राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘आधा गाँव’ का अंश

राही मासूम रज़ा की जयंती पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उनके उपन्यास ‘आधा गाँव’ का एक अंश। यह संभवत: हिन्दी का पहला ऐसा उपन्यास है जो शिया मुसलमानों के ग्रामीण जीवन का यथार्थ सामने लाता है।  

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ये खिड़कियाँ जो एक मकान को दूसरे मकान से मिलाती हैं, साल में दो-एक बार ज़रूर बंद की जाती हैं और फिर कुछ दिनों के बाद बिना बीच-बचाव के खुल जाती हैं। फुस्सू मियाँ जानते थे कि इस तू-तू मैं-मैं का नतीजा यही होगा कि खिड़की बंद हो जायगी। चुनाँचे जब खिड़की बंद हुई तो उन्होंने इत्मीनान की साँस ली। रब्बन-बी काफी देर तक बड़बड़ाती रहीं। थोड़ी ही देर के बाद कुबरा आ गयी और फिर उम्मे-हबीबा भी आयी। इक्का-दुक्का करके उत्तरपट्टी की बीबियों की डोलियाँ भी आने लगीं, तब रब्बन-बी का माथा ठनका। उन्हें यकीन हो गया कि तन्नू के इन्कार की खबर सारे गाँव में फैल चुकी है।

तमाम बीबियों ने एक-ज़बान होकर तन्नू की बुराई शुरू की कि उसे अपने मरहूम बाप की वसीयत का ख़याल करना चाहिए था। लगी हुई निस्बत का टूट जाना यूँ भी अच्छा नहीं होता। किसी की ज़बान तो पकड़ी नहीं जा सकती। मगर यह तमाम बीबियाँ एक हद तक दिल-ही-दिल में खुश भी थीं कि यह बदनामी उनकी लड़कियों के हिस्से में नहीं आयी। अलबत्ता सलमा से यह पूछने की ज़रूरत किसी ने महसूस नहीं की कि उस पर क्या गुज़र रहा है।

सलमा तमाम शरीफ लड़कियों की तरह एक निहायत ही सीधी-सादी और बेवकूफ-सी लड़की थी। वैसे फूहड़ नहीं थी। उसे क्रोशिये की बेल भी बनानी आती थी। वह तकिये का गिलाफ़ भी काढ़ सकती थी। घर में पलंग की तमाम चादरें उसी की काढ़ी हुई थीं। खाना पकाने में उसका जवाब नहीं था। क्योंकि रब्बन-बी और सकीना ने बावर्चीख़ाने का सारा ज्ञान उसे घोलकर पिला दिया था। वह फटाफट उर्दू पढ़ सकती थी। हद तो यह है कि वह टूटी-फूटी उर्दू लिख भी लेती थी। चुनाँचे, जब वह तनहा होती और अपने बारे में सोचती तो अपने लड़के-लड़कियों के देहाती नाम न रखती । बल्कि वह इस किस्म के नाम रखती जो उन कहानियों में रखे जाते हैं, जिन्हें उसने ग़ाज़ीपुर में मासूम के कमरे में रखे हुए रिसालों में पढ़ा था। नाज़िश, ताबंदा, ताज, नीलो। सलमा, अहमदी, अकबरी, सरवरी क़िस्म के नाम न रखने का वह फैसला कर चुकी थी। फिर जब उसकी और तन्नू की शादी की बातचीत शुरू हुई तो वह यह सोच-सोचकर खुश होने लगी कि जब वह अपनी पहली लड़की का नाम सीमा या नाज़िश रखेगी तो दद्दा कितना बमकेंगी। “नौज! ई कोई नाम है?” पर अब तन्नू के एक लफ़्ज़ ने उसे ख्वाबों की तिलिस्मी सरज़मीन से दूर फेंक दिया था। उसने रब्बन-बी और अब्बू मियाँ की बीवी की सारी बातें बावर्चीख़ाने से सुनी थीं। वह उस वक़्त चपातियाँ बेल रही थी। आवाजें उसके वजूद से टकरा रही थीं और उसके हाथ मशीन की तरह पटरे पर बेलन चला रहे थे आटे के पेड़े पर पलेथन डाल रहे थे तवे पर चपातियाँ उलट-पलट कर रहे थे। फिर वह चौंक पड़ी थी, क्योंकि रब्बन-बी ने उसीको कोसना शुरू कर दिया था। वह हैरान हुई कि अगर तन्नू भाई ने शादी से इन्कार कर दिया तो इसमें उसका क्या कुसूर है। “हाँ, हमरा कौन कुसूर है?” ज़ाहिर है कि उसके सवाल का जवाब देनेवाला कोई नहीं था।

तवे की आखिरी चपाती उतार कर उसने रोटी की टोकरी पर पटरा उलट दिया। फिर हाथ धोकर डुपट्टे से पोंछती हुई वह बावर्चीखाने से आँगन में आ गयी। रब्बन-बी कलमदान सँभाले शायद अकबरी-बी को खत लिख रही थीं। सकीना पलंग पर घिस घिसकर आलू छील रही थी। फुस्सू मियाँ बाहर जा चुके थे। 

वह चुपके से गलियारे में होती हुई सिब्तू मियाँ के घर की तरफ चली गयी। वह बारूती थी कि अब्बू मियाँ के यहाँ जाना इस वक़्त मुनासिब न होगा। मगर वह घर में रहना नहीं चाहती थी, क्योंकि वह रोना नहीं चाहती थी। इसलिए वह जवाद मियाँ के घर चली जाना चाहती थी कि रहमान-बो के साथ बातें करके जी बहला सके। मगर वह जैसे ही सिब्तू मियाँ के दरवाजे पर मुड़ी, तन्नू से टकरा गयी। बिलकुल टकरा गयी—उसका सिर तन्नू के सीने से टकराया। तन्नू ने उसे संभालने के लिए हाथ बढ़ाया। रहमान-बो ने खिड़की से देखा कि सल्लो तन्नू के बाजुओं में है। उसने चुपके से खिड़की बंद कर ली। इसलिए वह यह न देख सकी कि तन्नू ने उसे फ़ौरन अलग कर दिया और फिर सिब्तू मियाँ के मर्दान की तरफ़ चला गया। वह तो सीधी जवाद मियाँ के पलंग की तरफ गयी जहाँ वह लेटे हुए हुक्का पी रहे थे। वह पाँयती बैठ गयी और बोली, “अब मैं का कहों!” “कुछ मत कह।” जवाद मियाँ ने उसकी बात काट दी।

“कैसे ना कहों! ऐसी बतिये देखे हौं कि जी चाह रहा कि अँखिया फूट गयी होती त अच्छा होता।”

“का भया?” जवाद मियाँ उठकर बैठ गये।

“तन्नू सल्लो से बियाहो ना करिहें और ओको लिपटइबो करिहें।”

“का बक रही हैं?”

“मैं बक-ओक ना रहियूँ मैं अपनी आँखिन से देखे हौं।” 

वह बोली, “ई क़यामते का आसार है। नाहींत, ई घर में सब भवा रहा, बाक़ी ई ना भवा रहा। अ मैं त ई पूछा चाह रहियूँ कि सल्लो को का हो गवा है?”

“अच्छा, हम से त तैं कह दिये; बाक़ी अब जो ई बात फेयली त हम तोरी ज़बान काट देंगे।” जवाद मियाँ ने कहा।

“मैं का लुतरी हौं कि कहती फिरिहों? जब देखो, ज़बान काटे पर दम-मदार रहते हौ।”

जवाद मियाँ ने लात मारी। वह पलंग से लुढ़क गयी। जवाद मियाँ उसे गालियाँ देने लगे। वह दरअस्ल उस पर ख़फ़ा नहीं थे। उन्हें तन्नू और सल्लो से शिकायत थी जिनकी वजह से उन्हें अपनी दाश्ता की बात सुननी पड़ी। रहमान-बो ज़मीन से उठकर कपड़े की मिट्टी झाड़ती हुई आँगन की तरफ चली गयी। जवाद मियाँ बोले, “निकले न ई बात मुँह से, नहीं न मुँहवा झुलुस देंगे।” वह बाहर आ गये, जहाँ उनके बड़े बेटे कमाल उर्फ कम्मो का स्कूल जमा हुआ था। पड़ौस के जुलाहों और दागदार सय्यदों और खरे ग्रीव सय्यदों के लड़के-लड़कियाँ दो का पहाड़ा याद करने में मशगूल थे और खुद कम्मो तीन टाँग की एक कुर्सी पर बैठा हुआ कोई किताब पढ़ रहा था। छोटा भाई फ़िदा हुसेन उर्फ फ़िदू स्कूल को सख्त नापसंद करता था। वह अभी-अभी खेत से वापस आया था और सामने के एक दर में उकहूँ बैठा बीड़ी पी रहा था। इस स्कूल ने जवाद मियाँ के घर की बहुत-सी छोटी-मोटी ख़्वाहिशें पूरी कर दी थीं। मसलन, रहमान-बो अब पैबंद-लगा कपड़ा नहीं पहन रही थी। विद्यार्थियों के घर से गल्ला भी आता था और पैसा भी। कम्मो के स्कूल में कोई पचास लड़के-लड़कियाँ पहाड़ा याद करने और आम सिपारा और कायदा-बगदादी पढ़ने आते थे। चार आने महीने फी बच्चे के हिसाब से कोई साढ़े बारह रुपये फ़ीरा के आते थे। लेकिन कभी पूरी फीस इकट्ठा नहीं हो पाती थी। लगभग दस रुपये माहवार की आमदनी हो ही जाती थी । इसके अलावा फस्ल पर गल्ला आ जाता था। जुलाहों से कुछ गमछे और लुंगियाँ भी मिल जाती थीं। तीन-साढ़े तीन बीघे की खेती भी थी। इसलिए जवाद मियाँ के घर में एक हद तक आसूदगी थी और सबसे बड़ी अलामत यह थी कि रहमान-बो कम्मो का ब्याह करने के लिए सख्त बेचैन थीं। वह दिन-रात एक बहू के ख्वाब देखा करती थीं। खुद जवाद मियाँ भी यही चाहते थे। मगर वह इसका इंतजार कर रहे थे कि कम्मो डाक्टरी शुरू कर ले तब रिश्ता ढूँढ़ा जाय। कम्मो के डाक्टर होने की ख़बर को जवाद मियाँ और रहमान-बो और फिदू ने सख्ती से छुपा रखा था। हकीम अली कबीर को कब्ल-अज़ वक़्त नाराज़ करने से कोई फ़ायदा तो था नहीं। खुद कम्मो भी होमियोपैथी की किताब को कुर्आन-शरीफ के जुज़दान में रखता था और कभी-कभी रेहल पर रखकर पढ़ता हुआ भी नज़र आता था। चुनाँचे, गंगौली में बड़ा शुहरा था कि कम्मो बड़ा मज़हबी आदमी है। वह हर वक़्त तिलावत किया करता है। और इधर कोई दो बरस से तो उसने दुनिया में दिलचस्पी लेना भी छोड़ दिया है। बस, हर वक्त कुर्बान है और वह है। किसी ने इस बात पर गौर नहीं किया कि इधर मोहर्रम या गर्मी की छुट्टियों में जब सईदा आ जाती है, तो कम्मो की आँखों में एक चमक पैदा हो जाती है और वह अपनी माँ से हँस-हँसकर बातें करने लगता है; और जब सईदा चली जाती है तो कम्मो उदास हो जाता है। इस बात पर किसी ने इसलिए गौर नहीं किया कि यह गौर करने की बात ही नहीं थी। कहाँ अब्बू मियाँ की बेटी सईदा और कहाँ जवाद मियाँ का हरामी बेटा कम्मो! यह बात सिर्फ कम्मो को मालूम थी कि वह सईदा के जाने के बाद उदास हो जाता है। लेकिन वह अपने-आप से भी यह सवाल करने से डरता था कि ऐसा क्यों हो जाता है। वह तनहाई में भी सईदा से बातें करने के बारे में नहीं सोचता था। लेकिन उसने यह ज़रूर तय कर लिया था कि वह शादी नहीं करेगा, चुनाँचे जब रहमान-बो उसकी शादी की बात निकालतीं तो वह टाल जाता।

 

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