भीमराव रामजी आंबेडकर हमारे सबसे महत्त्वपूर्ण बुद्धिजीवी और नेताओं में से एक हैं जिनकी लेखनी ने हिन्दुस्तान के सामाजिक ताने-बाने को बहुत गहरे ढंग से प्रभावित किया है। 1930 के दशक में अपनी नवनिर्मित इंडियन लेबर पार्टी की स्थिति को समझाते हुए आंबेडकर ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी थी कि वह ‘राष्ट्रवाद का बुत बनाने के लिए क़तई तैयार नहीं हैं।’ उन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध के अनुभव को देखकर राष्ट्रवाद से सावधान रहने की भी चेतावनी दी थी। राष्ट्रवाद के उभार और पाकिस्तान के मुद्दे पर उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि जब बड़े पैमाने पर लोग एक अलग राष्ट्रीयता के रूप में ख़ुद को देखना शुरू कर देते हैं तो उनके लिए अलग राष्ट्र ही एकमात्र विकल्प रह जाता है। और इस स्थिति के लिए उन्होंने कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों को बराबर का दोषी माना। उन्होंने मुस्लिम लीग की अलग राष्ट्र की माँग पर अपनी पुस्तक में विचार किया है।
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डॉ. भीमराव आंबेडकर की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में प्रस्तुत है— प्रोफ़ेसर एस. इरफ़ान हबीब द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘भारतीय राष्ट्रवाद : एक अनिवार्य पाठ’ का एक अंश जिसमें डॉ. भीमराव आंबेडकर के राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद से संबंधित विचारों को व्यक्त किया गया है।
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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के समय से ही भारत के एक राष्ट्र होने का सवाल एंग्लो-इंडियन और हिन्दू राजनेताओं के बीच विवाद का विषय रहा है। एंग्लो-इंडियन राजनेता यह ऐलान करते थकते नहीं थे कि भारत एक राष्ट्र नहीं है और ‘भारतीय’ भारत के लोगों का महज़ एक और नाम-भर है। एक एंग्लो-इंडियन के शब्दों में ‘भारत को जानने के लिए यह भूलना ज़रूरी है कि भारत जैसी कोई चीज़ मौजूद है।’ दूसरी तरफ़, हिन्दू राजनेता और देशभक्त अपने इस दावे पर उतने ही अटल रहे हैं कि भारत एक राष्ट्र है। एंग्लो-इंडियन राजनेताओं का नकारना सही था, इस तथ्य को यूँ ही अस्वीकार नहीं किया जा सकता। यहाँ तक कि बंगाल के राष्ट्रीय कवि टैगोर भी उनसे सहमत हैं। लेकिन हिन्दुओं ने इस मुद्दे पर कभी डॉ. टैगोर के सामने भी घुटने नहीं टेके।
ऐसा दो वजहों से था। पहला, हिन्दुओं को यह स्वीकार करने में शर्म आती है कि भारत एक राष्ट्र नहीं था। एक ऐसी दुनिया में जहाँ राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद को लोगों का विशेष गुण माना जाता था, हिन्दुओं के लिए श्री एच. जी. वेल्स की भाषा बोलना काफ़ी स्वाभाविक था क्योंकि भारत के लिए राष्ट्रीयता के बिना रहना ठीक वैसे ही अनुचित होता जैसे किसी इनसान का एक भीड़-भरी सभा में बिना कपड़ों के रहना। दूसरा, उन्होंने यह महसूस किया कि स्वशासन के दावे के साथ राष्ट्रीयता का एक बेहद घनिष्ठ सम्बन्ध है। वह जानते थे कि उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक यह एक स्वीकृत सिद्धान्त बन जाएगा कि एक राष्ट्र का गठन करने वाले लोग स्वशासन के हक़दार हैं और अपने लोगों के लिए स्वशासन की माँग करने वाले किसी भी देशभक्त के लिए यह साबित करना ज़रूरी होगा कि वे एक राष्ट्र हैं। इन्हीं वजहों से हिन्दू कभी इसका विश्लेषण करने से नहीं चूके कि भारत वास्तव में एक राष्ट्र है या नहीं। उन्होंने कभी इस तथ्य की खोजबीन नहीं की कि राष्ट्रीयता सिर्फ़ लोगों को राष्ट्र कहने का सवाल है या फिर लोगों के राष्ट्र होने का सवाल है। वे एक बात जानते थे कि अगर उन्हें भारत के लिए स्वशासन की अपनी माँग में सफल होना है, तो उन्हें इस बात पर क़ायम रहना होगा कि भारत एक राष्ट्र है, भले ही वे इसे साबित न कर पाएँ।
उनके इस दावे का कभी किसी भारतीय ने खंडन नहीं किया। यह मान्यता इस क़दर स्वीकार्य थी कि इतिहास के गम्भीर भारतीय छात्र भी इसके समर्थन में प्रचार साहित्य लिखने के लिए आगे आए, निस्संदेह देशभक्ति के उद्देश्यों से। हिन्दू समाज-सुधारक, जो जानते थे कि यह एक ख़तरनाक भ्रम है, खुले तौर पर इस मान्यता का खंडन नहीं कर सकते थे। लिहाज़ा, जिसने भी इस पर सवाल उठाया, उसे तुरन्त ब्रिटिश नौकरशाही का औज़ार और देश का दुश्मन कहा गया। हिन्दू राजनेता लम्बे समय तक अपने विचार का प्रचार करने में सक्षम थे। उनके विरोधी, एंग्लो-इंडियन ने उन्हें जवाब देना बन्द कर दिया था। उनका प्रचार लगभग सफल हो चुका था। जब यह मुहिम सफल होने को थी कि सुर को बेसुरा बनाती हुई मुस्लिम लीग की घोषणा आ गई। चूँकि यह ऐलान एंग्लो-इंडियन लोगों की तरफ़ से नहीं आया था, लिहाज़ा यह एक घातक झटका था। इसने हिन्दू राजनेताओं के सालों से किए-कराए पर पानी फेर दिया। अगर भारत में मुसलमान एक अलग राष्ट्र हैं, तो निश्चित रूप से भारत एक राष्ट्र नहीं है। इस दावे ने हिन्दू राजनेताओं के पैरों के नीचे से पूरी ज़मीन ही खिसका दी। ज़ाहिर है कि उन्हें इस पर ग़ुस्सा आना ही था और उन्होंने इसे पीठ में छुरा घोंपना कहा।
छुरा घोंपा गया या नहीं घोंपा गया, लेकिन असली मुद्दा यह है कि क्या मुसलमानों को एक राष्ट्र कहा जा सकता है? बाक़ी सारी बातें इसके बाद हैं। इससे यह सवाल उठता है कि राष्ट्र क्या है? इस विषय पर कई ग्रन्थ लिखे गए हैं। जो जिज्ञासु हैं वे उन्हें पढ़ सकते हैं और विभिन्न बुनियादी अवधारणाओं के साथ-साथ इसके विभिन्न पहलुओं का अध्ययन कर सकते हैं। हालाँकि, इस विषय की बुनियाद को जानना काफ़ी होगा और इसे चंद शब्दों में समझाया जा सकता है। राष्ट्रीयता एक सामाजिक भावना है। यह एकता की, समष्टिगत एहसास की भावना है जो इससे प्रभावित लोगों को यह महसूस कराती है कि वे आपस में एक-दूसरे के साथ एक रिश्ते में हैं। यह राष्ट्रीय भावना दोधारी भावना है। यह एक ही समय में अपने स्वजनों के लिए साहचर्य की भावना है और उन लोगों के लिए साहचर्य-विरोधी भावना है जो उनके परिजन नहीं हैं। यह ‘एक ख़ास क़िस्म की चेतना’ की भावना है जो एक ओर उन लोगों को एक साथ बाँधती है जिनके पास यह है, इतनी मज़बूती से कि यह आर्थिक संघर्षों या सामाजिक स्तरीकरण से पैदा होने वाले सभी मतभेदों को ख़त्म कर देती है और दूसरी ओर, उन्हें उन लोगों से अलग कर देती है जो उनके जैसे नहीं हैं। यह किसी अन्य समूह से जुड़े न होने की चाहत है। राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय भावना का कुल सार यही है।
अब ज़रा इस कसौटी पर मुसलमानों के दावे को परखें। क्या यह सच है या नहीं है कि भारत के मुसलमान एक विशेष समूह हैं? क्या यह सच है या नहीं है कि उनमें एक ख़ास क़िस्म की चेतना है? क्या यह सच है या नहीं है कि हर मुसलमान में यह चाहत होती है कि वह किसी ग़ैर-मुस्लिम जमात से नहीं बल्कि अपने ही जमात से जुड़ा हो?
अगर इन सवालों का जवाब हाँ में है, तो विवाद ख़त्म हो जाना चाहिए और मुसलमानों के एक राष्ट्र होने के दावे को बिना किसी हील-हवाले के मान लिया जाना चाहिए।
हिन्दुओं को जो दिखाना चाहिए वह यह है कि कुछ मतभेदों के बावजूद, हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच उन्हें एक राष्ट्र बनाने वाली या सरल भाषा में कहें तो मुसलमानों और हिन्दुओं को एक साथ रहने के लिए प्रेरित करने वाली पर्याप्त समानताएँ हैं।
मुसलमान ख़ुद में एक अलग राष्ट्र हैं, ऐसा मानने वाले मुसलमानों के नज़रिये से असहमति रखने वाले हिन्दू भारतीय सामाजिक जीवन की उन ख़ासियतों पर भरोसा करते हैं जो मुस्लिम और हिन्दू समाज के बीच एकीकरण का बन्धन बनाती हैं।
पहली बात तो यह कही जाती है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच नस्ली आधार पर कोई भेद नहीं है। पंजाबी मुसलमान और पंजाबी हिन्दू, यूपी के मुसलमान और यूपी के हिन्दू, बिहार के मुसलमान और बिहार के हिन्दू, बंगाल के मुसलमान और बंगाल के हिन्दू, मद्रास के मुसलमान और मद्रास के हिन्दू, और बम्बई के मुसलमान और बम्बई के हिन्दू नस्ली रूप से एक ही समूह हैं। दरअसल मद्रास के मुसलमान और मद्रास के ब्राह्मण के बीच, मद्रास के ब्राह्मण और पंजाब के ब्राह्मण की तुलना में अधिक नस्ली समानता है। दूसरी बात, हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच भाषायी एकता के तथ्य पर भरोसा किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि मुसलमानों की अपनी कोई आम भाषा नहीं है जो उन्हें हिन्दुओं से अलग एक भाषायी समूह के रूप में चिह्नित कर सके। इसके उलट, दोनों के बीच पूर्ण भाषायी एकता है। पंजाब में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही पंजाबी बोलते हैं। सिंध में दोनों सिंधी बोलते हैं। बंगाल में दोनों बंगाली बोलते हैं। गुजरात में दोनों गुजराती बोलते हैं। महाराष्ट्र में दोनों मराठी बोलते हैं। ऐसा हर सूबे में है। सिर्फ़ शहरों में ही मुसलमान उर्दू और हिन्दू उस सूबे की भाषा बोलते हैं। लेकिन इससे बाहर, मुफ़स्सिल में, हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच पूरी भाषायी एकता है। तीसरा, यह बताया गया है कि भारत वह भूमि है जहाँ हिन्दू और मुसलमान अब सदियों से एक साथ बसे हुए हैं। यह सिर्फ़ हिन्दुओं की ज़मीन नहीं है, न ही यह सिर्फ़ मुसलमानों की है।
न सिर्फ़ नस्ली एकता पर, बल्कि दोनों समुदायों के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन की कुछ साझा ख़ासियतों पर भी भरोसा किया जाता है। बताया गया है कि कई मुस्लिम समूहों का सामाजिक जीवन हिन्दू रीति-रिवाजों से भरा हुआ है। मसलन, पंजाब के अवन, हालाँकि वे लगभग सभी मुसलमान हैं, हिन्दू नामों को बनाए रखते हैं और अपनी वंशावली को ब्राह्मणवादी तरीक़े से रखते हैं। मुसलमानों में हिन्दू उपनाम पाए जाते हैं। मिसाल के तौर पर, चौधरी एक हिन्दू उपनाम है, लेकिन यूपी और उत्तरी भारत के मुसलमानों में आम है। शादी के मामले में मुसलमानों के कुछ समूह केवल नाम के मुसलमान हैं। वे या तो शादी समारोह की ख़ालिस हिन्दू रस्मों का पालन करते हैं, या पहले हिन्दू संस्कारों से समारोह करते हैं और फिर काज़ी को बुलाकर इसे मुस्लिम तरीक़े से करते हैं। मुसलमानों के कुछ वर्गों में, शादी, अभिभावक और विरासत के मामले में लागू क़ानून, हिन्दू क़ानून हैं। शरीअत अधिनियम पारित होने से पहले, पंजाब और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त में भी यही हक़ीक़त थी। सामाजिक क्षेत्र में जाति-व्यवस्था को मुस्लिम समाज का उतना ही हिस्सा माना जाता है जितना कि हिन्दू समाज का। धार्मिक क्षेत्र में, यह बताया गया है कि कई मुस्लिम पीरों के अनुयायी हिन्दू थे। और इसी तरह, कुछ हिन्दू योगियों के मुस्लिम चेले भी रहे हैं। नज़दीकी पंथों के संतों के बीच मित्रता के उदाहरणों पर भरोसा किया जाता है। पंजाब के गिरोट में दो संन्यासियों जमाल सुल्तान और दियाल भवन, जो उन्नीसवीं शताब्दी के शुरुआती दौर के दौरान घनिष्ठतापूर्वक रहते थे, के मक़बरे एक-दूसरे के क़रीब खड़े हैं और वे हिन्दुओं और मुसलमानों में समान रूप से पूजनीय हैं। बाबा फतु, एक मुस्लिम संत, जो लगभग 1700 ई. में रहते थे और जिनकी क़ब्र रानीताल में है, उन्होंने काँगड़ा ज़िले के एक हिन्दू संत सोढ़ी गुरु गुलाब सिंह के आशीर्वाद से पैगम्बर की उपाधि प्राप्त की। दूसरी तरफ़ बाबा शाहाना, जो एक हिन्दू संत थे और जिनका पंथ जंग ज़िले में पाया जाता है, के बारे में कहा जाता है कि वह एक मुस्लिम पीर के चेले थे, जिसने अपने हिन्दू अनुयायी का मूल नाम (मिहरा) बदलकर मीर शाह कर दिया था।
वाक़ई ये सारी बातें सच हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा उसी नस्ल का है जिससे हिन्दुओं का ताल्लुक़ है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सभी मुसलमान एक ही भाषा नहीं बोलते हैं कि उनमें कई लोग हिन्दुओं द्वारा बोली जाने वाली भाषा ही बोलते हैं। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि कुछ ऐसे सामाजिक रीति-रिवाज हैं जो दोनों समुदायों में साझे हैं। यह भी एक तथ्य है कि कुछ धार्मिक संस्कार और प्रथाएँ भी दोनों में समान हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये सारी बातें इस निष्कर्ष का समर्थन कर सकती हैं कि हिन्दू और मुसलमान उनकी वजह से एक राष्ट्र का निर्माण करते हैं या इन चीज़ों ने उनमें एक-दूसरे के लिए अपनेपन की चाहत पैदा की है?
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