डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर के विचार

महाराष्ट्र अंधविश्वास निर्मूलन समिति के संस्थापक-अध्यक्ष डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के मामले में आज पुणे की अदालत ने दो लोगों को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई है। एम. बी. बी. एस. की पढ़ाई कर चुके डॉ. दाभोलकर ने 1982 में अंधविश्वास के विरूद्ध लड़ाई की शुरुआत की और जीवन पर्यन्त अंधविश्वास उन्मूलन के लिए अभियान चलाया। 2013 में अज्ञात तत्वों द्वारा गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई। राजकमल ब्लॉग के इस विशेष अंक में पढ़ें, उनकी किताबों से कुछ खास अंश।

...

अज्ञान से लड़ना आसान होता है। ज्ञान के प्रकाश में वह नष्ट हो जाता है। अन्धविश्वास जटिल हो चुका अज्ञान होता है। उसमें व्यक्ति की भावनाओं का बल, परम्पराओं का सामर्थ्य होता है। उसे धार्मिक विचारों का पावित्र्य प्राप्त होता है। वह किसी की नजर में भले ही अन्धविश्वास हो, उस व्यक्ति या समाज में वह उनके अस्तित्व का ही हिस्सा होता है। 

किताब - अंधविश्वास की गुत्थी [पृ.सं. 12 ]

***

सभी धर्म प्रवर्तकों ने अच्छे आचरण का उपदेश दिया है। सच बोलना, हिंसा न करना, दया भाव रखना, प्रेम करना आदि नीति-नियम सामाजिक मूल्य वृद्धि करनेवाले हैं। इन नियमों की उपयोगिता तथा आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता परन्तु कई बार परिस्थिति अनपेक्षित तथा विशिष्ट होती है। नीति-नियमों में व्यवधान उत्पन्न करने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं रहता है। सत्य बोलना ठीक है परन्तु मरीज जब स्वयं के स्वास्थ्य के बारे में पूछता है तब सब सत्य बताना भी नुकसानदायी होने की सम्भावना होती है। घर में जहरीला साँप दिखाई देने पर अहिंसा का पालन उचित नहीं होता। इसी कारण कई बार नीति-नियम तथा प्रत्यक्ष आचरण का तालमेल कठिन होता है। इसलिए इन विसंगतियों का समाधान कर सभी उचित नीति कल्पनाओं को समाहित करनेवाले व्यापक तत्त्व की आवश्यकता है।

किताब - सोचिए तो सही [पृ.सं. 57 ]

***

वैज्ञानिक दृष्टिकोण नम्र होता है। अपना निष्कर्ष या अपने शब्द को वह कभी भी अंतिम सत्य नहीं मानता। धर्म हमेशा आज्ञा देता है कि ‘विश्व का राज मैं जान चुका हूँ, अब केवल मेरी आज्ञा का पालन करो।’ वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहता है कि वस्तु अथवा घटनाएँ जाँच ली जाएँ तथा अज्ञात तत्त्व की जाँच जारी रखी जाए। लेकिन साबित हुए सत्य के आधार पर ही आचार-विचारों का व्यवहार हो। शास्त्र के पूर्वग्रह अगर सत्य की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं, तो निर्भयता से उसे ठुकरा दो। उन्हें नष्ट होने का भय नहीं होता। कोई भी धर्म अथवा उसका प्रवक्ता इतना निर्भय नहीं होता।

किताब - अंधविश्वास उन्मूलन : विचार [पृ.सं. 35]

***

वैज्ञानिक दृष्टिकोण धारण करनेवाले व्यक्ति के नैतिक होने की संभावना अधिक होती है। इसका सीधा-सामान्य कारण यह होता है कि वह व्यक्ति अक्सर यही सोचता, व्यवहार करता देखा जाता है कि वह दूसरों के साथ वही व्यवहार करता रहे जिसकी उसे दूसरों से अपेक्षा रहती है। इस व्यवहार में निहित कार्य-कारण भाव से वह पूरी तरह से वाकिफ होता है और आश्वस्त भी। वही उसकी नैतिकता की नींव होती है। विवेकवादी व्यक्ति नीतिमान समाज निर्माण को तरजीह देता रहता है। यही कारण है कि वह ईश्वर और धर्म की संकल्पना का प्रयोग नीतिपूर्वक करनेवाले लोगों का सम्मान करता है।

किताब - अंधविश्वास उन्मूलन : आचार [पृ.सं. 12-13]

***

जब धर्म के रीति-रिवाज, रूढ़ि-परंपराओं, अंधविश्वासों पर हमला किया जाता है तब वह हमला धर्म पर हो गया है, ऐसा माना जाता है। यह हमला करनेवाले हिंदू धर्म के विरोधक हैं, ऐसा भी उन पर ठप्पा लगाया जाता है। उन्हें जनसामान्यों की भावनाएँ न समझनेवाले बुद्धिवादी करार दिया जाता है। इस गतिरोध को हटाने के लिए एक मार्ग लोकहितवादी रानडे और महात्मा फुले ने बताया था, वह धर्म-सुधार का था। मूर्तिपूजा, कर्मकांडों, उच्च-नीचता को बगल देकर उच्चतम धर्म की ओर विकास करने का यह मार्ग था। लोकहितवादी स्पष्ट करते हैं कि प्राचीन ग्रंथ रचयिताओं ने व्यवहार और धर्म की अलग-अलग किताबें नहीं लिखी हैं इसलिए व्यवहार और धर्म में भेद नहीं रहा है। लोग उथले धर्म और महान धर्म के अंतर को पहचानें। सत्य बोलना, दया करना, विद्या-प्राप्ति का सबको अधिकार होना आदि बातें धर्मनीति के साथ संबंध रखती हैं। यही परमधर्म है। इसे छोड़कर उथले-क्षुद्र धर्म का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। सारे धर्म अब लोगों के पैसों पर निर्भर होते जा रहे हैं। रुपए-पैसे के दान से पापक्षरण होता है। प्रायश्चित्त हो जाता है और ईश्वर प्रसन्न होता है। इस प्रकार का विश्लेषण ब्राह्मण किया करते हैं। लेकिन लोग यह पहचानें और याद रखें कि भूतदया, अहिंसा और मन की शुद्धता को बनाए रखना ही श्रेष्ठ धर्म है।

किताब - अंधविश्वास उन्मूलन : सिद्धान्त [पृ.सं. 113-114]

***

अनेक जातियों और अनेक धर्म-पन्थोंवाले भारत ने स्वतंत्रता संग्राम में अभूतपूर्व एकता दिखाई। जाति-धर्म के संकुचित विचारों से परे जाकर कन्धे से कन्धा मिलाकर इस देश का हर आम व्यक्ति स्वतंत्रता के लिए लड़ा। उसे धर्मनिरपेक्षता शब्द का अर्थ भी पता नहीं होगा लेकिन उसका व्यवहार वैसा ही था।

किताब - विचार से विवेक [पृ.सं. 107]

***

मानसिक गुलामी की सबसे बड़ी भयानकता यह है कि उस अवस्था में व्यक्ति की बुद्धि से प्रश्न पूछना तो दूर की बात है, व्यक्ति की बुद्धि, वैभव, निर्णय शक्ति, संपूर्ण विचार क्षमता ये सभी बातें चमत्कार के आगे रेहन पर रह जाती हैं। व्यक्ति दासता में चला जाता है और फिर परिवर्तन की लड़ाई अधिक कठिन हो जाती है।

किताब - विवेक की प्रतिबद्धता [पृ.सं. 27]

***

अन्धविश्वास का सबसे अधिक भयावह रूप तब सामने आता है जब वह बाकी आलोचनात्मक बुद्धि और विवेक । मनुष्य जन्मतः बहुत अधिक कमजोर मनुष्य की सबसे ताकतवर शक्ति का खात्मा कर देता है। वह शक्ति है मनुष्य प्राणी है, लेकिन वह ताकतवर तब बन जाता है या सबसे अलग उसको तब माना जाता है जब उसके पास आलोचनात्मक दृष्टि और विवेकवादी शक्ति होती है। अन्धविश्वास इस ताकत को ही सबसे पहले खत्म कर देता है। एकाध बात या विचार की जाँच-पड़ताल या विवेचन करते हुए समझदारी से नहीं स्वीकारने की अपेक्षा आँखें बन्द करके स्वीकारने की प्रवृत्ति प्रबल बन जाती है। इन स्थितियों में केवल लाचारी और दूसरों के आश्रय या शरण में जाने की वृत्ति बढ़ जाती है।

किताब - भ्रम और निरसन [पृ.सं. 45]

***

अंधविश्वासों के कारण समाज का कई स्तरों पर शोषण होता है। शोषण करने के लिए कई बाबा, महाराज, ज्योतिषी घात लगाये बैठे होते हैं। इसलिए अंधविश्वासों का उन्मूलन होना चाहिए। परंतु अंधविश्वासों का समूल उच्चाटन करने का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि अंधविश्वासी व्यक्ति अपनी बुद्धि और विचारशक्ति पर होनेवाली पकड़ को खो बैठता है। अपनी बुद्धि और विचारशक्ति को वह कहीं तो गिरवी रखता है। यह बहुत खतरनाक बात है। अपनी बुद्धि और विचारशक्ति को गिरवी रखना बहुत बड़ा अपराध है। यह मनुष्य द्वारा संपूर्ण मनुष्य जाति के लिए किया गया अपराध है क्योंकि मानव की मनुष्यता उसको प्रकृति द्वारा प्राप्त विचारशक्ति में समाहित है। अगर यह विचारशक्ति मनुष्य में न हो, अथवा उसने उसे गिरवी रखा हो, तो उसमें और पशु में कोई फर्क नहीं है।

किताब - जंग अंधविश्वासों की [पृ.सं. 246]

***

बाबाओं की असली सामर्थ्य लोगों की विवशता में है। शिक्षा पूरी हुई, किन्तु नौकरी मिलेगी या नहीं इसकी निश्चितता नहीं है। दहेज के बाजार में विवाह होगा या नहीं, इसको लेकर मन में डर है। गुंडे कभी भी घर पर हमला कर सकते हैं। जातीय तनाव बढ़कर कब घर के खाक होने का कारण बन जाएँगे इसका भरोसा नहीं। पूरा जीवन ही असुरक्षित बन गया है। यही असुरक्षिता, विवशता बाबाओं की सामर्थ्य है।

किताब - अंधविश्वास : प्रश्नचिह्न और पूर्णविराम [पृ.सं. 16]

***

विश्व ने फैसिज्म का विध्वंसक रूप देखा है। व्यवस्था परिवर्तन के बारे में नहीं बोलना, काल्पनिक शत्रु को खड़ा करना, मुक्ति का बहुत ही आसान दर्शन बताना, एक ही नेता के शब्द पर चलनेवाले संगठन का निर्माण करना, हिंसा का समर्थन करना, साधन साध्य की पवित्रता को बाधित करना, कुछ काल्पनिक सपनों की भूलभुलैया तैयार कर लोगों की बुद्धि को अपाहिज बनाना, ये फैसिज्म की विशेषताएँ है।

किताब - विवेकवादी डॉ. नरेंद्र दाभोलकर [पृ.सं. 76]

***

बीते डेढ़ सौ साल में विज्ञान ने जो उन्नति की है वह वर्णन से परे है। विज्ञान के विकास की यह तेज रफ्तार दाँतों तले उँगलिया दबा देती है। लेकिन दुर्भाग्य से समाज की विशेषता यह रही है कि विज्ञान का यह तेज प्रकाश भी उसके अन्धविश्वास का अन्धकार दूर नहीं कर सका है। कुछ साल पहले जो कुछ था वह स्वतंत्रता, शिक्षा, विज्ञान के प्रसार से दूर होगा ऐसा लग रहा था। लेकिन आज स्थिति विपरीत है। पाखंडी बाबाओं की संख्या अनगिनत हो चुकी है। उनका धंधा जोरों पर है। कर्मकांडों की भरमार हो चुकी है। उसमें ही सन्तोष माननेवाला अच्छा-खासा पढ़ा-लिखा (?) वर्ग है। वातानुकूलित कमरे में अत्याधुनिक संगणक की स्थापना, उस पर हलदी-कुमकुम अर्पित करना और सत्यनारायण के पूजा-पाठ की व्यवस्था करना यह आज के मनुष्य का आचरण है। इसका उसे ना खेद है ना एहसास। इस प्रकार के व्यवहार से शायद वह अपने आदिम पूर्वजों से गर्व से नाता जोड़ रहा है और कह रहा है, ‘गर्व से कहो हम अन्धविश्वासी है!’

किताब - आओ विवेकशील बनें [पृ.सं. 99]

***

आपको यह समझना चाहिए कि मेरे (प्रत्येक व्यक्ति) जीवन में जो भी घटित होता है, उसका कारण ईश्वर, नियति, नसीब, तकदीर, संचित, कर्मविपाक, पाप- पुण्य, जन्मतिथि नहीं है बल्कि कार्यकारण की वजह है जिसे मैं ढूँढ़ सकता हूँ और उसे बदल भी सकता हूँ।

किताब - विवेक की आवाज [पृ.सं. 26]

***

मनुष्य का शरीर जिस तरह बीमार होता है, वैसे ही उसका मन भी बीमार होता है। इसलिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसमें अपराधबोध या लघुता महसूस हो ऐसा कुछ भी नहीं, इसलिए मरीज को अपने आपको अपराधी मानना नहीं चाहिए। पारिवारिक तथा सामाजिक स्तर पर अपराधबोध की भावना कम हो इसके लिए मनोविकारों के संदर्भ में मरीज के रिश्तेदारों और समाज का हमेशा प्रबोधन करना जरूरी है।

किताब - मन-मन के सवाल [पृ.सं. 64]

***

हमारा सबसे बड़ा हथियार है हमारी विवेकशीलता या विचार करने की बुद्धि। अंधविश्वास में हम इसी शक्ति को खो बैठते हैं और किसी दीन-हीन की तरह नियति के, प्रारब्ध या संचित के पैरों में उसे डालते हैं। उर्दू का एक बड़ा अच्छा शेर है ‘खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले खुदा बंदे से पूछे, बता तेरी रजा क्या है?’ यानी खुद का आत्मविश्वास या हौसला इतना प्रबल होना चाहिए कि आपके भविष्य का हर एक अक्षर आपकी इच्छानुसार आपकी नियति लिखे। मतलब, अगर कोई दैव या नियति को मानता भी होगा, फिर भी सोच यही कि मेरा खुद का आत्मविश्वास और कर्तृत्व यही इस देश में अंतिम होना चाहिए।

किताब - विश्वास और अंधविश्वास [पृ.सं. 123]

 

[डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की पुस्तकें यहाँ से प्राप्त करें।]