रंग याद है : मोहब्बत कहे मैं होली

मुझे अच्छी तरह याद है किसी मामा के एक दोस्त कार्बन पेपर सरीखा पेपर का बंडल लाये थे। गाढ़ा नीला। जिसे पानी से छुआते ही पक्का रंग हाथ में उतर आए। उस रंग को लगाने और उससे बचने में पूरा बरामदा युद्ध का अखाड़ा-सा बन गया। पिताजी को सब रंगना चाह रहे थे। ये देख मेरे छोटे भाई-बहन तो ये कहते हुए रो पड़े थे- “छोड़ दो हमारे डैडी को”। माँ के चेहरे पर रंग के साथ एक और पक्का रंग होता ख़ुशी और संतोष का कि आस-पास के सब लोग शामिल हुए और रंग खेला, पकवान खाये। 

‘रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में राजकमल ब्लॉग पर पढ़ें, प्रज्ञा की रंगयाद : “मोहब्बत कहे मैं होली”

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बचपन में होली के दिन घर में खासी रौनक रहती। एक दिन पहले दही बड़े और कुछ दिन पहले गुझिया की तैयारी कर ली जाती। गुझिया माँ ही बनातीं और बहुत कलात्मकता के साथ उसे बिना साँचे के गूँथतीं। इसी तरह दही बड़े की दाल सिलबट्टे पर पिता ही पीसते। हम तीनों भाई-बहन उनकी मदद के लिए छोटे-मोटे काम करने में तत्पर रहते। होली की सुबह होते ही सब अपनी तैयारी करते। माँ-पिताजी रसोई में काम करते और हम गुसलखाने में गुब्बारे भरते। पिताजी कई भूमिकाओं में रहते। एक पाँव रसोई में एक गुसलखाने में। तो कभी बाजार का चक्कर और फिर दस बजे तक तो घर मेहमानों से गुलजार हो जाता। अड़ोसी-पड़ोसी सब घर आ जाते। राणा प्रताप बाग के उस छोटे से घर में माँ-पिता का अर्जित किया वृहत्तर परिवार जुट जाता। खूब रंग जमता। पड़ोस के नाते हमारे कई मुँहबोले मामा-मौसी अपने दोस्तों को भी ले आया करते जो हम सब पर पक्के रंग लगा देते। उस मुझे अच्छी तरह याद है किसी मामा के एक दोस्त कार्बन पेपर सरीखा पेपर का बंडल लाये थे। गाढ़ा नीला। जिसे पानी से छुआते ही पक्का रंग हाथ में उतर आए। उस रंग को लगाने और उससे बचने में पूरा बरामदा युद्ध का अखाड़ा-सा बन गया। पिताजी को सब रंगना चाह रहे थे। ये देख मेरे छोटे भाई-बहन तो ये कहते हुए रो पड़े थे- “छोड़ दो हमारे डैडी को”। माँ के चेहरे पर रंग के साथ एक और पक्का रंग होता ख़ुशी और संतोष का कि आस-पास के सब लोग शामिल हुए और रंग खेला, पकवान खाये। दृश्य को देखकर लगता कि रंग लगाने के लिए कोई युद्ध छिड़ गया है।

ऐसे ही एक और होली की याद ताज़ा है दिमाग़ में। एक बार मौसी ने रंग न मिल पाने की निराशा और रंग मल देने की बैचैनी में रात को हाथों में लगाने से बच गयी मेंहदी ही माँ-पिताजी और हम पर मल दी थी। होली की ये भरपूर और जीवंत स्मृतियाँ आज भी होली का उत्साह बनाए हुए हैं। बड़े होने पर बेटी की होली के प्रति दीवानगी ने मुझे और राकेश को होली से जोड़े रखा है। घर में बच्चों का जमावड़ा और एक हफ़्ते पहले से लोगों को पानी में भिगोने का पागलपन अब भी जीवित है। पकवान बनाने से लेकर होली की उमंग में भींगना आज भी ज़िंदा है।

पिताजी हमेशा याद आते हैं जिन्हें होली बहुत पसंद थी। होली यानी उनके जन्म का माह-मार्च। इस साल फिर रंग होगा। आप सब भी इस रंग में रंग जाएँ। होली बहुत-बहुत मुबारक हो। फकत इतना और―

हिंसा कहे मैं हो, ली

नफरत कहे मैं हो, ली

इस आसमान और धरती के बीच

हरा-नीला-पीला-लाल

सबरंग खिलें–

फिर मोहब्बत कहे–

मैं होली।

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‘रंग याद है’ शृंखला की अगली कड़ी में पढ़ें, त्रिलोकनाथ पांडेय की रंगयाद : “भौजाइयों संग होली की याद”