चन्दन पांडेय की कहानी : शुभकामना का शव

“कभी-कभी तो उसका रोना इतना विह्वल कर देता कि खुद पीटने वाला भी रोने लगता, वो चाहें उसके जेठ-देवर हों या सगे भाई। भौजइयाँ भी चाहतीं कि वो खूब पिटे पर पिटाई शुरू होते ही वो ननद के पक्ष में रोने लगतीं। ऐसे में पीट चुके लोगों का तर्क होता था : क्या हुआ जो उसने मुँह से गाली नहीं दिया, पर उन्होंने गाली को उसके गले में ही देख लिया था। कामना जिससे भी पिटती, उससे बातचीत बन्द कर देती थी। धीरे-धीरे नइहर गाँव के दर्जी से अलग कोई उससे बात करने वाला नहीं बचा।"

राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, ‘वैधानिक गल्प’ और  ‘कीर्तिगान’ जैसे उपन्यासों और कई असाधारण कहानियों के लेखक चन्दन पांडेय के हाल ही में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘चोट’ से एक कहानी— ‘शुभकामना का शव’। इस कहानी की विषय-वस्तु इतनी भीषण है कि इसे पढ़ते हुए आप सिहर उठते हैं।  

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तैंतीस वर्षीय कामना खुद के लिए तो मर चुकी थी पर आए दिन कोई-न-कोई उसे बताता कि वह अभी जीवित है। यह सुनकर वह उठती, खुद को समेटती, जैसे उसके जिम्मे काम बहुत हों। कुछ कदम चलती और फिर अपनी परछाईं पर ढह जाती। उन दिनों लू तेज थी या उसे एड्स होने की अफवाह, बता पाना कठिन है पर वह दस-पचास कदम चलते ही निढाल पड़ जाती, जैसे आज ही दक्खिन दिशा वाले पीपल की जड़ों पर मरणासन्न पड़ी हुई थी। दलसिंगार चरवाहे ने उसे अपनी लाठी से कोंचकर बताया कि वह अभी जीवित है और उसे अपने घर जाना चाहिए। कहे तो वह मदद करे। मदद की बात पर कामना ने अपनी समूची शक्ति बटोर कर दलसिंगार के लिए दो-तीन गालियाँ फुसफुसाई और फिर वहीं निढाल हो गई।

दिन-ब-दिन कामना का वजन घटता जा रहा था। वह इतनी कमजोर और पस्तहाल हो गई थी कि अपने ही खर्राटों से उसकी जाग खुल जाती। गाँववासियों की राय थी : ऐसा उसके लड़ाकूपन की वजह से है। 

हर दूसरे-तीसरे दिन अपने ब्लाउज की सिलाई चुस्त करते हुए वह भी सोचती थी, आखिर उसके शरीर का वजन जा कहाँ रहा है। सौ कदम की दूरी तय करने में दो-दो या तीन बार सुस्ताती थी फिर भी जवाब हर किसी का देती थी।

पहले उस पर वैधव्य घहराया। दो वर्ष बाद ससुराल वालों ने उसके लड़ने-झगड़ने से आजिज आकर उसे नइहर भेज दिया। छोटा हाथी (टाटा एस नामक छोटी ट्रॉली) में पीछे बैठकर विदा हुई। ड्राइवर के साथ उसका भतीजा उसे छोड़ने आ रहा था। विदा से ठीक पहले, सास और दोनों जेठानियों ने खोइँछा भरा। सास ने सारा प्रयोजन बाएँ हाथ से निबेरा। दाहिने हाथ में खटिया का पाया पकड़कर, कल रात, कामना को पीटने से उनका हाथ भी सूज गया था। तो भी आज अपने भाव में वह बोसीदा लग रही थीं। उन्होंने दूब, हल्दी, सिन्दूर, खड़े दाने का पसेरी-भर चावल और इक्कीस रुपये, कामना की कुचैली साड़ी में रखे।

इनमें कोई संवाद सम्भव नहीं था। सास ‘घर दुआर धरती अकास’ को बता रही थी, मनई के दुख मनई ही जाने। हम तो चाहत रहे पतोहू यहीं रहे पर भगवान तहार लीला अपरम्पार। जेठानियों ने मुट्ठी खड़ा चावल और ग्यारह-ग्यारह रुपये खोइँछा में डाले और छोटी जेठानी ने कामना के सूजे गालों पर चिकोटी मसला और छेड़ चलाया : जा छिनरो, काट मजा। कामना की गर्दन पर, पीछे की तरफ से ही, अगर कल रात खटिये के पाये न मारे गए होते तो वह जवाब जरूर देती, पर पहली बार किसी को जवाब दिये बिना जाने दिया।

नइहर तक के अधूरे रास्ते तय करते हुए उसे तकलीफ उठानी पड़ी। पर अपने गाँव का सीमा देखते ही जाने उसमें कौन सी लहर व्याप गई कि उसने ससुराल वालों को सरापना (श्राप देना) शुरू किया। फूहड़-फूहड़ गालियों की बौछार ऐसी कि छोटा हाथी के इंजन का शोर भी कामना की आवाज पी नहीं पा रहा था। छोड़ने वाले उसे मय सामान गाँव के सीवान पर ही उतारकर चले गए।

आठ वर्ष बाद नइहर-देश आकर वह भूलभूलैया में पड़ गई थी। पहिचाने लोगों की शक्ल-ओ-सीरत सब बदल गई थी। नये निहोरे लौंडे-लपाड़े घूमते दीखते जो कामना की मौजूदगी कुछ इस तरह स्वीकारते थे : यही है झगड़हिनिया कमिनिया। गाँव की गलियाँ लोगों के खयालों से भी तंग हो गई थीं। गालियों और झगड़े वाले अपने शब्द-भंडार में वह अर्थ भर नहीं पाती जो उसके भाव उकेरते थे, फिर भी उन्हीं किन्हीं दिनों इस आशय का कुछ सोचा : अब उसका इस दुनिया में जीने का मन नहीं करता। भौजाइयाँ उसे बतातीं कि कौन सा कमरा किसका है तब भी वह मुस्कुराती, यह सोचते हुए कि अपने ही घर में पता पूछना पड़ रहा है।

पहली दफा कचहरी जाने के दिन उसकी भौजाइयाँ उसे तैयार करा रही थीं। मँझली ने पाया कामना को बुखार है। किसी और को इत्तला करने से पहले पति को बता आई। बहन के मानस में सम्मान छेंकने की लड़ाई में हल्की बढ़त बनाते हुए मँझले ने बात बढ़ाई : बहिनी को लेकर पहले वैद्य से मिलते हैं फिर कोई कोर्ट-कचहरी होगी।

कमजर्फ वैद्य ने मुस्की काटते हुए सबको सुनाया : दुल्हिन को प्रेम-ज्वर है। वैद्य के शब्द चयन पर लोग अमूमन शर्म और हैरानी व्यक्त कर रह जाते हैं, अपनी वैद्यकी पर लोगों के यकीन के नाते वह सार्वजनीन दिल्लगियाँ करता रहता था। पर इधर तो लड़ाई ही दूसरी थी। दो मानसिक गरीब पर शारीरिक मजबूत घराने लड़ रहे थे और फिर आपस का बाँट-बखरा वाला अन्देशा भी भाइयों में व्यापने लगा था, इसलिए छोटे ने मँझले की बढ़त कुचलते हुए वैद्य को चिल्लाकर हड़काया। कहना कठिन है बहन कितनी चैतन्य थी और कितनी तरजीह इन बातों को दे रही थी।

दवा-दारू लेकर वह सब तहसील-कचहरी पहुँचे। कचहरी की जगह सीली थी। बाहर तिरपाल ताने ऊँघते अनमने से टाइपिस्ट, कचहरी की दीवाल फाड़कर झाँकने के अन्दाज में उगे पीपल के कुछ पौधे। अधिकतर कमरों में बन्द ताले। गाली-गुफ्तार से हहराता कचहरी का अहाता। कामना का अन्देशा सच साबित हुआ : ससुराल वाले भी आए थे। इन सबके बीच पायलगी देर तक चली। यह सब उम्र के मुताबिक नहीं, रिश्ते के मुताबिक हुआ। जैसे, उम्र में छोटे जेठ का पैर कामना के बड़े भाई ने छुआ। ऐसे मिल रहे थे मानो किसी और के झगड़े में आए हों। कामना किसी टाइपिस्ट की चौकी पर नीम तले बैठी रही। बिना घूँघट किये।

दोनों पक्ष के वकील, वकालत छोड़कर सब कुछ जानते थे। समझौते को दुनियादारी की संज्ञा से पुकारते और चाहते थे कि इन दोनों पक्षों का सुलहा भी कचहरी के बाहर हो जाए। यही तरीका है।

पहले जायदाद के फायदे दिखाकर अदालती मामला दर्ज करा दो, कई दफा फीस और खर्चे तमाम वसूल लो फिर सुलहा-सुलुफ करा दो। कामना के भाई सब लेकिन बहन को उसका सोलह बीघे वाला अधिकार दिलाना चाहते थे।

न्यायाधीश की टुटही कुर्सी के सामने ही दोनों पक्ष आपस में भिड़ गए। ससुराल वालों में से एक ने बन्दूक निकाल ली। बन्दूक के दरस पाकर सबसे पहले सिपहिया सब कचहरी से फरार हो गए। ससुराल वाले अपने वकील तक को बोलने नहीं दे रहे थे। सबसे बड़ा जेठ गुस्से में बोलते-बोलते अपनी ही जीभ दाँतों से काट बैठा तो सँझले ने मोर्चा सँभाला, जिसके पास बन्दूक थी : मलिकार (न्यायाधीश को सम्बोधित), मौली गाँव के कुबाभन सब बहन की कमाई खाना चाहते हैं। धन्धा कर लो, बहिंचो। बहिनी को अधिकार दिलाने आए! मलिकार, अभी से हमारी पुश्तैनी जमीन के ग्राहक चक्कर लगाने लगे हैं। बहन के हिस्से की जमीन मिलते ही ये सब बेच खाएँगे।

लम्बा एकालाप चला, उसने कामना को भी खूब सुनाया, लेकिन एक गलती कर दी। गर्मा-गर्मी के दौरान कामना को एक गाली दे दी, जिस पर वह फूटकर रो पड़ी। गाली थी : भतरकाटी (पति की हत्यारन)। इतना सुनना था कि उन बहादुरों की बन्दूकें धरी-की-धरी रह गईं। कामना के भाइयों ने उसके जेठों और देवरों को कुर्सियों से मार-मारकर कुर्सियाँ तोड़ डालीं। कूटने के बाद छोटे भाई ने हाँफते कहा : बहिन का हिस्सा तो तोर बाप भी लिखेगा रे, दोगलासन।

ये लोग ससुराल वालों को कूँच-काँचकर और बहन की रुलाई रुकवाकर लौट रहे थे तब सिपहिया लोग आते दिखे।

वही सब सिपाही जो दोनाली देखकर भाग गए थे। बिना किसी दरयाफ्त के उन सबों ने सफाई पेश की : खैनी-चूना के वास्ते टहलने निकल आए थे। सब निबट गया? पाँड़े बाबा, बोहनी कराओ। मँझले भाई ने सौ सौ के चार नोट अपनी जाँघ पर रखे और कहा : ले जाओ दरोगा जी, तेल लगाने के काम आएगा। बड़के ने आँख तरेरकर बात घुमाई, कहा : लड़बक! और पैसे उठाकर नायब के पैंट और जाँघिए में कहीं खोंस दिया।

पुलिस वाले सोच नहीं पा रहे थे कि दरोगा वाले सम्बोधन से खुश हो लें या बाकी बातों का बुरा मान जाएँ। बड़े भाई ने फिर कहा : दरोगा बाबू, गाँव की ओर कभी आओ। इस तरह पुलिस वाले अपनी आबरू को लेकर आश्वस्त हुए। दरअसल, इस इलाके में पुलिस इतनी बदनाम थी कि अगर ये दो-चार की संख्या में हुए और कोई गलती कर दी तो बड़ी मार-पिटाई खाते थे। हाँ अगर दल-बल के साथ हों तो फिर मामला उल्टा हो जाता था। यहाँ इन्हें डर था कि कुछ भी उल्टा-सीधा हुआ नहीं कि सारी कचहरी मिल कर मारेगी।

भारत से दूर-देश के इस हरे-भरे फिर भी अधमरे इलाके में वकीलों का बोलबाला था। अदालतों के आ जाने से जायदाद और मिल्कीयत के मामलों में पंचायती या बाहुबली फैसले अवैध हो गए थे। वकील थे कि वकालत से अलग सब करते थे। वे कोई भी राय दे सकते थे और मौके-बेमौके उसे सही साबित कर सकते थे। कामना के ही मामले में जब दोनों तरफ के वकीलों ने सलाह दी, तारीखों पर आया करो, सब आते रहे। कचहरी में ही झगड़ते रहे।

फिर सलाह दी, कामना जिस घर में अधिक समय गुजारेगी, उसकी दावेदारी अधिक होगी। इस मशविरे पर कामना के अपहरण का सिलसिला शुरू हुआ, जो तब तक चला जब तक कामना बीमार न पड़ गई।

दोनों तरफ के लोग जब झल्लाते, ऊबते, अदालती खर्चों से चिहुँकते तो कामना की पिटाई करते थे। ऐसे तो उसका बड़ा मान-जान था पर परेशान होते ही लोग उसे ऊँच-नीच कहना शुरू करते थे, जिसके जवाब में वो गरियाती और फिर पिटती। कभी-कभी वह गाली न भी दे, तब भी लोग उसे पीट बैठते। इसका पता कामना की रुलाई से चलता।

जब वह पिटाई के बरक्स गाली दे देकर लड़ती और अपने ऊपर के वार बचा-बचाकर लड़ती तो उसकी रुलाई में शोर हुआ करता। चिल्लाहट। रूखी-सी कर्कश रुलाई। चोट उसे फिर भी आई होती पर उसके रोने से आप समझ जाते कि यह रुलाई मुकाबले में पराजित की रुलाई है। लेकिन जब वो बेकसूर पिट जाती, बिना गाली-गलौज किये, तब उसकी रुलाई राहगीरों तक के मर्म को भेद देती।

कभी-कभी तो उसका रोना इतना विह्वल कर देता कि खुद पीटने वाला भी रोने लगता, वो चाहें उसके जेठ-देवर हों या सगे भाई। भौजइयाँ भी चाहतीं कि वो खूब पिटे पर पिटाई शुरू होते ही वो ननद के पक्ष में रोने लगतीं। ऐसे में पीट चुके लोगों का तर्क होता था : क्या हुआ जो उसने मुँह से गाली नहीं दिया, पर उन्होंने गाली को उसके गले में ही देख लिया था।

कामना जिससे भी पिटती, उससे बातचीत बन्द कर देती थी। धीरे-धीरे नइहर गाँव के दर्जी से अलग कोई उससे बात करने वाला नहीं बचा। सबको इसका दुख था कि क्यों नहीं कामना खुद से अपनी जायदाद उनके नाम कर देती है।

ससुराल वालों को कामना का व्यवहार इतना अखरा कि उन्होंने कामना के पति वाली बीमारी का हल्ला कामना के नाम पर फूँक दिया। भाइयों का भी यही हाल लेकिन वे इस उम्मीद में चुप थे कि आज नहीं तो कल, सब मिलना ही है। कामना के सात भाइयों में बँटवारा हो चुका था और सिवाय कामना की जायदाद के वे किसी मुद्दे पर एकमत नहीं हो सकते थे।

दर्जी की बात दूसरी थी। जब से कामना नइहर लौटी, उसका स्वास्थ्य गिरता चला जा रहा था। आए दिन, कपड़े चुस्त कराने या पुराने कपड़ों को उघड़वा कर नया बनवाने के लिए कामना दर्जी तक जाया करती।

दर्जी का नाम मियाँ जी पड़ चुका था और उन्होंने अपने डरे सहमेपन के नाते गाँव में अच्छा-खासा सम्मान कमा रखा था। जब भी कामना वहाँ जाती, देर तक बैठती। लोग आते, अकसर औरतें आती थीं, दर्जी से बातचीत के बीच कामना को ऐसे देख लेते जैसे वो किसी परिचित गाँव की अपरिचित है। वह वहीं बैठी रहती, जब लोग चले जाते तो कुछ-न-कुछ बतियाती। होशियारों का सुबहा था कि दर्जी ही कामना का वकील बना है।

जबकि कामना मियाँ जी से जो बातें करती उसका कुल लक्ष्य ऐसा होता था जैसे वह दर्जी के माध्यम से अपने जीवन को जानना-समझना चाहती हो। कामना का एकमात्र अपराध अकेला पड़ जाना था, इतना वह समझती थी। इसका दुख भी उसे था। वह दर्जी से अपने बारे में, अपनी शादी के बारे में पूछती। अपने पिता का चेहरा वह भूलने लगी थी, पिता उसे खास कोई प्यार भी नहीं करते थे, फिर भी खोई हुई उम्मीद की रोशनी की तरह उनके बारे में पूछती। मियाँ जी सिलाई मशीन की धुन पर उसे बहुत कुछ सुनाते। कुछ स्मृतियों के आसरे, कुछ गढ़कर, कुछ अपने जीवन का मिलाकर... कामना के जीवन के किस्से पूरते।

मियाँ जी के किस्सों पर सवार कामना अपना जीवन देखती। पलटती और पाती कि उसे सब हू-ब-हू याद आ रहा है। मसलन बचपन से ही उसके झगड़ालू होने को उसके खिलाफ इस्तेमाल किया गया। गाँव में लड़ाका के नाम से यह मशहूर थी। कोई नहीं जानता, पन्द्रह-बीस सगे-चचेरे भाई-बहनों के बीच कब क्या हुआ कि कामना झगड़ालू-दर-झगड़ालू होती गई। लोग उसके इस स्वभाव का फायदा उठाते थे, किसी भी गलती के लिए उसे दोषी ठहराते हुए जैसे सब यही मानकर चलते थे कि झगड़ालू है तो भूल गलती इसी की होगी। कामना के ब्याह में भी यह आरोप इस्तेमाल हुआ। ब्याह तय होने के तीन-चार महीने तक लोग यही बातें करते रहे, खेतिहर के यहाँ जा रही है— भाग्यशाली है, दूल्हे के पिता का नाम-काम बड़ा है, वर्षों-वर्ष से दोनों पहर का चूल्हा इनके घर जलता रहा है, दूल्हे का बड़ा भाई कचहरी में चपरासी लगा है।

शादी तय-तपाड़ होने के पाँच महीने बाद कामना की माँ को यह खयाल आया, दूल्हा कैसा होगा? किसी ने देखा भी है या नहीं?  

कामना के पिता से पूछा। उनका कहना था, लड़का क्या देखना, यह नसीब की बात है। कामना के भाई ने बताया, लड़का ट्रक चलाता है, जल्द ही अपना ट्रक खरीद लेगा, अभी ट्रक लेकर निकला हुआ है, ब्याह के दिनों ही आएगा। किसी ने पूछा, लड़के का नाम? दरअसल लड़के के पिता, घर-बार का नाम इतना बड़ा और व्यापक था कि दूल्हे का नाम किसी को मालूम ही नहीं था।

माँ को शायद पसन्द न आया। सोचा, दामाद ट्रक घुमाता है, ऐबी होगा। जब तक वो शिकायत कर पाती उससे पहले ही कामना के सात भाई, सात भाभियाँ, तीन बहनें, तीन जीजा और पिता, सबने समवेत स्वर में कहा : ऐसी झगड़ालू के लिए और भला कैसा लड़का चाहिए। भाइयों ने चूँकि मिलकर अभी कुछ ही दिनों पहले इसे मारा-पीटा था इसलिए उनसे और उनके परिवारों से बातचीत बन्द थी। वजह, चुराकर दूध पीना, बतलाई गई थी।

कामना के बड़े भाई रामआसरे को कुछ एहसास हुआ और उन्होंने हज्जाम को बुलावा भेजा। हजाम आया, बख्शीश में ग्यारह रुपये पाकर नायगाँव की राह चल पड़ा, जहाँ दूल्हे का नाम मिल सकता था।

कामना बिहँसते हुए कहती थी : वहाँ भी सबको पानी पिला दूँगी। लोग मजे लेते थे। वह जानती थी, लोग आनन्द ले रहे हैं इसलिए बढ़-चढ़ के दावे करती थी। जी ही जी, पर, उसका सोचना बड़ा प्यारा और जिद भरा था। वह अकेले पड़-पड़कर थक चुकी थी। हर झगड़े-झंझट के बाद पाती थी कि तमाम मार-पीट, गाली-गलौज खत्म होते ही वो अकेले पड़ गई है।

जिसके लिए लड़ रही होती, वह ही, पता नहीं किस मुकाम पर कामना का साथ छोड़ विरोधियों से मिल जाता। बहाना वही— बहुत लहजबान है। कई बार तो ऐसे बदतर मौके भी आए जब उसे अपना भोजन अलग पकाकर खाना पड़ा।

कामना ने तय कर रखा था कि नये घर में प्रवेश करते ही वह अपने-आपको बदल लेगी। कोई जबाबा-जबाबी नहीं। कोई झंझट नहीं। कुछ भी ऐसा नहीं करना कामना, खुद से ही कहती, कि सब तुम्हें अलग-थलग कर दें।

उम्रवान और दुनिया देखे पति के लिए शादी की रस्म ही महत्त्वपूर्ण थी। सो, दो से तीन दिन ही में चलता बना। खयाल उसके भी नेक थे पर विवाह के रोमांच से वह भिज्ञ था इसलिए शुरू दिन से ही एक प्रेमिल निस्पृहता उसने पत्नी के लिए बना ली थी। कामना ने भी अपने गाँव में नवेली ब्याहताओं की जो गति देखी, सुनी थी इसलिए उसे किसी बात का आश्चर्य नहीं हुआ। दुख भी नहीं। एक तो उसके साथ उसका दृढ़ निश्चय था जिसमें उसके ऊपर लगे झगड़ालू का निशान उतारना था, दूसरे गाँव का उसका अनुभव कि उसने चुप-चुप रहते हुए जीना शुरू किया।

लोगों की निगाह पर वह तब चढ़ी जब उसका पति सवा साल बाद बीमार, मरणासन्न, लौटा। साथ लौटे खलासी ने बीमारी का नाम एड्स बताया और यह भी कि डॉक्टर ने कहा है, अब चलने-चलाने का वक्त आ पहुँचा है।

बीमार पति को कामना के कमरे में डाल दिया गया। कामना को उसके आगम की खबर हो चुकी थी, फिर भी सारा काम निबटाकर, घर बुहारना, चौका लीपना, बर्तन माँजना, दीया-बाती करना, मसाला पीसना, खाना पकाना, ठाकुर जी को भोग लगाना, सबको खिलाना, सास का बिस्तर लगाना, भैंस का भात चढ़ाना, खली भिगोना… सब निबटाकर अपने कमरे में लौटी। ढिबरी की नीम रोशनी में पति को आधा-अधूरा देखा। इच्छा और अनिच्छा के बीच के किसी भाव से ही सही, पैर छुए। अशक्त पति फुसफुसाया। न मालूम कहाँ का चोर उसके मन में समाया कि बड़ी दयाद के बच्चों के लिए रखे दूध में से पसर-भर निकालकर पति के लिए लेने गई। ला ही रही थी कि पकड़ी गई। ससुराल में उसकी यह पहली पिटाई थी।

दो महीने तक स्वरूप जीवित रहा। इस बीच का उनका जीवन कामना की खातिर सर्वोत्तम साबित हुआ। ऐसा नहीं कि साथ खूब मिला। न। दरअसल साथ होने के एहसास को वह पहली मर्तबा जी रही थी। सुबह जल्द उठकर कामना स्वरूप का बिस्तर बाहर लगा देती, यह विदाई समूचे दिन की होती थी।

एक रात स्वरूप ने हाजत की बात बताई। किसी को बताए बिना कामना खुद स्वरूप के साथ बाहर चली आई। निबटान तक वह वहीं मेड़ पर बैठी रही। यह उसके लिए पहला मौका था जब वह पति के साथ घर से बाहर निकली थी। चाँद से भरी भारी रात में उसने पहल कर कहा, बैठते हैं।

अशक्त स्वरूप कामना के लिए कुछ करना चाहता था, इसलिए बैठ गया। जब बैठना मुश्किल लगने लगा तब उसने अपना सारा वजन कामना की गोद में डाल दिया। दोनों चुप थे। स्वरूप ने एक बात जरूर कही : कोई भी मरना नहीं चाहता है।

कामना आसमान देख रही थी। उसे बाबर का किस्सा मालूम नहीं था और न ही वह गीत लेकिन वह जो कुछ भी सोच रही थी कि काश पति को उसकी उम्र मिल जाए। सुबह होने तक वे दोनों वहीं रहे। गलती भी की कि प्रेम किया।

कामना का जीवन कचहरी-वैद्य, डाँट-फटकार-झगड़े, बचे-खुचे में आत्मसम्मान की लड़ाई में गुजर रहा था पर एक दिन ऐसा आया जब उसने बिस्तर पकड़ लिया। पहली दफा देखकर ही कम्पाउंडर या कह लीजिए डॉक्टर ने जवाब दे दिया। जिला अस्पताल ले जाने को कहा पर फुर्सत किसे थी? सब अपने-अपने अन्दाज से बीमारी का अनुमान लगाए बैठे थे, लाइलाज वगैरह के विशेषण जोड़े बैठे थे लेकिन कामना का व्यक्तिशः जो अनुभव था, दीगर था— वह पहला दिन जब कामना का भरोसा जीवन मात्र से दरक गया।

दर्जी वैसे साथी में तब्दील हो रहा था जो तब आपका साथ देते हैं जब आप पर फैले इल्जाम आपको लाचार बना दें : सुख-दुख का साझा, गाँव-गिराँव की उलटबांसियाँ। ऐसा अकुंठ अनुराग उपज आया था जो सहज सम्भाव्य होते हुए भी मर्यादितों के लिए वर्जना है। पर उस दिन दर्जी ने शरारत कर दी। इरादतन ।

इस गाँव की दुपहरी में सुनसान भी शोर करता है। दर्जी ने झोंक में आकर कामना को दीवाल से टिका दिया। वह व्यवहार से इच्छाहीन और शरीर से अशक्त जान पड़ता था। कामना माजरे से अनजान न थी। उसकी अपनी कामनाएँ होते हुए भी जैसे बन्द किसी पोटली में ढँकी रह गई हों कि वह अवाक पड़ गई। निर्जोर विरोध किया। दर्जी के हाथ-पाँव चल रहे थे पर… (आगे की कहानी पढ़ें— ‘चोट’ कहानी संग्रह में) 

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