नज़र में ये महत्त्वपूर्ण हैं और इनका हल तलाश कर लेना आसान हरगिज़ नहीं है।
बहरहाल इस मंज़िल पर सफ़दर ने यकायक कहा कि इस दृश्य के सिलसिले में आख़िरी फैसला आप खुद करेंगे—और सब कलाकारों ने इस राय पर सहमति प्रकट की। अब ज़िम्मेदारी का सारा भार मुझ पर आ गया। मैंने फिर एक रिहर्सल का प्रस्ताव रखा, जिसमें इस बार कोठेवाला दृश्य ज्यों-का-त्यों वापस लाया गया। मैंने चाहा कि मुझे दृश्य पर गहराई से विचार करने का एक मौक़ा हाथ आए। मैंने फैसला सही किया हो या ग़लत, बहरहाल रिहर्सल देखने के बाद मैं इसी नतीजे पर पहुँचा कि इस दृश्य को बरक़रार रखना चाहिए। बस फिर उस दिन के बाद इस मसले पर दूसरी कोई बहस नहीं हुई। न कभी किसी को कोई शिकायत पैदा हुई, न माहौल में कभी कोई तनाव पैदा हुआ, हँसी-खुशी रिहर्सल होते रहे, और इसी तरह सारे शो। सफ़दर के ज़ेहन में जो लोच-लचक थी. उसकी इससे बेहतर मिसाल कौन-सी हो सकती है?
मुझे सफ़दर के साथ काम करने में जो आनंद आया है, शायद ही किसी और कलाकार के साथ काम करने में आया होगा। नेताओं में वह इंसानियत कम देखी होगी जो सफ़दर में थी, वह इंसानियत जो उसकी लीडरशिप की बुनियाद थी। जिसके आधार पर जन नाट्य मंच के सारे कलाकार आज तक एक जगह पर मज़बूती से जुटे हुए हैं। ये वह कलाकार हैं, जो समाज के विभिन्न वर्गों से संबंध रखते हैं और विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के समर्थक हैं। राजनीतिक गतिविधियों का प्रभावशाली शिक्षक सफ़दर से बेहतर मेरी नज़र में दूसरा नहीं आता।
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