श्रीकृष्ण जन्म की कथा

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, वीरेन्द्र सारंग के उपन्यास ‘जननायक कृष्ण’ का एक अंश जिसमें श्रीकृष्ण जन्म के प्रसंग का रोचक वर्णन है। 

***

आषाढ़ गरजकर मूसलाधार पानी उड़ेलकर चला गया। सावन भी अपनी फुहारी सामर्थ्य दिखाकर चला गया। इस बार न रोहिणी आई न मदिरा। वसुदेव सावनभर झींसी निहारते रह गए वातायन से। हवा की सिहरन से वे इस बार न कम्पित हुए, न बरसते जलधार से काम-सुख की इच्छा हुई। बस एक बाट जोहते रहे कि कब प्रसव पीड़ा की सूचना मिले ठीक समय पर। ..और अब भादों का महीना! गिनती में अब कोई दिन शेष नहीं— आज या कल! हर दिन प्रतीक्षा कि प्रसव पीड़ा हुई क्या?

और उधर कंस का कक्ष! न चाहने वाली स्थिति। कभी स्वप्न पूरी रात व्यर्थ कर देता तो कभी जागते हुए भी चेतना शून्य! क्या करें कंस? अब तो कोई औषधि भी कार्य नहीं करती। कभी सर्प समझ लेते किसी डोर को तो किसी प्रहरी को वसुदेव का व्यक्ति। वे कई तलवारें साथ लेकर विश्राम करते कि एक नहीं तो दूसरी काम आएगी ही। एक रात उन्होंने कई सिरहाने की रुई नोच-निकाल कर पूरे कक्ष में बिखेर दी थी, और बड़बड़ाते रहे— ‘देखता हूँ कौन बचाता है देवकी के पुत्र को। इस एक बालक से वृष्णि वंशियों की पीढ़ी रहेगी! अभी अपनी तलवार से सुख देता हूँ। लेकिन पूतना तो कह रही थी कि स्वादिष्ट खाद्य सामग्री पहुँचाई जा रही है कारागार में। कौन है? पता नहीं चला! अवश्य कोई मिला है। लोभ में है। कोई अनिष्ट हुआ तो किसी को नहीं छोड़ेंगा। वैसे मेरा प्रिय विश्वासपात्र धियानी गुप्त रूप से कार्य कर रहा है। उसने अपने लोग हर मोड़ पर लगा रखे हैं। कक्ष में कालीमाया तो हैं ही। प्रद्योत, केशी, सुनाम भी तो मेरे हैं। फिर है कौन?’

कंस कभी सुरा पीकर चेतना शून्य होते कभी रेखा और कनकलता को पूरी रात नृत्य करने को कहते। उनके आगे अस्ति और प्राप्ति की एक न चलती। कंस अपने विशेष कक्ष में बिना आज्ञा प्रवेश की अनुमति किसी को नहीं देते।

...कि सूप, दौरी, छतरी और नावें हैं तैयार। भादों के प्रथम पक्ष की सप्तमी की रात। रात अँधेरी। वातायन बन्द न हो तो कोई दीप वायु से लड़ न सके। और इस बार तो अपनी सामर्थ्य के आगे बरस रहे हैं बादल, जहाँ देखो वहीं पानी। वायु ने भी सोच रखा है कि देखूँ कौन जीत जाता है— मैं या पानी। कंस पूरी रात सो न सके। कभी मदिरा पीते कभी कनकलता से मटकने को कहते। एक भिन्न प्रकार की बेचैनी!

और कारागार में वसुदेव-देवकी। यहाँ भी भिन्नता है। कल की तरह आज की रात नहीं है।

‘मैं चैन से नहीं हूँ। पीठ के निचले भाग में हलकी पीड़ा हो रही है। कुछ संकुचन भी है।’ देवकी के सिर में पीड़ा भी हो रही है, दृष्टि में भी परिवर्तन है।

‘तुम तो अनुभवी हो। सम्भवत: प्रसव का समय आ गया है। लेकिन तुम इस बार बिल्कुल शान्त और तनावमुक्त रहो।’ 

‘मुझे भी लग रहा है कि प्रसव पीड़ा का प्रारम्भ होने वाली है।’

‘मैं पहले कालीमाया से कह दूँ। वे अपने लोगों को सूचित कर देंगी। यह सूचना शीघ्र अक्रूर के पास पहुँचनी चाहिए।’

‘आप शीघ्र जाइए। विलम्ब ठीक नहीं।’

वसुदेव ने कालीमाया और दंडक को सूचना दे दी। दंडक अपनी सूचना व्यवस्था में लग गया और कालीमाया अपनी दाइयों के साथ वसुदेव के कक्ष में। प्रसव पीड़ा की सूचना इतनी गोपनीय थी कि निकट के व्यक्ति को भी पता न चले। सब मुस्कराते हुए चुप हैं, और संकेतों में बातें भी हो रही हैं।

‘कभी शौच जाने की इच्छा हो रही है, कभी मूत्र त्यागने की। आज नींद भी नहीं आई।’ देवकी ने कालीमाया से कहा और भावुक हो गईं। उनकी मनोदशा में भी परिवर्तन दिख रहा है।

कालीमाया ने एक दाई को पेट सहलाने और दूसरी को सिर में अँगुली फेरने को कहा। पानी भी गरम हो रहा है। सभी के चेहरे पर प्रसन्नता है, जैसे विजय का भाव हो। यह मुस्कान देख देवकी के भीतर कुछ साहसी भाव खिल जाता है। कालीमाया ढाढ़स बंधाती हैं।

‘दूध और घृत तो है न?’ कालीमाया ने वसुदेव से पूछा।

‘हाँ है। क्या करूँ, दूध गरम कर दूँ?’

‘आप क्यों करेंगे, अब आप शान्त रहिए। दाई गरम करेगी। दूध में घृत मिलाकर पिला दूँ तो आराम मिलेगा। भोर होने के बाद जब सूर्य का उदय होगा तब तक जो स्थिति हो! हाँ हमें हर स्थिति में प्रसव की बात छिपानी ही होगी, जब तक अक्रूर जी का आदेश न हो। कोई सूचना-घोषणा नहीं होगी।’

वसुदेव इधर से उधर टहलने लगे। देवकी से ज्यादा मानो वे ही पीड़ित हों। वे डर रहे हैं कि कहीं कोई प्रहरी कंस को सूचित न कर दे!

‘सभी अपने हो गए हैं। आप बस देवकी जी को कोई कथा सुनाइए।’ गर्भाशय की ग्रीवा पर गीला पदार्थ आ गया है। यह देवकी जानती हैं या कालीमाया। वसुदेव को तो कथा सुनानी है— ‘अच्छा सुनो देवकी! एक कथा सुनाता हूँ कि एक था कृषक उसके पास बहुत सी गाएँ थीं, वह दुखी था कि गाएँ दूध कम गोबर अधिक करती हैं। वह खेतों में गोबर डालकर खेत को उर्वर बनाने लगा।’ 

‘मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। आप उस कक्ष में जाइए। मैं कालीमाया से बतियाऊँगी।’

वसुदेव चले गए।

भोर हो गया है। कौए ने काँव-काँव करना शुरू कर दिया है। कारागार की गाएँ अंगड़ाई ले रही हैं। कुत्ते सो गए हैं। वसुदेव की भी आँख लग गई है। सम्भवत: कंस भी आज दिन चढ़ने तक सोते रहे। एक तीव्रता लेकिन देखने में गति धीमी, बिना ध्वनि के बढ़ते पग। चुपचाप सारे उपकरण हो रहे प्रयोग। कोई किसी से बोल रहा है न दृष्टि गड़ाकर देख रहा है। जैसे सबके लिए कुछ न कुछ जरूरी हो। लगता है कि सब बहुत कुछ जानते हुए भी अनजान हैं— चाहे प्रहरी, चाहे सेवक या विश्वासघाती गुप्तचर।

अष्टमी का प्रात:काल सुखद है, और कभी भी पानी बरस सकता है। घनघोर बादल छाए हैं। पानी तो जैसे फूट पड़ा हो। कई वर्षों बाद ऐसी मूसलाधार बरसात! मार्ग पर बहती जलधार से किसी के आने-जाने की आहट छप छप से होती रहती। कहीं वृक्ष ढहे हैं तो कहीं छप्पर आँधा पड़ा है। कहीं गाएँ सिकुड़ी हैं तो कहीं भैंस मस्त पगुरा रही है, लेकिन उसे भी अच्छी नहीं लग रही है इतनी तेज होती बरसात! कभी-कभी जब पानी अधिक तेज हो जाता तो सामने का घर भी धुँधला दिखता, दूर तक श्वेत पानी की लम्बी चादर आसमान से धरती तक! और यह बरसात आज के दिन बहुत लाभकारी हो रही है। इसी बरसाती पानी के धुंधलके में बहुत से आवश्यक कार्य गुप्त रूप से होने हैं।

अक्रूर के चेहरे पर गहरी मुसकान है। दंडक कंस का व्यक्ति है, लेकिन वह भी चाहता है आठवीं सन्तान रहे इस संसार में और देखा जाए उसका रूप-रंग, उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा। अनमने मन से वह इधर-उधर दृष्टि फेर लेता है और चौकस रहने का अभिनय भी करता है। कालीमाया समझ गईं कि यह साथ है लेकिन उजागर होकर नहीं। ऐसे अनेक प्रहरी साथ हैं— भीतर ही भीतर।

‘यहाँ का क्या समाचार है कालीमाया ?’ अक्रूर ने पूछा।

‘यहाँ की चिन्ता न करें। सभी साथ हैं। इतनी धुआँधार बरसात में कोई नहीं आएगा। रत्नमाला, प्रद्योत, प्रलम्ब, केशी सब पानी का सुख ले रहे हैं। कहाँ मिलेगा इतना अच्छा भादों।’ कालीमाया बहुत प्रसन्न हैं।

‘एक सूप, एक दौरी ले आया हूँ। शिशु को उसमें छिपा कर वसुदेव को कक्ष से बाहर होना है। द्वार के पास ही मेरा एक व्यक्ति साथ हो जाएगा। उसके पास छतरी भी है। लेकिन अभी प्रसव में कितनी देर है?’

‘मैं समझ गई श्रेष्ठ।’

‘अरे प्रसव का समय तो बताओ!’ अक्रूर को शीघ्रता है।

‘कोई पल-पल की सूचना प्रसव हेतु बता सकता है भला! कहिए तो पेट-चीर का निकाल दूँ। फिर सिल दूँ देवकी का उदर। आप जाइए! जब सब तैयारी है तो घबराने की क्या बात। शीघ्रता से बात फूट जाएगी और कोई अनिष्ट हो जाएगा। लेकिन आज रात नहीं बीतेगी। पीड़ा बहुत अधिक है, दाइयाँ लगी हैं।’

अक्रूर आश्वस्त हो वापस चले गए। अब वे भागे नदी तट की ओर। अभी दूसरा पहर ही है, दिन के तीन पहर शेष हैं। उन्होंने देखा छतरी ओढ़े और छिपे हुए हर सहस्त्र पग पर एक उनका व्यक्ति। वृक्ष पर दिशा की ओर संकेत करता एक संकेत रूपी व्यक्ति का रेखाचित्र। ‘धन्य हो! क्या व्यवस्था है मेरी!’ अक्रूर के मुख से निकला, वे अपनी ही प्रशंसा करने लगे हैं। नदी के किनारे वाले वृक्ष पर नदी का संकेत और नाव का भी। अक्रूर किसी से बोले नहीं, नयनों से संकेत करते आगे बढ़ गए।

‘आप इतनी भाग-दौड़ क्यों कर रहे हैं भ्राता श्रेष्ठ?’

‘प्रसव कभी भी हो सकता है। मैं पूरी व्यवस्था भी देख आया हूँ। अरे भाई! यह प्रतिष्ठा ही नहीं, हम सब के प्राणों की भी बात है। बात फूट जाएगी तो हम सब बचेंगे क्या! आठवीं सन्तान के साथ हम सभी...।’

‘पूरी शक्ति झोंक देगा कंस हमारे ऊपर।’

‘शेष जी आवश्यक बात हो जाए। समय नहीं है। इसके बाद हम सलाह नहीं कर पाएँगे।’

‘जी।’ शेषनाथ कुछ देर ठहरे, फिर बोले— ‘नदी की ओर देखिए भ्राता। सात नावें हैं। पाँच तो दिख रही हैं। नावों पर छतरियाँ भी हैं और पत्थर के टुकड़े भी। लाठी में पत्थर बाँधकर गदा की तरह बनाया गया है, वह भी है। नाविक और रक्षक तैयार हैं। नदी के किनारे भी कई व्यक्ति अपने युद्ध उपकरणों के साथ आड़ लेकर बैठे हैं। नदी के उस पार नन्दराय, आचार्य गर्ग, सुनन्द जी और उनके कई विश्वासपात्र साथी छिपे बैठे हैं। नन्दराय के पास एक कन्या शिशु है। यह कन्या एक गोप स्त्री की है। वह सप्तमी को यानी कल पैदा हुई थी। मैं पूरी रात सोया नहीं हूँ। आप जाइए। मैं किसी को अपनी जगह बैठा कर एकाध पहर विश्राम करूँगा। पता नहीं आज रात भी जागना पड़े।’

अक्रूर क्या बोलें, वे भी तो सोये नहीं हैं— ‘मैं आश्वस्त हुआ शेष जी! एक बात मैं आपको बता दूँ कि आप भी मेरी ओर से निश्चिन्त रहें। आपको प्रसन्नता होगी कि देवों ने कुछ आर्यों को लेकर, उसमें कई नारद भी हैं, पूरे वसुदेव-कारागार को घेर लिया है। यह सूचना किसी को नहीं है, बस मैं जानता हूँ। और दूसरी बात, देवों की ओर से योगिनी ने रूप बदलकर वसुदेव के कक्ष में आना-जाना प्रारम्भ कर दिया है। उसकी कई सखियाँ भी लगी हैं— विजया, वैष्णवी, चन्द्रिका सभी आठवीं सन्तान की एक झलक देखना चाहती हैं। यह प्रचार का ही परिणाम है।’

‘बुद्धि रहेगी तो महाबली मूर्ख पर भी विजय पाई जा सकती है।’ शेषनाथ हँसे। ‘बस ध्यान यह देना है कि कोई हत्यारा छिपा बैठा न हो। हम प्रकृति से बच जाएँगे लेकिन घाती से नहीं।’

पानी कुछ देर के लिए बन्द हो चुका है। मार्ग पर पानी कम कीचड़ अधिक है। समय जैसे आज बीतने में देर कर रहा है। शीघ्र ही रात होती और देवकी गर्भ से छुटकारा पा लेती। लेकिन सोचने से कुछ होता नहीं ऐसे समय पर, इसका एक समय है जो समय पर हो जाता है।

अभी अष्टमी तिथि का दिन बीता है, रात नहीं। अक्रूर वसुदेव कक्ष के समीप ही है। पानी अभी-अभी बरसना शुरू हो गया है। लगता है प्रहरी जान गए हैं कि देवकी को प्रसव-पीड़ा हो रही है। कूँथ-कराह छिपाने के लिए एक दाई गीत गा रही है। वसुदेव तैयार बैठे हैं अपनी दौरी के साथ। एक लाठी भी सिर के बराबर की साथ में रख ली है, फिसलने से बचने के लिए।

पानी कह रहा है कि मैं ही हूँ आज यहाँ का स्वामी। विद्युत की चमक-गर्जन से क्षणभर का भय व्याप्त है। बीत गया है रात्रि का प्रथम पहर भी, और देवकी को घेर कर दाइयाँ बैठी हैं। कालीमाया की काया चंचल हो गई है। एक भिन्न प्रकार का वातावरण। हवा तेज है। दीप जलाए रखना कठिन हो रहा है। बाहर ओसारे में अलाव जल रहा है, वह भी किसी तरह। हवा से आग की लपटें लोट रही हैं, कभी नृत्य करती लग रही हैं। सबको कुछ न कुछ फुसफुसाने-बतियाने का मन कर रहा है।

‘कुछ न कुछ बोलती रह रेतुलिया।’ कालीमाया ने धीरे से डाँटते हुए कहा। ‘चल रे एक लय तू गा एक लय मैं गाऊँ।’ सुघरी बोली।

‘और गर्भ पर भी ध्यान रहे। नहीं तो पीटकर पीठ पर साँट उभार दूँगी।’ कालीमाया ने सचेत किया।

दुलारी, झरनी भी लय में लय मिला लेतीं लेकिन इनका पूरा ध्यान देवकी पर है।

प्रहरी समझते हैं कि आज मस्त हैं दाइयाँ। पानी बरस रहा है, यही कारण हो सकता है मस्ती का।

‘मन्कई! झरनी बड़ी मस्त है रे!’ एक प्रहरी बोला।

‘ए हमें तो दुलरिया अच्छी लगती है रे!’ गोगी ने ओठ काटते हुए कहा।

‘रैतुलिया क्या बुरी है?’ कलिका दूर खड़ा है, बोली सुनकर निकट ही आ रहा है। ‘हमें तो लगता है कि आज बच्चा हो जाएगा।’ मन्कई ने सन्देह उगल दिया।

‘चुप ससुर के! कोई सुन लेगा तो अनर्थ हो जाएगा। कलिका ने डाँटा— ‘हमें चुप ही रहना है। जो हो रहा है, हो। जब हमें कुछ संकेत मिलता है, तब हम आगे कुछ करेंगे, समझे अबूझदास!’

‘मैं नाटक अच्छा कर लेता हूँ।’ गोमा मुसकराया।

‘चुप-चुप!’ कलिका ने फिर डपट पिलाई और एक चपत पीठ पर भी धर दी। सबको पता है कि करना क्या है। सभी चाहते थे कि इतना सब हुआ, अब यह शिशु तो बच जाए। प्रहरी योजना नहीं जानते थे। बस उन्हें शान्त रहना है। लेकिन कुछ देखने कुछ बोलने की उत्सुकता सबको है।

‘यहाँ क्यों हैं देव? आप तो देव अक्षतानन्द है न?’ रणेन्द्र देव ने एक देव को वसुदेव के कक्ष में वातायन से झाँकते देखा तो कहा।

‘मैं तो देख रहा हूँ कि क्या हो रहा है भीतर।’

अक्षतानन्द ने पूछा, ‘तुम पुष्प लिये हो!’

‘हाँ पुष्प है और यह मेरा मित्र तरुण देव है। यह भी पुष्प के साथ है।’ रणेन्द्र की आँख अपने मित्र की ओर उठ गई।

‘चुपचाप खड़े रहो, नहीं तो और भी देव देवकी की इस सन्तान को देखने के लिए आ धमकेंगे। कंस को सूचना हो गई कि कारागार के पास देव हैं तो समझो क्या गत होगी हमारी!’

‘कंस चाहकर भी अब कुछ नहीं कर सकते। उन्हें अभी कोई सूचना देकर देख ले। इसी बरसते पानी में भागते आएँगे तो अवश्य, लेकिन अपने घुटने तुड़वा लेंगे। कहो कटि न टूट जाए।’

‘वह कैसे भाई?’

‘अरे उनकी मानसिक स्थिति नहीं देख रहे हैं! ऐसे पगलाए भागे आएँगे कि चेतना खो देंगे, भय भी तो साथ लगा रहेगा। कीचड़-पानी में बिछल नहीं जाएँगे!’

‘कहो मार्ग में ही हृदयगति न रुक जाए।’

‘हास छोड़ो चुपचाप देखो! शिशु होगा तो पुष्प वातायन से अर्पित कर देंगे।’ अक्षतानन्द ने चुप कराया। ‘हाँ, यह शिशु तो हमारे लिए गौरव है, इसका जीवित रहना ही हमारी जय है।’

कक्ष के बाहर चुप्पी छा गई। ध्वनि है तो पानी की, और है हवा की साँय-साँय। लेकिन चिन्ता है। एक प्रतीक्षा है। जो व्यवस्था सँभाले हैं उनसे पूछिए। क्या घट रहा है उनके मस्तिष्क में? एक छोटी-सी भूल भी दो कौड़ी का बना देगी। कंस कोई चिह्न शेष न छोड़ेंगे। और वे नहीं चाहते कि कहीं त्रुटि हो अनजाने से भी। आज की रात परिवर्तन की रात है। लेकिन इतना शीघ्र नहीं होता परिवर्तन। कंस जब तक जिएँगे, सुख-चैन से नहीं रहने देंगे विरोधियों को। लेकिन यह भी सत्य है कि यदि यह शिशु बच गया तो कंस की मानसिक पराजय होगी और विजय जनता की, जो वसुदेव की समर्थक है। अक्रूर को ज्ञात हो गया है कि भीखम नाम का एक प्रहरी कालीमाया का बहुत विश्वासी है, वही साथ रहेगा वसुदेव के, अन्त तक। उसे मार्ग का ज्ञान भी है। ओसारे में बैठे अक्रूर बोले— ‘आज की रात इसी कारागार के ओसारे में कटेगी क्या?’

‘पानी बन्द नहीं होगा तो घर जाएँगे कैसे?’ सात्यकि ने प्रहरियों को सुनाकर कहा, कि वे जान लें कि पानी बरसने के कारण हम फँस गए हैं।

‘चलो भाई आज कारागार की रात ही सही...।’ चित्रक ने गहरी साँस ली और प्रहरियों की ओर देखने लगे। प्रहरी तो जानते ही थे कि किसी प्रयोजन के कारण ही ये श्रेष्ठ यहाँ विराजमान हैं। और क्या है अभिप्राय लगभग सभी को पता है, और कंस के कठोर आदेश के बाद भी चुप हैं, दृष्टि घुमाए रहते हैं किसी अन्य दिशा में।

‘मेरी तो कल्पना में नहीं था ऐसी व्यवस्था हो जाएगी।’ 

‘जब चीजें सार्थक होती चलती हैं तो मार्ग बन ही जाता है।’

‘लोगों का स्वीकार भी होना चाहिए।’

‘सही है, अकेले आप क्या कर लेंगे!’

‘मिट्टी तो खोद ही लेंगे।’

‘बात गाय दुहने की नहीं है। व्यवस्था से लड़ने की है। हँसी नहीं है।’ ‘अरे थोड़ा मुस्करा भी लो भाई! सब अनुकूल है तो चिन्ता में रक्त क्यों जलाएँ?’

पानी आज बन्द नहीं होगा, उसे आँधी का साथ मिला है। विद्युत भी मित्रता निभा रही है। लगता है कि सभी आज की योजना में सम्मिलित होने के लिए आतुर हैं। और यमुना के तट पर शेषनाथ की बढ़ती चिन्ता कि रात का पहर दूसरा है और कोई सूचना नहीं। अब तक तो प्रसव हो जाना चाहिए। कहीं प्रसव में कठिनाई हो रही है क्या? कहीं सातवीं सन्तान जैसी स्थिति तो नहीं बन गई? लेकिन ऐसा कुछ सम्भव नहीं है, कालीमाया योग्य हैं और उनके साथ दाइयाँ भी प्रसव की विशेषज्ञता रखती हैं। कोई ऐसी बात होती तो वैद्य जी प्रारम्भ में ही बता देते। सबकी सार्थक दृष्टि में स्वस्थ गर्भ में पल रहा है बच्चा देवकी का। और अब अन्तिम क्षण में अनिष्ट होने का सन्देह क्यों हो रहा है? हो सकता है वसुदेव आ रहे हों। पानी-कीचड़ से विलम्ब तो होगा ही।

नावें तैयार हैं। तट पर लगी हैं। नाविक लम्बा-सा बाँस, जिसे वह लग्घा कहता है, लिए बैठा है। इसी लग्घे से वह नाव को तट से मुक्त करा देगा। दो नाविक पतवार थामे बैठे हैं। साथ में चलने वाली नावें भी चौकस हैं। बस देर है तो वसुदेव के आने की।

...और यह मध्य रात्रि! पानी और तेज हो गया। निकट के गाँवों से छप्पर या दीवार के ढहने की ध्वनि आ रही है— धाँय!

...और देवकी के कक्ष की हलचल बढ़ गई है। सभी दाइयों ने देवकी को घेर लिया है। वसुदेव अपने कक्ष में तैयार बैठे हैं। प्रहरियों को मानो कुछ ज्ञात ही नहीं, कान बन्द हैं सबके, मुँह से आवाज भी नहीं निकलती। विद्युत की चमक से पूरे कारागार में प्रकाश हो गया है, आँखें चौंधिया गई हैं। विद्युत गर्जना इतनी तेज कि जैसे कोई महल ढह गया हो।

‘शिशु का सिर बाहर आ रहा है।’ कालीमाया ने धीरे से कहा।

‘देवकी जी थोड़ा प्रयास कीजिए। बल लगाइए, नीचे की ओर गर्भ को ढकेलिए देवकी जी!... धीरज रखिए धीरज... बस थोड़ा और...।’, रैतुलिया, दुलारी, झरनी सब लगी थीं। पानी गरम हो रहा है। प्रसव के बाद के सभी उपकरण तैयार हैं।

और यह आठवीं सन्तान!

‘कालीमाया! पुत्र है! पुत्र!!’ रैतुलिया ने कालीमाया को बाँहों में भर लिया। सभी दाइयाँ नृत्य करने लगीं। शिशु के रोने से वसुदेव भी जान गए कि हो गई देवकी गर्भ से मुक्त। शिशु की प्रथम ध्वनि का स्वर इसी बरसते गरजते पानी-विद्युत में सभी ने सुना। विद्युत चमकी और वातायन से झाँक रहे देवताओं ने भी देखा।

‘दुलारी कितना मटक रही है।’ मन्कई ने धीरे से कहा।

‘चुप! सावधान ! बोलना मना है। सब जानते हुए भी महटियाना है। समझे उलूकदास!’ कालिका ने डाँटते हुए मना किया।

कालीमाया ने प्रहरियों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। वह जानती थी कि भीखम तैयार है और सभी मौन रहकर अपने कार्य में लगे हैं।

‘यहाँ क्या नाच रही है बुजरी! चल शिशु को स्वच्छ कर!... अरे तू का थिरक रही है चूतड़ उठाय के! चल नार काट!... मुँह अँगुली से स्वच्छ किया! इस वस्त्र से पोंछ ठीक से।’ कालीमाया के पाँव भूमि पर नहीं हैं, प्रसन्नता अड़ाती नहीं!

‘पोंछ तो दी हूँ!’ दुलारी बोली।

‘अरे ठीक से स्वच्छ कर सुघरी और शीघ्र... अति शीघ्र।’ कालीमाया में विद्युत सी चपलता आ गई है, और शिशु स्वच्छ हो रहा है।

वातायन से देवता झाँक रहे हैं। एक झलक देख लेने की उत्सुकता है। अक्षतानन्द ने देखा कि उनके पीछे कई देवता खड़े हैं। सभी पुष्प लिए हैं। अक्षतानन्द ने संकेतों से ही कह दिया कि ‘इसी वातायन से पुष्प अर्पित कर अन्तर्धान होइए और अपने कार्य में लग जाइए!’ कालीमाया ने देखा कि पुष्प वातायन से आ रहे हैं। वे मुस्कुराई। विजय का शुभ संकेत! और उत्साह की पराकाष्ठा! अब कोई अवरोध भी गतिभंग नहीं कर सकता।

योगिनी, विजया, वैष्णवी, चन्द्रिका भी कक्ष में हैं। वे प्रसव के विषय में जानती नहीं हैं। लेकिन प्रहरियों का ध्यान हटा रही हैं। और प्रहरी नयन सुख ले रहे हैं। इतनी सुन्दर और सौष्ठव युक्त स्त्रियाँ भला वे कहाँ देख पाते। देव-स्त्रियों के चंचल चितवन, लचकती कटि, ठोस कुच, स्फुटित ओष्ठ, खुले केश, गौरवर्ण इस मूसलधार बरसात को भी पराजित कर काम-सुख को जैसे आमंत्रित कर रहे हों। प्रहरी मन-ही-मन सौन्दर्य-सुख से भीग रहे हैं।

‘अरे उधर कहाँ जा रहे हैं। दौरी इधर लाइए शीघ्र!’ कालीमाया ने वसुदेव को भी डाँटते हुए ही कहा।

‘जी माया!’ वसुदेव के पास शब्द हैं न चेत! बस ऐसे ही हाथ-पैर कार्य कर रहे हैं, जैसे वे किसी अन्य के आदेशों से बंध गए हों।

शिशु को सबने देखा! स्वस्थ और साँवला! मुख पर तेज, एक लुभावनी आभा! वसुदेव के सिर पर दौरी! उसमें शिशु वस्त्रों से आधा ढका हुआ। भीखम साथ में है। प्रहरियों ने नाटक शुरू कर दिया है।

‘सो जा मन्कई!’ कालिका ने कहा और मन्कई सो गया भूमि पर। गोगी ने देखा कि कालिका सो रहे हैं, वह भी लुढ़क गया। देखा-देखी सब नींद में होने का अभिनय करने लगे। चारों ओर चुप्पी छा गई। पानी की बरसती जलधार भी मद्धिम हो चुकी है।

कालिका ने मन-ही-मन हाथ जोड़ लिए कि जाइए वसुदेव जी, आज आपके भविष्य की परीक्षा है। कालीमाया हाथ जोड़े देर तक मुस्कराती रहीं। अभी उनके हाथ भीगे ही हैं। सभी दाइयाँ और योगिनी की सखियाँ भी अभिवादन करती शुभ होने की इच्छा कर रही हैं।

भीखम ने द्वार खोल दिया। वसुदेव एक हाथ में दंड लिए, दूसरे हाथ से दौरी सँभाले कारागार से बाहर आ गए।

पाँव की गति तेज हो गई। पानी बन्द हो चुका था, फिर भी भीखम ने छतरी शिशु के ऊपर तान दी है। ‘शीघ्र श्रेष्ठ शीघ्र...।’ भीखम बोलता जाता। कुछ ही दूर पर रथ खड़ा था। घोड़े भीगे थे, लेकिन किसी व्यक्ति से तेज तो चल सकते थे।

रथ आगे बढ़ गया।

‘लीजिए श्रेष्ठ यमुना का तट आ गया।’ रथ हाँकने वाले ने रथ रोक दिया। रथ देखते ही शेष दौड़े आए— ‘इतना विलम्ब! शीघ्र बैठें नाव में वसुदेव जी!’ शेष की घबराहट स्पष्ट हो रही है। चिन्ता थी कि भोर न हो जाए। शेष भीखम को यहीं ठहरने को कह कर नदी के जल में उतर गए। कई नावों ने तुरन्त वसुदेव की नाव को घेर लिया।

पानी फिर बरसने लगा। हवा भी थोड़ी-बहुत झुरुकने लगी। नदी में थोड़ी-सी बहती हवा भी लहर-भय पैदा करती है। शेषनाथ दौरी के ऊपर छतरी तानकर शिशु को हवा-पानी से बचा रहे हैं। वसुदेव विश्वास भरी दृष्टि से शेषनाथ को निहार रहे हैं— ‘कैसे उतारूंगा यह ऋण शेष!’ वसुदेव ने मन-ही-मन कहा और यमुना की लहरों का अभिवादन करने लगे कि हे लहर माई शान्त! शिशु को उतार लूँ उस पार तब भले मुझे अपनी बाँहों में लपेट मेरे प्राण हर लेना, लेकिन यह शिशु तो सबका है। वसुदेव निर्जीव वस्तुओं को भी प्राणवान मानकर बतियाने लगते। मार्ग में जो वृक्ष खड़े हैं, उन्हें लगा कि ये प्रहरी हैं हमारे। और यह वायु तो मेरी सहोदर अनुजा है। यह यमुना मेरी माई है, ये क्यों नहीं साथ देगी। इस भूमि का कण-कण प्राणवान है, मूर्तिमान है।

...और यह रहा गोकुल का तट। हरा-भरा क्षेत्र कि देखते बनती है प्रकृति की सुन्दरता, जैसे सभी वनस्पतियाँ मुस्करा रही हों, और गाएँ बतिया रही हों। यमुना के तट पर खड़े हैं छतरी ताने नन्दराय, सुनन्द, एक गोपिका, आचार्य गर्ग और कई गोप। बैलगाड़ियाँ तैयार हैं। कालिया से निपटने के लिए लाठी से युक्त गोपों की प्रसन्नता भादों के अँधेरे में भी स्पष्ट हो रही है। वसुदेव ने नन्दराय के हाथ से एक कन्या शिशु को प्राप्त कर लिया, वह भी दौरी में ही थी। वसुदेव के पुत्र को गोपिका ने गोद में भर लिया, वह तुरन्त अपना स्तन शिशु के मुख में लगाने लगी। ‘तुम सिसक क्यों रही हो?’ गोपिका को रोते देख नन्द बोले।

गोपिका ने कुछ नहीं कहा। नन्दराय फिर बोले— ‘तुम चिन्ता न करो तुम्हारी पुत्री जीवित रहेगी। पूरी योजना तैयार है। कंस मार न सकेगा।’

बैलगाड़ियाँ चल पड़ी, और वसुदेव भी पुन: मथुरा के तट की ओर नाव में बैठ गए। एक दृष्टि गोकुल की ओर, दूसरी मथुरा की ओर। यमुना की तेज जलधारा अपनी प्राकृतिक गति से प्रवाहित अपनी दिशा की ओर... लहरें! और पीछे से आती कई लहरें!!

 

[श्रीकृष्ण से जुड़ी पुस्तकें यहाँ से प्राप्त करें।]