पुस्तक अंश : हिन्दू होने की क्या है पहचान?

“धर्म मजहब या रिलीजन से जिस प्रकार भिन्न है, उसी प्रकार हिन्दू मुसलमान, यहूदी, ईसाई आदि से भिन्न है। मज़हब का अर्थ है कुछ निश्चित विश्वास, जिन्हें न मानने से आदमी उस मजहब की सदस्यता को खो देता है। हिन्दू धर्म में इस प्रकार के किसी निश्चित विश्वास पर बल नहीं दिया गया है। धर्म वस्तुतः पूरी तरह जीने का एक तरीका है। वह विश्वासों से अधिक जीने की प्रक्रिया पर आधारित है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में इतने अधिक सम्प्रदाय, इतने अधिक प्रकार के प्रादेशिक भेद और इतने अधिक प्रकार की रंग-बिरंगी जातियों का समावेश है। यह न तो देश से बँधा है, न ही काल से। जिस किसी देश का व्यक्ति हिन्दू जीवन-दर्शन के साथ साझेदारी रखता है, वह अपने को हिन्दू कह सकता है। हिन्दू धर्म में संस्थाएँ हैं, पर हिन्दू धर्म संस्थागत धर्म नहीं है।”

राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, विद्यानिवास मिश्र की किताब ‘हिन्दू धर्म : जीवन में सनातन की खोज’ का एक अंश। इस किताब में हिन्दू धर्म-दर्शन पर विवेचनापूर्ण विचारों का संकलन किया गया है। 

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हम हिन्दू किसे कहेंगे― जन्म से हिन्दू माँ-बाप की सन्तान को हिन्दू कहेंगे, या लोग मुझे हिन्दू कहते हैं इसलिए अपने-आपको हिन्दू कहेंगे, या विवेकपूर्ण निर्णय के अनुसार अपने को हिन्दू मानेंगे? क्या हिन्दू धर्म में दीक्षित हुए बिना भी कोई हिन्दू हो सकता है? इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर के द्वारा हम हिन्दू धर्म का सामान्य लक्षण कर सकते हैं।

हिन्दू एक बहुत ही व्यापक नाम है, पर यह नाम हिन्दुओं द्वारा हिन्दुओं के लिए दिया हुआ नाम नहीं है। यह नाम बाहर वालों ने दिया और यह उन सबके साथ चिपक गया है जो मुसलमान, ईसाई, यहूदी, पारसी जैसी परिभाषित कोटियों में नहीं आते। सही बात यह है कि प्राचीन शास्त्रों में केवल 'धर्म' शब्द मिलता है और उसके पूर्व दो या तीन ही विशेषण पाए जाते हैं― मानव धर्म, सनातन धर्म, आर्य धर्म। आर्य धर्म और सद् धर्म शब्द का प्रयोग बौद्धों ने अपने आष्टांगिक मार्ग के सम्बन्ध में किया। अधिकतर धर्मशास्त्र केवल धर्म का ही प्रयोग करते रहे हैं। धर्म मजहब या रिलीजन से जिस प्रकार भिन्न है, उसी प्रकार हिन्दू मुसलमान, यहूदी, ईसाई आदि से भिन्न है। मज़हब का अर्थ है कुछ निश्चित विश्वास, जिन्हें न मानने से आदमी उस मजहब की सदस्यता को खो देता है। हिन्दू धर्म में इस प्रकार के किसी निश्चित विश्वास पर बल नहीं दिया गया है। धर्म वस्तुतः पूरी तरह जीने का एक तरीका है। वह विश्वासों से अधिक जीने की प्रक्रिया पर आधारित है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में इतने अधिक सम्प्रदाय, इतने अधिक प्रकार के प्रादेशिक भेद और इतने अधिक प्रकार की रंग-बिरंगी जातियों का समावेश है। यह न तो देश से बँधा है, न ही काल से। जिस किसी देश का व्यक्ति हिन्दू जीवन-दर्शन के साथ साझेदारी रखता है, वह अपने को हिन्दू कह सकता है। हिन्दू धर्म में संस्थाएँ हैं, पर हिन्दू धर्म संस्थागत धर्म नहीं है।

अब यहाँ प्रश्न उठता है कि जब हिन्दू धर्म में भी मन्दिर, ब्राह्मण, पुरोहित, तांत्रिक, धर्माचार्य, महंत जैसी संस्थाएँ हैं तो हिन्दू धर्म भी संस्थागत धर्म माना जाना चाहिए। इसका समाधान यह है कि ये संस्थाएँ तो हैं, पर ये ही सब कुछ नहीं हैं, मानने वाला भी कुछ है।

संस्थागत धर्म से अभिप्राय ऐसी व्यवस्थाओं से है जहाँ सारे निर्णय व्यक्ति से नहीं, बल्कि संस्था से लिये जाते हैं। वह संस्था चाहे कुछ चुने हुए व्यक्तियों की हो, चाहे धर्माचार्य की गद्दी हो या मन्दिर का पुजारी हो, या किसी भी प्रकार के धर्म-गुरु के रूप में हो। हिन्दू धर्म संस्थागत इस माने में नहीं है कि वह संस्थाओं तक सीमित नहीं है और उसमें सबसे अधिक महत्त्व दो बातों को है― एक, व्यक्ति के विवेक को और दूसरे, अमूर्त-शास्त्र को। प्रत्येक धर्मशास्त्र में साफ़-साफ़ स्पष्ट लिखा हुआ है कि देश और काल का विचार करके आदमी को शास्त्रविहित धर्म के सम्बन्ध में निर्णय लेना चाहिए।

धर्म के चार प्रमुख अंग हैं― वेद, स्मृति, सदाचार और आत्मानुकूलता। इसका अर्थ है कि शास्त्र का ज्ञान कोई ठहरा हुआ ज्ञान नहीं है, वह वेद से परिभाषित है, स्मृति सदाचार से और सदाचार अपनी अनुकूलता से। इसलिए शास्त्र एक जड़ वस्तु नहीं, यह निरन्तर जीवन की व्याख्या में उतरते रहने वाला स्मृति से समृद्धतर होने वाला मनुष्य का निरन्तर अनुभव है। हिन्दू का प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान मंत्रोच्चारणपूर्वक होता है। मंत्र के साथ जुड़ने का अर्थ है, एक साथ एक लम्बी परम्परा से जुड़ना और मनुष्य की ज्ञान-यात्रा की प्रारम्भिक बिन्दु से जुड़ना। दैनिक-चर्या से अपेक्षा की जाती है कि मनुष्य ऋग्वेद से लेकर आज तक के महत्त्वपूर्ण धार्मिक अनुभव की वाक्-सम्पदा को किसी-न-किसी रूप में दुहराए-संध्योपासन के रूप में, स्तोत्रपाठ के रूप में, या ग्रंथपाठ के रूप में। इस अर्थ में शास्त्र को कोई गतिशील संस्था कहना चाहे तो कह सकता है, परन्तु यह एक सीमित शास्त्र नहीं, इसलिए हम हिन्दू धर्म को संस्थागत धर्म नहीं कहेंगे।

हम यह कह सकते हैं कि हिन्दू धर्म ज्ञान को आचरण से जोड़ते रहने की सतत प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया की पहली विशेषता है― जीवन में निरन्तरता और अखंडता का अनुभव करते रहना। जीवन की निरन्तरता केवल स्थूल शरीर या वंशानुक्रम में निरन्तरता नहीं है, यह तो निरन्तरता का केवल वह एक पक्ष है, जिसके कारण मनुष्य अपने को अपनी पूर्ववर्ती तीन पीढ़ियों के साथ एक पिंड का भागीदार मानता है― पूर्ववर्ती ही नहीं, परवर्ती पीढ़ियों के साथ भी और वह अपने प्रत्येक अनुष्ठान में एक तो यह अनुभव करता है कि हम अपने पूर्ववर्तियों को (पितरों को) भाग दे रहे हैं, दूसरी ओर मन में यह आकांक्षा भी पालता है कि हमारी भागीदार सन्तान हमसे अधिक समृद्ध, अधिक बुद्धि-सम्पन्न, अधिक कर्म-सम्पन्न हो। इस प्रकार का अनुभव केवल इसीलिए अतीत से नहीं जोड़ता, न केवल भविष्यत् से जोड़ता है, वह वर्तमान का विस्तार करता चलता है। अतीत और अनागत को वर्तमान में आत्मभुक्त करता चलता है।

जीवन की निरन्तरता का दूसरा पक्ष सूक्ष्म शरीर की अविच्छिन्नता के अनुभव के रूप में उजागर होता है। सूक्ष्म शरीर का अनुभव स्थूल इन्द्रिय से नहीं होता। वह अनुभव उसी के स्तर की सूक्ष्म बुद्धि से होता है। सूक्ष्म बुद्धि निरन्तर अभ्यास से विकसित होती है, अभ्यास इस बात का कि हम यह सोचते रहें कि हम अनन्त काल और देश से जुड़े हुए हैं और अभ्यास यह सोचते रहने का कि किसी भी वस्तु के प्रति यदि हमारा आकर्षण होता है, चाहे वह वस्तु मनुष्य के रूप में सामने आए या प्रकृति के रूप में हो तो उसके पीछे एक चिरसंचित संस्कार प्रेरक है। ऐसा निरन्तर खोजते रहने से स्थूल और सूक्ष्म का विवेक इस स्तर का हो जाता है कि आदमी स्थूल आश्रय में रहते हुए भी उससे अलग अस्तित्व के बारे में सोच सकता है और सूक्ष्म शरीर की भावना करते-करते समष्टि सूक्ष्म के प्रवाह में उसे विसर्जित कर सकता है। जन्मान्तर का सिद्धान्त इस निरन्तरता के अनुभव का ही एक निष्कर्ष है। जन्मान्तर का अर्थ ही है, स्थूल शरीर के नाश को जीवन का अन्त न मानना।

 

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