बौद्ध धर्म, एक छद्य समाधान?
राजकमल ब्लॉग के इस अंक में पढ़ें, क्रिस्तोफ़ जाफ़्रलो की किताब 'भीमराव आंबेडकर : एक जीवनी' का अंश।

बौद्ध धर्म, एक छद्य समाधान?

बौद्ध धर्म को चुनने की आंबेडकर को दो वजहें दिखाई पड़ रही थीं एक तो बौद्ध धर्म का समतावादी दर्शन उन्हें आकर्षित करता था और दूसरी तरफ यह एक बीच-बीच का समाधान था जो उन्हें हिन्दू धर्म से पूरी तरह विच्छेद के आक्षेप से बचा लेता था। सनद रहे कि 1935-36 के आन्दोलन के समय भी सिख धर्म के निकट जाने की मुख्य वजह यही थी। बताया जाता है कि एक दफे उन्होंने गांधी जी से यह भी कहा था कि 'मैं अपने देश के लिए केवल सबसे कम हानिकारक मार्ग ही चुनूंगा।' और धर्मांतरण के एक दिन पहले उन्होंने कहा था 'और बुद्ध धर्म अपनाकर मैंने देश का सबसे बड़ा हित किया है, आख़िरकार बौद्ध धर्म तो भारतीय संस्कृति का ही अभिन्न अंग है। मैंने इस बात का ख़याल रखा है कि मेरे धर्मांतरण से इस भूभाग की संस्कृति और इतिहास की परम्परा को चोट न पहुँचे।"

यह बेचैनी उनके फ़ैसले के सीमित निहतार्थों को आंशिक रूप से स्पष्ट कर देती है। आंबेडकर का बौद्ध धर्म लगभग एक पन्थ की तरह हिन्दू धर्म के भीतर समेकित हो गया। जैसा कि हमने पीछे देखा है, अतीत में रह-रह कर विभिन्न पन्थ अस्पृश्यता के समाधान के रूप में सामने आए और हिन्दू धर्म के भीतर एक समतामूलक संस्था बन कर रह गए। मगर बौद्ध धर्म के इसी समाजशास्त्रीय आयाम ने आंबेडकर को सबसे ज्यादा आकर्षित किया। उनकी दृष्टि में यही वह धर्म था जिसने त्याग के दर्शन और फलतः सम्प्रदायवाद के विकास में एक पथप्रदर्शक भूमिका अदा की थी। नवधर्मांतरित अस्पृश्यों का बौद्ध धर्म भी एक सम्प्रदाय या पन्थ जैसा ही था क्योंकि इसमें आंबेडकर भी गुरु की भूमिका ही अदा कर रहे थे। 1956 के धर्मांतरण में वह बौद्ध अनुष्ठानों में अपनी मर्जी से संशोधन करते हुए एक पन्थ संस्थापक जैसे ही दिखाई देने लगते हैं। उन्होंने शास्त्रोक्त पद्धति से अपने धर्मांतरण के बाद अपनी पहल पर ख़ुद संकल्प तय किए, उनको खुद पढ़ा और तत्पश्चात अपने अनुयायियों को वे शपथें दिलवाईं। यहाँ तक कि भिक्कू की मध्यस्थता भी हाशिए पर ढकेल दी गई थी। इतना ही नहीं, न केवल महाराष्ट्र 88 में बल्कि उत्तर भारत के जाटवों में भी मृत्यु के बाद आंबेडकर को एक बोधिसत्व यानी बुद्ध के अवतार की तरह ही पूजा जाने लगा था। यही कारण है कि उन्हें अकसर केसरिया चोले में भी दर्शाया जाता है। धर्मांतरितों के बहुत सारे परिवार आज भी केवल आंबेडकर और बुद्ध की ही पूजा करते हैं और केवल उनकी जयंतियों को ही धार्मिक अवकाश के रूप में मनाते हैं।

यह धर्मांतरण आन्दोलन भले ही सीमित रहा हो मगर इसने आंबेडकर को समानता का अपना सन्देश फैलाने का बेमिसाल अवसर दे दिया था। यह बात बेबी कांबले के नीचे दिए गए संस्मरण से स्पष्ट हो जाती है :

जिस तरह अपनी चेतना को संघनित करके गौतम एक दिन बुद्ध बन गए थे उसी तरह अपने ज्ञान के लगनपूर्वक प्रयोग से भीम एक दिन बुद्ध बन गए थे। शक्ति, बुद्धि और बाबा (साहेब) आंबेडकर के सिद्धान्तों से हमें जीवन, उत्कृष्टता और अमरत्व प्राप्त हुआ है। बाबा के भाषण व्यक्तित्व, आत्मा की पवित्रता, न्याय और सत्यनिष्ठा के सन्देशों पर केन्द्रित होते थे। यही वह क्षण था जब हमने उनके भाषणों को समझना शुरू किया। मैंने भी इन सिद्धान्तों को अपनाने का संकल्प लिया और यह प्रण किया कि मैं अपने जीवन का उन्हीं के अनुसार निर्वाह करूँगी।

अस्पृश्यों में आत्मसम्मान का भाव पैदा करने के आंबेडकर के आह्वान को इसलिए और ज़्यादा स्वीकार्यता मिली क्योंकि वह इसके लिए आध्यात्मिकता की भाषा का प्रयोग कर रहे थे। 1956 में अपना धर्म परिवर्तित करने वाली एक महिला का कहना था कि वैसे तो उसके लिए अपने हिन्दू देवी-देवताओं को छोड़ना बहुत कठिन था मगर धर्म बदलते ही उसे ऐसा लगा मानो वह 'एक नई पहचान से दमक' रही है।" एक निरक्षर महार महिला के लिए ऐसे परिष्कृित शब्दों का चयन ग़ौरतलब है! एक और व्यक्ति के कथन से भी कुछ ऐसा ही पता चलता था बौद्ध धर्म ने अस्पृश्यों में एक नया स्वाभिमान पैदा किया है और पृथक पहचान का गहरा बोध दिया है। महार समुदाय से निकले बुद्धिजीवी, करात, भी कुछ ऐसा ही कहते हैं: 'मैंने बौद्ध धम्म अपना लिया है। अब मैं बौद्ध हूँ। अब मैं न तो महार हूँ, न ही अस्पृश्य हूँ और न ही हिन्दू हूँ। अब मैं सवर्ण हिन्दुओं के बराबर हूँ। न मैं निचली जाति में पैदा हुआ हूँ।'न ही अब मैं किसी से नीचे हूँ। 

पूना में कॉलेज जाने वाले 16-22 वर्ष के विद्यार्थियों के बीच 1964-65 में किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला कि 'धर्मांतरण के पश्चात 'भूतपूर्व अस्पृश्य न केवल ख़ुद को ज्यादा मूल्यवान मानने लगे हैं बल्कि दूसरों की नज़र में भी वे ऊपर उठ गए हैं।” उनका कहना था कि स्थानीय ब्राह्मण और गैर-बौद्ध ब्राह्मणों की नज़र में भी उनकी छवि पहले से ऊपर है।

इसी शहर में 30 साल बाद एक और सर्वेक्षण किया गया। इस सर्वेक्षण से पता चला कि बौद्ध महारों ने सामाजिक गतिशीलता के लिहाज से एक ज़बर्दस्त छलांग लगाई है। जिन 270 परिवारों का सर्वेक्षण किया गया उनके ज्यादातर मुखियाओं ने जोर दिया कि 'बौद्ध धर्म अपनाकर न केवल उन्होंने अपने दूषित अस्पृश्य अतीत से नाता तोड़ लिया है बल्कि उनमें एक नई शैक्षिक जागृति पैदा हुई है।" फलस्वरूप, जिन लोगों के साक्षत्कार लिए गए उनमें से केवल 11 प्रतिशत ही निरक्षर थे जबकि उनके पिताओं में से 79 प्रतिशत निरक्षर थे। उन पिताओं में से भी 63 प्रतिशत ग्रामीण थे जबकि जिनके साक्षात्कार लिए गए उनमें से कोई भी ग्रामीण नहीं था। उनमें से 50 प्रतिशत व्हाइट कॉलर नौकरियाँ कर रहे थे। इस तरक़्क़ी से महार बौद्धों को पुरानी जातिगत बाधाओं से पार निकलने में मदद मिली है। जिन लोगों के साक्षात्कार लिए गए उनमें से लगभग आधे लोगों ने बताया कि वे अब सामाजिक रूप से भी सवर्णों के साथ बेरोक-टोक उठते-बैठते हैं, उनके यहाँ शादी-ब्याह और दावतों में भी जाते हैं।

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