लोकदेव नेहरू : पंडित जी की धार्मिकता

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की जयंती पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की किताब ‘लोकदेव नेहरू’ का एक अंश, जिसमें उन्होंने नेहरू जी की धार्मिकता को जैसा समझा उसके बारे में लिखा है। दिनकर की यह पुस्तक पंडित नेहरू के राजनीतिक और अन्तरंग जीवन के कई अनछुए पहलुओं को निकटता से प्रस्तुत करती है।

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धर्म के दृष्टिकोण से देखने पर जवाहरलाल वह मनुष्य हैं, जो परम्परा और विज्ञान के संगम पर खड़ा होकर यह सोचने में गर्क है कि सत्य कहाँ है यानी वह आँख मूँदकर विश्वास करने में है अथवा बुद्धिपूर्वक परीक्षा करने में? परम्परा और विज्ञान में से जवाहरलाल विज्ञान के आदमी थे। ईश्वर उनकी समझ में नहीं आता था। किन्तु वे यह भी नहीं मानते थे कि सत्य उतना ही है, जितना वह दिखाई देता है अथवा विज्ञान की छड़ी से छुआ जा सकता है। सत्य को वे निस्सीम समझते थे और उनका विश्वास था कि विज्ञान भी यह दावा नहीं कर सकता कि उसने सम्पूर्ण सत्य पर अधिकार पा लिया है। पूरे सत्य का हृदयंगम न तो कोई व्यक्ति कर सकता है, न वह किसी एक ग्रन्थ में समा सकता है।

किन्तु धर्म के आचार-पक्ष में उनका पूरा विश्वास था। अतएव ज्ञान के उतने ही अंश को वे मूल्यवान समझते थे, जितने का आदमी आचरण कर सके। इसीलिए विश्वास से जवाहरलाल धार्मिक रहे हों या नहीं; किन्तु कर्म से वे धार्मिक अवश्य थे। गांधी जी कहते थे कि ईश्वर को नहीं मानने पर भी जवाहरलाल ईश्वर के करीब हैं। मौलाना मोहम्मद अली तो जवाहरलाल को मजहबी भी मानते थे। इस पर पंडित जी को आश्चर्य होता था और वे कहा करते थे कि अवश्य ही मौलाना साहब का यहाँ धर्म से कुछ और अभिप्राय होगा।

सत्य के मार्ग पर कौन है और कौन नहीं है, इसका फैसला आसान नहीं है। मगर यह देखा गया है कि सत्य के मार्ग पर आया हुआ आदमी हठी नहीं होता, जिद्दी नहीं होता, दुराग्रही नहीं होता। उसके भीतर यह शंका बनी रहती है कि सम्भव है, विरोधी की ही बात ठीक हो। यह धर्म का असली भाव है। पंडित जी में यह भाव काफी प्रबल था। वे खुद भी शंका करते थे और दूसरों की शंकाओं को भी आदर से देखते थे। उनका अपना प्यारा मार्ग विज्ञान का मार्ग था; किन्तु आणविक युग में आकर उन्हें विज्ञान भी दर्शन के समीप होता दिखाई देने लगा था। दिल्ली विश विद्यालय के दीक्षान्त भाषण में उन्होंने कहा था कि भौतिकी के नवीन अनुसन्धानों से जो स्थिति उत्पन्न हुई है, उससे ऐसा लगता है कि हम फिर शंकर के मायावाद के समीप पहुँच रहे हैं।

वैसे हिन्दी के एक मासिक पत्र ‘कल्याण’ ने इधर उनके दो-एक ऐसे फोटो भी छापे हैं, जिनमें जवाहरलाल जी आनन्दमयी माँ के पास समाधिमग्न बैठे हैं। किन्तु, इसे मैं अपवाद कहूँगा। उनके विषय में जो बात खास जोर देकर कही जा सकती है, वह यह है कि जवाहरलाल जी ईश्वर की सत्ता को समझ नहीं पाते थे, न वे धर्म के बाहरी अनुष्ठानों को महत्त्व देते थे। किन्तु कर्म उनके सारे-के-सारे धार्मिक मनुष्य के थे। वे धर्म की व्याख्या में न फंसकर उसे जीने के अभ्यासी थे। इसीलिए भारतीय जनता ने उनका उतना सम्मान किया। भारत के सारे इतिहास में जनता ने सबसे अधिक पूजा उन व्यक्तियों की की है, जो धर्म के मनुष्य थे। केवल ‘सेक्युलर’ गुणों के कारण इस देश में सम्मान के अधिकारी केवल जवाहरलाल जी हुए। यह अपने-आपमें इस बात का प्रमाण है कि जनता ने उन्हें यह सम्मान उनकी चारित्रिक विशिष्टताओं के कारण दिया। और धर्म पर उनकी शंका को जनता ने एक अत्यन्त सच्चे और ईमानदार आदमी की सात्त्विक जिज्ञासा समझा।

भगवान राम और भगवान कृष्ण पर जवाहरलाल जी की श्रद्धा थी या नहीं, यह मुझे मालूम नहीं है; किन्तु भगवान बुद्ध पर उनकी श्रद्धा अटूट थी। भगवान बुद्ध अपने समय से बहुत पूर्व जनमे थे अथवा यह कहना चाहिए कि उनका समय अब आया है। बुद्ध अगर बीसवीं सदी में जनमे होते, तो उनके सबसे निकटवर्ती आत्मबन्धु गांधी जी और जवाहरलाल जी हुए होते। बुद्ध का ईश्वर के विषय में क्या मत था? ऐसे सभी प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत कोटि में डाल रखा था। किन्तु वे अगर आज मौजूद होते और हम उनसे यह पूछते कि ईश्वर है या नहीं, तो उनका जवाब होता, तुम्हें प्रश्न करना नहीं आया। और हमारा सवाल-जवाब कुछ इस प्रकार से चलता :

‘मान लो कि ईश्वर है और तुम्हारे कर्म अच्छे हैं, तो परिणाम क्या होगा?’ 

‘अच्छा होगा।’

‘और मान लो कि ईश्वर है और तुम्हारे कर्म अच्छे नहीं हैं, तो परिणाम क्या होगा?’

‘परिणाम बुरा होगा।’

‘अब मान लो कि ईश्वर नहीं है और तुम्हारे कर्म अच्छे हैं, तो परिणाम क्या होगा?’

‘परिणाम को तो अच्छा ही होना चाहिए।’

‘और मान लो कि ईश्वर नहीं है और तुम्हारे कर्म बुरे हैं, तो परिणाम क्या होगा?’

‘परिणाम बुरा होगा।’

‘तो फिर पूछना यह चाहिए कि तुम हो या नहीं तथा तुम्हारे कर्म कैसे हैं?’ 

वैसे जवाहरलाल जी गीता के प्रेमी थे और गांधी जी को देखकर उन्हें यह विश्वास हो गया था कि स्थितप्रज्ञ की कल्पना हवाई कल्पना नहीं है। साधना करने से स्थितप्रज्ञता प्राप्त की जा सकती है। निरी भौतिकता में उनका विश्वास नहीं था। उनके भीतर यह शंका दिनोंदिन प्रबल होती जा रही थी कि दृश्य के परे कोई और सत्य है, जो अदृश्य है तथा जिसे हम तर्कों से नहीं जान सकते। विनोबा जी ने जब यह सूक्ति कही कि अगला युग विज्ञान और धर्म का नहीं, बल्कि विज्ञान और अध्यात्म का है, तब यह सूक्ति पंडित जी को बहुत पसन्द आई थी।

 

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