पुस्तक अंश : खड़े रहो गांधी

“थोड़ा एक झुके, थोड़ा दूसरा― यह गाँधीजी के लिए सिर्फ व्यावहारिक बुद्धि की माँग नहीं थी। उनकी तथाकथित समझौता परस्ती में यह गहरी नैतिक और दार्शनिक मान्यता निहित थी कि सारा सत्य सिर्फ मेरी बपौती नहीं है। मेरे प्रतिपक्षी के पास भी सत्य का एक पहलू है जिस के साथ समायोजन किया जाना चाहिए। गाँधीजी की एक-एक बात उचित ठहराने की न जरूरत है न इच्छा। आधी सदी तक फैले इतने सक्रिय सार्वजनिक जीवन में गाँधीजी ने कई विवादास्पद काम किए, लेकिन जब कोई समाज अपनी ऐतिहासिक विभूतियों का आकलन करता है तो समग्रता में। साथ ही इस बात का अनुमान करते हुए कि विभूति-विशेष के विचार और व्यवहार की दिशा क्या थी, उसके सरोकार क्या थे?”

महात्मा गाँधी की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, पुरुषोत्तम अग्रवाल की किताब ‘संस्कृति वर्चस्व और प्रतिरोध’ में संकलित लेख ‘खड़े रहो गाँधी’ का एक अंश। 

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गाँधीजी की ऐतिहासिक उपस्थिति का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि उन्होंने सिद्धांत और व्यवहार, दोनों में 'स्वयं' और 'अन्य' के बीच समाज के ऐसे बँटवारे का निषेध किया। उनका यह निषेध सिर्फ अपने ही समाज तक सीमित नहीं था। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष करते हुए भी ब्रिटिशों से घृणा न करना उनके लिए उतना ही स्वाभाविक था जितना कि उनके बहुत से समकालीनों के लिए अटपटा और अबोधगम्य। गाँधीजी जिस तरह हिंदू होने को मुसलमान के प्रति स्थायी शत्रुता से परिभाषित नहीं करते थे, उसी तरह से वे अछूत के प्रति अपने लगाव को भी सवर्णों के प्रति आक्रोश से परिभाषित नहीं कर सकते थे।

'पाप से घृणा लेकिन पापी से नहीं' के धार्मिक सूत्र का सार्वजनिक जीवन में विस्तार करने का अनवरत प्रयत्न गाँधीजी की सार्वजनिक सक्रियता का आधार था। इस प्रयत्न के गहरे अर्थ को समझना चाहिए। जो सवर्ण/साम्राज्यवादी/युद्धोन्मादी अत्याचार कर रहा है वह स्वयं एक सारतः अनैतिक समाज सत्ता और उससे बने संस्कारों का शिकार है। जरूरत समाज सत्ता को रूपान्तरित करने और संस्कारों का पुनर्गठन करने की है। गाँधीजी का एजेंडा शोषक और शोषित की भूमिकाओं की अदला-बदली कर देने का न होकर शोषण तन्त्र की ही समाप्ति करने का था और वे बहुत गहरे में जानते थे कि शोषण का तंत्र केवल स्थूल राजनीतिक और सामाजिक संस्थाओं के चलाए नहीं चलता, वह चलता है शोषक और शोषित, दोनों ही के द्वारा तंत्र के तर्क को आत्मसात कर लेने से। कल तक सवर्ण आक्रामक थे आज गैर सवर्ण आक्रामक हो जाएँ, इससे समाज में आक्रामकता की मूल समस्या कभी नहीं हल होने वाली। इसीलिए गाँधीजी का बल केवल सत्ता तंत्र को नहीं, मनुष्यों के भावतंत्र तक को बदलने पर था। इसी को वे अपनी भाषा में हृदय परिवर्तन कहते थे। हृदय परिवर्तन का धार्मिक और नैतिक आग्रह गाँधीजी के राजनीतिक व्यवहार में 'स्वयं' और 'अन्य' के मनमाने बँटवारे का निषेध करने वाला सर्वाधिक शक्तिशाली उपकरण बन जाता है। इसलिए ऐसे बँटवारे पर आधारित हर राजनीति को गाँधीजी पर कभी-न-कभी ऐन वक़्त वैसा ही गुस्सा आता रहा है जैसा कि इन दिनों कांशीराम और मायावती को आ रहा है। यह गुस्सा स्वाभाविक है क्योंकि ऐसी हर राजनीति समूचे इतिहास को सतत आरोप-प्रत्यारोप के सिलसिले में बदल डालना चाहती है ताकि वह आज के शोषितों का प्रतिनिधित्व करते हुए सत्ता पर अधिकार कर सके। स्वयं सत्ता का रूपांतरण किए बगैर। 

ऐसी स्थिति में सत्ता तंत्र सुरक्षित रहेगा। उसके शिकार वही रहेंगे, जो थे अर्थात् समाज के वंचित और साधारण लोग। केवल तंत्र का उपभोग करने वाले बदले जाएँगे। कल तक जो शोषितों का प्रतिनिधि होने के नाते सत्ता से बाहर थे, आज ऐन इसी नाते सत्ता पर काबिज होंगे और उसी प्रतिनिधित्व के नाते सत्ता का मनमाना उपयोग करेंगे।

सत्य, अहिंसा और हृदय परिवर्तन की अवधारणाओं के जरिए गाँधीजी ने समूची समाज सत्ता के इस विचित्र तंत्र की गहरी और खुली पड़ताल की गुंजाइश पैदा की। केवल सिद्धांत में नहीं बल्कि राजनीतिक व्यवहार में। अस्पृश्यता उन्मूलन को स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ने का आग्रह उनके इस साक्षात्कार का ही फल था कि विदेशी राजनीतिक सत्ता की समाप्ति और देशी समाज सत्ता का मानवीकरण परस्पर जुड़े हुए मुद्दे हैं। स्वयं और अन्य के विभाजन के परे जाने का प्रयत्न करती गाँधीजी की राजनीति के लिए अकल्पनीय था कि वह अन्य के विरुद्ध स्वयं की रक्षा के लिए 'तटस्थ' विदेशी सत्ता की उपस्थिति को अनिवार्य माने। इसलिए उनकी राजनीति में परस्पर विरोधी परिप्रेक्ष्यों के समायोजन का सतत प्रयत्न है। थोड़ा एक झुके, थोड़ा दूसरा― यह गाँधीजी के लिए सिर्फ व्यावहारिक बुद्धि की माँग नहीं थी। उनकी तथाकथित समझौता परस्ती में यह गहरी नैतिक और दार्शनिक मान्यता निहित थी कि सारा सत्य सिर्फ मेरी बपौती नहीं है। मेरे प्रतिपक्षी के पास भी सत्य का एक पहलू है जिस के साथ समायोजन किया जाना चाहिए। गाँधीजी की एक-एक बात उचित ठहराने की न जरूरत है न इच्छा। आधी सदी तक फैले इतने सक्रिय सार्वजनिक जीवन में गाँधीजी ने कई विवादास्पद काम किए, लेकिन जब कोई समाज अपनी ऐतिहासिक विभूतियों का आकलन करता है तो समग्रता में। साथ ही इस बात का अनुमान करते हुए कि विभूति-विशेष के विचार और व्यवहार की दिशा क्या थी, उसके सरोकार क्या थे?

इस लिहाज से देखें तो स्वाभाविक तो यह लगता है कि गाँधीजी की ऐतिहासिक स्थिति हमारी सामाजिक स्मृति में एक ऐसी प्रतीकात्मक उपस्थिति का रूप ले जिससे हम समाज सत्ता और साथ ही खुद अपनी नैतिक पड़ताल की प्रेरणा प्राप्त कर सकें। जिससे हम 'स्वयं' और 'अन्य' के विभाजन को नकारते हुए समग्र जीवन दृष्टि और व्यवहार के गतिशील सबक हासिल कर सकें। और सबसे बड़ी बात यह है कि जिससे इस समाज के वंचित हरिजन, स्त्रियाँ, अल्पसंख्यक और आदिवासी यह सीख लें कि उनका एजेंडा सिर्फ भूमिकाओं की अदला-बदली तक सीमित नहीं रहना चाहिए।

हुआ है एकदम उल्टा। गाँधीजी या तो असंभव 'आदर्श' के प्रतीक बन गए है या फिर मजबूरी के। सच तो यह है कि जिस समाज-सत्ता को गाँधीजी की राजनीति ने लगातार प्रश्नांकित किया, उसी समाज-सत्ता ने उन्हें लगभग पूरी तरह हथिया लिया है। जो व्यक्ति नोआखली में अकेला घूमता था उसे श्रद्धांजलि देने जाते हैं काली बिल्लियों से घिरे राजपुरुष। जो व्यक्ति 14-15 अगस्त की रात कलकत्ता के हैदरी हाउस में सो रहा था उसका बचाव करने उठते हैं वे, जो पद के लिए जाने कहाँ-कहाँ से गुजर जाने में सक्षम हैं। सवाल यह नहीं है कि मायावती क्या कह रही हैं। सवाल है कि लोग क्यों सुन रहे हैं? ध्यान में रखने की बात है कि आरोप-प्रत्यारोप के इस सिलसिले में गाँधीजी नामक ऐतिहासिक व्यक्ति से कहीं ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है― गाँधीजी की प्रतीकात्मक उपस्थिति जिसे हमारे समाज की सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक सत्ता ने केवल पूज्य प्रतिमा में बदल दिया है। 

 

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