महार जाति में पैदा होनेवाला आदमी इतना तेजस्वी हो सकता है, इस बात पर मुझे विश्वास ही न होता। उजला व्यक्तित्व, ऊँचा माथा। पूरे सूर में थे। सिर पर हैट भी। परन्तु उनका चेहरा बीमारी के कारण बहुत क्लान्त दिख रहा था। उन्हें पैरों में तकलीफ़ थी। चलते समय दूसरे लोगों की मदद लेनी पड़ती। एक बार कुलाबा में घूमते हुए मैंने देखा कि बाबासाहब धीरे-धीरे छड़ी के सहारे नीचे उतर रहे हैं। हम लड़के बाबासाहब को ऐसे देख रहे थे, जैसे कोई महान आश्चर्य देख रहे हों।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, मराठी के शीर्षस्थ दलित लेखक दया पवार के आत्मकथात्मक उपन्यास ‘अछूत’ से एक संस्मरणात्मक अंश।
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मैंने बाबासाहब को बहुत बचपन में देखा था। स्पष्ट याद न रहते। बोर्डिंग में जब था, तब ख़बर आती है कि बाबासाहब नासिक में आनेवाले हैं। वहाँ उनकी आम सभा थी। ख़बर सुनते ही रोमांचित होता हूँ। बाबासाहब के शब्द जीवन में एक बार तो सुनूँ, इस भावना में एक अजीब जोश था। कुछ लड़के साइकिल से नात्तिक के लिए निकल पड़ते हैं। मैं भी तैयारी करता हूँ। वैसे दूर तक साइकिल चलाने की आदत थी ही। चालीस-पैंतालीस मील की दूरी साइकिल से हम आसानी से तय कर लेते। शाम को ठहरने की समस्या थी। क़िस्मत बाग में दादासाहब गायकवाड का छात्राओं का छात्रावास था। हम हिचकते हुए वहाँ गए।
इससे पहले गायकवाड को कभी नहीं देखा था। सिर पर नीली टोपी, धोती, कोल्हापुरी चप्पलें, मोटे स्थूल शरीर पर कोट पहने हम उन्हें देखते हैं। अभी-अभी साइकिल से बाहर आए थे। साइकिल से नीचे उतरे ही थे। हम बोर्डिंग के लड़के हैं, यह जानकर उन्हें बड़ा अच्छा लगा। हमें आग्रह से खिलाते-पिलाते हैं। बोर्डिंग की लड़कियाँ चोरी-छिपे हमें देखती हैं। दादासाहब का उस समय का दर्शन नहीं भूल सकता। खुद झाडू लगा रहे थे। हमारे बैठने के लिए दरी बिछाते हैं। लड़कियों को परोसने में मदद करते हैं, ये सारे अविस्मरणीय दृश्य। इतनी बड़ी पार्टी का आदमी हमसे कितने अपनत्व से पेश आ रहा है, यह मीठा खयाल हमें श्रद्धा से सराबोर कर देता है।
रात में बाबासाहब नासिक आकर भी सभा में उपस्थित नहीं हो सके। सभा-स्थल पर लोग चींटियों से जमा हो गए। स्टेज पर कुछ बड़े नेता लोग। शान्तावाई दाणी माइक से सबको सूचना देती हैं, "बाबासाहब का स्वास्थ्य अचानक ख़राब हो जाने के कारण वे सभा में नहीं आ सकेंगे।" वे कहाँ ठहरे हैं, यह भी बताती हैं। हम लड़के बहुत निराश हो गए। बाबासाहब की आवाज, उनकी ओजस्वी वाणी, लाखों-करोड़ों को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करानेवाली बाकी अपने कानों में सँजोकर तथा उसकी प्रतिध्वनि उम्र-भर अपने भीतर रखने की इच्छा से ही मैं इतना लम्बा सफ़र तय कर आया था। पानी में ढेला गल जाए, कुछ ऐसी अवस्था थी। साइकिल खींचने से थकी पिंडलियाँ अब दुखने लगीं। अब आ ही गए तो बाबासाहब को देखकर ही जाने की इच्छा ज़ोर पकड़ने लगी। हम लड़के फिर लड़कियों के छात्रावास में आ गए। बड़ी मुश्किल से रात बिताई।
जिस बँगले में बाबासाहब रुके थे उसके आसपास हम मँडराने लगे। इतने में हममें से किसी ने बँगले के सामने लॉन पर कुर्सी डालकर बैठे बाबासाहब को देखा। उनके इशारा करते ही हम उस दिशा में बढ़े। सुबह की कोमल धूप में बाबासाहब बैठे थे। महार जाति में पैदा होनेवाला आदमी इतना तेजस्वी हो सकता है, इस बात पर मुझे विश्वास ही न होता। उजला व्यक्तित्व, ऊँचा माथा। पूरे सूर में थे। सिर पर हैट भी। रात में आए लोगों से वे मिल सकें, इसलिए वे वहाँ बैठे होंगे। परन्तु उनका चेहरा बीमारी के कारण बहुत क्लान्त दिख रहा था। उन्हें पैरों में तकलीफ़ थी। चलते समय दूसरे लोगों की मदद लेनी पड़ती।
बाद में बम्बई आने के बाद एक बार कुलाबा में घूमते हुए मैंने देखा कि बाबासाहब धीरे-धीरे छड़ी के सहारे नीचे उतर रहे हैं। साथ में माईसाहब थे। हम लड़के बाबासाहब को ऐसे देख रहे थे, जैसे कोई महान आश्चर्य देख रहे हों। इसी बीच कावाखाने का चन्दर एक कार्यकर्ता के साथ उनके घर गया। उन दिनों किसी ने भेगुबाई एंड कम्पनी के नाम से कोई बोगस कम्पनी खोली थी। हीरो या साइडहीरो बनने के लिए युवकों की क़तारें पैसे देकर खड़ी थीं। कामाठीपुरा के पार्टी-ऑफ़िस में ही घटना घटी। फिर अचानक ही यह कम्पनी लुप्त हो गई। सबके पैसे पानी में चले गए। इन लोगों की शिकायत लेकर यह कार्यकर्ता बाबासाहब के घर गया। लोग पार्टी-ऑफ़िस में पैसे भर रहे हैं, ऐसे कुछ फ़ोटो भी उसके पास थे। चन्दर से मालूम हुआ कि बाबासाहब बहुत भड़क गए थे। पार्टी के लोगों को सीधे गाली ही दी। साथ ही उस कार्यकर्ता को भी आड़े हाथों लिया। कार्यकर्ता मराठवाड़ा का था। "अरे, तू शहर में यह काम करता है? तुझे काम ही करना है तो मराठवाड़ा में जा। वहाँ अपने लोगों के बुरे हाल हैं। तेरी होशियारी का यहाँ क्या उपयोग?" बाबासाहब हमेशा कहते कि, "मैंने शहर के लोगों के लिए बहुत कुछ किया। परन्तु देहातों में मेरे लोग आज भी दुख-तकलीफ़ भोग रहे हैं।" यह कहते-कहते उनकी आँखों में पानी छलछला जाता।
बाबासाहब के फिर अन्तिम दर्शन हुए उनके अन्त समय में ही। सुबह मैं हमेशा की तरह अपने काम पर निकला। अखबारों के पहले पेज पर ही ख़बर छपी थी। घरती फटने-सा अहसास हुआ। इतना शोकाकुल हो गया, जैसे घर के किसी सदस्य की मृत्यु हुई हो। घर की चौखट पकड़कर रोने लगा। माँ को, पत्नी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं इस तरह पेपर पढ़ते ही क्यों रोने लगा! घर के लोगों को बताते ही सब रोने लगे। बाहर निकलकर देखता हूँ कि लोग जत्थों में बातें कर रहे हैं। बाबासाहब का निधन दिल्ली में हुआ था। शाम तक विमान से उनका शव आनेवाला था। नौकरी लगे दो-तीन महीने ही हुए होंगे। छुट्टी मंजूर करवाने वेटरनरी कॉलेज गया। अर्जी का कारण देखते ही साहब झल्लाए। बोले, "अरे, छुट्टी की अर्जी में यह कारण क्यों लिखता है? अम्बेडकर राजनीतिक नेता थे और तू एक सरकारी नौकर है। कुछ प्राइवेट कारण लिख।" वैसे मैं स्वभाव से बड़ा शान्त। परन्तु उस दिन अर्जी का कारण नहीं बदला। उलटे साहब को कहा, "साहब, वे हमारे घर के एक सदस्य ही थे। कितनी अँधेरी गुफ़ाओं से उन्होंने हमें बाहर निकाला, यह आपको क्यों मालूम होने लगा?" मेरी नौकरी का क्या होगा, छुट्टी मंजूर होगी या नहीं, इसकी चिन्ता किए बिना मैं राजगृह की ओर भागता हूँ। ज्यों बाढ़ आई हो, ठीक उसी तरह लोग राजगृह के मैदान में जमा हो रहे थे। इस दुर्घटना ने सारे महाराष्ट्र में खलबली मचा दी। लोग किसी भी उपलब्ध वाहन से बम्बई की दिशा में जा रहे थे। जाते समय किसी को टिकट खरीदने तक का होश नहीं था।
रात भर हम घर आए ही नहीं। राजगृह के सामने घास पर ही लेट गए। सुबह देखता हूँ, किसी महासागर की विशाल लहरों-सी लोगों की बाढ़ आती चली जा रही थी। सबको क़तार में दर्शन करना था। एक-दो घंटे क़तार में खड़े रहने के बाद बाबासाहब के दर्शन किए। वे ऐसे शान्त पड़े थे, जैसे गहरी नींद में हों। उनकी नाक में रुई के फाहे डाले गए थे। उनके चरणों पर लोग फूल-पत्तियाँ डाल रहे थे।
दोपहर को उनकी शवयात्रा निकली। ऊपर सूरज आग उगल रहा था और हम बोझिल मन से शवयात्रा में चींटी की चाल से आगे बढ़ रहे थे। एक ऊँचे पुल पर जाकर भीड़ के आगे-पीछे का अन्दाज़ लेता हूँ। बाँबी फूटने की तरह लोग। नज़र न ठहरती! बताते हैं, इससे पहले लोकमान्य तिलक की शवयात्रा में इतने लोग आए थे। परन्तु उस दिन लोगों के जो शोकाकुल मन देखे, वह कभी नहीं भूल सकता। अनेक स्त्री-पुरुष शोकाकुल हो अपने सिर पीट रहे थे...कइयों की आँखों में आँसू नहीं ठहर रहे थे।
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