मैं जनक नंदिनी
राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, आशा प्रभात के उपन्यास 'मैं जनक नंदिनी' का एक अंश। इस उपन्यास में सीता जी के जीवन और विचारों को मानवीय दृष्टि से समझने की कोशिश की गई है...

कैसी अशुभ सायत थी। कैसा अमंगलकारी संयोग था जिसने हरण कर लिया था मेरा विवेक। असंभव सुनहरे मृग को पालने का शौक प्रबल हुआ था मन में। कैसे पहचान न सकी छल-कपट को। विषम स्थितियों पर ध्यान नहीं किया। आगत का इशारा समझने में कैसे अक्षम रही। कुछ काल पूर्व ही तो घटित हुई थीं कितनी घटनाएँ...जिसे कभी किसी जीव का बंधन में होना अभीष्ट न रहा...कैसे मचल उठी मैं उस मृग के लिए। कैसे न समझ पाई राम के नेत्रें की अर्थपूर्ण भाषा। राम भी क्यों मौन रह गए मेरे हठ पर? क्यों नहीं डाँटा मुझे? मेरे नादान हठ पर सहज चले गए मृग के पीछे। संभव था उनकी डाँट-फटकार पर मुझे पीड़ा होती कुछ दिनों किंतु यह दारुण स्थिति तो न होती मेरी।

आह...कैसे इतना निष्ठुर वचन कह सकी प्रिय लक्ष्मण को? मेरे कुबोल से निकले बेबसी के उनके अश्रु से भी द्रवित नहीं हुआ मेरा हृदय। उनके मुख के करुण भाव भी नहीं सचेत कर सके मुझे। क्या यह मेरे विनाश का पूर्व नियोजित विधान ही था? पुत्र समान देवर पर लांछन लगाते भी जिह्ना कट नहीं गई मेरी। किस प्रकार ज्ञात होगी दोनों भाइयों को मेरी स्थिति? घायल वृद्ध जटायु के प्राण राम को समस्त स्थितियों से अवगत कराने तक क्या उनके शरीर में अटके रहेंगे? मेरा भाग्य प्रबल होगा तो संभवतः ऐसा संभव हो जाए। वे आभूषण भी मेरी स्थिति का द्योतक हो सकते हैं यदि राम वहाँ तक पहुँचेंगे। हा राम! जाने क्या गति होने वाली है मेरी? इस पराई भूमि, कामासक्त राक्षस की अधीनता में कब तक बचे रहेंगे मेरे प्राण? पुनः देख भी पाऊँगी आपको या नहीं?

उठिए देवी, रात्रि अधिक हो गई है, महल में चलिए। शैया पर विश्राम कीजिए। नम्र स्वर आत्मीयतापूर्ण शब्द सम्मुख उभरे। नेत्र उठाकर देखा। एक युवा राक्षसी खड़ी थी।

कहीं नहीं जाना मुझे। पराए महल में जाने से अच्छा मृत्यु का वरण समझूँगी।

रोष मत कीजिए देवी! वृक्ष तले विषैले जंतु आपको हानि पहुँचा सकते हैं। यहाँ प्रकाश की उचित व्यवस्था भी नहीं। भवन से आते क्षीण प्रकाश में रात व्यतीत करना कठिन होगा।

तुम्हें मेरी इतनी चिंता क्यों हो रही है? अपने अन्नदाता की शत्रु पर यह दया क्यों? यह भी प्रपंच का कोई अंग तो नहीं? पूछना चाहा। इच्छा नहीं हुई। पूछकर भी क्या होना है। जीव-जंतु क्या हानि पहुँचाएँगे इतनी सतर्क प्रहरियों के रहते। वे क्या मरने देंगी मुझे? मेरी मृत्यु का अर्थ होगा उनकी मृत्यु। मैंने सोचा।

महल में तो मैं किसी विधि नहीं जाऊँगी, संभव हो तो एक चटाई ले आओ।

वह तुरंत चटाई ले आई। एक सघन अशोक वृक्ष तले धरती स्वच्छ कर उसे बिछाती हुई बोली ‘‘देवी सीता! मेरा नाम सुभगा है। आपकी सेवा में मैं तैनात हूँ। मुझे चिंता हो रही...भूमि पर क्यों शयन करना चाह रही हैं आप?

यह तुम नहीं समझोगी। कुछ ज्ञात भी तो नहीं तुम्हें मेरे विषय में।

मात्र इतना ज्ञात है कि आपके पति और देवर ने महाराज लंकेश की बहन शूर्पणखा का रूप विकृत कर उनका घोर अपमान किया था, जिसके फलस्वरूप आपके पति का मान मर्दन करने हेतु वे आप को उठा लाए हैं।

बेचारी सुभगा अपने पालक की मात्र जिह्ना या बाजू ये दासियाँ राज भवन की समस्त योजना या मंतव्यों से भिज्ञ कहाँ होती हैं। उसके कहे को दुहराने और क्रिया रूप देने वाली इस बेवश दासी पर रोष करना अनुचित होगा, जिसका व्यवहार अनुचित नहीं है मेरे साथ।

चटाई पर लेट गई मैं। घोर द्वंद्व छिड़े मस्तिष्क के समक्ष निद्रा भी लौट जाती रही पलकों के द्वार से। इस संताप का कोई अंत दिख नहीं रहा था। आस की न कोई किरण न कोई सिरा। समस्त रात्रि निकट ही कहीं दहाड़ता रहा सागर...अपने पुरजोर में। कदाचित यह वाटिका प्राचीरों से आवेष्टित है तभी तो समुद्र प्राचीरों पर प्रहार कर लौट जा रहा...क्यों नहीं वह अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर बढ़ आता यहाँ? क्यों नहीं समेट लेता अपनी गोद में मुझे? तब न जीवनोत्सर्ग का पाप लगता, न जीवित रहकर इस दुष्ट का त्रस सहना पड़ता।

पूर्व क्षितिज पर अपनी अरुणिमा बिखेरते सूर्य आकाश मार्ग पर अग्रसर हुए। पक्षी कलरव करने लगे। साथ ही पूजा की घंटी संग शिव ड्डोत का पाठ सुनाई दिया। प्रभावशाली स्वर में। सोई राक्षसियाँ हड़बड़ाकर उठ बैठीं। मैं आश्चर्यचकित... शिवड्डोत का पाठ...यहाँ?

फ्लंकेश्वर दशानन, शिव के परम भक्त हैं। भगवान शिव की इस प्रिय स्तुति को मात्र वे ही गाते हैं। मुझे भौचक देख सुभगा बोली। तो और आश्चर्य हुआ। शिव के भक्त इस नृपति को हरण जैसे कुकृत्य करते तनिक भी भय नहीं लगा? ब्याह हेतु कन्याओं का हरण आर्यावर्त में सुना था किंतु पराई स्त्री का हरण करना नहीं। यह दृष्टांत भी प्रस्तुत हुआ तो मेरे ही साथ। आर्यावर्त की प्रथम विलक्षण घटना...मेरे जीवन से संलग्न होती एक और विलक्षणता। क्या रहते संसार तक उदाहरण नहीं बनेगा मेरा यह लोभ? मात्र एक कथित स्वर्ण मृग का मोह...। जो मेरी इस दुर्दशा का कारण बना। किंतु क्या मृग का हठ और कुटी से बाहर आना ही हरण का हेतु था? अरण्य मध्य राम-लक्ष्मण की अनुपस्थिति में सदा निस्संग ही तो रही जब वे वन्य जातियों के ग्रामों या आश्रमों में चले जाते थे। कुटी कोई प्राचीर आवेष्टित भवन तो नहीं थी जिसके द्वार लौह के होते हैं। पर्णकुटी का द्वार तोड़ते क्या विलंब होता मेरे हरण को संकल्पित इस वलिष्ठ रावण को।

अनुभव हुआ, भय, आवेग, अविवेकपूर्ण निर्णय से उत्पन्न स्थिति शत्रु ही उत्पन्न करती है, मित्र नहीं। यह स्थिति अकस्मात उत्पन्न हुई थी शूर्पणखा के आसक्ति स्वरूप प्रणय याचना और मेरे ऊपर किए गए उसके आक्रमण से। मेरी रक्षा में लक्ष्मण ने उसका रूप विद्रूप किया...। उसके प्रतिकारस्वरूप भी उन्हीं प्रवृत्तियों का प्रयोग हुआ। उसके पश्चात् जो कुछ हुआ उसकी ही तो परिणति है मेरी यहाँ उपस्थिति।

देवी उठिए, नित्यकर्म से निवृत्त हो अन्न-जल ग्रहण कीजिए। क्षीण देह में आत्माबल भी क्षीण हो जाता है। सुभगा ने आग्रह किया। उसके आत्मीय बोल। परिस्थितियों की गहनता और राम से मिलन की आस। सभी की माँग एक लगी। प्राण को अक्षुण्ण रखना। परंतु किस विधि?

नित्यकर्म से निवृत्त हो अन्यमनस्क बैठी थी। तभी एक राक्षसी ने सूचना दी, थोड़ी देर में महाराज पधार रहे हैं।

भय की ठंडी लहर सिहरा गई मुझे आपादमस्तक। नत मस्तक हो सचेत हो गई। यह अधर्मी क्यों आ रहा है अब यहाँ? यातना का कौन सा अस्त्र प्रयोग करेगा मेरे ऊपर? अपने कामासक्त शब्दों का पुनः प्रहार करेगा? मेरे स्त्रीत्व और अस्मिता को अपमानित करेगा। भगवान आशुतोष, माँ गिरिजा सहाय हो। परवश हूँ मैं यहाँ। नेत्र बंद कर मैंने प्रार्थना की।

सुंदरी...सुमुखी सीता! क्या निश्चय किया तुमने? अपनी मुक्ति की क्षीण आशा भी मत रखना मन में। बिना मेरी अनुमति यहाँ से निकलना संभव नहीं। वैसे भी मूर्खतावश उस राज्य त्यागी पति के साहचर्य की अभिलाषी क्यों हो जो भिखारिन बनाकर तुम्हें वन-वन भटका रहा था। लंका की राजरानी बनो। यहाँ के अकूत वैभव का उपभोग करो प्रिय! वह कापुरुष वनवासी न तो तुम्हारी रक्षा करेगा न मेरा मुकाबला। कहकर वह हँसा...अमर्ष हास्य...।

कानों से प्रवेश करते उसके जलते शब्द हृदय को दहका गए। बलपूर्वक नेत्र बंद किए बैठी रही। शायद मेरा उत्तर न पाकर वह चला जाए। मेरी बेवशी वहाँ से उठकर भागती भी तो कहाँ। ये वलिष्ठ राक्षसियाँ भागने भी कहाँ देंगी।

तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है मेरी बातों का। चलो स्वयं देखो रत्नों-जड़ित मेरा कांचन भवन।

संज्ञा शून्य-सी बैठी रही मैं अविचल। धृष्टतापूर्वक वह आगे बढ़ा। ओह, यह दुष्ट पुनः मुझे पकड़ लेगा। भयवश तत्क्षण मैं उठ खड़ी हुई। तभी राक्षसियाँ आस-पास जुट आईं और मुझे बलात् अपने घेरे में लिए आगे बढ़ने को विवश करने लगीं।

बलपूर्वक वह स्वयं भवन दिखाने लगा। भव्य भवन, बहुमूल्य रत्नों जड़ित स्तंभ। मणि कांचन युक्त दीवारें। सीढ़ियाँ, हाथीदाँत और सोने के जालीदार झरोखे। भवन का कोना-कोना आलोकित करता रत्नों का अंबार...।

सुंदरी, ये सारे वैभव और मैं सदा तुम्हारे अधीन रहेंगे। बत्तीस करोड़ राक्षस तथा मेरी रानियों की स्वामिनी तुम्हीं होगी। मात्र तुम हाँ कर दो...!

सुलग ही तो उठी मैं। वश जाता रहा जिह्ना से

मूर्ख, इन निर्जीव पत्थरों का प्रलोभन दे रहा है तू मुझे! इन पाषाण खंडों का? राम जैसे अमूल्य रत्न हो जिसके पास, इन पत्थरों का लोभ क्या दुर्बल करेगा उसे? कापुरुष मेरे पति नहीं, तू है। चौर कर्म करने वाला। इस धृष्टता का दंड तो तुझे अवश्य मिलेगा। मैं आर्य नारी और राम की पत्नी हूँ। चेतन रहते मेरी देह को तू छू नहीं सकता, अचेतन में भले ही इसे काट डाले। जो स्वयं जीवित रहना नहीं चाहता, उसे प्रलोभन या भय क्या दिखा रहा है?

मेरे निर्भीक कठोर शब्दों ने उसे तिलमिला दिया। उसका धैर्य चुक गया। रोष-युक्त शब्दों में फुफकार उठा, हठी स्त्री, किंचित मास की अवधि दे रहा हूँ तुझे। यदि तब भी मेरी बात पर सहमत नहीं हुई तो अवश्य मृत्यु का ही वरण करेगी।

पुनः राक्षसियों से मुझे अशोक वाटिका ले जाने और कठिन पहरा देने को कहकर वह क्रोध से धरा को मसलते हुए भवन के भीतर चला गया।

अशोक वृक्ष की छाँव में आकर परम शांति का अनुभव हुआ। निश्चित अवधि के अक्षयदान से आशा और भय दोनों का उदय हुआ मन में। आशा, राम के आने की। भय, जीवित रहूँ तो राम की होकर। इस मध्य अवश्य राम मेरी खोज कर लेंगे। मुझे ले जाएँगे वरन जीवन का अंत होगा। दोनों स्थितियाँ स्वीकार हैं। मात्र इसके कि उसके प्रस्ताव से सहमत हो उसकी पटरानी बनूँ। उसकी अंकशायिनी बनूँ...। अचंभित तो उसके इस आचरण पर थी कि वह मेरी सहमति का प्रतीक्षित था। बलप्रयोग पर उद्यत नहीं।

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