भिखारी ठाकुर : अनगढ़ हीरा

भिखारी की रचनाओं का देशकाल देश में आजादी की लड़ाई, दुनिया में दूसरा विश्वयुद्ध और बंगाल में सुधारवादी आन्दोलन का काल है।

भिखारी ठाकुर की जयंती पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, तैयब हुसैन लिखित ‘भिखारी ठाकुर : अनगढ़ हीरा’ पुस्तक का एक अंश 

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भिखारी ठाकुर निम्नवर्गीय कला, भाषा और वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। नाटकों में भीड़ इसी वर्ग के दर्शकों के कारण होती थी। भिखारी का तमाशा इसी वर्ग का भोगा हुआ यथार्थ था। यहाँ एक पंक्ति जोड़ना जरूरी लग रहा है और वह यह कि विशुद्ध परम्परावादिता को ढोनेवाली कलाएँ लोक कलाएँ कहलाती है क्योंकि वह सचेत लोगों की रचना नहीं होती। विपरीत इसके भिखारी अपनी कलाओं का शिल्प तो लोक से लेते हैं पर उसमें सामयिक समस्या और अपनी सोच भी डालते चलते हैं, इन कलाओं को इन दिनों 'लोक' के बदले 'जन' विशेषणों से जोड़कर देखा जाता है।

भिखारी की रचनाओं का देशकाल देश में आजादी की लड़ाई, दुनिया में दूसरा विश्वयुद्ध और बंगाल में सुधारवादी आन्दोलन का काल है। महात्मा गांधी के स्वतंत्रता निर्वाह आन्दोलन के साथ समाज-सुधार के कतिपय प्रचार भी जारी थे।

भिखारी का घर बिहार के सारण जिले में पड़ता था। उनका गाँव गंगा-सरयू नदियों के कछार का दियारा गाँव है। सारण जिले में तब घनी आबादी थी। कल-कारखाने का अभाव था। बाढ़ की समस्याएँ आम थीं। जमीन कुछ ही लोगों के अधीन थी। ज्यादातर लोग खेत-मजदूर या कारीगर थे। अंग्रेजों ने 1857 के बाद 'इश्तमरारी' बन्दोवस्ती के अन्तर्गत भारत की भूमि काश्तकारों को लगान पर आवंटित कर दी थी। ये काश्तकार प्रायः अमीर और सवर्ण लोग थे। अब ये जमींदार कहलाने लगे। ये खुद खेती नहीं करते थे। अपनी भूमि रैयतों में बाँटकर उनसे मालगुजारी पर खेती कराते थे। बेगारी फाँव में लेते थे। इस तरह समाज में भेदभाव (ऊँच-नीच) और शोषण बढ़ता जा रहा था। बंगाल में अकाल पड़ा तब भारत की राजधानी थी कलकत्ता। दूसरे विश्वयुद्ध के कारण भी शहरों में मजदूरों की माँग बढ़ी। तब गाँवों से गरीबों का पलायन स्वभावतः शुरू हो गया।

भोजपुरी लोकगीतों और कथाओं में पहले भी मोरंग देश (नेपाल) और रंगून (तब का बर्मा और अब म्यांमार) जाकर आम लोगों के अर्थार्जन की दास्तान मिलती है। मोरंग को तब 'उत्तर बनीजिया' कहा जाता था। मतलब उत्तर का वाणिज्य केन्द्र। इस तरह पूर्वी, जतसार, सोहनी, रोपनी आदि गीतों में बिदेसिया के बीज देखे जा सकते हैं। लेकिन जब गिरमिटिया कुली बनाकर इन्हें अंग्रेज अपने विदेशी उपनिवेशों में ले गए और उधर बंगाल भी कल-कारखानों (विशेषकर सूती मिल या चटकल) का केन्द्र बना तो इनका पलायन पूरब देश कहकर होने लगा। भिखारी ठाकुर का 'बहरा बहार' उर्फ बिदेसिया और उत्तरार्द्ध स्वरूप सर्वाधिक गम्भीर नाटक 'गवर बिंचोर' इसी पर आधारित है।

भिखारी का बंगाल आना-जाना बचपन से लेकर कला के शीर्ष तक बना रहा। विवाह-शादी का मौसम (लगन) समाप्त होते ही वे अपनी मंडली के साथ नेपाल, बंगाल, असम आदि जाकर या मेले-ठेले में टिकट पर अपनी कला का प्रदर्शन कर सालों-भर अपने परिवार और अधीनस्थ कलाकारों का पेट पालते थे।

कहना नहीं होगा कि पलायन, बेमेल शादी, विधवाओं की यंत्रणा, बूढ़ों के निर्वाह का सवाल, मद्य-निषेध, औरतों में अतिशय आभूषण प्रेम, धर्म में बाह्य आडम्बर और संयुक्त परिवार में विघटन जैसे मसलों से ही भिखारी के नाटकों के कथानक लिये गए हैं जो इनका खुद का भोगा हुआ, देखा हुआ और आस-पड़ोस का अनुभव है। इनके बहुत पहले से गिरमिटिया प्रवसन जारी था। लेकिन ठीक से नहीं जानने के कारण इसे उन्होंने अपने किसी भी नाटक का विषय नहीं बनाया है।

उनके एक नाटक 'बेटी वियोग' (बेटी बेचवा) में गरीब माता-पिता पैसे के लालच में अपनी बेटी को दादा की उम्र के वर के साथ ब्याह देते हैं या बेच देते हैं। ऐसे में नारी-व्यथा की एक ऐसी करुण कहानी उसके गर्भ से जन्म लेती है जो तब गाँव में अनहोनी नहीं थी।

इसकी परिणति फिर उनके दूसरे नाटक 'विधवा विलाप' में उसके असमय विधवा हो जाने और उसके हिस्से की जायदाद पर उसके परिवार वालों की गिद्ध-दृष्टि के कारण उसे सताए जाने से लेकर जान पर बन आने तक में होती है। लेकिन यह भिखारी की परम्परावादिता है कि वे न तो कहीं विधवा-विवाह करा पाते हैं और न ऐसी शादी से बेटी के इनकार का बिगुल फूंकते हैं।

बीच में भिखारी बूढ़शाला (वृद्धाश्रम) की जरूरत महसूस कराते हैं पर जवान विधवा अन्त में साधु के आश्रम में साधुनी बनकर भजन करने में रम जाती है जबकि ऐसे ही आश्रम से देवदासी प्रथा और व्यभिचार की दूसरी नहरें समाज में फूटती पाई गई हैं।

'भाई विरोध' नाटक का एक भाई 'उपद्दर' तो कलकत्ता से पूँजी कमाकर संयुक्त परिवार से अलग 'एकला चलो' का रास्ता अपनाता है और गवई पंचायत के असहयोग की धमकी को पैसे के कारण गाँवों में भी शहर के साधन की उपलब्धता देखकर अँगूठा दिखा देता है। वह कहता है : गेहूँ वह आटा चक्की में पिसवाएगा। गीत लाउडस्पीकर लगवाकर गवाएगा और पानी के लिए दरवाजे पर चाँपाकल गड़वा लेगा। हलाहल पानी गिरेगा। लोग तमाशा देखते रह जाएँगे।

पर भिखारी पूँजी के प्रताप से संयुक्त परिवार के इस विघटन को भी पड़ोसी कुटनी बुढ़िया की करनी मानकर छुट्टी पा लेते हैं।

इसी तरह 'पुत्र वध' जैसे नाटक में खून-खराबा बीच की अवधि में नौटंकी में आई दस्यु कथाओं का प्रभाव लगता है तो अन्तिम नाटक 'गबर चिंचोर' गीत की जगह तार्किक संवाद लिये नारी अधिकार को गम्भीरता से दर्शकों के आगे परोसता है।

लम्बे प्रवास के कारण घर में अकेली रह गई नायिका दूसरे के बच्चे की माँ बन जाती है और जब दावेदार ब्याहता पति, बच्चे का वास्तविक पिता और माँ के बीच 'समाज' पंच की भूमिका में खड़ा होता है तो आज के सरोगेट मदर की तरह कोख पर अधिकार का सवाल तब ही खड़ा कर भिखारी आखिरकार क्रान्तिकारिता की ओर कदम बढ़ाते नजर आने लगते हैं। इस नाटक के माध्यम से यह भी कहा गया है कि ऐसी कथित नाजायज सन्तान को सामाजिक मान्यता मिलनी चाहिए और उस पर माँ का अधिकार होना चाहिए। स्थिति की दोषी औरत नहीं यह पुरुष समाज या कहें व्यवस्था है जिसे झेलती है अकेली औरत।

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