वैशाली की नगरवधू बनने को क्यों मजबूर हुई आम्रपाली?
"समय पाकर रूढ़ियाँ ही धर्म का रूप धारण कर लेती हैं और कापुरुष उन्हीं की लीक पीटते हैं। स्त्री अपना तन-मन प्रचलित रूढ़ि के आधार पर एक पुरुष को सौंपकर उसकी दासी बन जाती है और अपनी इच्छा, अपना जीवन उसी में लगा देती है। वह तो साधारण जीवन है। पर देवी अम्बपाली, तुम असाधारण स्त्री-रत्न हो, तुम्हारा जीवन भी असाधारण ही होना चाहिए।”

राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास 'वैशाली की नगरवधू' का एक अंश...

सरोवर के तट पर एक स्वच्छ मर्मर की वेदी पर देवी अम्बपाली विषण्णवदना बैठी संध्याकाल में सुदूर एक क्षीण तारे को एकटक देख रही थी। अनेक प्रकार के विचार उसके मन में उदय हो रहे थे। वह सोच रही थी, अपना भूत और भविष्य। एक द्वंद्व उसके भीतर तक चल रहा था। आज से सात वर्ष पूर्व एक ग्यारह वर्ष की बालिका के रूप में जब उसने वैशाली की पौर में संध्या के बढ़ते हुए अन्धकार में पिता की उँगली पकड़कर प्रवेश किया था, उसने नवीन जीवन, नवीन चहल-पहल, नवीन भाव देखे थे। नायक चन्द्रमणि की कृपा से उसके पिता को उसकी नष्ट सम्पत्ति और त्यक्त पद मिल गया था और अब उसके उद्ग्रीव यौवन और विकसित जीवन की क्रीड़ा के दिन थे। सब वैभव उसे प्राप्त थे, भाग्य उसके साथ असाधारण खेल खेल रहा था। जो बालिका एक दिन छह दम्म के कंचुक के लिए लालायित हो गीली आँखों से पिता से याचना कर चुकी थी, आज जीवन के ऐसे संघर्ष में आ पड़ी थी, जिसकी कदाचित् ही कोई युवती सम्भावना कर सकती है। वैशाली का जनपद आज उसके लिए क्षुब्ध था और अष्टकुल के एक महासंकट को टालने की शक्ति केवल उसी में थी।

एक दिन, उसके अज्ञात में धृष्टतापूर्वक जिस हर्षदेव ने उसके पिता से उसके सम्बन्ध में उपहास किया था उसी हर्षदेव की प्रणयाभिलाषा उसने एक बार अपनी कच्ची मति में आँखों में हँसकर स्वीकार कर ली थी। उस स्वीकृति में कितना विवेक और कितना अज्ञान था, इसका विश्लेषण करना व्यर्थ है। परन्तु जब उन दोनों के बूढ़े पिता पुरातन मैत्री और नवीन कृतज्ञता के पाश में बँधकर उनके विवाह का वचन दे चुके, तब से वे हर्षदेव को आँखों में ‘हाँ’ और होंठों में ‘ना’ भरकर कितनी बार तंग कर चुकी थी। इसके इतिहास पर अनायास ही उसका ध्यान जा पहुँचा था। उसकी अप्रतिम रूप-राशि को वैशाली के जनपद से छिपाने के सभी प्रयत्न, सभी सतर्कता व्यर्थ हुई। प्रभात की धूप की भाँति उसके रूप की ख्याति बढ़ती ही गई और अन्ततः वह वैशाली के घर-घर की चर्चा की वस्तु बन गई। तब से कितने सामन्तपुत्रों ने अयाचित रूप से उसके लिए द्वंद्व-युद्ध किए, कितने सेट्ठिपुत्रों ने उसे एक बार देख पाने भर के लिए हीरा-मोती-रत्न और स्वर्ण की राशि जिस-तिस को दी। पर अम्बपाली को जनपद में कोई देख न सका। ज्यों-ज्यों दिन बीतते गए, अम्बपाली के रूप की सैकड़ों काल्पनिक कहानियाँ वैशाली के घर-घर कही जाने लगीं और इस प्रकार अम्बपाली वैशाली जनपद की चर्चा का मुख्य विषय बन गई।

फिर एक दिन, जब महानामन् ने अम्बपाली के वाग्दान की अनुमति नायक चन्द्रमणि के पुत्र हर्षदेव के साथ करने की गण से माँगी तो संथागार में एक हंगामा उठ खड़ा हुआ और गणपति द्वारा आज्ञापत्र जारी करके महानामन् को विवश किया गया कि जब तक अम्बपाली वयस्क न हो जाए, वह उसका विवाह न करें और महानामन् को प्रतिज्ञा लिखनी पड़ी कि वह अम्बपाली का विवाह तब तक नहीं करेंगे, जब तक कि वह अठारह वर्ष की नहीं हो जाती। अठारह वर्ष की आयु होने पर उसे संथागार में उपस्थित करेंगे।

उस बात को आज तीन वर्ष बीत गए। इन तीन वर्षों में जनपद ने खुल्लमखुल्ला अम्बपाली को जनपदकल्याणी कहना आरम्भ कर दिया और गणतंत्र पर जोर दिया कि वह उसे ‘नगरवधू’ घोषित कर देने का आश्वासन अभी दे। यह आन्दोलन इतना उग्र रूप धारण कर गया कि अष्टकुल के गणपति को अम्बपाली और महानामन् को गणसंघ के समक्ष प्रत्युत्तर के लिए संथागार में उपस्थित करने को बाध्य होना पड़ा।

अम्बपाली ने अपने उस नए जीवन के सम्बन्ध में, जिसमें वैशाली का जनपद उसे डालना चाहता था, जब कल्पना की, तो वह सहम गई। हर्षदेव के प्रति प्रेम नहीं तो स्नेह उसे था। कुलवधू होने पर वही स्नेह बढ़कर प्रेम हो जाता है। अब एक ओर उसके सामने कुलवधू की अस्पष्ट धुँधली आकृति थी और दूसरी ओर ‘नगरवधू’ बनकर सर्वजनभोग्या होने का चित्र था। दोनों ही चीजें उसके लिए अज्ञात थीं, उसकी कल्पनाएँ बालसुलभ थीं। वह भावुक थी, उसका स्वभाव आग्रही था और जीवन आशामय। एक ओर बन्धन और दूसरी ओर उन्मुक्त जीवन। एक ओर एक व्यक्ति को मध्य बिन्दु बनाकर आत्मार्पण करने की भावना थी, दूसरी ओर विशाल वैभव, उत्सुक जीवन और महाविलास की मूर्ति थी। उसका विकसित साहसी हृदय द्वंद्व में पड़ गया और उसने अपनी तीन शर्तें परिषद् में रख दीं। उसने सोचा, जब कानून की मर्यादा पालन करनी ही है तो फिर जीवन को वैभव और अधिकार की चोटी पर पहुँचाना ही चाहिए और वैशाली के जिस जनपद ने उसे इस ओर जाने को विवश किया है उसे अपने समर्थ चरणों से रौंद-रौंदकर दलित करना चाहिए।

विचारों की उत्तेजना के मारे उसका वक्षस्थल लुहार की धौंकनी की भाँति उठने-बैठने लगा। उसने दाँतों में होंठ दबाकर कहा, “मैं वैशाली के स्त्रैण पुरुषों से पूरा
बदला लूँगी। मैं अपने स्त्रीत्व का पूरा सौदा करूँगी। मैं अपनी आत्मा का हनन करूँगी और उसकी लोथ इन लोलुप गिद्धों को इन्हीं की प्रतिष्ठा और मर्यादा के दामों पर बेचूँगी।”

धीरे-धीरे पूर्ण चन्द्र का प्रकाश आकाश में फैल गया, और भी तारे आकाश में उदय हुए। उन सबका प्रतिबिम्ब नीलपद्म सरोवर के निर्मल जल की लहरों पर थिरकने लगा। अम्बपाली सोचने लगी, “आह, मैं इस प्रकार अपने मन को चंचल न होने दूँगी। मैं दृढ़तापूर्वक जीवन-युद्ध करूँगी और उसमें विजय प्राप्त करूँगी।”

यही सब बातें अम्बपाली सोच रही थी। शुभ्र चन्द्र की ज्योत्स्ना में, शुभ्र वसनभूषिता, शुभ्रवर्णा, शुभानना अम्बपाली उस स्वच्छ-शुभ्र शिलाखंड पर बैठ मूर्तिमती ज्योत्स्ना मालूम हो रही थी। उसका अन्तर्द्वंद्व अथाह था और वह बाह्य जगत् को भूल गई थी। इसी से जब मदलेखा ने आकर नम्रतापूर्वक कहा, “देवी की जय हो! गणपति आए हैं और द्वार पर खड़े अनुमति की प्रतीक्षा कर रहे हैं।”—तब वह चौंक उठी। उसने भृकुटि चढ़ाकर कहा, “उन्हें यहाँ ले आ।”

वह प्रस्तर-पीठ पर सावधान होकर बैठ गई। गणनायक सुमन्त ने आकर कहा, “देवी अम्बपाली प्रसन्न हों। मैं वज्जीसंघ का सन्देश लाया हूँ।”

“तो आपके वधिक कहाँ हैं? उनसे कहिए कि मैं तैयार हूँ। वैशाली जनपद के ये हिंस्र नरपशु किस प्रकार हनन किया चाहते हैं?”

“वे तुम्हारा शरीर चाहते हैं।”

“वह तो उन्हें अनायास ही मिल जाएगा।”

“जीवित शरीर चाहते हैं, सस्मित शरीर। देवी अम्बपाली, वज्जीसंघ ने तुम्हारी शर्तें स्वीकार कर ली हैं। केवल अन्तिम शर्त...”

“अन्तिम शर्त क्या?” अम्बपाली ने उत्तेजना से कहा, “क्या वे उसे अस्वीकार करेंगे? मैं किसी भी प्रकार अपनी शर्तों की अवहेलना सहन न करूँगी।”

वृद्ध गणपति ने कहा, “देवी अम्बपाली, तुम रोष और असन्तोष को त्याग दो। तुम्हें सप्तभूमि प्रासाद समस्त वैभव और साधन सहित और नौ कोटि स्वर्णभार सहित मिलेगा। तुम्हारा आवास दुर्ग की भाँति सुरक्षित रहेगा। किन्तु यदि तुम्हारे आवास के आगन्तुकों की जाँच की कभी आवश्यकता हुई तो उसकी एक सप्ताह पूर्व तुम्हें सूचना दे दी जाएगी। अब तुम अदृष्ट की नियति को स्वीकार करो, देवी अम्बपाली! महान व्यक्तित्व की सदैव सार्वजनिक स्वार्थों पर बलि होती है। आज वैशाली के जनपद को अपने ही लोहू में डूबने से बचा लो।”

अम्बपाली ने उत्तेजित हो कहा, “क्यों, किसलिए? जहाँ स्त्री की स्वाधीनता पर हस्तक्षेप हो, उस जनपद को जितनी जल्द लोहू में डुबोया जाए, उतना ही अच्छा है। मैं आपके वधिकों का स्वागत करूँगी, पर अपनी शर्तों में तनिक भी हेर-फेर स्वीकार न करूँगी। भले ही वैशाली का यह स्त्रैण जनपद कल की जगह आज ही लोहू में डूब जाए।”

“परन्तु यह अत्यन्त भयानक है, देवी अम्बपाली! तुम ऐसा कदापि नहीं करने पाओगी। तुम्हें वैशाली के जनपद को बचाना होगा। अष्टकुल के स्थापित गणतंत्र की रक्षा करनी होगी। यह जनपद तुम्हारा है, तुम उसकी एक अंग हो। कहो, तुम अपना प्राण देकर उसे बचाओगी?”

“मैं, मैं अभी प्राण देने को तैयार हूँ। आप वधिकों को भेजिए तो।”

गणपति ने आर्द्रकंठ से कहा, “तुम चिरंजीविनी होओ, देवी अम्बपाली! तुम अमर होओ। जनपद की रक्षा का भार स्त्री-पुरुष दोनों ही पर है। पुरुष सदैव इस पर अपनी बलि देते आए हैं। स्त्रियों को भी बलि देनी पड़ती है। तुम्हारा यह दिव्य रूप, यह अनिन्द्य सौन्दर्य, यह विकसित यौवन, यह तेज, यह दर्प, यह व्यक्तित्व स्त्रीत्व के नाम पर, किसी एक नगण्य व्यक्ति के दासत्व में क्यों सौंप दिया जाए? तुम्हारी जैसी असाधारण स्त्री क्यों एक पुरुष की दासी बने? यही क्यों धर्म है देवी अम्बपाली? समय पाकर रूढ़ियाँ ही धर्म का रूप धारण कर लेती हैं और कापुरुष उन्हीं की लीक पीटते हैं। स्त्री अपना तन-मन प्रचलित रूढ़ि के आधार पर एक पुरुष को सौंपकर उसकी दासी बन जाती है और अपनी इच्छा, अपना जीवन उसी में लगा देती है। वह तो साधारण जीवन है। पर देवी अम्बपाली, तुम असाधारण स्त्री-रत्न हो, तुम्हारा जीवन भी असाधारण ही होना चाहिए।”

“तो इसीलिए वैशाली का राष्ट्र मेरी देह को आक्रान्त किया चाहता है? क्यों?” अम्बपाली ने होंठ चबाकर कहा।

“इसीलिए,” वृद्ध गणपति ने स्थिर मुद्रा में कहा, “देवी अम्बपाली, वैशाली का जनपद अप्रतिम सप्तभूमि प्रासाद, नो कोटि स्वर्णभार और प्रासाद की सब सज्जा, रत्न, वस्त्र और साधन, तुम्हें दे रहा है—तुम्हें दुर्ग में सम्राट् की भाँति शासक रहने की प्रतिष्ठा दे रहा है। यह सब प्रतिष्ठा है देवी अम्बपाली, जो आज तक वज्जीसंघ के अष्टकुलों में से किसी गण को, यहाँ तक कि गणपति को भी प्राप्त नहीं हुई। अब और तुम चाहती क्या हो?”

“तो यह मेरा मूल्य ही है न? इसे लेकर मैं देह वैशाली जनपद के अर्पण कर दूँ, आप यही तो कहने आए हैं?”

“निस्सन्देह, मेरे आने का यही अभिप्राय है। देवी अम्बपाली, किन्तु अभी जो तुम्हें अटूट सम्पदा मिल रही है, यही तुम्हारा मूल्य नहीं है। यह तो उसका एक क्षुद्र भाग है। विश्व की बड़ी-बड़ी सम्पदाएँ और बड़े-बड़े सम्राट्ों के मस्तक तुम्हारे चरणों पर आ गिरेंगे। तुम स्वर्ण, रत्न, प्रतिष्ठा और श्री से लद जाओगी। इस सौभाग्य को, इस अवसर को मत जाने दो, देवी अम्बपाली!”

“तो आप यह एक सौदा कर रहे हैं? किन्तु यदि मैं यह कहूँ कि मैं अपनी देह का सौदा नहीं करना चाहती, मैं हृदय को बाजार में नहीं रख सकती, तब आप क्या कहेंगे?” अम्बपाली ने वक्रदृष्टि से वृद्ध गणपति को देखकर कहा।

गणपति ने संयत स्वर में कहा, “मैं केवल सौदा ही नहीं कर रहा हूँ देवी, मैं तुमसे कुछ बलिदान भी चाहता हूँ, जनपद-कल्याण के नाते। सोचो तो, इस समय वैशाली का जनपद किस प्रकार चारों ओर से संकट में घिरा हुआ है! शत्रु उसे ध्वस्त करने का मौका ताक रहे हैं और अब तुम्हीं एक ऐसी केन्द्रित शक्ति बन सकती हो जिसके संकेत पर वैशाली जनपद के सेट्ठिपुत्रों और सामन्त पुत्रों की क्रियाशक्ति अवलम्बित होगी। तुम्हीं उनमें आशा, आनन्द, उत्साह और उमंग भर सकोगी। तुम्हीं इन तरुणों को एक सूत्र में बाँध सकोगी। वैशाली के तरुण तुम्हारे एक संकेत से, एक स्निग्ध कटाक्ष से वह कार्य कर सकेंगे जो अष्टकुल का गणसंघ तथा संथागार के सम्पूर्ण राजपुरुष मिलकर भी नहीं कर सकते।”

वृद्ध गणपति इतना कहकर घुटनों के बल धरती पर झुक गए। उन्होंने आँखों में आँसू भरकर कहा, “देवी अम्बपाली, मैं जानता हूँ कि तुम्हारे हृदय में एक ज्वाला जल रही है। परन्तु देवी, तुम वैशाली के स्वतंत्र जनपद को बचा लो, नहीं तो वह गृह-कलह करके अपने ही रक्त में डूबकर मर जाएगा। वह आज तुम्हारे जीवित शरीर की बलि चाहता है, वह उसे तुम दो। मैं समस्त वज्जियों के जनपद की ओर से तुमसे भीख माँगता हूँ।”

अम्बपाली उठ खड़ी हुई। उसने कहा, “उठिए, भन्ते गणपति!” वह सीधी तनकर खड़ी हो गई। उसके नथुने फूल उठे, हाथों की मुट्ठियाँ बँध गईं। उसने कहा, “आइए आप, वैशाली के जनपद को सन्देश दे दीजिए कि मैंने उस धिक्कृत कानून को अंगीकार कर लिया है। आज से अम्बपाली कुलवधू की सब मर्यादाएँ, सब अधिकार त्यागकर वैशाली की नगरवधू बनना स्वीकार करती है।”

वृद्ध गणपति ने काँपते हुए दोनों हाथ ऊँचे उठाकर कहा, “आयुष्मती होओ देवी अम्बपाली! तुम धन्य हो, तुमने वैशाली के जनपद को बचा लिया।”

उनकी आँखों से झर-झर आँसू गिरने लगे और वे नीची गर्दन करके धीरे-धीरे वहाँ से चले गए।

अम्बपाली कुछ देर तक टकटकी लगाए, उस आहत वृद्ध राजपुरुष को देखती रही। फिर वह उसी स्फटिकशिला-पीठ पर, उसी धवल चन्द्र की ज्योत्स्ना में, उसी स्तब्ध-शीतल रात में, दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर औंधे मुँह गिरकर फूट-फूटकर रोने लगी।

नीलपद्म सरोवर की आन्दोलित तरंगों में कम्पित चन्द्रबिम्ब ही इस दलित-द्रवित हृदय के करुण रुदन का एकमात्र साक्षी था।

 

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