भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ का अंश

भीष्म साहनी की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित उनके उपन्यास ‘तमस’ का एक अंश। सांप्रदायिक दंगों की पृष्ठभूमि में लिखे गए इस उपन्यास को हिन्दी में कालजयी रचना का दर्जा प्राप्त है। 

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बन्तो और हरनामसिंह अपने तीन कपड़ों में, और थोड़ी-बहुत पूँजी और बन्दूक सँभाले दुकान को ताला लगाकर बाहर निकल आए। घर के बाहर क़दम रखते ही सारा प्रदेश पराया हो गया। कहाँ जाएँ? किधर को घूमें? बाएँ हाथ को गाँव फैला था, उसी ओर कस्सी थी और कस्सी के पार से बलवाइयों के ढोल सुनाई दे रहे थे। दाईं ओर पक्की सड़क खानपुर की ओर चली गई थी, उस ओर जाना ख़तरे से कम खाली नहीं था, और इस ओर किनारा ऊँचा था। अगर कहीं जाया जा सकता था तो उसी रास्ते छिप-लुककर जाया जा सकता था। सड़क पर चलना खतरे से खाली नहीं था। नाले में पानी न के बराबर था, चौड़ा पाट सूखा और रेतीला था और कंकड़ों-पत्थरों से अटा था।

दोनों ने सड़क पार की, और थोड़ी दूरी तक आकर नाले की ओर उतरने लगे। तब तक बलवाई गाँव के निकट पहुँच चुके थे और इसी ओर बढ़े आ रहे थे। वातावरण उनके नारों और ढोल-मजीरे की आवाज़ से गूँज रहा था।

हरनामसिंह और उसकी पत्नी नाले की ओर उतर रहे थे जब ऊपर कहीं से क्षीण-सी आवाज़ आई :

“बन्तो तेरा रब्बा राखा...

सर्बद्ध दा रब्बा राखा।”

मैना उन्हीं के पीछे उड़कर चली आई थी और पेड़ पर बैठ गई थी।

तभी बलवाई उस टीले के ऊपर पहुँच गए जिसकी ढलान उतरने पर नीचे दाएँ हाथ हरनामसिंह की दुकान थी। बलवाई चिंग्घाड़ रहे थे, ऊँचे-ऊँचे नारे लगाते ढोल बजाते नीचे उतर रहे थे।

चाँद निकल आया था, और चारों ओर छिटकी चाँदनी में हर पेड़ और हर चट्टान के पीछे छिपे किसी अज्ञात शत्रु का भास होने लगा था। नदी सूखी पड़ी थी और चाँदनी में नदी का पाट सफ़ेद चादर-सा बिछा था। पति-पत्नी ऊँचे किनारे पर से उतर आए थे और अब उसी की ओट में धीरे-धीरे दाएँ हाथ आगे की ओर बढ़ने लगे थे। नदी का किनारा जहाँ वे चले जा रहे थे, छोटे-बड़े पत्थरों से अटा पड़ा था और दोनों हाँफने लगे थे। दोनों के कान बलवाइयों की ओर लगे थे।

शोर पहले तो नज़दीक आता गया, फिर थम गया। हरनामसिंह को लगा कि बलवाई उसकी दुकान के सामने रुक गए हैं और निश्चय नहीं कर पा रहे कि अब क्या करें। हरनामसिंह ने मन ही मन करीमखान को धन्यवाद कहा। वह वक़्त पर न कह देता तो भागना भी असम्भव हो गया था। तभी किसी चीज़ पर ज़ोर-ज़ोर से प्रहार करने की आवाज़ आई। हरनामसिंह समझ गया कि बलवाई उसकी दुकान का दरवाज़ा तोड़ रहे हैं। आगे चल पाने के लिए दोनों के पैर काँप रहे थे। दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़ धीरे-धीरे आगे सरकने लगे।

“वाहे गुरु का नाम लेकर चलती आओ।” हरनामसिंह पत्नी को अपने साथ खींचते हुए बोला।

तभी एक कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आई। दोनों ने नज़र उठाकर ऊपर देखा। ऊँचे किनारे पर छिटकी चाँदनी में एक भयानक काले रंग का कुत्ता खड़ा उन पर भौंके जा रहा था। हरनामसिंह को काटो तो खून नहीं। अब क्या होगा? गुरु महाराज किस पाप की इतनी भयानक सज़ा दे रहे हैं? कुत्ते का भौंकना सुनकर तो वे भागते हुए इधर चले आएँगे, उन्हें पता चलते देर नहीं लगेगी कि हम किस रास्ते से भागकर आए हैं।

“तुम चलते जाओ जी, रुको नहीं,” बन्तो बोली।

कुत्ता बराबर भौंकता जा रहा था। झबरैला कुत्ता, जो अक्सर उसकी दुकान के सामने टहलता, जगह-जगह मुँह मारता नज़र आया करता था। कुछ दूर तक चलते रहने के बाद बन्तो ने मुड़कर देखा। कुत्ता अभी भी टीले पर खड़ा भौंके जा रहा था मगर आगे बढ़कर नहीं आया था, न तो टीले के ऊपर किनारे-किनारे से और न ही नीचे उतरा था।

वे आगे सरकते गए।

“जैसे-तैसे गाँव पीछे छूट जाए, आगे भगवान मालिक हैं।”

“कुत्ता रुक गया है, आगे नहीं आ रहा।"

“भौंक तो रहा है।”

एक चट्टान के पीछे दोनों छिपकर खड़े हो गए और दम साधे कुत्ते का भौंकना सुनते रहे। उधर दुकान का दरवाज़ा टूटकर गिर गया था और “या अली!” चिल्लाते हुए बलवाई उसमें घुस गए थे।

“लूट रहे हैं, हमारा घर-बाहर लूट रहे हैं।”

पर कुत्ते के भौंकने की ओर किसी का ध्यान नहीं गया था। दोनों पहले से अधिक आश्वस्त हो गए थे। ध्यान चला भी जाता तो भी शायद वे इनका पीछा न करते, इन्हें मारने से उन्हें क्या मिलता। दुकान में से तो कितना कुछ माल हाथ लगनेवाला था।

“अब किसकी दुकान और किसका घर! छोड़ आए तो हमारा कहाँ रह गया!” बन्तो ने कहा।

चाँदनी में झिलमिलाता नदी के पाट का प्रसार, कहीं-कहीं पर पेड़ों के झुरमुट, टीले के ऊपर खड़ा झबरैला कुत्ता जो बराबर भौंके जा रहा था, सब मिलकर एक सपना-सा लग रहा था। कितनी जल्दी सब कुछ बदल गया था। बीस साल तक एक जगह में रहने के बाद पलक मारते वे परदेसी और बेघर हो गए थे। हरनामसिंह का हाथ ठंडा और पसीने से तर था। पर वह बार-बार एक ही वाक्य दोहराए जा रहा था, “निकल आओ, अब जैसे भी हो निकल आओ।”

गाँव पीछे छूट चुका था। कुत्ता अभी भी किनारे पर खड़ा था, वह आगे नहीं आया था। कुछ देर बाद शायद अपने-आप लौट जाए। दुकान लूटी जा चुकी थी, बलवाइयों का शोर थम गया था, लूट के सामान से ही वे सन्तुष्ट हो गए जान पड़ते थे, या क्या अब वे उन्हें खोजने निकलेंगे? अब केवल कंकड़ों-पत्थरों पर चलते लड़खड़ाते क़दमों की आवाज़ आ रही थी और चारों ओर निःस्तब्धता छाई थी।

थोड़ी दूर चलने के बाद बन्तो को लगा जैसे आकाश में रौशनी फैल गई है। उसने मुड़कर देखा तो नाले के ऊँचे किनारे के पीछे गाँव की ओर आसमान लाल होने लगा था। बन्तो देखती की देखती रह गई।

“देखो जी, क्या है?”

“क्या है बन्तो, दुकान जल रही है, और क्या है?” हरनामसिंह ने कहा। यह भी खड़ा उसी ओर देख रहा था। थोड़ी देर तक वे मन्त्रमुग्ध-से आग के शोलों को देखते रहे। अपने घर में से उठते हुए शोले ज़रूर ही किसी दूसरे कैचर में से उठनेवाले शोलों से भिन्न होते होंगे वरना वे क्यों मूर्तिवत् खड़े के खड़े रह जाते और उन्हें ताकते रहते।

“सब खाक हो गया!” हरनामसिंह शिथिल-सी आवाज़ में बोला।

“आँखों के सामने सब खाकस्याह हो गया।”

“वाहगुरु को यही मंजूर था।” उसने ठंडी साँस भरी और वे फिर चलने लगे।

दीवारें मनुष्य को छिपाए रहती हैं, पर यहाँ कोई दीवार न थी, केवल टीले थे, कहीं-कहीं पर चट्टानें थीं जिनके पीछे मनुष्य छिप सकता था पर कितनी देर के लिए? कुछ ही घंटों में रात का अँधेरा छँट जाएगा और वे फिर से जैसे नंगे हो जाएँगे, सिर छिपाने को जगह नहीं मिलेगी।

बन्तो का मुँह सूख रहा था और हरनामसिंह की टाँगें बार-बार लड़खड़ा जाती थीं। पर इस समय केवल वे दो ही नहीं, अनगिनत लोग दर्जनों लोग गाँवों में से इसी भाँति जान बचाते घूम रहे थे, अनेक लोगों के कानों में टूटते किवाड़ों की आवाजें पड़ रही थीं। पर उनके पास न सोचने के लिए वक़्त था, न भविष्य के मनसूबे बाँधने के लिए। वक़्त था जैसे-तैसे जान बचा पाने के लिए। उस वक़्त तक चलते जाओ जब तक रात के साए तुम्हें अपनी ओट में लिये हुए हैं। शीघ्र ही दिन चढ़ आएगा और ज़िन्दगी के खतरे चारों ओर से भूखे भालुओं की तरह हमला कर देंगे।

कुछ ही देर में वे थककर चूर हो गए थे।

पर जब से उन्हें इस बात का भास होने लगा था कि वे बचकर निकल आए हैं तभी से दोनों पति-पत्नी की आँखों के सामने अपने बेटे-बेटी के चित्र घूमने लगे थे। इकबालसिंह इस समय कहाँ होगा, उस पर क्या बीत रही होगी, और जसबीर कहाँ होगी? जसबीर की उन्हें अधिक चिन्ता नहीं थी क्योंकि जसबीर बड़े क़स्बे में थी जहाँ उनकी जाति के लोग अधिक संख्या में थे, सम्भव है सारी सिख संगत गुरुद्वारे में इकट्ठी हो गई हो, सम्भव है उन्होंने अपने बचाव का कोई साधन ढूँढ़ निकाला हो, पर इकबालसिंह अकेला था और अपने गाँव में छोटी-सी बजाजी की दुकान करता था। क्या मालूम समय रहते निकल गया हो, क्या मालूम इस वक़्त हमारी ही तरह कहीं मारा-मारा घूम रहा हो। सभी विचार व्याकुल करनेवाले थे। हरनामसिंह ने आँखें बन्द करके और हाथ जोड़कर गुरु महाराज का नाम लिया और फिर उनकी वाणी के वही शब्द दोहरा दिए :

“जिसके सिर उपरि हूँ सुआमी

सो दुख कैसा पावे।”

जब पौ फटने का समय हुआ तो वे एक छोटे-से झरने के किनारे पत्थरों पर बैठे थे। हरनामसिंह इस इलाके से परिचित था। वे ढोक मुरीदपुर-एक छोटे-से गाँव के निकट पहुँच चुके थे। रात सारी चिन्ता, उधेड़बुन और पाँव घसीटने में लग गई थी। पर पौ फटने से पहले अनायास ही जैसे मन को शान्ति मिल गई थी। हवा में दूर से तैरती हुई लुकाटों के बौर की गन्ध आई। ढोक मुरीदपुर में लुकाटों के बाग़ थे और उनके बीच में से झरने बहते थे। चाँद का रंग पहले नारंगी-लाल पड़ गया, फिर उसमें चाँदी-सी घुलने लगी। स्वच्छ नीलिमा आकाश में फैलने लगी। आसपास पक्षी चहचहाने लगे। “मुँह धो ले बन्तो, फिर जप जी महाराज का पाठ करके चलेंगे।” प्रात: की सुहावनी घड़ी में हरनामसिंह का विश्वास फिर से जैसे लौट आया था।

“अब जाएँगे कहाँ?” बन्तो ने चिन्तित आवाज़ में पूछा, “दिन-भर मारे-मारे कहाँ फिरोगे? दो रोटियाँ सेंक ली होतीं तो कोई बात नहीं थी, दिन-भर बेशक यहीं किसी पत्थर की ओट में पड़े रहते।”

“इसी ढोक में चलकर किसी का दरवाज़ा खटखटाते हैं। उसके दिल में रहम हुआ तो आसरा दे देगा, न हुआ तो जो गुरु महाराज को मंजूर है।” 

“तुम इस ढोक में जानते किसी को नहीं हो?” 

हरनामसिंह मुस्करा दिया :

“जहाँ सबको जानता था, वहाँ किसी ने आसरा नहीं दिया, सामान लूट लिया और घर को आग लगा दी। यहाँ जाननेवालों से क्या उम्मीद हो सकती है? उन लोगों के साथ तो मैं खेल बड़ा हुआ था...।”

प्रातः का झुटपुटा साफ़ होने पर दोनों उठकर गाँव की ओर जाने लगे। पहले पेड़ों का एक झुरमुट आया। शहतूत और शीशम के पेड़ थे, झुरमुट के बाहर छोटा-सा कब्रिस्तान था, टूटी-फूटी क़ब्रे, छोटी-बड़ी, उन्हीं के एक ओर किसी पीर की भी क़ब्र जान पड़ती थी क्योंकि उस पर दीया टिमटिमा रहा था और हरी झंडियाँ लटक रही थीं। फिर खेत आए, गेहूँ पक गया था, कटाई के दिन नज़दीक थे, फिर सपाट छतोंवाले मिट्टी के कोठे सामने आ गए जिनके बाहर गाय-भैंसें बँधी थीं, कहीं-कहीं पर मुर्गियाँ अभी से अपने चूजों के साथ चुग्गे की तलाश में घूमने लगी थीं।

“बन्तो, अगर वे लोग मारने पर उतारू हुए तो मैं पहले तुझे खत्म कर दूँगा, फिर अपने को खत्म कर लूँगा। जीते-जी मैं तुझे दूसरों के हाथ में पड़ने नहीं दूँगा।”

तभी वे, गाँव के बाहर ही, पहले घर के सामने रुक गए। दरवाज़ा बन्द था। बदरंग-सा मोटी लकड़ी का दरवाज़ा। न जाने किसका घर था, कौन लोग दरवाज़े के पीछे रहते थे। दरवाज़ा खुलेगा तो क़िस्मत जाने क्या गुल खिलाएगी! हरनामसिंह ने हाथ ऊपर उठाया, क्षण-भर के लिए उसका हाथ ठिठका रहा, फिर उसने दस्तक दी।

 

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