कथाकार रवीन्द्र कालिया की जयंती पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें उनके उपन्यास—‘खुदा सही सलामत है’ का एक अंश।
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वह एक सँकरी-सी गली थी। बेलन के आकार की। बीच में अचानक गुब्बारे की तरह फूल गई थी। नदी के बीचोबीच उग आए टापू की तरह। दूसरे आम चुनाव से पहले गली के मुहाने पर नगर महापालिका की ओर से एक छोटा-सा नल लगा दिया गया था। शुरू-शुरू में लोगों को नल का पानी बहुत फीका लगा। लोग-बाग नल के पानी से कपड़े वगैरह तो धो लेते मगर पीने से परहेज़ करते। पीने के लिए कुएँ से ही पानी निकालते। जाने क्या हुआ कि कुछ ही वर्षों में कुआँ बेचारा इतना तिरस्कृत हो गया कि उसकी सतह पर काई जमने लगी और नल पर पनघट का माहौल दूनी शान-शौकत से पैदा हो गया। सुबह हो या शाम, कमर पर एक तरफ़ बच्चा और दूसरी तरफ़ गगरा लिये औरतों का जमघट लगा रहता। बुर्का ओढ़े स्त्रियाँ हों या लुंगी-बनियान पहने पुरुष-सब अपनी बारी की हड़बड़ी में बेचैन नज़र आते। कभी-कभार मारपीट भी हो जाती। पानी लेने की जल्दबाज़ी में बहुत से लोग थाने-अस्पताल पहुँच चुके थे। क्या दूसरे आम चुनाव के पूर्व कुआँ ज़रूरत-भर का पानी मुहय्या करता रहा होगा—यह एक शोध और आश्चर्य का विषय था।
गली के बीचोबीच एक बड़ा-सा अहाता था और अहाते के बीचोबीच नीम का एक पुराना पेड़। लगता है पेड़ के नीचे कभी एक कुआँ रहा होगा, जिसे भरकर उसके ऊपर एक चौतरा-सा बना दिया गया था। चौतरे का अपना सामाजिक महत्त्व था। ईद के मौके पर ईद मिलन और होली के अवसर पर होली-मिलन के रंगारंग कार्यक्रम इसी चौतरे पर आयोजित किए जाते। दोनों ही त्योहारों पर रात-रात भर कव्वाली होती। दोनों तरफ़ के आयोजकों की कोशिश रहती कि कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए जिलाधीश अथवा पुलिस अधीक्षक तैयार हो जाएँ। इससे छुटभैये नेताओं को जिला प्रशासन से सम्पर्क साधने का अवसर मिल जाता था।
मगर चौतरे का एक और इतिहास भी था। गली के बड़े-बूढ़ों का दृढ़ विश्वास था कि इस नीम और कुएँ पर भूतों का डेरा है। भूतों के डर से लोग-बाग रात दस बजे के बाद से अपना रास्ता बदल लेते थे। मुहल्ले की कुँआरी कन्याओं को कुएँ से पानी भरने की मुमानियत थी। रात-बिरात नीम के नीचे से अकेले गुज़रना तो दूर, भाई लोगों ने यहाँ तक प्रचारित कर रखा था कि जहाँ-जहाँ तक नीम का साया पड़ता है, कोई औरत सुखी नहीं रह सकती। भूतों को लेकर जितनी भी कहानियाँ सुनी जाती थीं, उनसे लगता था कि इन भूतों की दिलचस्पी केवल स्त्रियों और बच्चों में थी। कुएँ के इतिहास से एक से एक कारुणिक त्रासदियाँ वाबस्ता थीं। शीरीं ने इसी कुएँ में कूदकर आत्महत्या की थी। शीरीं ने फरहाद के लम्बे इन्तज़ार से आजिज आकर अपनी जान की बाज़ी लगा दी थी और सरला को दहेज का यही अन्धा कुआँ निगल गया था। अमावस की रात को लोग सूरज डूबते ही अपने-अपने घरों में बन्द हो जाते, क्योंकि उन्होंने सुन रखा था कि अमावस की रात को कभी तो शैतान के अट्टहास की तरह आवाजें उठती हैं और कभी किसी औरत के सिसकने की। किस्से यहीं खत्म नहीं होते। पार्वती ने शादी के दूसरे रोज़ अपने को इसी कुएँ के हवाले कर दिया था।
पार्वती को आप नहीं जानते। पार्वती शिवलाल चक्कीवाले की दूसरी पत्नी थी। नीम के नीचे खाट बिछाए यह जो शख्स करवटें बदलता दिखाई देता है, शिवलाल उसी का नाम है। शिवलाल की समझ में आज तक नहीं आया कि पार्वती क्यों उसे इतनी बड़ी दुनिया में यकायक अकेला छोड़ गई। इधर एक दिन उसे सपने में दिखाई दिया कि शीरीं और सरला मिलकर पार्वती को भी कुएँ की तरफ घसीट रही हैं और पार्वती है कि चिल्ला रही है। शिवलाल पार्वती को बचाने की कोशिश करता है, मगर उसकी टाँगों में कुव्वत नहीं। जब वह बहुत कोशिश के बाद भी नहीं उठ पाया तो वहीं खटिया पर औंधा गिर पड़ा। कुएँ में गिरने से पहले पार्वती उसकी तरफ़ बहुत आशा और अपेक्षा से देखती है, मगर शिवलाल चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता। एक तरफ़ पार्वती को कुएँ में धकेल दिया जाता है और दूसरी तरफ़ शिवलाल खटिया के पाए से अपना माथा फोड़ लेता है।
शिवलाल ने सपना देखा तो दहशत में आ गया। वह खटिया पर बैठ गया। नीम के पत्तों से छनकर आती हुई चाँदनी उसकी खटिया पर बिखर रही थी। चारों तरफ़ सन्नाटा था। यह कुछ भी तय न कर पाया। पार्वती की याद उसके सीने पर एक वज़नी सिल की तरह सुबह तक पड़ी रही। सुबह से उसे लगता रहा, जाते-जाते भूत यह कह गए हैं—नीम के नीचे से चक्की उठा लो शिवलाल! शिवलाल ने भी तय कर लिया था कि वह चक्की उठाकर कहीं दूर चला जाएगा, मगर इस बीच कुछ ऐसी घटनाएँ हुई कि वह वहीं पड़ा रह गया। एक दिन नगर महापालिका ने अचानक कुआँ भरना शुरू कर दिया और शिवलाल की माँ शिवलाल का, एक जगह रिश्ता भी पक्का कर आई।
इस बीच देश ने बहुत तरक्की की। मगर इस गली का ही दुर्भाग्य कहा जाएगा कि देश में हो रहे विकास कार्यों का बहुत हल्का प्रभाव इस गली के वासियों के जीवन पर पड़ रहा था। गली के औसत आदमी के घर में आज भी न पानी का नल था, न बिजली का कनेक्शन। शाम होते ही घरों में जगह-जगह जुगनुओं की तरह ढिबरियाँ टिमटिमाने लगतीं। अगर भूले-भटके गली में दो-एक जगह सड़क के किनारे बल्ब लगा भी दिये जाते तो बच्चे लोग तब तक अपनी निशानेबाज़ी की आज़माइश करते रहते, जब तक बल्ब टूट न जाते। दरअसल गली के लोग सदियों से अँधेरे में रह रहे थे और अब अँधेरे में रहने के आदी हो चुके थे। अब उजाला उनकी आँखों में गड़ता था। यही वजह थी कि अगर बच्चों से बल्ब फोड़ने में कोताही हो जाती तो कोई रोशनी का दुश्मन चुपके से वल्ब फोड़ देता। रोशनी में जीना उन्हें ऐसा लगता या जैसे निर्वसन जीना। रोशनी से बचने के लिए लोग टाट के पर्दे गिरा देते।
टाट इस गली का राष्ट्रीय परिधान था। दरअसल टाट चिलमन भी था और चादर भी। टाट पाजामा भी था और लहँगा भी। टाट बिस्तर था और कम्बल भी। अक्सर लोग टाट पर सोते थे और टाट ओढ़ते थे। टाट के साइज़-बेसाइज़ के परदे छोटी-छोटी कोठरियों के बाहर जैसे सदियों से लटक रहे थे। टाट के उन परदों पर टाट की ही थिगलियाँ लगी रहती थीं।
साँझ घिरते-घिरते गली में आमदोरफ्त बढ़ जाती। मस्जिद से अज़ान की आवाज़ सुनाई दी नहीं कि लोग जल्दी-जल्दी बावजू होकर मग़रिब की नमाज़ में मशगूल हो जाते। बड़ी-बूढ़ी औरतें दालान में एक तरफ़ चटाई बिछाकर नमाज़ पढ़ने लगतीं।
दीया-बत्ती का समय होते ही छोटे-छोटे बच्चे पुश्तैनी बोतलें थामे मिट्टी के तेल की कतार में जुड़ जाते। किसी बोतल की गर्दन टूटी होती या नीचे से पेंदे की एक परत। इन्हीं बच्चों को सुबह आँखें मलते हुए टेढ़े-मेढ़े गिलास अथवा कुल्हड़ लिये दूध लाते देखा जा सकता था। प्रति परिवार पाव-लीटर दूध और आधा लीटर किरासिन चौबीस घंटों के लिए पर्याप्त होता।
अधिकांश घरों में पाखाने की भी कोई व्यवस्था न थी। सुबह मुँह अँधेरे पूरी गली सार्वजनिक शौचालय का रूप ले लेती। खुदा न खास्ता किसी को दस्त लग जाते तो अज़ीज़न बी का जीने के नीचे बना पाखाना काम में लाया जाता। पाखाने की चाबी नफ़ीस के पास रहती थी और चाबी लेने के लिए नफ़ीस की बहुत चिरौरी करनी पड़ती थी। नफ़ीस खुश हो जाता तो न केवल चाबी बल्कि सनलाइट का छोटा-सा टुकड़ा भी दे देता। मगर लोगों ने इन तमाम अभावों के बीच जीने का एक ढर्रा ईजाद कर लिया था। चुनाव के दिनों जब गली को झंडियों और फूल-पत्तियों से सजाया जाता तो लगता जैसे कोई बूढ़ी वेश्या लिपस्टिक पोते इतरा रही है।
शहर की खुशहाल बस्तियों में शाम के समय जो जंगल की वीरानी और श्मशान का सन्नाटा छाया रहता है, वह इस गली में दूर-दूर तक नहीं मिल सकता था। इस लिहाज़ से यह गली एक भरे-पूरे परिवार के आबाद आँगन की तरह महकती थी। दीवाली हो या ईद, मुहर्रम हो या होली यह गली रतजगे पर उतर आती। दीवाली के दिनों पूरी गली मिठाई के डिब्बों का कारखाना बन जाती। रमजान के महीने में रात-भर चहल-पहल रहती और अलसुबह जब बाँगी ‘सहरी का वक्त हो गया है, खुदा के बन्दो जागो’ की बाँग देता तो बर्तनों की खनक के साथ एक नए दिन की शुरुआत हो जाती। होली पर रंग बेचनेवाले इसी गली से रंगों के पहाड़ ठेलों पर लादे हुए निकलते। रात-रात भर पिचकारियाँ बनतीं। मुहर्रम के दिनों नीमतले पेट्रोमैक्स की रोशनी में छुरियाँ तेज़ होतीं-किर्र किरर्र किर्र...
टाट गली का राष्ट्रीय परिधान था तो बीड़ी उद्योग राष्ट्रीय रोज़गार। स्त्रियाँ, बच्चे और बेकार नवयुवक रात-भर राष्ट्र के लिए पत्तों में तम्बाकू लपेटते। सुबह सड़े-गले पत्तों को जलाकर उनके ताप से चाय बनाते।
शिवलाल की चक्की गली के मुहाने पर ही थी, इसलिए वह एक तरह से गली का ‘गेटकीपर’ था। उसे मालूम रहता था कि इस समय नफ़ीस इमामवाड़े के पास खड़ा पान चबा रहा है या गुल को लेने विश्वविद्यालय गया है। हजरी बी चमेली के पास बैठी है या पंडिताइन की जुएँ बीन रही है। कोई अजनबी अगर किसी का अता-पता पूछता तो शिवलाल न केवल अता-पता बता देता बल्कि संक्षेप में उस व्यक्ति का इतिहास भी।
शिवलाल के बहुत कम दोस्त थे। एक पंडित शिवनारायण दुबे था और दूसरे एक मौलाना थे। मौलाना शफ़ी। पुराने रईस। मगर अब हालात बिगड़ चुके थे। इधर रद्दी की खरीदो-फरोख़्त का कारोबार करते थे। अपनी पुरानी रईसी के किस्से वह खुद इस अन्दाज़ से सुनाते थे कि शिवलाल को बहुत मज़ा आता। जब मौलाना बताते कि उन्होंने बम्बई में ग्रांट रोडवाला मकान सिर्फ़ सात हज़ार रुपए में बेच दिया और अब उसका दाम डेढ़ लाख है तो शिवलाल के सारे बदन में खुजली छिड़ जाती। वह बेचैन होने लगता। जब मौलाना बताते कि सात हज़ार रुपया भी उसने सात दिन में तबाह कर दिया तो शिवलाल और बेचैन हो जाता।
‘अमाँ यार ज़िन्दगी भी एक ड्रामा है। एक वक्त था मौलाना शफ़ी का नाम सुनते ही दोस्तों की भीड़ लग जाया करती थी और एक ज़माना यह है कि मौलाना शफ़ी दिन-भर रद्दी बटोरता घूमता है और खर्च लायक दस-बीस रुपए कमाने में अच्छी-खासी मशक्कत हो जाती है। शिवलाल, तुम्हें क्या बताएँ एक ज़माना था कि कागज़ की कतरन ढाई रुपए किलो थी। गेहूँ और कतरन दोनों का एक दाम था। आज वही कतरन कोई अस्सी पैसे में नहीं पूछ रहा। जितना पैसा एक क्विंटल माल खरीदने पर बचता था, आज तीन क्विंटल में भी नहीं बचता।’
मौलाना शफ़ी नमाज़ के वक्त का हमेशा खयाल रखते थे। बात बीच में ही छोड़कर चल देते। पाँचों वक्त की नमाज़ से उनकी रूह को चैन मिलता था। उन्हें याद है जब तक उन्होंने नमाज़ की तरफ़ ध्यान नहीं दिया था उन्हें अजीब-सी दहशत दबोचे रहती। उन्हें लगता कोई उनका पीछा कर रहा है। वे अपनी साइकल पर हांफते हुए आते और शिवलाल के पास ही साइकल खड़ी करके उससे पानी पिलाने के लिए कहते। पानी पीने के बाद वे बुदबुदाते, ‘शिवलाल भाई, कैसा जमाना आ गया है। कल एक प्रेस से रद्दी उठाई। घर जाकर छँटाई में लगा तो क्या देखता हूँ, दसियों सेर सीसा मिस्त्री ने रद्दी में मिला रखा है। रद्दी का भाव दो सौ रुपए और सीसे का दो हजार रुपए। मैंने उसी वक्त कपड़े पहने और जाकर सीसा लौटा आया। हराम की कमाई मेरे ज़मीर ने कुबूल ही नहीं की। वरना, क्या सीसा बेचकर में एक अच्छी-खासी रकम खड़ी नहीं कर सकता था? तुम आज भी किसी से मेरे बारे में दरियाफ़्त कर लो, सब लोग तफ़सील से मेरे बारे में बताएँगे सब लोग हैरत में हैं कि एक नेक-दिल खुदातरस इंसान के पीछे वे लोग क्यों पड़ गए हैं? आप ही की तरह सब पूछते हैं कि कौन हैं वे जो तुम्हारे पीछे पड़े हैं? हम क्या बतावें? कोई सामने आये तो बतायें। बस छिप-छिपकर इशारे करते हैं और जीना मुहाल किए हैं। किसी ने किसी का कान भरा हो तो वही जाने। मेरा ज़िन्दगी का तो फ़लसफ़ा है कि इंसान बनके जीओ और दूसरों को जीने दो। चन्दरोज़ा जिन्दगी को यों ही बर्बाद न होने दो। मुनि, दरवेश और फकीर की कीमत कोई ही समझ सकता है। ज़ाहिल इंसान यह सब नहीं जानता। मैं इसे उनकी जहालत ही कहूँगा जो वेसबब अपना वक्त वर्बाद कर रहे हैं। मुझ जैसे मुफलिस से उन्हें क्या हासिल होगा? कोई उनको सामने लाकर खड़ा कर दे तो हम बता दें कि हर इंसान का एक मैयार होता है। गलती भी न बताओ, उसके पीछे पड़े रहो, यह कहाँ का दस्तूर है? दिन-भर इन्हीं ख्यालात में डूबा रहता हूँ कि उनका मक़सद क्या है?’
शिवलाल की आत्मा हमेशा सन्तप्त रहती थी। अपने आसपास किसी ग़ैरतवाले आदमी को देखकर उसे बहुत तसल्ली होती। उसे सारी दुनिया एक शोषक के रूप में नज़र आती थी। उसे लगता पूरे समाज की आँख उसकी छोटी-सी जमा-पूँजी पर है, चाहे उसकी अम्मा की नज़र हो या भाई की। मौलाना शफ़ी ही उसे एक ऐसा व्यक्ति लगता था जो इस षड्यन्त्र में शामिल नहीं था। मगर मौलाना की बातों से उसे बहुत उलझन होती, डर भी लगता। कोई उसके पीछे न लग जाए। क्या भरोसा इस दुनिया का! कौन कब किसके पीछे पड़ जाए, कौन जानता है। वह बहुत देर तक इस समस्या पर विचार करता रहता। जब उसका मन न मानता तो वह हुक्के का एक लम्बा कश खींचता और पूछ बैठता, ‘मगर वे क्यों आपके पीछे पड़े हैं?’
‘अपना मतलब हल करना चाहते हैं। यही मक़सद हो सकता है कि तरक्की न करने पावे। बच्चों की शादी न करे।’
‘इसके पीछे कोई वजह तो ज़रूर होगी?’
‘मैं दिन-भर सोचता रहता हूँ। मेरी समझ में खुद कुछ नहीं आता। कुरानशरीफ़ की कसम, मैं कुछ नहीं जानता। घर से निकलता हूँ तो उनकी आवाजें सुनाई देती हैं। दस आदमी-बारह आदमी का हौवा लाकर खड़ा कर देते हैं। हमारा दिल कहता है कि हमको देखकर बकना शुरू कर देते हैं कि इसके दिमाग को खराब करो। गलती भी न बताओ, इसके पीछे पड़े रहो। यह तो गलत है, सरासर गलत है। वे नहीं जानते कि बुलन्द ख्याल के लोग ही अच्छी ज़िन्दगी बसर कर सकते हैं। बुरी चीज को रोकने के लिए ही अच्छे लोग पैदा होते हैं। खुदा खूब वाक़िफ है किस पर क्या गुज़रती है।’ शिवलाल परेशान होने लगता। यह सीधा-सादा धर्मभीरु इंसान क्यों इतनी तकलीफ़ पा रहा है।
कौन लोग हैं जो इसके पीछे पड़े हैं? इस लिहाज़ से उसे शिवनरैन के साथ वक्त गुज़ारना अधिक अच्छा लगता था। शिवनरैन पंडित की नगर महापालिका में एक दुकड़िया नौकरी थी मगर वह जीवन के प्रति हमेशा आशावान रहता था। छोटी-मोटी परेशानी उसे व्यापती नहीं थी। होली-दिवाली पर वह मुहल्ले में पानी का छिड़काव भी करा देता। वह अपने को अत्यन्त सफल आदमी मानता। किसी अफ़सर की बीवी अगर ज़रा भी दयालु स्वभाव की होती, तो साहब के वर्षों पहले उतारे कपड़े उसे उपहारस्वरूप मिल जाते। पंडित की आत्मा को परम सन्तोष मिलता। शिवलाल को वह बड़े गर्व से बताता, ‘यह कमीज़ जो इस समय पहने हूँ, प्रसाशकजी की है, खुस हो गए मेरे काम से और बोले, पंडितजी, भेंट तो नया कपड़ा करना चाहते थे, मगर अब यही तुच्छ भेंट स्वीकार कर लीजिए।’
मौलाना शफ़ी से बातचीत करके शिवलाल को बहुत घबराहट होती थी। मौलाना के जाने के बाद वह शिवनरैन की प्रतीक्षा में जुट जाता। कन्धे पर हथौड़ा और रैंच आदि का बोझा उठाए ज्यों ही शिवनरैन गली में प्रवेश करता, शिवलाल ज़ोर-ज़ोर से हाथ हिलाने लगता, ‘आइए पंडितजी! धन्य भाग हैं हमारे।’
पंडित उसकी खटिया पर अपना सामान पटकता कि शिवलाल वहीं बैठे-बैठे होटलवाले को आवाज़ देकर दो उँगलियाँ दिखा देता यानी कि दो चाय।
‘कहिए पंडितजी, और क्या समाचार हैं?’
‘सब आपकी किरपा है शिवलालजी। लगता है नए प्रसाशक जल्दी ही मुझे पलमामेंट करने जा रहे हैं। आज अपने पाश बुलवाए रहे, बोले, देखो पंडितजी दफ्तर का अनुसाशन कितना बिगड़ गया है। जिस बाबू की बुलाता हूँ, सीट पर नहीं मिलता। आप ही कुछ निदान कीजिए। मैंने कहा, आप रहमदिल अफ़सर हैं, सब शिर पर शवार हो गए हैं। जरा अपने श्टाफ़ को खींचकर रखिए। इनकी हड्डियों में आलश घुश गया है। हरामखोरी की लत यों ही नहीं छूटती प्रसाशकजी, उसके लिए लात से काम लेना पड़ेगा। ये लातों के भूत हैं।’
पंडित ने अपनी कत्थई बत्तीसी की प्रदर्शनी लगा दी और बोला, ‘और बताइए शिवलालजी, श्वाश्थ्य तो ठीक है न?’
शिवलाल का मन अत्यन्त अशान्त था। बोला, ‘आप श्रेष्ठ कुल के ब्राह्मण हैं। सुन्दरकांड की कुछ पंक्तियाँ सुना दीजिए। आत्मा को बड़ी सान्ती मिलती है।’ पंडित वहीं पसर गया। विश्वास हो गया कि आज के भोजन का प्रबन्ध हो जाएगा। वह नल पर जाकर हाथ-मुँह धो आया और अँगोछे से मुँह पोंछते हुए शिवलाल की खटिया पर पालथी मारकर बैठ गया और अपने थैले से मानस का गुटका संस्करण निकालकर गाने लगा :
जामवन्त के वचन सुहाए।
सुनि हनुमन्त हृदय अति भाए।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कन्दमूल फल खाई॥
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरन्ता।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना॥
जात पवनसुत देवन्ह देखा।
जानें कहुँ बल बुद्धि विसेषा।
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।
पठइन्हि आई करी तेहिं बाता॥
शिवलाल भाव-विमुग्ध हो गया। उसकी आँखें मुँद गई और वह सचमुच सांसारिक मोह-माया से ऊपर उठने लगा। वास्तव में शिवलाल स्वभाव से ही आरामतलब आदमी था। त्योहार के दिनों उसे बड़ी उलझन होती। फुलझड़ियों और पटाखों के रंगारंग कार्यक्रमों के बीच उसकी आँख न लगती। वह खटिया पर करवट बदलते हुए रात गुजार देता। न किसी से शिकायत किए बनता और न ही आँख लगती। ऐसे में सुबह-सुबह लोगों का थोड़ा-थोड़ा गेहूँ पीसना उसे खल जाता। ‘कैसा वक्त आ गया है कि लोग दो-दो किलो गेहूँ पिसाने चले आते हैं।’ यह अक्सर बड़बड़ाता, ‘दो किलो गेहूँ की क्या तो पिसाई लूँ और क्या जलन!’
जब तीन-चार लोगों का गेहूँ जमा हो जाता तो वह खटिया पर बैठे-बैठे ही आवाज़ देता ‘गुलाबदेई, जरा तू ही मोटर चला दे। इतने से गेहूँ से तो बिजली का खर्च भी नहीं निकलेगा, इसके बाद अब कल देखा जाएगा। लगता है कि यह अंग्रेज़ों की औलाद जाते समय इस मुल्क से गेहूँ भी ले गई।’
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