बांग्लादेश से विस्थापित लोगों की कहानी

राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, धार्मिक कट्टरपंथ का विरोध करने पर बांग्लादेश से निष्कासित लेखक तसलीमा नसरीन के उपन्यास ‘बेशरम’ का एक अंश जिसमें बांग्लादेश से विस्थापित एक हिन्दू लड़की की दर्दनाक कहानी है। इस उपन्यास में लेखक के बहुचर्चित उपन्यास ‘लज्जा’ के आगे की कहानी है जिसमें उन्होंने साम्प्रदायिक उन्माद और अत्याचारों के चलते विस्थापित हुए लोगों की अपनी जन्मभूमि, अपना घर छोड़कर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में जीवन बिताने की मजबूरी और उनकी परिस्थितियों का बेहद मार्मिक वर्णन किया है। 

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जीवन तो किसी से मुलाक़ात होने न होने में सीमाबद्ध नहीं होता। जीवन तो और बड़ा होता है। अब वह जीवन जैसा भी हो। अगर एक ही सोच से जीवन चलता तो जीवन पूरा होने से बहुत पहले ही थम जाता। माया ने कभी किसी के साथ प्रेम नहीं किया। बांग्लादेश में दो-एक लड़के उसे अच्छे लगते थे। उनमें से एक से शादी करने की इच्छा भी हुई थी। लेकिन वे लड़के उसके साथ दोस्त की तरह ही रहे, किसी ने उससे प्रेम करना नहीं चाहा। उस देश में हिन्दू-मुसलमानों की आपस में शादी नहीं होती, ऐसा नहीं था। ऐसी शादियाँ खूब हो रही हैं। लेकिन उसकी किस्मत में ऐसा नहीं बदा था। सुरंजन के जो दोस्त उसे बहुत पसन्द आते थे, वे सभी मुसलमान थे। माया को हैदर बहुत अच्छा लगता था। माया ने किसी को इस बात की भनक भी नहीं लगने दी थी। हैदर को भी नहीं। लेकिन हैदर ने माया को हमेशा उस नज़र से देखा, जिस नज़र से वह अपनी छोटी बहन को देखता था। वह अक्सर कहता— क्यों रे छुटकी, तू इतनी बड़ी क्यों होती जा रही है रे! यह सुनकर उसका मन ख़राब हो जाता। माया ने देखा कि हिन्दू लोग काफ़ी डरपोक से थे, उनके चेहरों पर हमेशा दुश्चिन्ता के निशान होते थे। उसे कोई भी बहुत अकपट और साहसी नहीं दिखा। मुग्ध करनेवाला कोई चरित्र, नहीं, कोई भी नहीं मिला था। सम्भवत: सही व्यक्ति के साथ सही समय पर उसकी मुलाक़ात ही नहीं हुई थी। उसे काजल देबनाथ अच्छा लगता था, लेकिन वह तो शादीशुदा था। माया ने ग़ौर किया कि जिन्हें देखकर बहुत अच्छा लगता है, उनमें कुछ-न-कुछ समस्या रहती ही थी। या तो वे शादीशुदा होते या फिर वे किसी के प्रेम में पड़े होते, या फिर अनपढ़ होते, या समकामी या ऐसे ही कुछ होते। एकदम शुद्ध-सुन्दर किसी के साथ उसकी मुलाक़ात नहीं हुई थी। जिसमें कोई ऐब न हो, ऐसा कोई पुरुष क्या दुनिया में कहीं है, माया को यक़ीन नहीं होता।

माया ने यह जो शोभन बाबू को पसन्द किया, शोभन या सोबहान हिन्दू है या मुस्लिम, उसके यह न देखने का एक ही कारण था कि उसे भीतर से महसूस हुआ कि यह देखना अर्थहीन है। इनसान के रूप में एक व्यक्ति अच्छा हो सकता है, बुरा हो सकता है, यह अच्छा या बुरा होना धार्मिक विश्वासों पर निर्भर नहीं करता। वह खुद पूजा-पाठ करना कुछ भी नहीं छोड़ रही थी। सोबहान ने एक बार भी नहीं कहा कि पूजा क्यों कर रही हो। सोबहान ख़ुद धर्म को मानता है, उसे नहीं लगता। अगर वह मानता भी, तो भी नहीं लगता कि माया को कोई एतराज़ होता।

फ़िलहाल माया को ऐसा ही लग रहा है, अगर सचमुच वह मानता तो माया को ठीक से नहीं पता कि क्या होता! धर्म को माननेवाले मुसलमान किसी और के लिए भले ही हों, माया के लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं थे। माया बांग्लादेश में इन्हीं लोगों के बीच बड़ी हुई थी। उसके लगभग सभी घनिष्ठ मित्र धर्म को मानते थे। धर्म को मानने के नाम पर उसने जो देखा, वह यह कि साल में दोनों ईदों पर नये कपड़े पहनकर मौज-मस्ती करना, अच्छा खाना खाना, दोस्तों के घर घूमने जाना और रोज़े के समय शौक़िया तौर पर दो-एक रोज़े रखना। बस। माया के दोस्तों का धर्मपालन बस इतना ही हुआ करता था। उसने अपनी किसी भी सहेली को नमाज पढ़ते नहीं देखा, बुर्का पहनना तो बिलकुल भी नहीं, सिर पर चुनरी ओढ़ते भी नहीं देखा। इतना-सा धर्मपालन करके ही वे लोग ख़ुद को मुसलमान कहते थे। वे सहेलियाँ हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध और ईसाई— सभी से समान भाव से मिलती थीं। माया खुद भी ऐसा ही करती थी। उसने कभी भी फ़र्क़ नहीं किया। फ़र्क करने की मानसिकता लेकर वह बड़ी नहीं हुई थी।

घर में हमेशा से एक ऐसा माहौल था, जहाँ धर्म कोई विषय ही नहीं था। इनसान की तरह इनसान बनना ही सबसे बड़ा काम था। माया तो इनसान-जैसी इनसान बनी ही थी। लेकिन उसे प्रतिदान में क्या मिला? उसे बबलू, रतन, बादल, कबीर, सुमन, ईमन और आज़ाद लोगों ने, उन मुसलमानों की औलादों ने क्या दिया था ? इन सबको माया पहचानती थी। ये सारे मोहल्ले के ही तो लड़के थे। नहीं, उसके जिन्दा रहने की तो बात नहीं थी। माया के शरीर के साथ उन्होंने जो जी में आया, वही किया था। लकड़बग्घों के झुंड को एक शरीर भर मांस अपनी जूद में मिल गया था। माया शर्म और नफ़रत से सिकुड़ी हुई थी। वह सिकुड़ी ही थी। वह क्यों ज़िन्दा बच गई? बचने के बाद उसकी इच्छा हुई थी, माया की अब भी इच्छा है कि वह एक-एक करके उन सभी का खून करेगी। दुष्कर्म, सामूहिक-दुष्कर्म तो आए दिन हो ही रहे हैं, समूची दुनिया में हो रहे हैं। बांग्लादेश में जैसा हो रहा है, भारत में भी वैसा ही हो रहा है। पुरुष बदमाश और ताक़तवर होता है; स्त्री निरीह और निर्बल— दुष्कर्म की वजह यही है। लेकिन मुसलमानों ने माया के साथ जो दुष्कर्म किया था, वह शक्ति और निर्बलता की घटना नहीं थी। वह मुसलमान और हिन्दू की घटना थी। माया की जगह पर उस दिन अगर कोई भी मुख निर्बल राधेया या रोकैया होती तो उनके साथ दुष्कर्म नहीं हुआ होता।

उन्होंने एक लड़की से बलात्कार नहीं किया था, उन्होंने एक हिन्दू से बलात्कार किया था। ‘हिन्दू’— यह शब्द कभी भी माया के शब्दकोश में नहीं था, वे लोग ही उसके शरीर पर यह शब्द खोदकर लिख गए थे। यह शब्द फिर माया के लिए केवल शब्द नहीं रह गया था। वह क्षोभ, जिद, अपमान, घृणा, लज्जा, मृत्यु, बलात्कार, खून, विषाद और हाहाकार में तब्दील हो गया था। माया इनसान थी, उसे वे थोड़े से मुसलमान सिर से पैर तक हिन्दू बना गए थे। तब से ही हिन्दुत्व का जो कुछ भी था इस संसार में, उसने सिर झुकाकर उसका वरण किया था। माया ने हिन्दू के रूप में जन्म नहीं लिया था। वह हिन्दू नहीं थी, उस दिन, उस बलात्कार वाले दिन वह हिन्दू बनी थी। वह सिर से पैर तक एक हिन्दू बन चुकी थी, जिसे अपने देश की बचपन और कैशोर्य की सारी स्मृतियों को पैरों से ठेलकर चले आने में जरा-सी भी दुविधा महसूस नहीं हुई थी। उसे लगा था कि उसके मुसलमान अच्छे दोस्त सभी बलात्कारी हैं, सभी धोखेबाज़ हैं, सभी हिन्दुओं से विद्वेष रखनेवाले हैं।

उसे अपना देश फिर अपना नहीं लगा। उसे लगा कि वह मुसलमानों का देश है। माया और कर भी क्या सकती थी! माया के लिए जख़्म पर कोई और मरहम लगाना सम्भव न हो सका। यह घाव भरनेवाला नहीं था। मन अगर सौ प्रतिशत जल जाए तो फिर दुनिया में उसका कोई इलाज नहीं है। जो मन जलकर राख हो जाता है, उसे उड़ा देना चाहिए। बांग्लादेश के आसमान में माया के जल चुके शरीर की राख नहीं उड़ी थी, वहाँ उड़ी थी जले हुए मन की राख। जिस शहर में उसने जन्म लिया था, वहाँ बिखेर आई थी वह राख। बिखेरते हुए उसने प्रतिज्ञा की थी कि वह अब कभी भी इस नरक में नहीं लौटेगी। दो टुकड़ों में बँटा हुआ था उसका जीवन। उस दिन से उसने नया जन्म लिया था। वह हिन्दुओं के देश में, खुद के देश में लौटने के लिए छटपटा रही थी। यह काफ़ी हद तक ऐसा था कि नक़ली माँ को इतने दिनों तक माँ समझते रहे। समझदार होने पर पता चला कि असली माँ तो कहीं और है। माया इतने दिनों बाद नक़ली सब कुछ को पैरों से ठेलकर उस असली माँ की गोद में लौट रही थी। जिस दिन भारत की भूमि पर उसने पहला क़दम रखा था, उसने सुकून से आँखें मूँदी थीं।

बहुत साल बीत गए।

वह माया अब कहाँ है? उसकी आँखों के सामने सोबहान खड़ा था। भारतवर्ष में सोबहान से बेहतर किसी लड़के से उसकी मुलाक़ात नहीं हुई थी। नहीं, इसमें हिन्दू युवकों का दोष नहीं था कि उनसे मुलाक़ात नहीं हुई, इसमें उसका भी दोष नहीं। परफेक्ट मैच से मुलाक़ात न होने का दोष किसी को नहीं दिया जा सकता। माया भाग्य में विश्वास नहीं करती, लेकिन कभी-कभी उसे लगता है कि भाग्य को मानने से बहुत सारी हताशाओं से मुक्ति मिल जाती है। भाग्य के जिम्मे सौंपकर काफी हद तक निश्चिन्त हुआ जा सकता है। सोबहान उसे अच्छा लगता है। अगर उसे पहले से पता होता कि शोभन असल में शोभन नहीं है, तो हो सकता है, वह खुद को शोभन को इतना पसन्द ही नहीं करने देती। उसे हालाँकि नहीं पता कि ऐसा करके वह क्या भला करती। उसके जीवन में और है भी क्या! लड़कियों के जीवन में पति और गृहस्थी ही सबसे बड़ी दौलत होती है। उसी दौलत को वह स्वेच्छा से त्यागने के लिए बाध्य हुई थी। कारण कि उस दौलत से उसका मन पूरी तरह उठ चुका था। कोई स्वस्थ व्यक्ति उस दौलत के साथ जीवन नहीं बिता सकता। मानसिक रूप से विकृत हो जाने से पहले ही माया खुद को वहाँ से हटा लाई थी। यह शायद उसकी ज़िन्दगी की अन्तिम परीक्षा थी जिसके सम्मुख वह खड़ी थी। अपने बच्चे, शाँखा सिन्दूर सहित माँ के घर घूमने नहीं आई थी, वह पूरी तरह बोरिया-बिस्तर समेटकर आई थी। माया कितना भी यह भाव जताए कि जब तक उसकी इच्छा होगी, उसे अपनी माँ और बड़े भाई के घर में रहने का अधिकार है— भीतर ही भीतर उसे यह भी समझ में आ रहा था कि यह समाज उसे वह अधिकार नहीं दे रहा है। माया कहाँ रहेगी, किस घर में रहना उसे शोभा देगा, मानो हर रोज़ आँख में उँगली डालकर उसे यह बताया जा रहा था। नहीं, कोई कुछ भी कहे, वह अब किसी की नहीं सुनेगी। वह तलाक़ माँग रही है। भयावह मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए वह तलाक़ माँग रही है। शोभन या सोबहान के साथ किसी सम्बन्ध की वजह से नहीं।

काश! सोबहान को फूँक मारकर वह हिन्दू बना पाती, उसे सचमुच के शोभन में तब्दील कर पाती तो उसके अन्दर का क्षोभ शायद थोड़ा कम हो जाता। सोबहान से उसका यह सम्बन्ध और आगे बढ़ने पर माया दिन-ब-दिन किस गह्वर में जाएगी, ठीक उसे भी नहीं पता। सोबहान इतना अच्छा नहीं भी तो हो सकता था, माया सोचती है। सोबहान से मुक्ति पाने के लिए उसने उसका कोई कम अपमान नहीं किया था। उसे उस दिन की बात याद आ गई।

— शादी तो कर रहे हो। अपनी बीवी से तो प्यार करते हो, करते हो न?

सोबहान चुप रहा।

— हर रात बीवी के पास लौट जाते हो। अगर मैं कहूँ कि मत जाओ तो जाए बिना रह सकोगे?

सोबहान चुप।

— आज तुम बीवी को छोड़कर मेरे पास बैठे रहते हो। मुझे एक दिन भी न देखो तो तुम व्याकुल हो उठते हो। मेरे साथ शादी हो जाने के बाद भी तो तुम यही करोगे। किसी और को न देख पाने से व्याकुलता महसूस होगी।

सोबहान चुपचाप सब सुनता रहा।

उसके शरीर को धक्का देकर उसने कहा— तुम्हारी बीवी तो मुझसे कम उम्र की है। कम उम्र की लड़की को छोड़कर ज्यादा उम्र की लड़की की ओर तुम्हारे झुकाव की वजह? आदमी लोग तो कम उम्र की ढूँढ़ते हैं। सुनते हैं कि उससे अंग को आराम मिलता है।

अबकी बार सोबहान ने बिफरते हुए कहा— तुम अब रुकोगी भी?

— क्यों, रुकूँगी क्यों ?

— इसलिए कि तुम फ़ालतू बातें कर रही हो।

— फ़ालतू बातें जरूर हैं लेकिन बातें सच्ची तो हैं!

— नहीं, ये सब बातें सच्ची नहीं हैं।

— तो फिर बताओ, सच्ची बातें कौन-सी हैं? मुझे सच्ची बातें सुनने की बड़ी इच्छा हो रही है!

— क्यों?

— कारण कि मुझे सच्ची बातें कहीं भी नहीं सुनाई देतीं। कोई कहता ही नहीं।

— तुम बोलती हो?

— हाँ, मैं बोलती हूँ।

— किस तरह की, जरा सुनूँ तो!

— सचमुच सुनोगे?

— क्यों नहीं सुनूँगा?

— मैं माया हूँ।

— मुझे मालूम है, तुम माया हो।

— मेरे साथ पाँच मुसलमान लड़कों ने बलात्कार किया था। तुम्हारी जात के पाँच लड़के। मैं तो मर ही गई थी, पता नहीं किस तरह बच गई! मैं उस दिन से दुनिया के सारे मुसलमानों को हेट करती हूँ। यह है सच्ची बात।

— मुझ से भी हेट करती हो? — सोबहान ने शान्त स्वर में पूछा।

माया बोली— जिस दिन मुझे पता चला कि तुम मुसलमान हो, उस दिन से मैंने तुमसे नफ़रत करने की कोशिश की थी। नहीं कर पाई।

— क्यों?

— मुझे नहीं पता, क्यों! और सुनो, और भी सच सुन लो। सच का मतलब अगर अप्रिय सच समझ रहे हो तो फिर सुनो। देश से यहाँ चले आने के बाद हम जिस मकान में रहते थे, उस घर का एक व्यक्ति रात को मेरे बदन पर चढ़ बैठता था।

— क्या?

— और सुनो, मैंने उसे रोकने की कभी कोशिश नहीं की।

— क्यों?

— बाधा नहीं पहुँचाई, डर के मारे। मैं बहुत डरपोक हूँ। बहुत जघन्य डरपोक। मेरा मन टूटा हुआ था, मेरा शरीर टूटा हुआ था। एक टूटा, भंगुर, दुर्बल इनसान किसी को बाधा नहीं पहुँचा सकता।

सोबहान सिर झुकाए सुनता रहा।

— और सुनोगे?

माया का स्वर सप्तम में जा पहुँचा। स्वर में कम्पन होने लगा। साँसें तेज़ हो गई। आँखों से आँसू बह निकले। सीने में भयंकर तकलीफ़ शुरू हो गई। सीने की तकलीफ़ समूचे शरीर में फैलने लगी। उसके हाथ-पैर काँपने लगे।

— और सुनो, मैं रास्ते पर खड़ी हुई हूँ, जिस तरह वेश्याएँ सज-धजकर खड़ी होती हैं। हाँ, उसी तरह खड़ी हुई हूँ। कारण कि यह शरीर जब आदमियों, बदमाशों और शैतानों के लूटने-खसोटने के लिए ही है, जब मुझमें रोकने की ताक़त ही नहीं और जब शरीर बेचने का चलन है, तो फिर मैं क्यों नहीं बेचूँगी? पैसों के अभाव में पूरा परिवार तकलीफ़ उठा रहा है। माँ और पिताजी निरीह हैं। बड़े भाई का होना, न होना एक समान है। निकम्मा कहीं का! मैं इन्हीं वजहों से मजबूर हुई। मैंने शरीर बेचा। क्यों नहीं बेचूँगी? शरीर को विशुद्ध-पवित्र मैं किसके लिए रखूँ? और विशुद्ध-पवित्र की क्या संज्ञा है? तुम्हीं लोग तो कूद पड़ोगे, टच करोगे और फिर तुम्हीं लोग अनटच्ड शरीर की माँग करोगे, यह क्या बात हुई? अब यह कैसी ज़िद है, बताओ तो! मोहम्मद सोबहान, तुम्हारे पास जवाब है इसका? सोबहान सिर झुकाए बैठा रहा— माथे की नसों को उँगलियों से दबाए किंकर्तव्यविमूढ़...।

— क्यों जी, सिर दुख रहा है न? तुम्हारे सिर के दुखने की यह तो शुरुआत है। मुझसे दूर ही रहना, वरना दुखते-दुखते एक दिन तुम्हारा सिर ही फट जाएगा। बचना हो तो इस धर्षिता, इस वेश्या, मुस्लिम-विद्वेषी, हिन्दू फ़ैनेटिक से तो दूर हट जाओ। अपने-आपको बचाओ सोबहान! पता नहीं कब उन रेपिस्टों से बदला लेते हुए मैं तुम्हारा ही खून कर डालूँ! तुम्हारे यहाँ तो मुस्लिम ब्रदरहुड वाला मामला है। है न? तो फिर एक ब्रदर की करतूतों की सजा दूसरा ब्रदर भुगते। बाबरी मस्जिद यहाँ के हिन्दुओं ने तोड़ी थी, उनके पाप का प्रायश्चित क्या हमने बांग्लादेश में नहीं किया था? बलत्कृत होकर, मरकर, पलायन करके, जान बचाकर, इसे बचना कैसे कहूँ, पलायन करके मरकर?

माया ने सोबहान के झुके हुए चेहरे को अपने दोनों हाथों से ऊपर उठाया। उठाकर उसके होंठों को चूमती हुई बोली— तुम क्यों एक हिन्दू लड़की के प्रेम में पड़ गए हो, बताओ? तुम्हें असल में प्रेम हुआ ही नहीं है। तुम तो ऐसे ही मजे ले रहे हो। कारण कि तुम्हें अपनी ज़िन्दगी में इस तरह का मजा कभी मिला नहीं। तुमने केवल बुर्केवाली मुसलमान लड़कियाँ ही देखी हैं जिनकी पढ़ाई-लिखाई कुछ नहीं हुई। हुई हो तो भी वे कंजरवेटिव ही हैं। इसलिए सुरंजन के मार्फत चांस मिलते ही हिन्दू सोसाइटी में घुस गए हो। तुम्हें दिख रहा है कि एक इंडिपेंडेंट लड़की है। मर्दों के साथ बराबरी से चल रही है। अपने निर्णय खुद ले रही है। उसने चुटकी बजाते ही अपने पति को छोड़ दिया है। तुम्हें वह बहुत स्मार्ट लग रही है। अनस्मार्ट अनकूथ मुस्लिम लड़की की निकटता के बरअक्स यह लड़की अलग तरह की है, इसलिए। फिर इधर सेवा-सत्कारवाली बात भी है। यह लड़की पकाती और खिलाती भी है। विज्ञान विषय पर चर्चा कर सकती है। इसे इतिहास, भूगोल की खासी जानकारी है। है न? इसलिए तुम्हें मज़ा आ रहा है। तुम प्यार नहीं कर रहे हो। प्यार तुम अपनी जात के लोगों से ही करोगे। मेरी तरह। मैं जिस तरह अपनी जात के अलावा किसी और को इनसान मानती ही नहीं। हालाँकि मैं ठीक नहीं कह रही। क्यों ठीक नहीं कह रही, बताओ तो? कारण यह कि जिस बदमाश से मैंने शादी की थी, उसे मैं समान रूप से हेट करती हूँ, जिस तरह मैं उन मुस्लिम रेपिस्ट लोगों को करती हूँ। लेकिन यह बात मैं कहती नहीं। हिन्दू होने की वजह से नहीं कहती। कारण कि किसी-न-किसी तरह से मैं हिन्दुओं को प्रोटेक्ट करती हूँ। करना ही चाहती हूँ।

सोबहान की दोनों आँखें लाल हो उठीं। वह भौचक्का-सा माया की ओर देख रहा था।

माया बोलती रही— मुसलमान लोग इस देश में क्यों रहते हैं? वे क्यों हमें जलाकर राख करने के लिए यहाँ रहते हैं? उन्हें तो उनका देश दिया जा चुका है। दो-दो देश दिये जा चुके हैं। सारे मुसलमान वहाँ जाकर रहें न! एक हिन्दू मेजॉरिटी वाले देश में माइनॉरिटी बनकर रहने में उन्हें क्या मज़ा आ रहा है? मजा जरूर आ रहा है, अन्यथा यहाँ क्यों रहते? उनका मज़ा मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। लेकिन असल बात क्या है, तुम्हें पता है। मर्द फिर वह हिन्दू हो या मुसलमान, दोनों समान होते हैं। दोनों समान रूप से शैतान हैं। लड़कियों को वे सताएँगे ही। तुम्हारी बीवी भुगत रही है मुसलमान बीवी के रूप में। मैं भुगत रही हूँ हिन्दू पत्नी के रूप में। तुम्हें भुगतना नहीं पड़ रहा है। मेरे बड़े भाई सुरंजन नहीं भुगत रहे हैं! वे हिन्दू पत्नी को छोड़कर एक मुसलमान लड़की के साथ लीला करते फिर रहे हैं। तुमने भी उन्हीं का रास्ता पकड़ लिया है। तुम भी मुसलमान बीवी को बेवकूफ़ बनाकर हिन्दू के साथ लीला कर रहे हो। मेरे भाई भी मजे लूट रहे हैं। भाई साहब की तो एक सेक्युलर व्यक्ति की छवि बन रही है। तुम्हारा भी अच्छा नाम हो रहा है। यहाँ के लड़के तो हिन्दू लड़कियों से शादी करके बढ़िया सेक्युलर होने का चोला ओढ़ लेते हैं। किसी का नाम अब्दुर्रहमान है। वह अपना नाम बताने से पहले कहता है, मेरी पत्नी का नाम मौसमी मित्र है। समाज में ऊपर उठने के लिए पत्नी का उपयोग किया जा रहा है। समाज में ऊपर उठ जाने के बाद फिर पत्नी के साथ वह भी वैसा ही सलूक करने लगता है, जैसा कि मर्द लोग करते हैं। खैर, मर्द है न! तुम्हें समाज में ऊपर उठने की क्या ज़रूरत है? तुम तो अपनी पढ़ाई-लिखाई, विद्या-बुद्धि अच्छी नौकरी, अच्छे व्यवसाय की वजह से ही तो समाज में ऊपर उठ गए हो। तुम्हें हिन्दू से शादी की क्या जरूरत आन पड़ी? आई एम नॉट गोइंग टू मैरी अ मुस्लिम।

टेररिस्ट जात से शादी करके मुझे मरना है क्या? इससे तो वेश्या हो जाना बेहतर। मर जाना तो उससे भी अच्छा।

इसके बाद सोबहान तेज़ी से उठा और बाहर निकल गया।

अन्दर के कमरे की खिड़की से सोबहान को जाते देख किरणमयी माया के पास आकर बोलीं— क्या बात है, शोभन चला गया? चाय भी नहीं पी?

— नहीं।

— क्यों, तू चाय तो पिला ही सकती थी।

— नहीं माँ। उसे अब इस घर में कुछ भी खाने-पीने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वह आख़िरी बार आया था। अब वह यहाँ नहीं आएगा।

— क्यों?

— इतनी बातें मत पूछो।

किरणमयी को ज़ोर से डपटकर माया ने चुप करा दिया।

माया तकिए के पास मोबाइल रखकर सो रही थी। रात दो बजकर तेरह मिनट पर एक एस.एम.एस. आया। आवाज सुनकर वह उठी और उसने एस.एम.एस. पढ़ा। सोबहान ने भेजा था। प्यार करता हूँ, प्यार करता हूँ, प्यार करता हूँ।

मोबाइल को सीने के ऊपर पकड़े हुए माया ने आँखें बन्द कर लीं। आँसू आँखों की कोरों से दुलकते रहे।

 

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