मज़दूरों के माथों से छूटती हर बूँद को धरती पीती गई। निगलती गई एक-एक बूँद को... पर...। किसन सोचता रहा... पर पसीने की इन बूँदों के बदले में धरती जो दूसरी कीमती बूँदें उगलती रहती हैं, वे किसी दूसरे की मुट्ठियों को पहुँच जाती हैं। किसन पूछता है, “ऐसा क्यों?”
मजदूर दिवस पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, अभिमन्यु अनत के उपन्यास ‘लाल पसीना’ का एक अंश। यह उपन्यास उन भारतीय मजदूरों के जीवन संघर्ष की कहानी है, जिन्हें चालाक फ्रांसीसी और ब्रिटिश उपनिवेशवादी सोने का लालच देकर मॉरिशस ले जाते थे। इस उपन्यास की भूमिका नोबेल पुरस्कार पुरस्कार ज्याँ मेरी गुस्ताव लेक्लेज़ियो ने लिखी है। उन्होंने अपने ‘नोबेल वक्तव्य’ में तीन बार इसके फ्रेंच अनुवाद का उल्लेख विस्तार से किया था।
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बुढ़ापे से टूटा हुआ सूरज कमर पर जोर देते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। अभी दिन बीतने में आधा दिन बाक़ी था। अभी माटी मजदूरों के पसीने से भीगी नहीं थी। कटनी की विडम्बना। दिन दुगुना लम्बा लगता है। सूरज मज़दूरों की थकान की गठरी को सिर पर लिए चलता है। लम्बे दिन को गड़ाँसे से काटकर भी मज़दूर उसे छोटा नहीं कर पा रहे थे। उनके पसीने की ठंडक से गरमी धुल नहीं पा रही थी। अभी सूरज ठीक सिर के ऊपर था। अभी आधा दिन बाक़ी था, आधा दम भी बाक़ी था।
लँगड़वा साहब का अभी बग्घी से उतरना भी नहीं हुआ था कि उसके खेत में पहुँच आने की खबर कानाकानी इस छोर से उस छोर तक पहुँच गई। लम्बी छड़ की बड़ी-सी छतरी को दोनों हाथों से थामे मालगासी नौकर पगडंडी की छोटी-मोटी ठोकरें खाते हुए भी आँखों को छतरी और... साहब के सिर पर टिकाए चल रहा था। उसे अपने रास्ते और घायल अँगूठे से बहुत अधिक खयाल मालिक के सिर का रखना होता था। कुन्दन और किसन पगडंडी से सटकर एक ही मुँड़ेर के दोनों ओर से ईखों को काटे जा रहे थे। लँगड़वा साहब के इस आगमन का किसन पर कोई विशेष प्रभाव तो नहीं पड़ा। कुन्दन भी उसी की तरह बिलकुल न दहला हो, यह बात नहीं थी। बाक़ी सभी मजदूरों से कम डरकर भी वह भीतर-ही-भीतर जरूर ही काँपा था।
कुन्दन की बग़ल के दाऊद के पास रुककर लँगड़वा साहब ने जोर से सरदार को आवाज़ दी। उस चीख से पूरा खेत काँप गया। सरदार मुंडेरों को फाँदता हुआ सामने आ गया। कम्पन-भरे स्वर में उसने पूछा, “वही ग्रां मीस्ये!”
लँगड़वा साहब ने अपने हाथ की छड़ से दाऊद की ओर इशारा करते हुए कड़ककर फ्रेंच में कहा, “यह आदमी ईख को इतने ऊपर से क्यों काट रहा है?”
मालगासी सरदार ने कटे हुए गन्नों से एक गन्ना उठाया और दाऊद की पीठ पर दो जोरदार वार करने के बाद अस्पष्ट क्रिओली में चिल्लाकर कहा, “तीन इंच गन्ने अपने बाप के लिए छोड़ रहे हो क्या? अगर तुम्हारी कमर लकड़ी की है और काम को ढंग से करने के लिए झुक नहीं पाती तो काम पर क्यों आते हो?”
किसन एक पल के लिए ठिठका। अपने हाथ के कटे हुए गन्ने को पीछे की ओर फेंकते हुए एक छिपी नज़र से लँगड़वा साहब और सरदार दोनों की ओर देखा। कुन्दन ने दबे हुए स्वर में कुछ कहा और वह फिर से अपने काम में लग गया। लँगड़वा साहब ने अपनी आगे की चौड़ी चट्टान पर खड़े होकर एक बार चारों ओर देखा, फिर अपने सिर से टोप उतारकर हाथ के रूमाल से चेहरे के अकारण झलक आए पसीने को पोंछा। किसन की ओर देखा, फिर पसीने से लथपथ चट्टान से नीचे आकर आगे बढ़ गया। सरदार उसके पीछे हो लिया। उनके आगे चले जाने पर किसन ने दाऊद की ओर देखा। गठीले शरीर का दाऊद इस तरह काम में लगा रहा जैसे कि गन्ने के प्रहार का उसके शरीर पर कोई खास असर हुआ ही नहीं था। किसन ने मार की पीड़ा को कुन्दन के चेहरे पर देखा, अपने भीतर अनुभव किया और बग़ल से दूसरे सरदार को आते देख ईख काटने में लग गया।
आगे निकल गए लँगड़वा साहब के चिल्लाने की आवाज़ आती रही। उसके साथ-साथ बाँसों के कड़ाक कड़ाक टूटने की आवाज़ को भी वह सुनता रहा और सिर झुकाए अपनी खोज को ईखों के हवाले करता रहा।
“अभी तक पानी लेके कोई ना आया?” कुन्दन ने धीरे से पूछा।
कुन्दन के इस प्रश्न का कोई उत्तर दिए बिना किसन ने गाँव से आती हुई बगल की पगडंडी की ओर देखा। वह सुनसान थी। इस सुनसान लम्बी पगडंडी को देखकर किसन को अपना कंठ भी सूखा-सा लगा। उसके माथे से टपकती बूँदें चेहरे पर फैलकर अपने खारेपन को जीभ तक पहुँचा गई थीं। अपनी प्यास की जुगाली करता हुआ वह काम में लगा रहा। दोनों सरदारों के साथ लँगड़वा साहब के आगे निकल जाने के बाद उसने दाऊद की ओर देखा। आगे दोनों ओर से ईख कट जाने के कारण इमली के पेड़ तक का दृश्य साफ़ दिखाई पड़ रहा था। किसन ने जल्दी से छलाँग मारकर दाऊद के पास पहुँचते हुए कहा, “कुछ देर के लिए तुम उधर बैठ जाओ।”
अपनी सारी फुरती के साथ कोई तीन-चार गज तक गन्नों को काट चुकने के बाद जब उसने देखा कि दाऊद की क़तार भी बाक़ी लोगों तक पहुँच गई थी, तो फिर बिना कुछ कहे वह जल्दी से अपनी क़तार को लौट गया। अपने चेहरे के ताजे पसीने की ठंडक का अनुभव करते हुए वह फिर से अपने काम में जुट गया। आकाश पर बादल का कोई भी ऐसा टुकड़ा नहीं दिखाई पड़ रहा था जो क्षण-भर के लिए सूरज को ढाँपकर मजदूरों की थकान और अकुलाहट को जरा-सा कम कर जाता। कुन्दन ने दूसरी बार पानी की बात की। किसन ने दूसरी बार अपनी जीभ को होंठों से बहते हुए पसीने पर फेरा।
“कुन्दन चाचा!”
“क्या है किसन?”
“कल रात मैंने एक सपना देखा था।”
“मुझे तो वह भी नहीं दीखता।”
“सपनों का क्या मतलब होता है?”
“सपनों का भी कोई मतलब होता है?”
“होता तो होगा।”
“जिस तरह तुम्हारे इस पसीने का कोई मतलब नहीं होता, उसी तरह...।”
“पसीने का तो मतलब होता है।”
“क्या मतलब होता है?”
“अपनी हरियाली, फ़सल, ये सारी बातें तो पसीने से ही होती हैं।”
“लेकिन किसन बेटा, इन बातों का अधिक लाभ तो उन लोगों को होता है, जिनका पसीना तनिक भी नहीं बहता, जो बग्घी में आते हैं, पालकी में जाते हैं।”
“सपने तो सभी को बराबर आते होंगे चाचा?”
“बराबर काहे को? अरे, तुम्हारे सपने भी तो किसी और के हो जाते हैं।”
बग़ल से किसी ने बताया कि लँगड़वा साहब लौट रहा है। दोनों की बातचीत बन्द हो गई। सामने से गुज़रते हुए लँगड़वा साहब ने कर्कश स्वर में आसपास के सभी मजदूरों को सुनाते हुए कहा कि अगर आज यह पूरा खेत कटकर समाप्त नहीं होता है, तो सभी के आधे पैसे काट लिए जाएँगे। मजदूर उसे कनखियों से देखते रहे। वह बग्घी पर चढ़ा और दूसरे खेतों की ओर बढ़ गया। राहत की साँस किसी ने नहीं ली। वे दोनों सरदार हाथों में बाँस लिए हुए सामने थे। किसन ने धीमे स्वर में कहा, “चाचा कल रात का मेरा सपना बहुत ही लम्बा रहा होगा। पर सभी बातें याद नहीं आ रही हैं।”
“मैं जानता हूँ, तुम सुनाकर ही दम लोगे। सुना दे जो भी याद है।”
दूसरे खेत से किसी के चीत्कारने की आवाज़ आई। सुनना मना नहीं था, इसलिए सभी ने सुना। प्रतिक्रिया मना थी, इसलिए सुनी-अनसुनी करके लोग कामों में लगे रहे। किसन ने फुसफुसाहट-से स्वर में आगे कहा, “विनसहारा का सपना था।”
कुन्दन अपनी धुन में ईख काटे जा रहा था।
“चाचा तुम सुनो भी तो मैं सुनाऊँ।”
“सुन तो रहा हूँ।”
“गड़ाँसे चलाए जा रहे हो।”
“सुन भी तो रहा हूँ। तू बता तो सही।”
“एक खुले हुए मैदान में एक ओर सारे मालिक खड़े थे। उनकी बग्गियाँ थीं। बन्दूकें थामे कई सिपाही थे। बाँस थे। कुत्ते थे। उसी तरफ़ उनके पीछे उनकी बड़ी इमारतें थीं, कारखाने थे। और भी बहुत कुछ था उधर। दूसरी ओर हम थे। दो-तीन मजदूर निहत्थेपन की स्थिति में। बेबस सारी दयनीयता के साथ।”
उसके चुप होते ही कुन्दन ने पूछा, “और?”
“और कुछ नहीं!”
“यह भी कोई सपना हुआ।”
“हमारे हाथ में हमारी कुदाली भी नहीं थी। हमारे गड़ाँसे भी नहीं थे। हाँ... और भी कुछ था... वे लोग अपनी सभी चीज़ों के साथ हमारी ओर बढ़े आ रहे थे और हम बेबस अपने खाली हाथों के साथ पीछे को हटते जा रहे थे।”
“बिना सिर-पाँव का है तुम्हारा सपना।”
“वह भयानक था। इतना डर मुझे कभी नहीं लगा था।”
दाऊद फिर से पीछे छूटने लगा था।
सरदारों से आँख बचाकर कुन्दन ने कमर सीधी की। माथे के पसीने को आस्तीन से पोंछकर उसने पगडंडी की ओर देखा। वह अब भी सुनसान थी। अपने होंठों पर जीभ फेरकर कुन्दन शिथिलता के साथ गड़ाँसे को चलाता रहा। आगे की ओर सरदार की गालियों की बौछार होती रही। किसन ने अपने आगे से ईख के सूखे पत्तों को हटाते हुए कहा, “आज पानी नहीं पहुँचेगा चाचा!”
कुन्दन को कैद की चारदीवारी के भीतर की एक घटना याद आ गई। तीन दिन उसे बिना पानी के रखा गया था। चौथे दिन भी उसे पानी नहीं मिलता। वह विभीषण था जिसने चुपके से भीगा हुआ रूमाल कोठरी के भीतर फेंक दिया था। उसे अपने मुँह में निचोड़कर उसने तीन दिनों की प्यास बुझाई थी। वह प्यास कुछ भी रही हो, इस तरह की नहीं थी। उस समय वह तिलमिलाया नहीं था।
किसी दूसरे मज़दूर की जोरदार आवाज आई, “अभी तक पानी क्यों नहीं पहुँचा?”
“लाए कौन?” किसन ने पूछा।
“हरबसिया कहाँ है?”
“उसे रेमों साहब के यहाँ से छुट्टी मिले तब तो!” कई आँखें एकसाथ पगडंडी की ओर मुड़ीं। पगडंडी उसी तरह सुनसान थी।
“एक-दो मज़दूर चोरी-चुपके ईख चूसने लगे थे। यह जानकर भी कि रस की मिठास कुछ ही देर में उनकी प्यास को और भी बढ़ा जाएगी। ठीक सर के ऊपर का सूरज भी किसन को प्यासा-सा प्रतीत हुआ। पर उसके पीने के लिए तो मज़दूरों के शरीर में पसीना-ही-पसीना था। किसन को हँसी आ गई। सूरज पसीने को नहीं पीता। उसे अपने ठंडे हो जाने का डर रहता है। शायद यही कारण हो कि मजदूर भी अपने पसीने से अपने प्यास को नहीं बुझा पाता। पर यह परहेज़ धरती को नहीं था। मज़दूरों के माथों से छूटती हर बूँद को धरती पीती गई। निगलती गई एक-एक बूँद को... पर...। किसन सोचता रहा... पर पसीने की इन बूँदों के बदले में धरती जो दूसरी कीमती बूँदें उगलती रहती हैं, वे किसी दूसरे की मुट्ठियों को पहुँच जाती हैं। किसन पूछता है, “ऐसा क्यों?”
पगडंडी उसी तरह सुनसान पड़ी रही। ईख के पत्ते झूमते रहे।
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