पुस्तक अंश : शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का उपन्यास ‘क़ब्ज़े ज़माँ’

इन बेचारों को क्या मालूम कि हम लोग जो यहीं के थे और कहीं न गए, हम लोगों का सारा बचपन, सारा लड़कपन, तमाम उठती हुई जवानियाँ, तमाम दोस्तियाँ और दुश्मनियाँ उन पेड़ों के साथ गईं जो कट गए, उन ताल तलैयों के साथ डूब गईं जो सूख गए, उन राहों से उठा ली गई जिन पर घर बन गए। ऐ तू जो शहर के बाहर खड़ा इस तरह बेतहाशा रो रहा है, बोल तूने अपनी जवानी के साथ क्या किया? 

शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के जन्मदिवस पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उनके उपन्यास ‘क़ब्ज़े ज़माँ’ का एक अंश। उर्दू से इसका अनुवाद रिज़वानुल हक़ ने किया है। यह छोटा-सा उपन्यास उर्दू क़िस्सागाेई की बेहतरीन मिसाल है।

अभी सुबह नहीं होनेवाली। हमारे घर के पीछे एक खासा बड़ा तालाब था जिसे लोग 'गढ़ी' कहते थे। अब मुझे ख़याल आता है कि 'गढ़ा' की स्त्रीलिंग के एतबार से तो 'गढ़ी' 'बहुत छोटा गढ़ा' के मानी में होना चाहिए था। इतने बड़े तालाब को 'गढ़ी' कहने के क्या मानी हैं। लेकिन मेरी मरहूमा माँ भी अपने पूर्वजों के तालाब को, जिसमें मछलियाँ खूब होती थीं, गढ़िया कहती थीं। जुबान के खेल निराले हैं। बहरहाल हमारी गढ़ी में मछलियाँ नहीं, लेकिन जोंकें, घोंघे और पानी के चींटे बेशुमार थे। ये पानी के चींटे भी खूब थे, निहायत दुबले-पतले, बिलकुल वैसे जैसी वे तंग और पतली और लम्बी, हलकी बादवानी नावें जिन्हें 'निनास' कहते हैं, या जैसे कश्मीरी शिकारे, बेहद हलके-फुलके। काला-भूरा रंग जिसे फरक स्टील ग्रे कहिए, और इतनी लम्बी-लम्बी टाँगें जैसे वे सरकस के जोकरों की तरह पाँव में बाँस बाँधे हुए हों। वे पानी की सतह पर इतनी तेज़ दौड़ते जैसे दौड़ के मैदान में ग्रे हाउण्ड कुत्ते दौड़ते हैं। मुझे अब ये तो नहीं याद कि वे कितनी दूर तक दौड़ते-दौड़ते निकल जाते थे (गढ़ी काफ़ी चौड़ी थी, या मुझे वह चौड़ी लगती थी)। मुझे याद नहीं कि कोई चींटा कभी इस पार से उस पार पहुँचता हुआ दिखाई दिया हो। लेकिन वे जानवर बिलकुल नन्हे-मुन्ने और हलके-फुलके थे और गढ़ी का पानी भी कुछ बहुत साफ़ न था, इसलिए अगर वे उस पार निकल भी गए होते तो मुझे नजर न आ सकता था कि वे उस किनारे पहुँच ही गए हैं। लेकिन जहाँ तक मुझे याद आता है, उनकी दौड़ यही कोई दो-ढाई फुट की होती थी और वे मुझे एक छोटे-से पानी को अलग करनेवाले हिस्से में दौड़ते-भागते नजर आते थे, अपने प्रति एक अजब महत्त्व का एहसास और ख़ुद अपनी बड़ाई का सा रंग लिए हुए जैसे वह सारा पानी उन्हीं के लिए बनाया गया था। अक्सर मैं देखता कि वे एक तरफ़ दौड़ते हुए गए, फिर अचानक कन्नी काटकर किसी तरफ़ निकल गए। चरागाहों में कुलेलियाँ करते हुए हिरन के बच्चों और घोड़े के बच्चों की तरह उन्हें एक़दम क़रार न था।

अपनी दौड़ में डूबे हुए चींटों को देखकर कभी-कभी मैं सोचता कि जंगी जहाज़ हैं और जंगी तैयारियों में लगे हैं। या समुन्दर पार करनेवाले हलके जहाज़ हैं जिन्हें कुछ गिने-चुने मुसाफ़िरों को ले आना और वापस ले जाना होगा। ऐसी सोच के वक़्त जहाजरानी और मुहिम तय करने और जोखिमों को हँसते-खेलते पूरा कर लेने का सनसनीखेज़ एहसास भी शामिल हो जाता था। चूँकि मैंने उन्हें कभी डूबते न देखा था, इसलिए मुझे यक़ीन था कि वे बड़े माहिर जहाजी हैं, सिन्दबाद जहाज़ी की तरह नहीं हैं कि जिसका जहाज़ आए दिन तूफ़ानी हो जाया करता था। घोंघे वहाँ बहुत थे, गोल, लम्बे, टेढ़े बदनों वाले, जैसे किसी साधू के सर पर लिपटी हुई लम्बी जटाएँ। मुझे कभी उनसे दिलचस्पी न हुई। कहाँ वे मेरे साहसी और खूबसूरत और हवा की रफ़्तार वाले चींटे और कहाँ ये भोंडे, भदेसल, एक जगह पड़े रहनेवाले घोंघे। कभी-कभी मेरा हाथ लग जाता तो बड़े चिपचिपे और गीले मालूम होते (नहीं, उनमें से कुछ खुश्क भी होते थे)। आख़िर वे थे ही किस काम के? पानी में रहनेवाले (ऐसा मेरा ख़याल था) लेकिन पानी पर तैरने से कतरानेवाले। दरिया के किनारे वे लम्बोतरे, हल्के-फुल्के और सफ़ेद-गुलाबी रंग के घोंघे और ही चीज़ थे जिनके दर्शन मुझे बहुत ही कम होते थे क्योंकि हमें दरिया पर जाने की सख्त मनाही थी। और उन दरियाई घोंघों की बड़ी ख़ूबी ये थी कि वे मुर्दा होते थे, इसलिए उनसे कोई ख़तरा या किसी चिपचिपाहट, किसी घिन के एहसास का ख़तरा न था।

जोंकें तो मैंने शायद वहाँ देखी नहीं, लेकिन गोल, मन्दिरनुमा घोंधों के नीचे से दो लम्बी, लाल, मटमैली भूरी पतली जुबानों-सी कभी-कभी निकल आती थीं। मेरे गाँव वाले साथी मुझे ख़बरदार करते थे कि उन्हें कभी हाथ न लगाना, क्योंकि ये भी जोंक की तरह खून निकाल लेती हैं। सरपत की तेज पत्ती की तरह या छोटे-से धारदार चाकू के फल की तरह ये तुम्हारे बाजुओं या हाथ पर लम्बी-सी खूनी लकीर छोड़ जाएँगी। अब मुझे ख़याल आता है कि ये सब बच्चों का झूठा ख़ौफ़ या शरारत-भरा ढोंग था क्योंकि अब मुझे मालूम है कि वह लम्बी-सी धागे जैसी चीजें दरअस्ल घोंघे के पाँव हैं।

उस गढ़ी के किनारे, हमारे मकान के पिछवाड़े की तरफ़, और इतना नज़दीक कि मैं रातों को उसकी चमकीली काली पत्तियों में हवा को शोर मचाते, लम्बी-लम्बी साँसें भरते, बन्द कमरे में अपने पलंग पर से गुजरते सुनता और महसूस करता था। वे रातें मेरे लिए बड़ी क़यामत की होती थीं। मेरी माँ तो दादी के घर में दूसरी बहुओं के साथ खाना पकाने, खिलाने और खाने में लगी रहतीं। और मेरे बाप रात की नमाज़ के बाद दादा की महफ़िल में देर तक बैठे रहते। ख़ुदा मालूम क्या-क्या बातें करते होंगे। लड़ाई के दिन थे (मेरा ख़याल है वह साल 1943 या 1944 रहा होगा), इसलिए लड़ाई में अंग्रेजों की जीत या हार के चर्चे जरूर होते होंगे, और चूँकि सारा घराना बहुत मजहबी था, इसलिए अल्लाह रसूल की बातें भी होती होंगी। जाहिर है कि सब लोग मुझे अपने बाप के घर में पूरी तरह सुरक्षित और गहरी नींद में हर ख़ौफ़ और हर अस्तित्व से बेखबर समझते होंगे। 

घर, जिसके एक सिरे पर, गढ़ी की परली तरफ़ एक सुनसान शौचालय था जिसे कोई इस्तेमाल न करता था लेकिन वह बन्द भी न रहता था। मगर गढ़ी की तरफ़ उसमें कोई खिड़की या दरवाज़ा न था, इसलिए उसे हर तरह सुरक्षित समझा जाता था। चारों तरफ़ ऊँची दीवार भी थी, ख़ास कर पीपल के पेड़ और गढ़ी की तरफ़, और जिसका दरवाजा शायद खुला रहता होगा लेकिन उस घर की स्थिति ऐसी थी कि दरवाजे पर आनेवाला कई लोगों की निगाह में रहता (या कम-से-कम मेरे माँ-बाप का यही ख़याल रहा होगा)। ऐसे हालात में आठ-नौ साल के समझदार, स्कूल जानेवाले और अंग्रेजी पढ़नेवाले लड़के के लिए किसी ख़ौफ़ की बात घटित होना मुमकिन ही कहाँ था?

लेकिन आह, मेरे माँ-बाप को क्या मालूम था कि वही पीपल का पेड़ जो दिन को बहुत दोस्तदार और खुशगवार और हरियाला सायादार पड़ोसी था, शाम फूलते ही दुश्मन, और मुझसे ख़ुदा जाने किस क़ुसूर का बदला लेने या ख़ुदा जाने कब की दुश्मनी निकालने पर आमादा, खून खुश्क कर देनेवाला भुतहा बन जाता था। और वे हवाएँ, जिन्हें वह बार-बार मुझे धमकाने के लिए मेरे सर के ऊपर, मेरी छत के ऊपर, सरपट दौड़नेवाले घोड़े की तरह दौड़ाता था। और क्या रात के वक़्त वे सारे घोंघे और वे मेरे दोस्त चींटे, और शायद पानी की तह में ख़ुफ़िया जिन्दगियाँ गुजारनेवाले जीव, सब उस पीपल पर चढ़कर चुड़ैल और जिन्नात बन जाते थे? या शायद वह पीपल का घना, लम्बा, ग्रान्डियल पेड़ ही कोई जिन बन जाता था? या हवाओं के शोर का फ़ायदा उठाते हुए कोई चुड़ैल, कोई बरम, कोई पिशाच, चुपचाप पीपल से उतरकर मुझको दबोचने ही वाला होता था?

ख़ुदा जाने पीपल के पेड़ में इतनी ताक़त कहाँ से आती थी। आज भी इस ताक़त का प्रदर्शन मैं इस तरह देखता हूँ कि शहर में जहाँ अब मैं रहता हूँ, एक पीपल वहाँ से कम-से-कम एक-डेढ़ मील की दूरी पर सड़क के उस पार खड़ा है। वहाँ कई पेड़ और भी हैं, जैसे कि सड़कों पर होते हैं। आँधी तो एक तरफ़, तेज हवा भी शहर के इस हिस्से में कभी-कभी ही बहती है। लेकिन मेरे घर की कोई दीवार, लॉन का कोई भाग, अन्दरूनी आँगन का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं जहाँ पीपल के पौधे तकलीफदेह और परेशान करनेवाले अन्तराल से न उग आते हों। हजार बार उखड़वाता हूँ, सैकड़ों बार ख़ुद नोच कर फेंकता हूँ, लेकिन तौबा कीजिए, वे कहाँ हार मानते हैं। मैं हार मानते-मानते रह जाता हूँ। जानता हूँ कि इन पौधों को अगर बढ़ने दिया गया तो ये जानलेवा दीवार, छत, सबको तोड़-फोड़ डालेंगे। इसलिए हर महीने दो महीने पर माली को टोकता हूँ, दूसरों की हिम्मत बढ़ाता हूँ कि भाई इन्हें ठहरने मत देना। मगर वे फिर आ जाते हैं। पीपल न हुआ, एडगर एलन पो की नज़्म 'द रेवन' का वह कुछ शैतानी-सा परबत काग हुआ जिसे नज़्म का बयान करनेवाला हज़ार कोशिश और उत्साह के बावजूद अपनी खिड़की, बल्कि यूँ कहें कि अपने सीने से हटा न सका था।

हर रात मेरी और पीपल के छतनार, दुश्मन, भूत जैसे काले रंग, गैर इनसानी अस्तित्व और पचासों रेलगाड़ियों का एक साथ किसी पुल पर गुजरने के शोर जैसा हंगामा करनेवाली हवाओं से जंग होती। और सुबह वह पीपल वही पहले जैसा सायेदार, ठंडा, और हलकी मिठास लिए हुए गोल-गोल छोटे-छोटे फलों वाला घर बन जाता। न जाने कितनी दोपहरें अपने माँ-बाप की आँख बचाकर वहाँ मैंने अपने साथियों के साथ पीपल की गोंदनियाँ चुनने और मजे ले-लेकर खाने में गुजारी हैं। एक बार मेरे एक साथी ने ग़लती से वकरी की एक मेंगनी भी गोंदनी समझकर मुँह में डाल ली थी। (मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ वह मैं नहीं था)। यह घटना हम लोगों के लिए थोड़ी-बहुत तफ़रीह का सबब बनी जरूर थी, लेकिन हमें ये भी मालूम था कि इसकी ख़बर हमारे बड़ों को लग गई तो बड़ी डाँट (और शायद मार भी) पड़ेगी, इसलिए हम लोगों ने बहुत जल्दी ही इस विषय को अपनी गुफ़्तगू से बाहर कर दिया।

आज ख़ुदा जाने कितनी मुद्दत बाद मैं गाँव में वापस आया हूँ। कल मुझे दादा की जमीन पर नये बने स्कूल का उद्घाटन करना है। दादा के दरवाजे पर नीम का पेड़, जिसके नीचे खानदान के लोगों के साथ गाँव का हर अजनबी मुसाफ़िर खाना खाता था, अब नहीं है। जिस पेड़ की छाँव में इस वक़्त मैं लेटा हुआ सोने की कोशिश कर रहा हूँ, उसकी उम्र मुश्किल से तीस-चालीस बरस होगी। वह गढ़ी और वह पीपल तो इस तरह अस्तित्व से दूर हो चुके हैं जैसे कभी थे ही नहीं। हम तो जैसे यहाँ के थे ही नहीं, 'ख़ाक थे आसमाँ के थे ही नहीं' जोन इलिया ने हिजरत के परिदृश्य में कहा था। इन बेचारों को क्या मालूम कि हम लोग जो यहीं के थे और कहीं न गए, हम लोगों का सारा बचपन, सारा लड़कपन, तमाम उठती हुई जवानियाँ, तमाम दोस्तियाँ और दुश्मनियाँ उन पेड़ों के साथ गईं जो कट गए, उन ताल तलैयों के साथ डूब गईं जो सूख गए, उन राहों से उठा ली गई जिन पर घर बन गए। ऐ तू जो शहर के बाहर खड़ा इस तरह बेतहाशा रो रहा है, बोल तूने अपनी जवानी के साथ क्या किया? मुझे वर्लेन के मिसरे याद आए। लेकिन मैंने तो कुछ करके दिखाया है, मैं आज दूर शहर से बुलाया गया हूँ कि स्कूल की इमारत का उद्घाटन करूँ। मैं अब काफ़ी महत्त्वपूर्ण आदमी हूँ, वह छोटा-सा लड़का नहीं जो दिल ही दिल में अपने बाप से नाराज़ रहता था कि रात के खाने के बाद मुझे आम और खरबूजों में से उतना हिस्सा क्यों नहीं मिलता जितना मैं चाहता हूँ? लेकिन इस गली से किसी ने न कहा था कि जानेवाले यहाँ के थे ही नहीं। मैं तो यहीं का था, या शायद नहीं था। भला कौन अपने दिल में और सर पर उन भूत-प्रेतों, चुड़ैलों, जिन्नातों, तेज़ चलकर डराती हुई हवाओं और भयानक मुस्कराहट मुस्कराकर दूर से इशारा करके बुलानेवाली बलाओं का पीला, गन्दा, काला खून लिये-लिये फिर सकता था।

मगर वह दुनिया हर तरफ़ हैरान करनेवाली, हर तरह से जुरअतों को आवाज देनेवाली, हर लम्हा विस्तार और गहराइयों का एहसास दिलानेवाली दुनिया थी। जिस बैतुलखला (शौचालय) का जिक्र मैंने अभी किया (ख़ुदा जाने क्यों हम लोग भी उसे बैतुलखला कहते थे पाखाना नहीं) उसके बारे में मशहूर था कि अगर कोई चालीस दिन तक लगातार उसमें जाकर 'सलाम अलैकुम' कहे तो इकतालीसवें दिन उसकी मुलाक़ात एक जिन से हो जाएगी जो वहीं रहता है। मैंने सुना था कि एक बार एक साहब ने चालीस दिन तक 'सलाम अलैकुम' वहाँ जाकर कहा तो इकतालीसवें दिन सचमुच एक शख्स उन्हें नजर आया जो था तो इनसानों जैसा लेकिन उसका क़द आसमान को छूता हुआ मालूम हो रहा था। बैतुलखला की छत बहुत ऊँची न थी लेकिन उस वक़्त इतनी ऊँची, इतनी ऊँची हो गई थी कि ठीक से नज़र न आती थी। 'व अलैकुम अस्सलाम' एक बड़ी गूँजती हुई-सी आवाज़ आई, जैसे बहुत बड़ा नक़्क़ारा बज उठा हो, या जैसे कोई बहुत बड़ा, बहुत ही बड़ा साँड़ डकार रहा हो।

उसके बाद क्या हुआ, ये बतानेवाला कोई न था। लेकिन वह पीपल अब फिर मेरे सामने है... नहीं, पीपल नहीं, लगता है कोई शख्स कहीं बुलन्दी से उत्तर रहा हो, शायद नीम के उस पेड़ से जिसके तले मैं सो रहा हूँ। धुँधली, लम्बी सूरत, नहीं बहुत लम्बी नहीं लेकिन कुछ घनी-घनी-सी। और वह पीपल अब उसके पीछे है और उस पीपल से अब कुछ नीली, कुछ काली-सी रोशनी फूट रही है। बहुत हलकी रोशनी लेकिन वह सूरत, वह पीपल का पेड़... नहीं, वह इनसानी सूरत, मुझे साफ़ दिखाई देती है। कोई इनसान है, डरने की क्या बात है? कोई बूढ़ा, पुराना मुसाफ़िर होगा जो यहाँ रात के लिए जगह माँगने आया है। सुबह चला जाएगा। मगर, मगर उसके कपड़े तो बहुत ही पुराने जमाने के हैं। हम लोग ऐसे मौक़े पर 'दक्यानूसी' लफ़्ज़ इस्तेमाल करते थे, अब बहुत दिन से ये लफ़्ज़ सुनने में नहीं आया।

 

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