-
शाकाहार और माँसाहार की बहस इन दिनों राजनीतिक चर्चाओं, भाषणों और विवादों के केंद्र में है। जाहिर है, ऐसे में हमारे मन में यह सवाल उठ सकता है कि क्या इन दोनों में से किसी एक भोजन पद्धति को अपनाया जा सकता है? राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, खानपान की भारतीय संस्कृति पर आधारित लेखों के संकलन ‘सतरंगी दस्तरख़्वान’ का एक लेख जिसमें लेखक-पत्रकार आशुतोष भारद्वाज ने ऐतिहासिक और पौराणिक उदाहरणों से इसी सवाल का जबाव ढूँढ़ने की कोशिश की है।Read more
-
विश्व पर्यावरण दिवस पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, अनुपम मिश्र की किताब ‘बिन पानी सब सून’ से एक लेख— ‘पर्यावरण क्यों नहीं बनता चुनावी मुद्दा?’ यह लेख बीस साल पहले 2004 में लिखा गया था लेकिन आज यह उस समय से भी ज्यादा प्रासंगिक है।Read more
-
Posted: January 30, 2024
पुस्तक अंश : खड़े रहो गांधी
महात्मा गाँधी की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, पुरुषोत्तम अग्रवाल की किताब ‘संस्कृति वर्चस्व और प्रतिरोध’ में संकलित लेख ‘खड़े रहो गाँधी’ का एक अंश।
-
Posted: January 04, 2024
लेख : मोबाइल पर उंगलियाँ घुमाते रहना भी है बीमारी?
“मैं अपने आसपास के लोगों को देखता हूँ कि वे बातचीत की शुरुआत करने के पाँच से सात मिनट के बाद उसे उन प्रसंगों से जोड़ने लग जाते हैं कि मोबाइल फ़ोन निकालकर कोई तस्वीर, लिंक या पोस्ट दिखाने की ज़रूरत पड़ जाए। कई बार वे फ़ोन पर इनबॉक्स कर देते हैं। उसके बाद वे कुछ और देखने लग जाते हैं या फिर दूसरा प्रसंग ऐसा छेड़ते हैं कि फिर मोबाइल की ज़रूरत पड़ जाए।”
मोबाइल फोन पर दिनभर उगलियाँ चलाते रहना लगभग हम सबकी एक आदत हो चली है। इसके फायदे-नुकसान पर भी अक्सर बहसें होती है। कई लोग सोशल मीडिया के नुकसानों के बारे में बताते हुए उन्हीं प्लेटफॉर्म पर विडियो/लेख आदि शेयर करते रहते हैं। वहीं कुछ लोग सोशल मीडिया के इस्तेमाल को कम करने या बिलकुल नहीं करने की शपथ लेकर कुछ ही दिनों में वापस इसे इस्तेमाल करते हुए नज़र आते हैं। इन सबको देखते हुए हमारे मन में इसको लेकर कई तरह के सवाल उठते हैंं। ऐसे ही सवालों से जूझते और उनका जवाब तलाशने की कोशिश करते हुए प्रतिष्ठित मीडिया विश्लेषक और दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर विनीत कुमार
-
आमतौर पर हमारा समाज-मन एक प्रश्नहीन आनुगत्य चाहता है, और इसलिये कोई भी जिज्ञासा, कोई भी समालोचना, कोई भी भिन्नमत फौरन प्रबल विरूपता, या लगभग आक्रोश ही उत्पन्न कर देता है और ऐसे में विभिन्न विचारों और समन्वय में से होते हुए सामने की ओर अग्रसर होने वाला पथ अवरुद्ध होता जाता है।
....
मान लीजिए, रवीन्द्रनाथ की कविताएँ आपको अच्छी लगती हैं, लेकिन मुझे नहीं लगतीं। आपको लगता है कि नि:संग किसी फुर्सत के समय को भी जिस तरह वे कविताएँ आनन्द से भर सकती हैं, ठीक उसी तरह जीवन के अत्यन्त प्रखर संकटपूर्ण क्षणों में भी उनसे वैसा ही आश्वासन मिल सकता है, वे कविताएँ आपके समूचे जीवन की साथी बन सकती हैं, यहाँ तक कि मृत्यु के क्षण में भी आश्रय बन सकती हैं। ‘कविकाहिनी’ से ‘अन्तिम रचना’ तक एक कवि के उन्मोचन और विकास की छवि देखते-देखते सम्भवत: आप स्तब्ध हो जाते हैं, हो सकता है उनकी विभिन्न स्तर की कविताओं को पढ़ते-पढ़ते आपको बुद्धदेव बसु के ‘कविता की सात सीढ़ियाँ’ शीर्षक वाले लेख की याद हो आती हो, जहाँ बुद्धदेव ने बताना चाहा था कि