मज़हब मुल्क से बड़ा नहीं होता
राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, मेवात की भौगोलिक-सांस्कृतिक अस्मिता पर आधारित भगवानदास मोरवाल के उपन्यास 'ख़ानज़ादा' का एक अंश। इसमें बाबर के खिलाफ़ राणा संग्राम सिंह और हसन ख़ाँ मेवाती की एकता का वर्णन है।
बाबर भूल रहा है कि मज़हब मुल्क से बड़ा नहीं होता है। उसने यह कैसे सोच लिया कि हसन ख़ाँ मेवाती बाहर से आए एक आततायी का साथ देगा? उसके इस एहसान के बदले यह मेवाती अपना ज़मीर गिरवी रख देगा, यह उस तुर्की ने कैसे सोच लिया? मेरे पुरखों ने इस मुल्क की मिट्टी को अपने ख़ून से सींचा है। यहाँ के ज़र्रे-ज़र्रे में मेरी साँस बसी हुई है।

राणा सांगा का लश्कर तेज़ी से आगे बढ़ा आ रहा है। बाबर के क़रावल दस्ते न तो बयाना में घुस पा रहे हैं, न ही वहाँ के हाल लेकर वापिस लौट पा रहे हैं। राणा सांगा की बढ़ती ताक़त को देख बाबर ने बिना वक़्त गँवाए शेख़ जमाली को अलवर के लिए रवाना कर दिया। लगभग सौ मील की दूरी नापते हुए शेख़ जमाली अलवर पहुँच गया। बाला क़िले पर पहुँचने के बाद, शेख़ जमाली ने अपने घोड़े को रोककर थोड़ा साँस लिया। क़िले की भव्यता देख जैसे वह अभिभूत हो गया। जगह-जगह बावड़ी, कुओं, कुंडों, तालाब, पथरीली सतह पर बनी बड़ी-बड़ी खाइयों और चहारदीवारी की ऊँचाई को देख, उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।

शाही महल में पहुँचकर शेख़ जमाली ने शाहे-मेवात हसन ख़ाँ मेवाती को अपने बादशाह जहीरुद्दीन मुहम्मद मिर्ज़ा बाबर की तरफ़ से शाही तोहफ़े में भेजी गई नीलम के मूठ की तलवार और अशर्फ़ियों के साथ अतलस पर लिखा पैग़ाम दे दिया। हसन ख़ाँ मेवाती ने सामने बैठे अपने अहलकार करमचन्द की ओर यह कहते हुए बढ़ा दिया, “दीवान साहब, पढ़िए तो सही बाबर ने इसमें क्या लिखवाकर भेजा है?”

अहलकार करमचन्द ने पहले खर्रे पर सरसरी नज़र डाली और फिर शब्दों को चुबलाते हुए पढ़ने लगा। बाबर के भेजे गए पैग़ाम की बस ये आख़िरी पंक्तियाँ हसन ख़ाँ मेवाती के समझ में आईं— ‘ख़ुदावंद ख़ानज़ादे शाहे-मेवात हसन ख़ाँ मेवाती, मैं मानता हूँ कि आप मेवात के एक जाँबाज़ शाह हो। मगर एक मुसलमान होने के नाते आपको मेरी तरफ़दारी करनी चाहिए। अगर आप मेरी इस पेशकश को क़बूल करते हैं, तो मैं वायदा करता हूँ कि आपको आगरा तक पूरे मेवात का बादशाह बना दूँगा।’

पैग़ाम का मजमून ख़त्म होते-होते हसन ख़ाँ मेवाती के जबड़े खिंच आए। आँखें सुर्ख़ हो उठीं। वह धीरे-से अपनी गद्दी से उठा और वहाँ मौजूद अपने दीवानों और दूसरे अहलकारों को सुनाते हुए बोला, “मिर्ज़ा बाबर के कहने का मतलब यह है कि मैं उससे सुलह कर लूँ...और सुलह करके बेफ़िक्र होकर हिरन की तरह जिऊँ। मगर वह भूल रहा है कि खूँख़्वार भेड़ियों के बीच हिरन ज़्यादा दिन ज़िन्दा नहीं रहता। इसलिए भेड़ियों के झुंड में आदमी को शेर बनकर रहना चाहिए। मिर्ज़ा बाबर ऐसे ही भेड़ियों के झुंड का सरदार है, जो हमें अपने साथ मिलाकर हिरन बनाना चाहता है और वक़्त आने पर अपना निवाला बना लेगा।”

ख़ानज़ादा हसन ख़ाँ मेवाती के इतना कहते ही महल में सन्नाटा छा गया। इसके बाद हसन ख़ाँ मेवाती ने पहले बाबर के दूत शेख़ जमाली की तरफ़ देखा, और फिर अपने अहलकार करमचन्द की तरफ़।

“दीवान साहब, यह सही है कि क़ायदे से मुझे एक मुसलमान होने के नाते बाबर की यह पेशकश क़बूल कर लेनी चाहिए। ऐसा यहाँ मौजूद कुछ हज़रात सोच भी रहे होंगे। वैसे बाबर का हमारे ऊपर एक बहुत बड़ा एहसान है कि मेरे बेटे ताहिर ख़ाँ, जिसको पानीपत की जंग में क़ैद कर लिया गया था, उसे हमारे अहलकार करमचन्द के कहने पर रिहा कर दिया था। बाबर चाहता तो ताहिर ख़ाँ को हाथियों के पाँवों तले कुचलवा सकता था। ज़िन्दे की ख़ाल खिंचवा सकता था। किसी घोड़े की पूँछ से बाँधकर इसके मरने तक घसीटवा सकता था, या फिर बोरे में बन्द कर बादलगढ़ क़िले की सबसे ऊँची फ़सील से नीचे फिंकवा सकता था। मगर उसने ऐसा नहीं किया। क्या आप जानते हैं कि बाबर ने ऐसा क्यों किया?”

इतना कह हसन ख़ाँ मेवाती बारी-बारी अपने सामने बैठे दीवानों और अहलकारों की आँखों में झाँकने लगा। मगर किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। जब देर तक किसी की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया, तब उसने ख़ुद ही इसका जवाब दिया, “हज़रात, मैं बताता हूँ कि बाबर ने ऐसा क्यों किया। उसने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह अपने इस एहसान की क़ीमत मुझे अपने साथ मिलाकर वसूलना चाहता था? इसके बदले वह मेरे ईमान और मेरी वतनपरस्ती को ख़रीदना चाहता था। अगर यक़ीन नहीं है तो ध्यान दीजिए आख़िर की उन पंक्तियों पर कि ‘एक मुसलमान होने के नाते आपको मेरी तरफ़दारी करनी चाहिए। मैं आपको पूरे मेवात का बादशाह बना दूँगा।’ मगर बाबर भूल रहा है कि मज़हब मुल्क से बड़ा नहीं होता है। उसने यह कैसे सोच लिया कि हसन ख़ाँ मेवाती बाहर से आए एक आततायी का साथ देगा? उसके इस एहसान के बदले यह मेवाती अपना ज़मीर गिरवी रख देगा, यह उस तुर्की ने कैसे सोच लिया? मेरे पुरखों ने इस मुल्क की मिट्टी को अपने ख़ून से सींचा है। यहाँ के ज़र्रे-ज़र्रे में मेरी साँस बसी हुई है। यह हसन ख़ाँ मेवाती जो आज आप सबके सामने खड़ा है, वह यहाँ की धूल-माटी का कलेवा करके बड़ा हुआ है। जो एहसान उसकी मिट्टी का उसके ऊपर है, उसे मैं मिट्टी में मिला दूँगा, कैसे सोच लिया? दीवान साहब!”

“हुकुम शाहे-मेवात?” अहलकार करमचन्द ने सर झुकाकर धीरे-से कहा।

“मेरी तरफ़ से बाबर को यह पैग़ाम भिजवा दो कि हिन्दुस्तान में हिन्दू-मुसलमान में कोई फ़र्क़ नहीं है। यहाँ सब भाई-भाई हैं।”

“जो हुकुम शाहे-मेवात।” करमचन्द ने हसन ख़ाँ मेवाती के आदेश का पालन करते हुए कहा।

“और हाँ, इस पैग़ाम में यह ज़रूर लिखवा देना कि—

जवाँ मरदाने-मेवाती, हरेक क़ूवत से टकराए

शहंशाहे-देहली तक को, ख़ातिर में नहीं लाए

इन्हें मग़लूब करने के लिए आती रहीं फ़ौजें

दमादम हर घड़ी साहिल से, टकराती रहीं मौजें।

जिस समय हसन ख़ाँ मेवाती अपने अहलकार को बाबर के दूत शेख़ जमाली की मौजूदगी में, उसके पैग़ाम का जिस तरह जवाब देने का हुक्म दे रहा था, शेख़ जमाली को इसकी बिलकुल उम्मीद नहीं थी। हसन ख़ाँ मेवाती ने अपने अहलकार को इस बीच कुछ इशारा किया, जिसे करमचन्द तुरन्त समझ गया।

शाहे-मेवात के इस इशारे पर अहलकार करमचन्द ने हसन ख़ाँ मेवाती के ख़ास ख़िदमतगार लाद ख़ाँ के पास जाकर कुछ कहा। इसके बाद लाद ख़ाँ अन्दर गया और एक बड़े थाल को लेकर फिर से हाज़िर हो गया। करमचन्द ने रेशमी फ़ीते से बँधे गोल ख़रीते के रूप में जवाब प्रदान करने के साथ, लाद ख़ाँ से थाल लेकर उसमें रखे शाही तोहफ़े को शेख़ जमाली को देकर बाइज़्ज़त विदा कर दिया।

शाहे-मेवात हसन ख़ाँ मेवाती की तरफ़ से मिले जवाब और तोहफ़े को लेकर शेख़ जमाली आगरा के लिए रवाना हो गया।

इधर राणा संग्राम सिंह ने भी हसन ख़ाँ मेवाती के पास सन्देश भिजवाया। इस सन्देश में राणा सांगा ने हसन ख़ाँ मेवाती को लिखा—‘मुग़लों ने हिन्दुस्तान में अपने पाँव जमा लिए हैं और सुल्तान इब्राहि‍म लोदी को मौत के घाट उतारकर, बाबर ने पूरे मुल्क पर क़ब्ज़ा कर लिया है। यह तय है कि वह अब हमारे और तुम्हारे ऊपर भी चढ़ाई करेगा। अगर तुम मेरा साथ दो तो हम लोग मिलकर उसे अपने इलाक़े में दाख़िल नहीं होने देंगे। वैसे उसे उस क़ौम की मदद करनी चाहिए, जिस क़ौम से वह ख़ुद भी है।’

राणा सांगा का तात्पर्य यहाँ यही है कि हसन ख़ाँ मेवाती के पूर्वजों का, हिन्दू होने के कारण, उसे बाबर के बजाय अपने हिन्दू राजा का साथ देना चाहिए। लेकिन अपने सैनिकों की संख्या बल के अभिमान के चलते हसन ख़ाँ मेवाती ने राणा सांगा को कोई जवाब नहीं दिया।

कुछ समय बाद राणा संग्राम सिंह के प्रस्ताव पर हसन ख़ाँ मेवाती ने फिर से विचार किया, और आख़िर में वह इस नतीजे पर पहुँचा कि उसे हमवतनी होने के नाते राणा सांगा की तरफ़दारी करनी चाहिए। राणा संग्राम सिंह ने उचित ही कहा है कि उसे उसकी मदद करनी चाहिए, जिससे उसका ख़ुद का भी वास्ता है। अपने पूर्वजों के हिन्दू होने के कारण, उसे बाहर से आए एक आततायी बाबर के बजाय अपने हिन्दू राजा राणा सांगा का साथ देना चाहिए। बाबर का क्या वह तो इस मुल्क को छोड़कर कभी भी अपने मुल्क लौट सकता है, लेकिन राणा सांगा और ख़ानज़ादों को तो इसी हिन्दुस्तान में रहना है। आख़िर काम तो अपने ही आते हैं, भले ही वह दूसरे धर्म या मज़हब का क्यों न हो। द्वन्द्व व स्व-तर्क की सुरंग से बाहर आ हसन ख़ाँ मेवाती ने अन्तत: यह फ़ैसला कर लिया कि उसे राणा सांगा का ही साथ देना है।

 

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