गांधी : नायक या खलनायक?
ब्लॉग के इस अंक में पढ़ें, चन्द्रकान्त वानखेड़े की पुस्तक 'गांधी क्यों नहीं मरते!' का अंश 'गांधी: नायक या खलनायक?'

गांधी नाम का व्यक्ति अपने विरोधियों की आजादी पर कुठाराघात होने पर प्राणपण से लड़ता है, तो यह कोई अलग ही रसायन है, यह हमें समझ लेना चाहिए!

इस देश में किसी भी आदमी ने कोई भी फिलॉसफी बताई हो, खुद को जातिबंधनों से मुक्त किया हो, या जाति, धर्म के परे जाकर तत्त्वज्ञान बताया हो, विचारों के क्षेत्र में कितनी भी ऊँची कूद लगाई हो, पर जाति की बाउंड्री के बाहर उसे नहीं देखा जाता। अनुभव यही कहता है। शिवाजी सभी जातियों धर्मों के हैं पर अन्त में वे मराठा जाति के हैं। तिलक भी सिर्फ ब्राह्मणों के नेता रह जाते हैं। महात्मा फुले ने जाति-धर्म को खत्म करने के लिए सत्यशोधक धर्म का दर्शन रखा, पर अन्त में वे भी माली जाति के नेता रह जाते हैं। पर गांधी किसी एक जाति के नहीं हुए। किसी एक धर्म के भी नहीं। वे एक देश के भी नहीं रहे, वह वैश्विक हो गए।

गांधी पर खूब आरोप लगे। लोगों ने कहा कि वे चातुर्वर्ण्य मानते हैं, वे जातिवादी हैं, वे धर्म को मानते हैं, वे हिन्दुओं के नेता हैं, आदि। फिर ऐसा आदमी जात-पाँत, धर्म और देशों की सीमा लाँघकर वैश्विक कैसे हो गया? जाति, धर्म, देशों के बंधन में कैसे नहीं बँध पाया। एक देश के आन्दोलन का नेतृत्व करनेवाला अधिकतर उसी देश का पूज्य होता है। हमें यह बात समझ में आ सकती थी। पर वह तो एक देश तक सीमित नहीं रहा। उसे तो लगभग सभी देश पूज्य मानते हैं।

साधारण रूप से देखा जाए तो कहा जाता है कि बरगद के पेड़ के नीचे छोटे पौधों की बढ़त खत्म हो जाती है। गांधी के मामले में ऐसा नहीं हुआ। किसी भी महान व्यक्ति का नाम लें तो हम मुश्किल से उनके चार-पाँच अनुयायियों का नाम ले सकते हैं। पर गांधी के अनुयायियों का नाम लेने में ऐसी दिक्कत नहीं होती। सैकड़ों अनुयायियों के नाम हम बता सकते हैं। अलग-अलग क्षेत्र के।

तो सवाल उठता है कि क्या गांधी एक बड़ का वृक्ष था? स्वाभाविक-सा उत्तर आता है, वह बड़ का वृक्ष नहीं था। वह तो आकाश था। आकाश के नीचे वृक्षों की वृद्धि को क्या बंधन?

गांधी की सिखावन कुछ भी हो सर्वसामान्य जनता को उनकी हत्या से धक्का लगा। उसकी तीव्र प्रतिक्रिया भी हुई। गांधी की हत्या करने वाला कोई मुस्लिम होगा, शुरू में ऐसा भी लोगों को लगता रहा। पर बाद में वह भी स्पष्ट हुआ। उनकी हत्या करने वाला हिन्दू ही था। उसमें भी वह ब्राह्मण था । यह जानते ही लोगों में उस जाति के खिलाफ जनक्षोभ हुआ, इसमें आश्चर्य क्या है?

इस पागलपन में महाराष्ट्र में ब्राह्मणों के घर जलाए गए पर किसी की हत्या हुई या किसी स्त्री के साथ दुर्व्यवहार हुआ हो, ऐसा नहीं है। अगर वे जिन्दा होते तो उन्होंने लालनाथ के लिए जैसा उपवास किया वैसा ही वे तब भी करते।

गांधी की हत्या के बाद के उद्रेक में महाराष्ट्र में निरपराध ब्राह्मणों के घर जलाए गए। यह निश्चित ही गलत हुआ, जिसका समर्थन कोई गांधीप्रेमी नहीं करेगा। पर सवाल उठता है कि जिम्मेदार कौन? जिस निरपराध व्यक्ति की हत्या हुई वह या जिसने उसकी हत्या की वह? 'मुझे 125 वर्ष जीना है', यह कहने वाला गांधी, या 'तुम्हें इतने दिन जीने कौन देता है', उद्धततापूर्वक ऐसा कहने वाला नाथूराम? नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या की, यह नाथूराम की 'चॉइस' थी पर जिसकी हत्या हुई उस गांधी के सामने मरने के अलावा क्या विकल्प था? इसके बावजूद गांधी-हत्या के कारण ब्राह्मणों के घर जलाए जाने के लिए कोई नाथूराम को जिम्मेदार नहीं मानता! नाथूराम ने हत्या न की होती तो हमारे घर नहीं जलते, ऐसा कहने वाला कोई नहीं। पर गांधी की हत्या न हुई होती तो हमारे घर नहीं जलते, इसलिए दोषी गांधी हैं, ऐसा बोलकर इस गुनाह के लिए गांधी को ही जिम्मेदार मानने वाले असंख्य लोग मुझे दिखते हैं। यह असीम गांधी-द्वेष आखिर क्यों? इस प्रश्न का जवाब तो हमें देना ही पड़ेगा न?

जिन क्रान्तिकारियों के कन्धों पर बन्दूक रखकर हिन्दुत्ववादी और संघ के लोग हमेशा गांधी पर निशाना साधते रहते हैं वे क्रान्तिकारी, 'संघ' के लिए अछूत थे। उनकी छाँव भी इन पर नहीं पड़े, इसे लेकर संघ सदैव सजग रहता था। यह सतर्कता इसलिए कि ब्रिटिशों के 'गुड फेथ' में रहना है। हम क्रान्तिकारियों से मिलें और कहीं इसका पता ब्रिटिश सत्ताधारियों को चल गया तो हम बिना कारण 'ब्लैक लिस्टेड' हो जाएँगे। यही सोच उनकी रहती थी।

त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन में नेताजी अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने हुददार नाम के एक संघ-स्वयंसेवक से विनती की कि वह संघ प्रमुख हेडगेवार से उनकी भेंट करा दें। इसके लिए हुददार नेताजी के सचिव शहा को लेकर नासिक आए क्योंकि हेडगेवार उस समय नासिक में बाबासाहब रघाटे के घर पर रह रहे थे। हुददार आगे बोलते हैं-शहा बाहर रुके और में अन्दर गया। वहाँ डॉ. हेडगेवार का स्वयंसेवकों के साथ हँसी-ठहाका चल रहा था। मैंने विनती की तो स्वयंसेवक वहाँ से चले गए। मैंने हेडगेवार को अपने आने का उद्देश्य बताया। कहा कि नेताजी आपसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक हैं। वे किस कारण मिलना चाहते हैं यह मुझे उन्होंने नहीं बताया है, ऐसा भी मैंने उनसे कहा।

डॉ. हेडगेवार हुददार से बोलते हैं कि मैं बहुत बीमार हूँ इसलिए नासिक आया हूँ। हुददार उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं कि उन्हें ऊँचे पद पर मौजूद एक कांग्रेस नेता से मिलने का अवसर नहीं गँवाना चाहिए। फिर भी हेडगेवार, “मैं बीमार हूँ, मैं बीमार हूँ, मैं बात भी करने की स्थिति में नहीं हूँ", यही बात हुददार के सामने दोहराते रहे।

अन्त में हुददार उन्हें बहुत मनाते हैं और सुझाते हैं कि कम-से-कम मेरे साथ आए श्री शहा को आप अपनी दिक्कत बताएँ अन्यथा उन्हें लगेगा कि मैंने ही नेताजी की भेंट आपसे नहीं होने दी। इस सूचना के बाद हेडगेवार यह कहते हुए तुरत लेट जाते हैं- बालाजी मुझमें बोलने की भी ताकत नहीं। मैं बहुत बीमार हूँ। कृपया...

बालाजी हुददार कमरे से बाहर निकलते हैं तो उन्हें फिर से डॉ. हेडगेवार के कमरे से स्वयंसेवकों के साथ उनके हँसी-मजाक की आवाज सुनाई देने लगती है।

संघ प्रमुख डॉ. हेडगेवार के एक निकट के सहकारी थे श्री हातीवलेकर। इन्होंने 'अक्षर वैदर्भि' के 1991 के अंक में 'एक सहप्रवास - सावरकर-संघ मार्क्सवाद' पर लेख लिखा है। इसमें उन्होंने हुददार और नेताजी की तथाकथित भेंट के बारे में पुष्टि की है। नेताजी ने हुददार के मार्फत संघ से सहयोग लेने की आशा में अपने दूत को भेजा था, पर डॉ. हेडगेवार ने बीमारी का ढोंग करके उनसे मिलना टाल दिया। इसी बात की हातीवलेकर ने भी पुष्टि की।

संघ के कट्टर कार्यकर्ता व संघ अध्यक्ष के निकटवर्ती लोग इस घटना को बता रहे हैं इसलिए इसका ज्यादा महत्त्व है। श्री नानाजी पालकर संघ के निष्ठावान कार्यकर्ता । 'डॉ. हेडगेवार के जीवन के प्रेरक प्रसंग' पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि नेताजी ने डॉ. हेडगेवार से मिलने का प्रयास किया पर दोनों ही बार वह सफल नहीं हो पाए। हेडगेवार ने मिलना टाला, ऐसा उन्होंने नहीं लिखा, भेंट नहीं हो पाई, ऐसा कहा है। इसके बावजूद उनसे मिलने की कोशिश नेताजी ने ही दो बार की, यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है। यही काफी है।

संघ के लोग नेताजी से मिलने तक के लिए तैयार नहीं थे। और अब वही लोग गांधी कितने नीच थे और कपट करके उन्होंने उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटाया, ऐसी कथाएँ नमक मिर्च लगाकर प्रचारित करते हैं। इतना ही नहीं, गांधी और सुभाषचन्द्र के सम्बन्धों के बारे में अर्धसत्य, असत्य और तमाम अच्छी-बुरी कहानियाँ फुसफुसाहट के द्वारा बताई जाती हैं। इन कथाओं का मुख्य उद्देश्य गांधी के बारे में समाज के मन में द्वेष, तिरस्कार व घृणा का निर्माण करना है।

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