पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जयंती पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, रशीद किदवई की किताब ‘भारत के प्रधानमंत्री’ का एक अंश, जिसमें इंदिरा गांधी द्वारा 1966 में पहली बार प्रधानमंत्री पद संभालने से लेकर 1971 उनके दोबारा प्रधानमंत्री चुने जाने तक के घटनाक्रम का संंक्षिप्त मगर दिलचस्प वर्णन है।
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1966 की बात है। हजारों की तादाद में गो-रक्षक, साधु व अन्य धार्मिक नेता गो-रक्षा की माँग करते हुए संसद की ओर बढ़ रहे थे। करनाल से भारतीय जनसंघ के सांसद स्वामी रामेश्वरानन्द के नेतृत्व में यह भीड़ संसद भवन की ओर बढ़ने लगी। उस समय सुरक्षा बल की कमी थी, सो खतरा देख संसद भवन का मुख्य प्रवेश द्वार बन्द कर दिया गया। इससे भीड़ हिंसक हो गई और पार्लियामेंट स्ट्रीट पर मौजूद सरकारी भवनों में तोड़-फोड़ मचाने लगी। स्थिति बिगड़ती देख पुलिस ने गोली चला दी, जिससे आठ साधुओं की मौत हो गई। इस फायरिंग की देशभर में व्यापक निंदा होने लगी। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने गृह मंत्री गुलजारीलाल नन्दा को पद से हटा दिया।
बतौर प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी का यह पहला साल था और उनके सामने कई चुनौतियाँ थीं। उनकी मित्र मेरी सेटॉन के मुताबिक 1962 में चीन से युद्ध हारने के दुख में तत्कालीन प्रधानमंत्री व इन्दिरा के पिता जवाहरलाल नेहरू का देहान्त हो चुका था। वर्तमान में जैसा माना जाता है कि इन्दिरा को प्रधानमंत्री बनाने के लिए उन्होंने बाकायदा प्रशिक्षित किया था, उसके विपरीत तब देश के नए प्रधानमंत्री की तलाश जारी थी। इन्दिरा तो इंग्लैंड में शिक्षा ग्रहण कर रहे अपने बेटे राजीव व संजय गांधी के पास रहने के लिए जाने की योजना बना रही थीं। नेहरू की असामयिक मौत से मात्र 19 दिन पहले उन्होंने अपनी मित्र डोरोथी नॉर्मन को पत्र लिखकर अपनी योजना बताई थी कि ‘वे कम-से-कम एक साल के लिए भारत से बाहर रहना चाहती हैं, और वहाँ की मुद्रा प्राप्त करने के लिए किसी काम की तलाश में हैं।’
नेहरू ने खुद उनकी परवरिश अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में नहीं की थी। इन्दिरा ने जब संसदीय सीटों के लिए चुनाव लड़ने से इनकार किया तो नेहरू ने उनका समर्थन किया तथा उनके भविष्य के लिए कोई खास योजना नहीं बनाई। फरवरी, 1959 में इन्दिरा गांधी को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया तो नेहरू विरोधियों ने इसे बेटी के लिए प्रधानमंत्री पद की राह आसान करना ठहराया। हालाँकि कांग्रेस के ही एक बड़े वर्ग का मानना था कि इन्दिरा ने अपने गुणों के आधार पर यह पद पाया था।
इन्दिरा गांधी पार्टी अध्यक्ष का पद पाने वाली चौथी महिला थीं और अध्यक्ष बनते ही उन्होंने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति जाहिर कर दी। केरल में मार्क्सवादी ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद की सरकार ने भूमि सुधार लागू किए थे। राज्य सरकार ने एजुकेशनल बिल पारित करा लिया था, ताकि प्राइवेट स्कूलों को नियंत्रित किया जा सके। इससे समाज का प्रभावशाली वर्ग भड़क गया और उसने नम्बूदरीपाद सरकार को उखाड़ फेंकने का अभियान चला दिया। इन्दिरा ने मौके का फायदा उठाया और नम्बूदरीपाद सरकार बदल दी गई। भाषाई मामले पर तनाव बढ़ते देख उन्होंने महाराष्ट्र व गुजरात को अलग करने की सिफ़ारिश भी की।
फरवरी, 1960 में उनका अध्यक्षीय कार्यकाल पूरा हो गया। कांग्रेस कार्य समिति ने उनसे दोबारा इस पद पर बने रहने का आग्रह किया, लेकिन इन्दिरा ने विनम्रतापूर्वक उसे अस्वीकार करते हुए वरिष्ठ नेता के. कामराज को आगे कर दिया। अलबत्ता खुद को पीछे रखते हुए वे अपने पिता व देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की छाया बनी रहीं तथा द्वेष रखने वालों से उनका बचाव करती रहीं। साथ ही उन्होंने इसका भी ध्यान रखा कि ये राजनीतिक गतिविधियाँ उनके सामाजिक कार्यों तथा अपनी संतानों की परवरिश में रुकावट न बनें।
मगर नियति कुछ और खेल खेल रही थी। 27 मई, 1964 को नेहरू का निधन हो गया, जिसके कुछ घंटों बाद ही सिंडिकेट कहलाने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने लालबहादुर शास्त्री को देश का नया प्रधानमंत्री चुन लिया। राजनीतिज्ञों के राजनीतिज्ञ के. कामराज ने कट्टरपन्थी मोरारजी देसाई की जगह शास्त्री को प्राथमिकता दी।
इन्दिरा गांधी की निकटतम मित्र व सलाहकार पुपुल जयकर के अनुसार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने से पहले शास्त्री ने इन्दिरा को बुलाकर प्रधानमंत्री पद की पेशकश की थी। जयकर ने लिखा है कि ‘इन्दिरा गांधी ने इसे अस्वीकार कर दिया।’ क्योंकि ‘वे महसूस करती थीं कि अगर अभी से प्रधानमंत्री बन गई तो बर्बाद होकर रह जाऊँगी।’ फिर शास्त्री ने इस आग्रह के साथ कि उनके बिना वे एक मजबूत सरकार नहीं बना पाएँगे, उन्हें मंत्री पद ग्रहण करने का प्रस्ताव दिया। तब इन्दिरा ने सूचना व प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी स्वीकार कर ली।
सितम्बर, 1965 में पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर स्थित अखनूर के चंब सेक्टर पर चढ़ाई कर दी। भारतीय सेना ने पश्चिमी पाकिस्तान पर धावा बोल दिया और लाहौर की ओर बढ़ चली। 22 सितम्बर को संयुक्त राष्ट्र संघ ने हस्तक्षेप कर दोनों देशों के बीच युद्धबन्दी कराई। जनवरी, 1966 में सोवियत रूस के प्रधानमंत्री अलेक्सेई कोसिगिन ने शास्त्री व पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अय्यूब खान को उजबेकिस्तान स्थित ताशकन्द में सन्धि के लिए निमंत्रित किया। जिस रात इन दोनों प्रधानों ने सन्धि पर हस्ताक्षर किए, उसी रात लालबहादुर शास्त्री को दिल का घातक दौरा पड़ा और उन्होंने वहीं दम तोड़ दिया।
कामराज फौरन इन्दिरा को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे करने लगे। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में वरिष्ठ कांग्रेसियों का एक गुट इसके खिलाफ था लेकिन कामराज को लगता था कि इन्दिरा गांधी में 1967 का चुनाव जिताने की क्षमता है। चतुर सियासतदाँ के. कामराज की सोच यह थी कि इन्दिरा को अभी पर्याप्त अनुभव नहीं है और वह उनके इशारों पर काम करती रहेंगी। नरसिम्हा राव ने बाद में कहा कि तब इन्दिरा को ‘वोट खींचने वाली मशीन’ के तौर पर देखा गया, जिसे चुनाव के बाद दबाव डालकर अलग कर दिया जाएगा तथा किसी अनुभवी व्यक्ति को प्रधान का पद सौंप दिया जाएगा।
इसके खिलाफ देसाई ने कांग्रेस संसदीय दल का चुनाव कराकर नेतृत्वकर्ता चुनने का दबाव डाला। शास्त्री की मौत के 9 दिन बाद यह चुनाव हुआ। चुनाव अधिकारी ने संसद के सेंट्रल हॉल में अपराह्न 3 बजे के. कामराज को चुनाव परिणाम सौंप दिए। कामराज ने अपने विशुद्ध तमिल लहजे में चुनाव परिणाम घोषित किए, जिसे कांग्रेस के कुछ ही सांसद व पदाधिकारी समझ सके। तुरन्त ही कांग्रेस के एक उत्साही नेता ने घोषणा की कि इन्दिरा गांधी चुनाव जीत गई हैं। उन्हें 355 जबकि देसाई को केवल 169 वोट मिले।
24 जनवरी, 1966 को इन्दिरा गांधी ने राष्ट्रपति भवन में अवस्थित भगवान बुद्ध की प्रतिमा के सामने पद व गोपनीयता की शपथ ली, जहाँ लिखा हुआ था—‘निर्भीक रहो।’ प्रधानमंत्री बनने के बाद इन्दिरा गांधी ने दृढ़तापूर्वक काम करना शुरू किया। इससे कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं के अरमानों पर पानी फिर गया, जो समझ रहे थे कि वे इन्दिरा से मनमाने काम करा सकेंगे। यही नहीं इन्दिरा का राजनीतिक करियर बनाने वाले के. कामराज को भी बाद में अहसास हुआ कि इन्दिरा अपने ढंग से काम करने वाली महिला हैं। इसीलिए एक मौके पर उन्होंने इन्दिरा के व्यक्तित्व को यूँ प्रस्तुत किया, ‘एक बड़े आदमी की बेटी, एक छोटे आदमी की गलती।’
प्रधानमंत्री बनने के बाद इन्दिरा के सामने कई चुनौतियाँ व संकट थे। देश में उसी साल ऐसा भयानक अकाल पड़ा कि कई राज्यों में आहार के लिए दंगे होने लगे। मिजो जनजातियों ने विद्रोह कर दिया तथा पंजाब में भाषाई आन्दोलन सर उठाने लगा। साथ ही उनके खिलाफ दुष्प्रचार ने जोर पकड़ लिया। दिल्ली व देश के कुछ भागों में उन्हें देश के लिए अशुभ बताने वाले पोस्टर लगाए गए। इनमें देशवासियों को याद दिलाया गया कि जिस दिन इन्दिरा गांधी ने शपथ ली, उसी दिन भूकंप आ गया। उसी दिन एक विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया, जिसमें देश के प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. होमी भाभा की जान चली गई। साथ ही यह कि वे विधवा थीं, जो देश के लिए अमंगलकारी था।
इन सबसे विचलित हुए बिना इन्दिरा ने अपना सफर शुरू कर दिया। गो-रक्षा मामले में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश एके सरकार की अध्यक्षता में एक समिति गठित कर दी, जिसे यह रिपोर्ट देनी थी कि देशभर में गो-वध पर रोक लगाना उचित होगा। इसमें उन्होंने निर्भीकता के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया एमएस गोलवलकर को भी रखा। उनके अलावा पुरी के शंकराचार्य, राष्ट्रीय डेयरी विकास निगम अध्यक्ष वी. कुरियन, अर्थशास्त्री अशोक मित्र सहित अन्य लोग शामिल थे। कुरियन ने बाद में लिखा कि गोलवलकर ने स्वीकार किया था कि नवम्बर, 1966 में उनके द्वारा चलाए गए गो-रक्षा अभियान का मूल उद्देश्य सरकार को परेशान करना था तथा उनके मस्तिष्क में कई राजनीतिक उद्देश्य भी थे। समिति समय पर रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं कर सकी तथा 1979 में मोरारजी देसाई सरकार ने इसे भंग कर दिया।
1967 में इन्दिरा गांधी पचास साल की हो गईं और इसी साल होने वाले लोकसभा चुनाव में उन्होंने पहली बार जनता से सीधा सामना करने यानी चुनाव लड़ने का मन बनाया। इसके लिए उन्होंने अपने दिवंगत फीरोज गांधी की सीट रायबरेली चुनी। यही नहीं उनकी क्षमता को लेकर के. कामराज ने जो अनुमान लगाए थे, उन्हें सिद्ध करते हुए इन्दिरा ने प्रचार के लिए 45 दिन के चुनाव अभियान में 25 हजार किलोमीटर से ज्यादा की यात्राएँ कीं।
इस चुनाव से पहले देश में समाजवादी आन्दोलन आकार लेने लगा था। इसमें यादव, जाट, रेड्डी, पटेल व मराठा जैसी पिछड़ी जातियाँ शामिल थीं, जिनका कांग्रेस से मोहभंग हो चुका था। कांग्रेस में रह चुके राममनोहर लोहिया के अनुसार सन् 1952, 1957 व 1962 के चुनाव कांग्रेस द्वारा लगातार जीते जाने से मतदाता को लगने लगा था कि कांग्रेस को कोई नहीं हरा सकता। इस सोच को बदलने के लिए उन्होंने विपक्ष को सलाह दी कि चुनाव में अपने अलग-अलग उम्मीदवार खड़े करने के बजाय सभी पार्टियों को मिलकर कांग्रेस के सामने एक साझा उम्मीदवार खड़ा करना चाहिए। लोहिया का यह फार्मूला काम कर गया और कांग्रेस को कई जगह हार का मुँह देखना पड़ा। देश के नौ राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकार भी बनी।
स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर महारानी गायत्री देवी ने चुनाव लड़ा और खुद को इन्दिरा गांधी की प्रतिद्वंद्वी के रूप में पेश किया। जयपुर में एक आमसभा को सम्बोधित करते हुए इन्दिरा ने पूर्व राजे-महाराजों पर यह कहकर हमला किया कि ‘जाओ और महाराजाओं व महारानियों से पूछो कि अपने राज में उन्होंने जनता के लिए क्या किया तथा जनता के धन से ऐश करने वाले इन लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ कितनी लड़ाइयाँ लड़ीं।’ बहरहाल 1967 का चुनाव कांग्रेस जीत तो गई, लेकिन उसे सीटों का नुकसान उठाना पड़ा।
वी. कृष्णा अनंत के मुताबिक 1967 के चुनाव ने भारत की सामाजिक व राजनीतिक संरचना को खासी ठेस पहुँचाई, बाद में जिसके दुष्परिणाम दिखते रहे। इस चुनाव में ‘गठबन्धन, समझौतों के साथ धर्म, जाति आदि के नाम पर भी वोट माँगे गए।’ इससे भारत को अपूरणीय क्षति पहुँची जो 1947 से एक साझा परिवार की तरह रहता आया था। वरिष्ठ राजनेताओं द्वारा इस तरह के हथकंडे अपनाए जाने का जवाब इन्दिरा ने खामोशी से दिया। ज्यादातर वरिष्ठ कांग्रेसी पार्टी से बाहर हो गए या कर दिए गए। साथ ही इन्दिरा ने दो भारी-भरकम फैसले कर डाले।
एक तो यह कि देश के राजे-महाराजों की सम्पत्तियाँ उन्होंने भारत सरकार में शामिल कर लीं तथा दूसरा देश के बड़े बैंकों को राष्ट्रीयकृत कर दिया। एक झटके में 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण अपने आपमें बड़ी घटना थी, जिसने आम नागरिकों का दिल जीत लिया। इन्दिरा के इस कदम से आमजन कितने उत्साहित थे, इसका अन्दाजा ‘शू शाइन बॉयज यूनियन’ द्वारा दिए गए एक प्रस्ताव से लगाया जा सकता है। यूनियन की ओर से घोषणा की गई थी कि कांग्रेस अधिवेशन में शामिल होने वाले ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के तमाम प्रतिभागियों के जूतों पर मुफ्त में पॉलिश की जाएगी। राष्ट्रीयकृत किए जाने वाले बैंकों में सबसे बड़ा सेंट्रल बैंक था। टाटा द्वारा नियंत्रित इस बैंक में 4 अरब से अधिक रुपए जमा थे। सबसे छोटे महाराष्ट्र बैंक में भी 70 करोड़ रुपए जमा थे। ये उस दौर के हिसाब से बहुत बड़ी-बड़ी रकमें थीं।
तब हुए एक आर्थिक सर्वे में बताया गया था कि देश के 20 प्रमुख बैंकों को बतौर डायरेक्टर 188 लोग चला रहे थे। यही लोग 1452 दूसरी कंपनियों के भी डायरेक्टर थे। इनके पास भारी धन-सम्पत्तियाँ थीं, जिन पर जनता का कोई अधिकार नहीं था।
‘गरीबी हटाओ’ वाले नारे के साथ सन् 1971 में इन्दिरा गांधी सत्ता में वापस लौटीं। वे एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित हो चुकी थीं। इसी दौरान उन्होंने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिखाए। इस अभियान के दौरान ढाका में पाकिस्तान के हजारों सैनिकों ने भारत के सम्मुख आत्मसमर्पण किया। इससे इन्दिरा को पूरे देश ने सिर-आँखों पर बिठा लिया।
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