पुस्तक अंश : शास्त्री जी के निधन की रात ताशकन्द में क्या-क्या हुआ?

जगन्नाथ ने शास्त्री से पूछा कि क्या वे अपने घर पर बात करना चाहेंगे, क्योंकि पिछले दो दिनों से उनकी अपने परिवार से बात नहीं हो पाई थी। शास्त्री ने पहले तो ‘न’ कहा, लेकिन फिर अपना विचार बदलकर उन्हें नम्बर मिलाने के लिए कहा। तब रात के लगभग ग्यारह बज रहे थेे। सबसे पहले शास्त्री की अपने दामाद वी.एन.सिंह से बात हुई। उन्होंने कुछ खास नहीं कहा। इसके बाद शास्त्री की सबसे बड़ी और चहेती बेटी कुसुम फोन पर आईं। शास्त्री ने उनसे पूछा, ‘‘तुमको कैसा लगा?’’ कुसुम ने जवाब दिया, ‘‘बाबूजी, हमें अच्छा नहीं लगा।’’ शास्त्री ने ‘अम्मा’ के बारे में पूछा। घर के सभी लोग उनकी पत्नी ललिता शास्त्री को ‘अम्मा’ कहकर बुलाते थे। कुसुम ने कहा, ‘‘उन्हें भी अच्छा नहीं लगा।’’ इस पर शास्त्री ने उदास होकर अपने सहयोगियों से कहा, ‘‘अगर घरवालों को अच्छा नहीं लगा तो बाहरवाले क्या कहेंगे!’’ शास्त्री ने कुसुम को फोन अम्मा को देने के लिए कहा। कुसुम ने कहा कि अम्मा बात करना नहीं चाहतीं। शास्त्री के बार-बार कहने पर भी ललिता शास्त्री फोन पर नहीं आईं।

लाल बहादुर शास्त्री की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उनके काफ़ी करीबी रहे जाने-माने पत्रकार और लेखक कुलदीप नैयर की आत्मकथा ‘एक ज़िन्दगी काफ़ी नहीं’ का एक अंश। इसमें शास्त्री जी के निधन की रात को ताशकन्द में हुए घटनाक्रम का विवरण है।  

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शास्त्री ने मुझे ताशकन्द घोषणा के बारे में अखबारवालों की प्रतिक्रिया जानने के लिए कहा। वे कुछ चिन्तित दिखाई दे रहे थे। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि दिन में हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में दो-तीन भारतीय पत्रकारों का रुख बहुत ‘रूखा’ रहा था। वे जानना चाहते थे कि शास्त्री पाकिस्तान को हाजी पीर और टिथवाल की बेहद महत्त्वपूर्ण चौकियाँ वापस करने के लिए राजी क्यों हो गए थे। शास्त्री ने कहा कि वे ‘हमले में लूटे इलाकों’ को अपने पास नहीं रख सकते थे, जैसाकि भारत के सबसे अच्छे दोस्त रूस का भी कहना था। एक पत्रकार ने तो शास्त्री को ‘राष्ट्र-विरोधी’ तक कह दिया था। मुझे बीच में दखल देते हुए पत्रकारों को याद दिलाना पड़ा था कि वे भारत के प्रधानमंत्री से बात कर थे। शास्त्री ने कहा कि उनकी इज्जत पत्रकारों के हाथों में थी। वे जो कुछ भी लिखेंगे उससे भारत का जनमानस तैयार होगा। क्या यह प्रेस कॉन्फ्रेंस उनके दिल पर बोझ बन गई थी?

मैं अपने होटल लौटा तो घोषणा-पत्र पर दोनों नेताओं के हस्ताक्षरों की खुशी में सोवियत सरकार द्वारा आयोजित पार्टी पूरे खुमार पर थी। यह वार्ता उनके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुकी थी। पूरी दुनिया की नजरें ताशकन्द पर टिकी हुई थीं और वे इसके विफल होने का खतरा नहीं उठा सकते थे। शराब पानी की तरह बह रही थी और खूबसूरत लड़कियाँ दुभाषियों की भूमिका निभा रही थीं। लेकिन मैं वहाँ ज्यादा नहीं रुक पाया, क्योंकि मुझे सुबह जल्दी उठना था। शास्त्री का विमान सुबह 7.00 बजे रवाना होनेवाला था।

उस रात न जाने क्यों मुझे शास्त्री की मौत का पूर्वाभास हो गया था। किसी ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दी तो मैं शास्त्री की मौत का ही सपना देख रहा था। मैं हड़बड़ाकर उठा और दरवाजे की तरफ लपका। बाहर कॉरिडोर में खड़ी एक महिला ने मुझे बताया, ‘‘आपके प्रधानमंत्री मर रहे हैं।’’ मैंने झट से कपड़े पहने और एक भारतीय अधिकारी के साथ कार में शास्त्री के आवास की तरफ चल पड़ा, जो थोड़ी दूरी पर था।

मुझे बरामदे में कोसिगिन खड़े दिखाई दिए। उन्होंने अपने हाथ खड़े करके शास्त्री के न रहने का संकेत किया। बरामदे से आगे डाइनिंग-रूम था, जहाँ एक लम्बे टेबल पर डॉक्टरों की टीम डॉ. आर. एन. चुग से पूछताछ कर रही थी। डॉ. चुग भारत से शास्त्री के साथ गए थे।

इससे आगे शास्त्री का कमरा था। एक विशाल कमरा। उतने ही विशाल पलंग पर शास्त्री की निर्जीव देह और भी नन्ही प्रतीत हो रही थी। पास ही कालीन पर बड़ी तरतीब से उनके स्लीपर पड़े हुए थेे। उन्होंने इन्हें नहीं पहना था। कमरे के एक कोने में पड़ी ड्रेसिंग-टेेबल पर एक थरमस लुढ़का पड़ा था। ऐसा लगता था कि शास्त्री ने इसे खोलने की कोशिश की थी। कमरे में कोई घंटी नहीं थी। इस चूक को लेकर जब संसद में सरकार पर हमला किया गया था तो सरकार साफ झूठ बोल गई थी।

सरकारी फोटोग्राफर चोपड़ा के साथ मिलकर मैंने ड्रेसिंग-टेबल के पास तह करके रखे तिरंगे झंडे को शास्त्री की पार्थिव देह पर फैला दिया। अपनी श्रद्धांजलि के रूप में मैंने उस पर कुछ फूल भी रख दिए। कुछ देर बाद मैं उनके सहयोगियों के कमरे में गया। वह उनके कमरे से थोड़ा दूर था, जहाँ एक खुले बरामदे से होकर जाना पड़ता था। शास्त्री के निजी सचिव जगन्नाथ सहाय ने मुझे बताया कि शास्त्री ने आधी रात के आसपास उनके दरवाजे पर दस्तक दी थी और पानी माँगा था। इसके बाद दो स्टेनोग्राफरों के साथ मिलकर जगन्नाथ उन्हें उनके कमरे तक छोड़ आए थे। चुग के अनुसार, यही कसरत जानलेवा साबित हुई थी।

शास्त्री के निधन का फ्लैश भेजने के बाद मैं उनके सहयोगियों के पास लौट आया और रात की घटनाओं के बारे में विस्तार से जानने की कोशिश करने लगा। मुझे पता चला कि विदाई पार्टी में शामिल होने के बाद शास्त्री रात को लगभग 10.00 बजे अपने आवास पर लौटे थे। उसी समय जगन्नाथ और शास्त्री के निजी सेवक रामनाथ समेत कुछ सहयोगी उनके कमरे में चले आए थे। वे सब इस्लामाबाद में अयूब के चाय के न्यौते के बारे में सुन चुके थे और शास्त्री की सुरक्षा को लेकर चिन्तित थे। उन्हें डर था कि पाकिस्तानी क्षेत्र में उनके विमान की उड़ान के दौरान पाकिस्तान कोई भी शरारत कर सकता था।

शास्त्री ने कहा कि अब भारत और पाकिस्तान के बीच समझौता हो चुका था और अयूब एक अच्छे आदमी थे, इसलिए डरने की कोई बात नहीं थी। उन्होंने रामनाथ को टी.एन. कौल के घर से अपना खाना लाने के लिए कहा, जो उनका बावर्ची जां मुहम्मदी पकाया करता था। विदाई पार्टी में भी थोड़ा-बहुत खा लेने के कारण उन्हें ज्यादा भूख नहीं थी। उन्होंने पालक के साग और आलू की सब्जी के साथ हल्का भोजन किया। खाने के बीच ही उन्हें दिल्ली से फोन आया, जिसे जगन्नाथ ने सुना। यह शास्त्री के एक अन्य निजी सचिव वेंकटरमन का फोन था। उन्होंने बताया कि दिल्ली में ताशकन्द समझौते की अनुकूल प्रतिक्रिया हो रही थी, लेकिन शास्त्री के घर के लोग खुश नहीं थे। उन्होंने यह भी बताया कि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सुरेन्द्रनाथ द्विवेदी और जनसंघ के अटल बिहारी वापजेयी ने हाजी पीर और टिथवाल से भारतीय सेनाओं को पीछे हटाने की आलोचना की थी। जब शास्त्री को यह बात बताई गई तो उन्होंने कहा कि विपक्ष तो समझौते की आलोचना करेगा ही। फिर भी शास्त्री समझौते की प्रतिक्रिया को लेकर सचमुच ही काफी चिन्तित थे।

जगन्नाथ ने शास्त्री से पूछा कि क्या वे अपने घर पर बात करना चाहेंगे, क्योंकि पिछले दो दिनों से उनकी अपने परिवार से बात नहीं हो पाई थी। शास्त्री ने पहले तो ‘न’ कहा, लेकिन फिर अपना विचार बदलकर उन्हें नम्बर मिलाने के लिए कहा। यह भी हॉट-लाइन थी, इसलिए झट से नम्बर मिल गया।

तब रात के लगभग ग्यारह बज रहे थेे (ताशकन्द का समय नई दिल्ली से आधा घंटा आगे था)। सबसे पहले शास्त्री की अपने दामाद वी.एन.सिंह से बात हुई। उन्होंने कुछ खास नहीं कहा। इसके बाद शास्त्री की सबसे बड़ी और चहेती बेटी कुसुम फोन पर आईं। शास्त्री ने उनसे पूछा, ‘‘तुमको कैसा लगा?’’ कुसुम ने जवाब दिया, ‘‘बाबूजी, हमें अच्छा नहीं लगा।’’ शास्त्री ने ‘अम्मा’ के बारे में पूछा। घर के सभी लोग उनकी पत्नी ललिता शास्त्री को ‘अम्मा’ कहकर बुलाते थे। कुसुम ने कहा, ‘‘उन्हें भी अच्छा नहीं लगा।’’ इस पर शास्त्री ने उदास होकर अपने सहयोगियों से कहा, ‘‘अगर घरवालों को अच्छा नहीं लगा तो बाहरवाले क्या कहेंगे!’’

शास्त्री ने कुसुम को फोन अम्मा को देने के लिए कहा। कुसुम ने कहा कि अम्मा बात करना नहीं चाहतीं। शास्त्री के बार-बार कहने पर भी ललिता शास्त्री फोन पर नहीं आईं। इसके बाद शास्त्री ने भारतीय अखबारों को काबुल भेजने के निर्देश दिए, जहाँ भारतीय वायु सेना का एक विमान उन्हें लिवाने के लिए अगले दिन पहुँचनेवाला था।

जगन्नाथ का कहना था कि टेलीफोन पर हुई बातचीत से शास्त्री बहुत ज्यादा विचलित हो गए थे। इससे पहले भारतीय पत्रकारों का रवैया भी बहुत खुश्क रहा था। वे अपने कमरे में चहलकदमी करने लगे थे। यह कोई अनोखी बात नहीं थी, वे दिल्ली में भी अपने घर पर मिलने आने वालों से बात करते हुए अकसर चहलकदमी करने लगते थे। लेकिन उस रात वे कुछ ज्यादा ही देर तक चहलकदमी करते रहे और सोचते रहे। दो बार दिल का दौरा झेल चुके व्यक्ति के लिए फोन पर हुई बातचीत, पत्राकारों का व्यवहार और यह लम्बी चहलकदमी शायद खतरनाक साबित हुई होगी। 

रामनाथ ने उन्हें दूध दिया, जो वे सोने से पहले हमेशा लेते थे। इसके बाद शास्त्री फिर से चहलकदमी करने लगे। कुछ देर बाद उन्होंने पानी माँगा तो रामनाथ ने ड्रेसिंग-टेबल पर रखे थर्मस में से उन्हें थोड़ा पानी निकालकर दे दिया। रामनाथ ने बताया कि इसके बाद उसने थर्मस को बन्द कर दिया था। आधी रात से कुछ पहले शास्त्री ने रामनाथ को अपने कमरे में जाकर सो जाने के लिए कहा, क्योंकि सुबह जल्दी उठकर काबुल का विमान पकड़ना था। रामनाथ ने उन्हीं के कमरे में फर्श पर सो जाने की इच्छा जताई, लेकिन शास्त्री ने उन्हें ऊपर अपने कमरे में जाने के लिए कहा।

जगन्नाथ ने बताया कि रात को एक बजकर बीस मिनट के आसपास वे सब अपना सामान बाँध रहे थे तो अचानक उन्हें दरवाजे पर शास्त्री दिखाई दिए। उन्होंने बड़ी मुश्किल से कहा, ‘‘डॉक्टर साहब कहाँ हैं?’’ अपनी बैठक में लौटते ही शास्त्री बुरी तरह खाँसने लगे। जगन्नाथ और अन्य सहयोगियों ने मिलकर उन्हें उनके बिस्तर तक पहुँचाया। जगन्नाथ ने उन्हें पानी पिलाया और कहा, ‘‘बाबूजी, आप ठीक हो जाएँगे।’’ शास्त्री ने अपनी छाती को छुआ और फिर देखते-ही-देखते बेहोश हो गए। (दिल्ली लौटने के बाद जगन्नाथ ने ललिता शास्त्री को यह बात बताई तो उन्होंने कहा, ‘‘तुम भाग्यशाली हो कि मरने से पहले उन्होंने तुम्हारे हाथ से पानी पीया था।’’)

तब तक डॉक्टर चुग भी पहुँच चुके थे। उन्होंने शास्त्री की नब्ज देखी तो उनकी रुलाई छूट गई, ‘‘बाबूजी, आपने मुझे जरा भी वक्त नहीं दिया!’’ उन्होंने जल्दी से शास्त्री की बाँह में एक इंजेक्शन लगाया और फिर सीधे उनके दिल में भी एक इंजेक्शन उतार दिया। कोई प्रतिक्रिया न देखकर डॉक्टर ने मुँह से मुँह की श्वांस-प्रक्रिया द्वारा उन्हें कृत्रिम साँस देने की कोशिश की। उन्होंने जगन्नाथ को जल्दी से दूसरे डॉक्टरों को बुलाने के लिए कहा। बाहर तैनात रूसी सन्तरी ने जैसे ही ‘डॉक्टर’ शब्द सुना वह डॉक्टरों को बुलाने के लिए दौड़ पड़ा। दस मिनट बाद ही एक लेडी डॉक्टर आ पहुँची। जल्दी ही कुछ दूसरे डॉक्टर भी आ गए। लेकिन शास्त्री पहले ही दम तोड़ चुके थे। उनकी मौत 1 बजकर 32 मिनट (ताशकन्द समय) पर हुई थी। तब भारत में रात के लगभग 2.00 बजे का समय था।

अयूब को शास्त्री की मौत से सचमुच ही दुख पहुँचा था। वे 4.00 बजे वहाँ पहुँच गए थे और मेरी तरफ देखकर बोले थे, ‘‘वे अमन के आदमी थे, उन्होंने भारत और पाकिस्तान में अमन कायम करने के लिए जान दे दी।’’ अयूब ने बाद में पाकिस्तानी पत्रकारों से बात करते हुए कहा था कि शास्त्री के साथ उनकी बहुत अच्छी पट रही थी; अगर वे जिन्दा रहते तो शायद भारत और पाकिस्तान अपने सभी मसले सुलझा लेते।

पाकिस्तान के विदेश सचिव अजीज अहमद ने भुट्टो को फोन करके उन्हें यह खबर सुनाई तो नींद में होने के कारण भुट्टो सिर्फ ‘गुजर गए’ शब्द सुन पाए। उन्होंने नींद की खुमारी में कहा, ‘‘दोनों में से कौन कम्बख्त गुजर गया?’’

ताशकन्द से लौटने के बाद ललिता शास्त्री ने मुझसे पूछा कि शास्त्री का शरीर नीला क्यों पड़ गया था। मैंने कहा, ‘‘मुझे बताया गया था कि अगर शरीर पर लेप किया जाता है तो वह नीला पड़ जाता है। इसके बाद उन्होंने शास्त्री के शरीर पर ‘कुछ चीरों’ के निशानों के बारे में पूछा। मैंने कहा कि इस बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं था, क्योंकि मैंने उनका शरीर नहीं देखा था। फिर भी, उनकी इस टिप्पणी ने मुझे चौंका दिया था कि ताशकन्द या दिल्ली में उनका पोस्टमार्टम नहीं किया गया था।

जाहिर था कि उनको और परिवार के अन्य सदस्यों को दाल में कुछ काला लग रहा था। कुछ दिनों बाद मैंने सुना कि ललिता शास्त्री प्रधानमंत्राी के साथ जानेवाले उनके दोनों निजी सहयोगियों पर भड़की हुई थीं। इन दोनों ने इस वक्तव्य पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था कि शास्त्री की मौत कुदरती नहीं थी।

कामराज ने मुझे फोन करके पूछा कि शास्त्री के परिवार के पास अपनी गुजर-बसर के क्या साधन थे। मैंने कहा कि जहाँ तक मुझे मालूम था, उनके पास कोई साधन नहीं था। कामराज ने एक कानून पास करवाके दिवंगत प्रधानमंत्री की पत्नी के लिए निशुल्क आवास और खर्चे की व्यवस्था कर दी।

समय के साथ शास्त्री के परिवार का यह सन्देह और गहरा होता गया कि उन्हें जहर दिया गया था। 2 अक्टूबर, 1970 को, शास्त्री के जन्मदिन के अवसर पर, ललिता शास्त्री ने खुलेआम अपने पति की मौत की जाँच करवाने की माँग की। उनके परिवार को शायद यह बात नहीं जम रही थी कि शास्त्री का खाना उनके निजी सेवक रामनाथ की बजाय टी.एन. कौल के बावर्जी जां मुहम्मदी ने क्यों बनाया था। मुझे यह बड़ी अजीब बात लग रही थी, क्योंकि शास्त्री जब 1965 में मास्को गए थे तब भी यही जाँ मुहम्मदी उनका खाना बनाता रहा था।

अखबारों में इस तरह की खबरों को देखकर विभाजित कांग्रेस के मोरारजी देसाई वाले धड़े ने शास्त्री की मृत्यु की जाँच का समर्थन किया। अक्टूबर 1970 के आखिरी दिनों में मैंने मोरारजी भाई से पूछा था कि क्या वे सचमुच ऐसा समझते थे कि शास्त्री की मौत कुदरती नहीं थी। वे उनका जवाब था, ‘‘यह सब राजनीति है। मुझे पूरा यकीन है कि कोई गड़बड़ नहीं हुई थी वे दिल के दौरे से ही मरे थे। मैंने डॉक्टर से पता किया है और उनके सेक्रेटरी सी.पी. श्रीवास्तव से भी, जो उनके साथ ताशकन्द गए थे।’’

शास्त्री के आकस्मिक निधन की खबर पूरे ताशकंद में फैल गई थी। यह एक कुहासे भरा सूर्यविहीन उदास दिन था। हवाई अड्डे की तरफ जानेवाली सड़क के दोनों तरफ लोग कतार बाँधे खड़े थे। कुछ ही दिन पहले उन्होंने बड़े हर्षोल्लास से उनका स्वागत किया था और आज वे उनके लिए आँसू बहा रहे थे। इतने लोगों के बावजूद पूरे रास्ते में एक निस्तब्धता-सी छाई रही, जिसे सिर्फ शवयात्रा के ड्रम भंग कर रहे थे। अर्थी को कन्धा देने वालों में पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब भी शामिल थे। रास्ते में कितने ही लोगों ने हम भारतीयों के हाथ थामकर अपना दुख व्यक्त करने की कोशिश की और भीगी आँखों से दिवंगत नेता को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। मुझे बार-बार दिल्ली के हवाई-अड्डे पर उनके पार्थिव शरीर का इन्तजार करते हजारों लोगों का खयाल आ रहा था― अपने चहेते नेता के अन्तिम दर्शनों का इन्तजार करते लोग― वह नेता जिसने सिर्फ 19 महीनों की अल्पावधि में उनके दिलों में बहुत गहरी छाप छोड़ दी थी। एक ऐसी छाप जो जितनी गहरी थी, उतनी ही जमीनी भी।

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