उमसभरी रातों में चार आँगनोंवाले इस कुंज अर्थात हाड़ाबाड़ी के स्याह कोनों-अँतरों, उढ़के दरवाज़ों और खिड़कियों के खुले-अधखुले पल्लों से छन-छन कर आतीं सिसकियाँ पूरी रात बिजली घोष के कानों में गूँजती रहती हैं। जब-जब उसके कानों में ये सिसकियाँ पड़ती हैं, उसके बाद उसकी आँखों से नींद उड़ जाती। एक स्त्री की इच्छाओं का कैसे दमन होता है, उसे उसकी तरह हाड़ाबाड़ी में रह रही इन असंख्य विधवाओं से पूछा जा सकता है। मगर बिजली घोष को इसका असली एहसास उस दिन हुआ जब उसे पहली बार इनके साथ इस हाड़ाबाड़ी में मिर्च-मसालों के नाम पर मात्र नमक और हरी मिर्च वाली दाल के साथ, उबले हुए चावल के गंठे ज़बरदस्ती हलक़ से नीचे उतारने पड़े थे। सोचते-सोचते बिजली घोष की आँखें भर आईं। अभी तो यह शुरुआत है, इससे आगे का जीवन कैसा होगा, उसकी कल्पना कर उसकी धमनियों में बहता रक्त बीच-बीच में ठिठकने लगता।
“होरि, सो जा! बीते दिनों को याद करने का अब कोई लाभ नहीं है।”
हैरानी हुई बिजली घोष को कि सुभद्रा दासी ने कैसे इस यातना-गृह के अँधेरे में उसकी मौन सिसकियों की आहट को टोह लिया? इससे ज़्यादा विस्मय उसे तब हुआ जब मलिना दासी के ये शब्द उसके कानों में पड़े, “रोने दे दीदी! जब इसको अपने बीते दिनों की याद आनी बन्द हो जाएगी, तो यह भी हमारी तरह पत्थर बन जाएगी।”
इसका मतलब है सुभद्रा, मेघु, गौरी और मलिना ये सब भी उसकी तरह वृन्दावन की कुंज गलियों में अपने अतीत को याद करते हुए, इन सीलनभरी अँधेरी कोठरियों में रोज़ाना इसी तरह रोती होंगी? स्त्री के दु:खों का पहाड़ क्या होता है, उसका उसे अब पता चल रहा है, जब वह भीतर-ही-भीतर पिघलकर आँखों से बाहर रिसता है।
बढ़ती ठंड के चलते सुभद्रा दासी ने भजनाश्रम जाना छोड़ दिया। शुरू में
तो बिजली घोष मेघु, गौरी और मलिना दासी के साथ कीर्तन करने गई, लेकिन बढ़ती उम्र के कारण सुभद्रा के दिन-पर-दिन गिरते स्वास्थ्य के चलते उसका जाना छूट गया।
सुभद्रा दासी ने बिजली घोष को समझाया भी, “होरि, मेरे कारण तू क्यों अपना टोकन छोड़ती है। जाएगी तो कुछ लेकर ही आएगी। मेरा क्या, मुझे तो भूखे रहने की आदत है। कुछ नहीं मिलेगा तो भी चल जाएगा। पर तुझे तो अभी बहुत कष्ट झेलना है। शरीर में जान रहेगी तभी उन्हें झेल पाएगी न।”
“नहीं दीदी। मेरा मन नहीं कर रहा है आपको छोड़कर जाने के लिए। इतना तो मेरे पास है कि एकाध दिन नहीं जाऊँगी, तब भी चल जाएगा। अभी मेरे शरीर में जान है। भूख सहन करने की मेरे अन्दर शक्ति है।” मेघु, गौरी और मलिना की तरह बिजली भी अपनी उम्र से ढाई गुना बड़ी और वृद्ध सुभद्रा दासी को दीदी कहती है।
सुभद्रा दासी ने कुछ नहीं कहा।
उन तीनों के भजनाश्रम जाने के बाद उदास कमरे में अब सुभद्रा दासी और बिजली घोष रह गईं। इनके अतीत को कुरेदने का बिजली को इससे अच्छा अवसर मिलने से रहा। वह धीरे-से सुभद्रा दासी की ओर खिसकी।
“दी...दी!” बिजली ने सुभद्रा दासी को धीरे-से आवाज़ दी।
“हाँ बोल होरि?” सुभद्रा ने कमरे की छत की ओर देखते हुए पूछा।
“अब कैसा लग रहा है?” बिजली ने बात शुरू करने के लिए जैसे
भूमिका बनाई।
बिजली के इस प्रश्न पर सुभद्रा हल्के-से मुस्कराभर दी। बिजली समझ गई सुभद्रा दासी का चित्त कुछ शान्त है।
“एक बात पूछूँ दीदी! आपको सचमुच अपने बीते दिनों की याद नहीं आती है?” बिजली घोष ने हिम्मत कर हिचकते हुए पूछा।
“क्यों नहीं आती है। वह घर-आँगन कभी भूला जा सकता है, जहाँ हमने अपना बचपन बिताया है? बाबा के वे कन्धे भूलनेवाले हैं जिन पर बैठकर मैं दुर्गा पूजा देखने जाती थी? माँ की उँगलियों के उस स्पर्श को भुलाया जा सकता, जो सरसराती हुई माथे पर कुमकुम लगाती थीं?”
“फिर मलिना दीदी ने क्यों कहा था कि मुझे अपने बीते दिनों की याद आनी बन्द हो जाएगी, मैं भी तुम्हारी तरह पत्थर बन जाऊँगी?”
“फिर क्या कहती? तू जो पूरी-पूरी रात रोती रहती है, उसे बन्द करने के लिए कुछ तो कहना था। जो तू चुपचाप मुँह ढककर सिसकती रहती है, उसका हमें पता नहीं चलता है? तू क्या समझती है हम सब सो रहे होते हैं? नहीं होरि, जब तू रोती है तो तेरे साथ हम भी रोने लगते हैं। तुझे रोता देख हमें अपने दिन याद आ जाते हैं।” इसके बाद सुभद्रा दासी बिजली घोष की तरफ़ पीठ कर करवट ले, छत को ऐसे निहारने लगी जैसे जगह-जगह लगे मकड़ियों के जालों और स्मृतियों के धुँधले पड़ चुके चित्रों को जोड़ने का प्रयास कर रही है।
इस बीच देर तक सन्नाटा पसरा रहा। सुभद्रा को लगा बिजली कहीं उठकर चली गई है।
“होरिऽऽऽ!” सुभद्रा दासी ने यूँ ही टोहते हुए आवाज़ दी।
“हाँ दीदी!”
“अच्छा तू इधर ही है। मैं तो समझ रही थी कहीं चली गई है?” फिर वापस बिजली की तरफ़ करवट बदल मुस्कराते हुए बोली, “तू कहाँ खो गई?”
“मुझे भी अपने बचपन के वे दिन याद आ गए दीदी।”
“कौन-से?” सुभद्रा दासी ने बिजली की आँखों में उतरते हुए पूछा।
“जाने दो दीदी।”
“बता री! कहते हैं कि अपने मन की बात बताने से एक-दूसरे का दुःख आपस में बँट जाता है।”
“क्या बताऊँऽऽऽ दीदी। क्या दिन थे वे जब बाबा और मेरे चाचा के बीच होती राजनीति की बहस में मैं भी कूद पड़ती थी। वैसे तो हमारा परिवार पक्का कांग्रेसी था किन्तु पता नहीं चाचा कैसे कम्युनिस्ट बन गए। बाबा हमेशा कांग्रेस और नेहरू की तारीफ़ करते रहते। मैं बाबा की तरफ़ रहती थी। उसकी एक वजह थी कि चाचा नेहरू मुझको बचपन से ही बहुत पसन्द था। बचपन में मेरा एक सपना था कि एक बार नेहरू जी को जी भरकर देख लूँ लेकिन मेरा यह सपना कभी पूरा नहीं हुआ। बाद में भी हमारा सब घरवाला गाय-बछड़ा छाप को ही वोट देता था।”
बिजली घोष के अतीत की धीरे-धीरे खुलती इस गिरह ने सुभद्रा दासी की जिज्ञासा बढ़ा दी।
“दीदी, मेरे चाचा की एक बेटी थी चैताली। पूरा परिवार उसे प्यार से चैती बुलाता था। हम दोनों आपस में बहनों से ज़्यादा पक्की सहेलियाँ थीं। जब चैताली सोलह साल की हुई तो चाचा ने उसकी शादी कर दी। अच्छा खाता-पीता घर था। जंगल की ज़मीन थी। चैती का ससुराल बहुत छोटा था। घर में बस सास-ससुर और उनका इकलौता बेटा यानी चैताली का पति वनमाली।”
कहते-कहते अचानक बिजली का चेहरा खिल उठा, “दीदी, चैताली जितनी सुन्दर थी, उतना ही अच्छा खाना भी बनाती थी। पता है जब वह माथे पर बड़ी-सी कुमकुम की बिन्दी लगाती थी, तो उसकी सास तुरन्त उसकी नज़र उतारने लग जाती।” इतना कह बिजली सुभद्रा दासी को निहारने लगी।
सुभद्रा दासी को निहारते हुए बिजली घोष ने बड़े ध्यान से उसके चेहरे की झुर्रियों के पीछे छिपी सुन्दरता और मस्तक पर लगनेवाली कुमकुम की बिन्दी की जगह को देखा। थोड़ा ध्यान से देखने पर उसे कुमकुम की बिन्दी की जगह एक चौड़ा चकत्ता दिखाई देता है। क्षणभर में वह भाँप गई कि सचमुच अपनी युवावस्था में सुभद्रा दीदी बहुत सुन्दर रही होंगी।
“चैताली बताती थी कि उसके हाथ का बना माछ उसकी सास बड़े चाव से खाती थी। इस कारण भी वह उसे बहुत प्यार करती थी। एक मज़ेदार बात बताऊँ दीदी, चैताली ने कभी अपने पति के साथ सिनेमा नहीं देखा, जो भी देखा अपनी सास के साथ देखा। वे दोनों कई बार सिनेमा देखने गईं। सिनेमा देखकर जब वे घर आतीं तो उस पर खूब बातें करती थीं। उनके घर में कृष्ण का छोटा-सा मन्दिर था। संध्या आरती में जब दोनों सास-बहू भजन गातीं, तब पड़ोस की कई औरतें भी आ जाती थीं क्योंकि चैताली गाती बहुत अच्छा थी।” बिजली घोष की उदास और सूखी नदी-सी आँखों में बरबस शरारत मचलने लगी।
मगर अगले ही पल वह उदास होती चली गई। कुछ क्षण पहले जो चेहरा दमक रहा था, वह स्याह पड़ता चला गया।
“शादी के दो साल बाद उसको एक बेटा हुआ परन्तु वह अधिक दिन नहीं जी पाया। उसकी मौत के बाद चैताली बहुत दुखी रहने लगी। उसके इस दुःख में दीदी, उसकी सबसे प्रिय सखी यानी उसकी सास ने बहुत साथ दिया। उसकी बहुत हिम्मत बँधाई।” कहते-कहते बिजली के शब्द भीगने लगे। गला भर्रा उठा।
बिजली घोष उठकर कुंजे (सुराही) के पास गई और पानी पीने के बाद वापस सुभद्रा के पास आकर बैठ गई और अपनी बात जारी रखते हुए कहने लगी, “...और फिर अचानक एक दिन चैताली की सास चल बसी। उस दिन माँ जैसी सास के जाने के बाद वह बहुत रोई थी। अपनी माँ से अधिक प्यार करती थी वह अपनी सास से। क्यों नहीं करती, माँ से ज़्यादा दिन तो उसने अपनी सास के साथ बिताए थे।”
“होरि, सही कहती है तू। हमारे दु:खों को हमारे पतियों से अधिक तो हमारी सास-ननद जानती हैं।” सुभद्रा दासी जैसे पुरानी यादों में उतर गई।
“दीदी, अपनी पत्नी के परलोक सिधारने के बाद चैताली का ससुर भी एक दिन घरबार छोड़कर चला गया। चैताली के दु:खों का अभी अन्त नहीं हुआ था बल्कि तब वे और बढ़ गए, जब एक दिन पता चला कि उसके पति का लीवर खराब है। कुछ तो पति के इलाज में चैताली की खेतीबाड़ी बिक गई और जो बचा, उसको उसके पति के चाचा ने छीन लिया। अब घर का सारा बोझ चैताली पर आ गया...और फिर एक दिन पता चला कि चैताली का पति भी इस दुनिया में उसे अकेला छोड़कर चला गया।”
आगे की कल्पना कर बिजली घोष का रोआँ-रोआँ सिहर उठा।
“चैताली अब घर में अकेली रह गई थी दीदी। अपने ही घर में उसे डर लगने लगा कि पता नहीं अकेली पाकर रात-बिरात कौन मर्द घर में आ घुसे और िसर से पल्लू खींच ले। इसलिए धीरे-धीरे अपने आपको उसने भजन-कीर्तन में रमा लिया। तभी एक दिन पता चला कि चैताली कहीं तीर्थ पर निकल गई है। कहाँ निकल गई, किसी को पता नहीं चला।” इस बीच बिजली ने सुभद्रा दासी को छत की ओर टकटकी लगाए देखा तो उससे पूछे बिना नहीं रहा गया, “दीदी कहाँ खो गई?”
अकबकाते हुए वर्तमान में लौटी सुभद्रा दासी लम्बी साँस लेते हुए बोली, “कहीं नहीं। मुझे लगा था होरि तू चैताली की नहीं, मेरी कथा बता रही है। मेरे साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही हुआ था। मैंने भी कुछ ज़रूरी सामान समेटा और बिना किसी को बताए कलकत्ता से रेल पकड़ बाकी जीवन बिताने के लिए यहाँ चली आई। मुझे पता चला था कि चैतन्य प्रभु के बृन्दाबोन के सिवाय इससे अच्छी कोई जगह नहीं है। जब मैं यहाँ आई थी तो तेरी तरह जवान थी। बल्कि तुझसे कुछ कम उम्र थी मेरी।”
“दीदी, आपको तब डर नहीं लगा था?” बिजली घोष ने सहमते हुए पूछा।
बिजली के इस सवाल पर सुभद्रा असहज हो उठी, फिर गहरी साँस लेते हुए बोली, “होरि, स्त्री की असली परीक्षा तभी होती है जब वह जवानी में विधवा हो जाती है। मैं ही जानती हूँ कि मैं अपने आपको यहाँ कितने जतन से बचाकर रख पाई। कभी मदन मोहन मन्दिर में, तो कभी रंगजी मन्दिर में। कभी राधा रमण मन्दिर में, तो कभी भूतोंवाले मन्दिर में छिप-छिपकर मैंने अपने आपको बचाया।”
“दीदी, यहाँ कोई भूतोंवाला मन्दिर भी है?” बिजली ने हैरानी के साथ पूछा। एक काल्पनिक भय उसकी आँखों में समा गया।
“कहते हैं कि इसे भूतों ने एक रात में बनाया था पर यह कोई भूतवूत वाला मन्दिर नहीं है। इधर रंगजी मन्दिर के सामने जो गोविन्द देव मन्दिर है न, उसे ही भूतोंवाला मन्दिर कहा जाता है। मुझे भी पहले यहाँ जाते हुए बहुत डर लगता था बाबा। रात के सन्नाटे में इतने बड़े खाली मन्दिर को देखकर लगता था जैसे इसमें सचमुच भूत रहते हैं, पर बाद में पता चला कि ऐसा कुछ नहीं है। लोगों ने ऐसे ही इसके बारे में झूठ फैला रखा है। बल्कि इतना सुन्दर मन्दिर तो मैंने पूरे बृन्दाबोन में नहीं देखा।”
“ऐसा क्या है इस मन्दिर में दीदी?”
“वैष्णव सम्प्रदाय के इस मन्दिर को राजस्थान के राजा मानसिंह ने बनवाया था। इसे बनवाने में अकबर ने लाल पत्थर दिया था। इस मन्दिर की सुन्दरता को देखकर दुष्ट औरंगज़ेब इतना दुखी हुआ कि उसने इसके ऊपर की चार मंज़िल तुड़वाकर वहाँ मोस्जिद बनवा दी थी। कहते हैं औरंगज़ेब ने यहाँ आकर नमाज़ भी पढ़ी थी। इसकी सातवीं मंज़िल पर बहुत बड़ा घी का दीया जलता था, जिसमें रोज़ाना पचास किलो घी लगता था। यह दीपक इतना बड़ा था कि दूर से पता चल जाता था कि यह गोविन्द देव मन्दिर है। लेकिन औरंगज़ेब को यह बिलकुल अच्छा नहीं लगा और उसने इसकी चार मंज़िल तुड़वा दीं। इसे कभी जाकर देखना बहुत सुन्दर मन्दिर है यह। सुनते हैं कि औरंगज़ेब ने इसे तुड़वाने के लिए अपने सिपाही भेज दिए थे। इसके पुजारी को जब इसका पता चला तो उसने रातों-रात हमारे गोविन्द को यहाँ से आमेर पहुँचा दिया, जो आज भी जयपुर में मौजूद है। तब से बृन्दाबोन का यह मन्दिर बिना गोविन्द जी के है।”
“दीदी, आपको तो यहाँ की बड़ी जानकारी है।” मुस्कराते हुए बिजली घोष ने कहा।
“देखना, यहाँ रहते हुए जब तू मेरी उम्र में पहुँचेगी, तुझे भी सब पता चल जाएगा।” कहते हुए सुभद्रा दासी इतिहास की सुरंग से निकल पुन: अपने अतीत की कन्दरा में पहुँच गई, “उस उम्र में अपने आपको मैं कैसे बचा पाई, मैं ही जानती हूँ होरि। सर्दियों में बर्फ़ जैसी ठंडी सीढ़ियों पर रात बिताते हुए, भीख माँग-माँगकर कैसे ज़िन्दा रही, मैं ही जानती हूँ। जीवन में दुःख क्या होता है इसका तब पता चलता है, जब हम विधवाओं को चार मुट्ठी चावल और दो मुट्ठी दाल के लिए, इन भजनाश्रमों के दरवाज़ों पर खड़े पंडों की गन्दी-गन्दी गालियाँ सुननी पड़ती हैं। भर्ती-टोकन के लिए आग-सी तपती सड़कों पर पैदल चलकर गिरते-पड़ते गोपीनाथ बाज़ार, पत्थरपुरा, अठखम्बा, फोगला आश्रम के पंडों के आगे गिड़गिड़ाना पड़ता है...और अगर किसी दिन देर हो जाने की वजह से टोकन छूट जाता है तो हमारी क्या हालत होती है, उसे हम ही जानती हैं। परन्तु इतने दुःख और कष्टों को भोगने के बाद भी सुबह-शाम हरि-चरणों में ‘हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे-हरे’ पुकारते हुए, चार-चार घंटे झाँझ-मजीरा, हारमोनियम और खोल पीटने के बाद जो शान्ति मिलती है, वह कहीं नहीं मिलती। इसी शान्ति और मोक्ष के लिए हम अपने देस से मीलों दूर चलकर राधागोपाल की इस नगरी में आते हैं।”
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