जाति को लेकर आंबेडकर और गांधी के बीच टकराव

आंबेडकर ने कहा था, “यदि किसी समुदाय द्वारा मूलभूत बुनियादी अधिकारों का विरोध किया जाता हो तो क़ानून, कोई संसद, कोई न्यायपालिका उन अधिकारों की सही अर्थों में गारंटी नहीं दे सकती है। अमेरिकी नीग्रो, जर्मनी के यहूदी और भारत के अछूतों के लिए मूलभूत अधिकारों का क्या फ़ायदा है? जैसा कि बर्क ने कहा था, भीड़ को दंडित करने की कोई विधि नहीं है।”

आंबेडकर जयंती के अवसर पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, अरुंधति रॉय की किताब ‘एक था डॉक्टर एक था संत’ का एक अंश। इस किताब के जरिए अरुंधति रॉय वर्तमान भारत में असमानता को समझने और उससे निपटने के लिए ज़ोर देकर कहती हैं कि हमें राजनैतिक विकास और मोहनदास करमचन्द गांधी के प्रभावदोनों का ही परीक्षण करना होगा। सोचना होगा कि क्यों भीमराव आंबेडकर द्वारा गांधी की लगभग दैवीय छवि को दी गई प्रबुद्ध चुनौती को भारत के कुलीन वर्ग द्वारा दबा दिया गया?

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार प्रति सोलह मिनट में, एक दलित के विरुद्ध, किसी गैर-दलित द्वारा अपराध किया जाता है। प्रतिदिन चार से अधिक अछूत महिलाओं का, गैर-अछूत द्वारा बलात्कार किया जाता है। प्रत्येक सप्ताह तेरह दलितों की हत्या होती है और छह दलितों का अपहरण होता है। केवल 2012 में, जब दिल्ली में एक चर्चित गैंग रेप और हत्या का मामला हुआ था; 1574 दलित महिलाओं का बलात्कार हुआ (मोटे तौर पर ऐसा माना जाता है कि दलितों पर अत्याचार और बलात्कार के केवल 10 प्रतिशत अपराधों की ही रिपोर्ट दर्ज की जाती है), और 651 दलितों की हत्या हुई। और यह संख्या केवल बलात्कार और हत्याओं की है। इसमें नंगा करके बाजार में घुमाना, ज़बरदस्ती मानव-मल खिलाना (सचमुच), भूमि पर क़ब्ज़ा करना, सामाजिक बहिष्कार, पेयजल के स्रोतों पर पाबन्दी शामिल नहीं है। इन आँकड़ों में ऐसे मामले नहीं आते जैसे पंजाब का बंत सिंह, एक दलित मज़हबी सिख, 2005 में जिसके दोनों हाथ और एक पाँव काट दिए गए सिर्फ इसलिए क्योंकि उसने उन लोगों के ख़िलाफ़ पुलिस में केस दर्ज कराने का दुस्साहस किया था, जिन्होंने उसकी बेटी के साथ सामूहिक बलात्कार किया था। तीन अंगों से अपंग लोगों के भी कोई अलग से आँकड़े नहीं होते।

आंबेडकर ने कहा था, “यदि किसी समुदाय द्वारा मूलभूत बुनियादी अधिकारों का विरोध किया जाता हो तो क़ानून, कोई संसद, कोई न्यायपालिका उन अधिकारों की सही अर्थों में गारंटी नहीं दे सकती है। अमेरिकी नीग्रो, जर्मनी के यहूदी और भारत के अछूतों के लिए मूलभूत अधिकारों का क्या फ़ायदा है? जैसा कि बर्क ने कहा था, भीड़ को दंडित करने की कोई विधि नहीं है।”

किसी भी गाँव के पुलिसकर्मी से पूछो कि उसका क्या काम है तो वह आपको शायद यह जवाब देगा, “शान्ति बनाए रखना।” और अमूमन यह काम जाति-व्यवस्था बनाए रखकर किया जाता है। जबकि दलितों की आकांक्षाएँ उस ‘शान्ति’ को भंग करती हैं।

आंबेडकर का भाषण ‘जाति का विनाश’ भी इसी शान्ति को भंग करता है।

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वर्तमान समय के अन्य घृणित विद्वेषजैसे दक्षिण अफ्रीका का अपारथाइंड (रंग-भेद), नस्लवाद, लिंग आधारित भेदभाव और धार्मिक कट्टरवादको राजनीतिक तथा बौद्धिक रूप से अन्तर्राष्ट्रीय मंचों से ज़ोरदार चुनौतियाँ दी गई हैं। लेकिन ऐसा क्यों है कि भारत में जाति का चलन मानव समाज की अब तक की ज्ञात क्रूरतम ऊँच-नीच की सामाजिक व्यवस्था इस प्रकार की समीक्षा और घोर निन्दा से बच निकलने में कामयाब रहा? ऐसा शायद इसलिए हुआ क्योंकि इसे हिन्दू धर्म में समाहित और विलीन कर दिया गया, जहाँ कितना कुछ अच्छा और दया-करुणा से भरा नज़र आता है रहस्यवाद, अध्यात्म, अहिंसा, सहिष्णुता, शाकाहार, गांधी, योग, हिप्पी लोग और बीटल्स बैंडकम से कम किसी बाहरी व्यक्ति के लिए इसमें ताक झाँक करना और इसे गहराई से समझ पाना असम्भव लगता है।

समस्या और भी टेढ़ी हो जाती है जब हम देखते हैं कि रंग-भेद (अपार- थाईड) के विपरीत, जाति किसी रंग-संकेत पर आधारित नहीं है, इसलिए इसे आसानी से ‘देखा’ भी नहीं जा सकता। साथ ही, रंग-भेद (अपारथाईड) के विपरीत, जाति-व्यवस्था के बहुत से जोशीले प्रशंसक मौजूद हैं, जो ऊँचे-ऊँचे पदों पर बैठे हैं। वे खुलकर तर्क देते हैं कि जाति एक सामाजिक गोंद है जो व्यक्तियों और समुदायों को बहुत ही दिलचस्प और कुल मिलाकर बहुत ही सकारात्मक तरीक़े से बाँधती और अलग करती है। और इसने भारतीय समाज को विभिन्न चुनौतियों को झेलने की ताक़त और लचीलापन दिया है। 

जब जातिवादी हिंसा की तुलना नस्लवाद और रंग-भेद (अपारथाईड) की बुनियाद पर जारी हिंसा से की जाती है तो भारतीय सत्ता-वर्ग के चेहरे पीले पड़ जाते हैं। यही लोग दलितों पर उस समय टूट पड़े थे जब 2001 में डरबन में हुए, नस्लवाद के विरुद्ध विश्व सम्मेलन में, दलितों ने जाति का मुद्दा उठाने का प्रयास किया। इन लोगों ने कहा कि जाति हमारा ‘आन्तरिक मामला’ है। ये लोग जाने-माने समाजशास्त्रियों के शोध को तर्क के रूप में प्रस्तुत करते और कहते हैं कि जाति का चलन, नस्लीय भेदभाव जैसा नहीं है तथा जाति नस्ल से भिन्न है। आंबेडकर भी उनसे सहमत होते। लेकिन जो तर्क सक्रिय दलित कार्यकर्ता दे रहे थे वह यह था कि हालाँकि जाति और नस्ल एक समान नहीं हैं, फिर भी एक-दूसरे से तुलनीय हैं। दोनों तरह का भेदभाव जन्म-वंश के आधार पर लोगों को अपने निशाने पर रखता है। 15 जनवरी, 2014 को मार्टिन लूथर किंग जूनियर की 85वीं जयन्ती के अवसर पर आयोजित वाशिंगटन डी सी के कैपिटल हिल में एक आम जनसभा में अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों ने भारत के दलितों के लिए ‘संवेदना के घोषणा-पत्र’ पर हस्ताक्षर किए। इस घोषणा-पत्र में माँग की गई कि ‘भारत में दलितों का उत्पीड़न तत्काल बन्द हो।’

पहचान और न्याय, वृद्धि तथा विकास की मौजूदा बहसों में, कई जाने-पहचाने भारतीय विद्वानों के लिए जाति केवल एक प्रसंग-भर है, एक उपशीर्षक है और अक्सर एक फुटनोट-भर। मार्क्सवाद के वर्ग-विश्लेषण में ज़बरदस्ती इसे ठूँसकर, प्रगतिशील और वाम-झुकाव वाले बुद्धिजीवी वर्ग ने जाति को देख पाना और अधिक मुश्किल कर दिया है। यह मिटाने, अनदेखा करने की परियोजना, कई बार एक सचेत राजनीतिक कृत्य है, और कई बार उस विशेषाधिकारप्राप्त उच्च वर्ग से आता है जिसे जाति का स्वयं कोई अहसास नहीं होता, इसलिए वे ऐसा मान लेते हैं कि चेचक की तरह जाति का भी उन्मूलन हो चुका है।

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जाति की उत्पत्ति के बारे में समाजशास्त्रियों के बीच बहसें होती रहेंगी, लेकिन इसके सांगठनिक सिद्धान्तों को समझना मुश्किल नहीं है, जो ऊँच-नीच, ‘जाति अधिकारों और कर्तव्यों’ के रपटते मापक, पवित्रता और मलिनता पर आधारित हैं, और जो तौर-तरीक़े पहले थे और आज भी हैं, उन्हें आज भी लागू करने के लिए विवश और बाध्य किया जाता है। जाति के पिरामिड की चोटी पर बैठे लोगों को पवित्र माना जाता है और उनके बहुत सारे विशेषाधिकार हैं। पिरामिड के तल पर बैठे लोगों को मलिन, प्रदूषित माना जाता है, उन्हें कोई अधिकार तो नहीं हैं लेकिन ढेरों कर्तव्य ज़रूर हैं। 

मलिनता पवित्रता का फ़ार्मूला, असल में पैतृक व्यवसाय और एक विस्तृत जाति-आधारित व्यवस्था से जुड़ा हुआ है। आंबेडकर ने 1916 में (उस समय उनकी आयु मात्र 25 वर्ष थी) कोलम्बिया विश्वविद्यालय के सेमिनार के लिए एक पेपर लिखा, जिसका शीर्षक था ‘भारत में जातियाँ’। इसमें उन्होंने जाति की परिभाषा दी। उनके अनुसार जाति एक अन्तर्विवाही इकाई है और एक ‘खुद में बन्द वर्ग’ है। एक अन्य अवसर पर उन्होंने इसका वर्णन इस प्रकार किया, “एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जितना ऊपर जाएँ उतना मान-सम्मान है, जितना नीचे खिसकें उतनी घृणा-अपमान है।” 

आज जिसको हम जाति-व्यवस्था के नाम से जानते हैं, हिन्दू धर्मग्रंथों में उसे वर्णाश्रम धर्म या चातुर्वर्ण अर्थात चार वर्णों की व्यवस्था के नाम से जाना जाता है। हिन्दू समाज की लगभग चार हज़ार सजातीय विवाही जातियाँ और उपजातियाँ हैं, जिनमें प्रत्येक का एक विशिष्ट वंशानुगत व्यवसाय है, और जिन्हें चार वर्णों में बाँटा गया है- ब्राह्मण (पुजारी), क्षत्रिय (सैनिक), वैश्य (व्यापारी) और शूद्र (सेवक)। इन वर्गाें के बाहर अवर्ण जातियाँ हैं, अति शूद्र, अवमानवीय (मनुष्य से कमतर) जिनकी अपनी अलग श्रेणी-अनुक्रम हैं अछूत, दर्शन-अयोग्य, समीप जाने के अयोग्य जिनकी उपस्थिति, जिनका छूना, जिनकी परछाईं भी विशेषाधिकारप्राप्त जाति के व्यक्ति को प्रदूषित कर सकती है। कुछ समुदायों में सजातीय प्रजनन से बचने के लिए, प्रत्येक सजातीय विवाही जाति को ऐसे गोत्रों में बाँटा गया है, जिनके अन्दर आपस में विवाह निषेध है। गोत्रेतर-विवाह का वैसी ही क्रूरता से अनुपालन कराया जाता है, जैसे विजातीय विवाह का- बड़े-बूढ़ों की सहमति से सर क़लम करके और भीड़ द्वारा पीट-पीट कर हत्या करके। भारत के हर क्षेत्र ने बड़े प्रेम से जाति-क्रूरता के अपने अलग-अलग और अनूठे तरीक़ों में दक्षता हासिल कर ली है। यह अलिखित नियम-संहिता अमेरिका के नस्लवादी ‘जिम क्रो’ क़ानून से भी कहीं ज़्यादा बदतर है। 

पृथक् बस्तियों में रहने को मजबूर करने के अलावा, अछूतों पर उन सार्वजनिक मार्गों का प्रयोग निषेध था जिन्हें विशेषाधिकारप्राप्त जातियाँ प्रयोग करती थीं। दलितों को सार्वजनिक कुओं का पानी पीना मना था, वे हिन्दू मन्दिरों में प्रवेश नहीं कर सकते थे, विशेषाधिकारप्राप्त जातियों के स्कूल में उनका प्रवेश निषेध था, उन्हें अपने जिस्म का ऊपरी भाग ढकने की मनाही थी, हर प्रकार के कपड़े पहनने की उन्हें स्वतंत्रता नहीं थी, बस कुछ घटिया क़िस्म के कपड़े और आभूषण ही पहनने की उन्हें इजाज़त थी। कुछ जातियों को, जैसे महार, जिस जाति में आंबेडकर पैदा हुए थे, उन्हें अपनी कमर से झाड़ बाँधना होता था ताकि उनके प्रदूषित पदचिह्नों पर खुद-ब-ख़ुद झाडू लगती जाए। अन्य को अपने गले में मटकीनुमा थूकदान लटकाना होता था, ताकि उनका थूक जमीन पर गिरकर, ज़मीन को अपवित्र न कर दे। विशेषाधिकारप्राप्त जातियों के पुरुषों को अछूत महिलाओं के जिस्म पर अविवादित अधिकार हासिल था। प्रेम प्रदूषित करता है, लेकिन बलात्कार पवित्र है। भारत के कई हिस्सों में आज भी यह सब जारी है।

उस मानवीय या दिव्य कल्पना के बारे में कहने को और क्या बचता है, जिसने इस प्रकार की सामाजिक संरचना की परिकल्पना की? जैसे वर्णाश्रम का धर्म अपने आप में काफ़ी नहीं था, इसके साथ ही कर्मों का बोझ भी लाद दिया गया। उन लोगों को, जिनका जन्म अधीनस्थ जातियों में हुआ, बताया गया कि उन्हें उनके पिछले जन्मों के कुकर्मों की सजा मिल रही है। असल में वे लोग एक तरह का कारावास भुगत रहे हैं। यदि उनके द्वारा अवज्ञा या अवमानना हुई तो उनकी सजा में वृद्धि हो जाएगी, जिसका अर्थ होगा पुनर्जन्म का एक और चक्र, फिर से एक अछूत या शूद्र जाति में। इसलिए बेहतर यही है कि वे अपनी सीमाओं में रहें।

आंबेडकर ने कहा, “जाति-व्यवस्था से बढ़कर अपमानजनक सामाजिक संगठन हो ही नहीं सकता। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो लोगों को शिथिल, पंगु और विकलांग बनाकर, उन्हें कुछ भी उपयोगी गतिविधि नहीं करने देती।”

दुनिया में सर्वाधिक प्रसिद्ध भारतीय, मोहनदास करमचन्द गांधी, आंबेडकर से असहमत थे। उनका विश्वास था कि जाति, भारतीय समाज की प्रतिभा का प्रतिनिधित्व करती है। 1916 में मद्रास के एक मिशनरी सम्मेलन में दिए गए एक भाषण में उन्होंने कहा :

जाति का व्यापक संगठन न केवल समाज की धार्मिक आवश्यकताओं को पूरा करता है बल्कि यह राजनीतिक आवश्यकताओं को भी परिपूर्ण करता है। जाति-व्यवस्था से ग्रामवासी न केवल अपने अन्दरूनी मामलों का निपटारा कर लेते हैं बल्कि इसके द्वारा वे शासक शक्ति या शक्तियों द्वारा उत्पीड़न से भी निपट लेते हैं। एक राष्ट्र जो जाति-व्यवस्था उत्पन्न करने में सक्षम हो उसकी अद्भुत सांगठनिक क्षमता को नकार पाना सम्भव नहीं।

1921 में उन्होंने अपनी गुजराती पत्रिका ‘नवजीवन’ में लिखा :

मेरा विश्वास है कि यदि हिन्दू समाज अपने पैरों पर खड़ा हो पाया है तो वजह यह है कि इसकी बुनियाद जाति-व्यवस्था के ऊपर डाली गई। जाति का विनाश करने और पश्चिमी यूरोपीय सामाजिक व्यवस्था को अपनाने का अर्थ होगा कि हिन्दू आनुवंशिक पैतृक व्यवसाय के सिद्धान्त को त्याग दें, जो जाति-व्यवस्था की आत्मा है। आनुवंशिक सिद्धान्त एक शाश्वत सिद्धान्त है। इसको बदलने से अव्यवस्था पैदा होगी। मेरे लिए ब्राह्मण का क्या उपयोग है यदि मैं उसे जीवन-भर ब्राह्मण न कह सकूँ। यदि हर रोज किसी ब्राह्मण को शूद्र में परिवर्तित कर दिया जाए और शूद्र को ब्राह्मण में, तो इससे तो अराजकता फैल जाएगी। 

हालाँकि गांधी जाति-व्यवस्था के प्रशंसक थे, लेकिन वे यह भी मानते थे कि जातियों में ऊँच-नीच की श्रेणी नहीं होनी चाहिए। सभी जातियों को समान माना जाना चाहिए और अवर्ण जातियों, अति शूद्र को वर्णव्यवस्था के भीतर लाना चाहिए।

आंबेडकर की इस पर प्रतिक्रिया थी कि “जाति-बहिष्कृत (चंडाल) लोग जाति-व्यवस्था का ही उप-उत्पाद हैं। जब तक जाति-व्यवस्था रहेगी तब तक जाति-बहिष्कृत लोग रहेंगे। कोई भी प्रयास जाति-बहिष्कृत लोगों को बेड़ियों से मुक्त नहीं कर सकता सिवाय जाति-व्यवस्था के विनाश के।”

अगस्त 1947 से अब तक साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार और भारत सरकार के बीच सत्ता के हस्तांतरण को सत्तर से अधिक वर्ष बीत चुके हैं। क्या जाति एक बीते जमाने की बात है? वर्णाश्रम धर्म हमारे नव ‘जनतंत्र’ में अपने किस अवतार में ज़िन्दा है?

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