रंग याद है : मार दिया छुरा, निकल गया दम

क्या रंग को पक्का करने के लिए इसी पानी का इस्तेमाल किया जाता होगा जिसे सारी उम्र धोबन न छुड़ा सके। सामान्य रंग तो कपड़ों से उतर जाते थे। धोबी ही अगले दिन सारे कपड़े ले जाते थे और धोकर, रंग छुड़ा कर वापस करते। सिर्फ हमारे रंगों के बाद कोई कपड़ा धोबी को नहीं दिया जाता था। मैं यही सब जाँच करने के लिए सखियों समेत उनके मोहल्ले में चक्कर भी लगाया मगर वहाँ खौलते हुए कड़ाह और रंगीन पाउडर मिले। तो हाँ, होली के दिन बड़े से टब में पानी, पानी में रंग और फिर उसमें केले के थम्ब का पानी मिला दिया जाता था। आसपास के लोगों को पता चल चुका था कि थाना रोड की होली में ये खेल होता है।

‘रंग याद है’ शृंखला की इस कड़ी में राजकमल ब्लॉग पर पढ़ें, गीताश्री के बचपन की रंगयाद : “मार दिया छुरा, निकल गया दम”

...

हम हम हम

केला के थम

मार दिया छुरा

निकल गया दम...

 

ये लो...हहरा के निकला पानी रे...ओ री सीमा...

मधुउउउऊ....तेरा कितना भरा रे...।

हाथ में बड़ी-सी शीशी लेकर मैं केले के सूखे थम्ब से जूझ रही हूँ और उधर मधु और सीमा समवेत स्वर में गा रही हैं...   हम हम हम...केला के थम...

मैं छोटी-सी छूरी से केले थम्ब को चीरे जा रही हूँ... अंदर से इतना सूखा होगा, क्या पता। बाहर से धोखा हुआ। यह पहला पाठ था कि धोखे इस तरह मिला करते हैं। ऊपरी तौर पर देखकर अनुमान लगाना मुश्किल। हनी ने मेरा हाथ पकड़ा और दूसरे पेड़ के पास ले गई। उसे मेरी हथेलियों से ठोका...भीत भरा-भरा लगा।

"तू तअ केला के देस के बारू, तहरा अंदाजे नइखे...केकरा भीतर पानी बा..."

सीमा दाँत चियार कर हँस रही थी।

"तुम तो केले के उपवन में छिछियाती होगी न जी…।"

"हाँ तो...?"

"हाजीपुर के केरा मँगा दऽ बलमू..." मिकी इस गीत को बेसुरी होकर गाती।

मैंने शीशी से थोड़ा मटमैला पानी निकाला और सीमा और मधु की तरफ उछाल दिया।

गोपालगंज के जिस हिस्से में यह कदली वन था, वहाँ आसपास बस्तियाँ कम थीं। अब तो याद भी नहीं कि वह किधर था। होली करीब है, फगुनहट रह-रहकर सिहरा रही हूँ... कभी गोपालगंज का कदली वन याद आ रहा है तो कभी मेरे गाँव के दरवाजे पर होली गाने वाले लोक गायकों की, उनके फटे कपड़े और भांग के नशे में उनका तमाशा। वह एक भयावह, हास्यास्पद याद है जो भाँग से सदा दूर रखती है। लेकिन कदली वन से कैसे दूर हुई मैं जबकि वह आज भी मेरे स्मृति में हरी-भरी है।

स्मृति में वह कथा भी है जो बड़की चाची ने सुनायी थी― एक राजकुमारी को एक गन्धर्व ने शाप दिया था वह एक ऐसे वन में कैद होगी, जहां कोई पुरुष प्रवेश नहीं कर पाएगा। इसके बाद से पुरुषों ने कदली वन में जाना बंद कर दिया। कालांतर में एक बार पांडवों का घोड़ा गलती से कदली वन में प्रवेश कर गया तो वह घोड़ी बन गया था और फिर अर्जुन को वैवाहिक समझौते करने पड़े थे। पूरी कहानी तो याद नहीं आ रही लेकिन शाप याद रह गया। स्त्रियों के जीवन पर अनेक शापित कथाओं की छाया है।

मेरी रुचि शुरू से किस्स-कहानी में रही है इसलिए मेरी स्मृति ने उन्हें सम्भाल कर रख लिया। जैसे अभी याद आ रहा है कि कैसे हमारी सखियों की टोली छुरी, चाकू, शीशी लेकर जब केले के वन खोजती फिरती थी तो हमारा कोई भी बाल सखा साथ जाने को तैयार नहीं होता था या उनके घर वाले साथ नहीं भेजते थे। वे दो काम में हमारा साथ नहीं देते थे। भोरे-भोरे फूल लोढ़ने में और होली के समय केला के थम्ब से पानी निकालने में। उनको हमारा साथ पतंगबाजी के समय आता था, माँझा बनाने और धागे पर लगाकर सुखाने समय। हमसे फ्यूज बल्ब मँगवाते थे, हम सबके घर जाकर फ्यूज ब्लब मांगते, उन्हें फोड़ कर पीसते, वे लोग उसमें कुछ मिलाते और पतंग के धागे पर लेप चढ़ाते। लटाई हमें पकड़ाते, खुद पतंग लूटते। मतलब हमारा इस्तेमाल वे जानते थे। भैय्या और दोस्त बन अपना काम निकाल लेते।

होली के दस दिन पहले से हमारी तैयारी शुरू हो जाती। जैसे आदिवासी जाते हैं घने जंगलों में, शहद इकट्ठा करने, वैसे ही हमारी टोली कदली वन में जाती, केले के थम्ब का पानी इकट्ठा करने। हममें होड़ होती कि कौन कितने बोतल में भर ले। और कुछ उन दिनों नहीं सूझता था। हमारी बड़ी बहनें, भैया लोग हमें इस काम पर लगा देते। हम चाकू से केला के थम्ब में चीरा लगाते और उससे बोतल का मुँह सटा देते। मटमैले रंग का पानी बोतल में भरने लगता। पानी धीरे-धीरे निकलता, हम आराम से बैठ कर या खड़े होकर इंतजार करते। केले के थम्ब का पूरा बदन हम चीर डालते, जब तक बोतल नहीं भरता। उन दिनों हमारे बीच प्रतियोगिता चलती कि कौन कितना बोतल भर कर लौटता है। यह काम लगभग हर दिन चलता। होली के एक दिन पहले तक। घर पर एक बड़े बर्तन में इसे स्टोर किया जाता।

अब सबको उत्सुकता होगी कि इस पानी का क्या काम। लोग ये भी सोच सकते हैं कि यह घोर पर्यावरण विरोधी काम था। तब हमें का पता था! हमें तो काम पर लगा दिया जाता था और हम चल पड़ते थे, कदली वन की खोज में। समूचे शहर को नाप देते, चाहे कहीं भी मिल जाए। न साँप-बिच्छू का डर, न बागवान के मालिक का कोई खौफ। न माँएँ या बहनें चिंतित कि कहाँ बउआ (भटकना) रही होगी, कहीं कुछ अप्रिय न घट जाए! हमारा बचपन ऐसी चिंताओं से मुक्त था।

घर लौटने पर हमें शाबाशी मिलती और हमारे कपड़ों पर उस पानी के छींटे पड़ने से जो दाग पड़ते, उनके लिए फटकार मिलती। हम शरारतें भी तो करते थे। आदत थी, जाँच करने की, कि क्या सच में यह पानी इतना दमदार है कि रंग में मिला दो तो वह एकदम पक्का हो जाता है; फिर वह कभी नहीं उतरता। क्या रंगरेज भी इसका इस्तेमाल करते होंगे? होली का फिल्मी गीत याद आया― छूटे ना रंग ऐसी रंग दे चुनरिया...धोबनिया धोए चाहे सारी उमरिया...।

क्या रंग को पक्का करने के लिए इसी पानी का इस्तेमाल किया जाता होगा जिसे सारी उम्र धोबन न छुड़ा सके। सामान्य रंग तो कपड़ों से उतर जाते थे। धोबी ही अगले दिन सारे कपड़े ले जाते थे और धोकर, रंग छुड़ा कर वापस करते। सिर्फ हमारे रंगों के बाद कोई कपड़ा धोबी को नहीं दिया जाता था। मैं यही सब जाँच करने के लिए सखियों समेत उनके मोहल्ले में चक्कर भी लगाया मगर वहाँ खौलते हुए कड़ाह और रंगीन पाउडर मिले। तो हाँ, होली के दिन बड़े से टब में पानी, पानी में रंग और फिर उसमें केले के थम्ब का पानी मिला दिया जाता था। आसपास के लोगों को पता चल चुका था कि थाना रोड की होली में ये खेल होता है।

हमारे घर के सामने चौड़ी सड़क थी, सड़क के उस पार मेरी मारवाड़ी दोस्त मिकी का घर था। उसके बगल में हनी का घर। उसके पिता जी सिनेमा हॉल के मैनेजर थे, इसी वजह से हम फ्री में सिनेमा देखते थे। हनी की बड़ी बहन हमारी नेता थीं, जो हम सबका लाया हुआ माल एकत्र करती थीं, फिर होली के दिन किसी को नहीं छोड़ा जाता था। उस चौड़ी सड़क से राहगीर भी गुजरने से डरते थे। रंग से नहीं, रंग में जो पानी मिलाया जाता था, उसके पक्के होने की वजह से। यों तो लोग फटे, पुराने कपड़े पहनते जिसे होली के बाद फेंक देते थे या उसका पोंछा बना लेते थे। ऐसा कपड़ा साल भर से जोगाया जाता था। होली पर पहनने के लिए ऐसे कपड़े का सब लोग इंतजाम करके रखते थे। हमारा मोहल्ला पक्के रंगों वाली होली के लिए मशहूर हो चुका था। हम लड़कियाँ बहुत शरारती थीं। होली से पहले जैसे आजकल बच्चे गुब्बारे फेंकते हैं, पानी भर कर, हम लोग छोटी पिचकारियों में रंग घोल कर रख लेते थे, आते-जाते लोगों पर पीछे से पिच्च से मारकर भाग जाते थे...

हम लोग स्कूल से लौट कर सड़क के किनारे बने छोटे, ईंटों का पुलियानुमा अवशेष था, उस पर बैठ जाते थे। घर के पिछवाड़े जाकर ये पिचकारी भरी जाती जिसे किसी को खबर न होती। घर के पीछे हमारा एक अलग ही संसार था, जिसकी चर्चा फिर कभी।

यह सिलसिला तब खत्म हुआ जब यह गली छूट गई और मैं दूसरे कस्बे में पहुँची। गोपालगंज और सखियाँ क्या छूटीं, होली छूट गई। कदली वन छूटा। पक्के रंग छूट गए। कच्चे रंगों से जूझते हुए उम्र फिसल गई।

स्मृति का कोई रंग होता है तो वह अमिट है। समय का सर्फ-सोडा भी धो नहीं पाता है।

कुचाईकोट कस्बा। अचानक से हाईस्कूल मिला। पहली बार लड़के-लड़कियाँ साथ। इसके पहले मैं गर्ल्स स्कूल में पढ़ती थी। गोपालगंज के दोस्तों के बिना यहाँ पहली होली थी। होली की आहट बदलते मौसम के साथ सुनाई देने लगती है। यहाँ बहुत तन्हाई मिली थी, घर के पीछे केले के कई पेड़ थे, जहाँ कोई उसका पानी निकालने नहीं जाता था। मेरे पास छोटा-सा एक चाकू था, शीशी थी, और तन्हाई थी। माय गाँव गई हुई थीं, बहनें, भैया सब होस्टल या शहर। कोई इधर-कोई उधर। स्कूल घर से दूर था, जहाँ आसपास के गाँवों से बच्चे पढ़ने आते थे। उनसे दोस्ती करके भी क्या करती जबकि दिल का टूटना पता चल चुका था। दो साल बाद फिर सामान किसी ट्रक में लदेगा और हमें उधर जाना पड़ेगा। मैं अपनी बची-खुची संवेदना को और आहत नहीं करना चाहती थी। इसीलिए किसी से दोस्ती करने पर बहुत ध्यान नहीं देना चाहती थी।

एक रोज पास के गाँव की एक मेरी सहपाठी मीना ने मुझसे सखी भाव जोड़ा, बाकायदा रस्में निभाई गईं और हम बहिनपा हुए। चूँकि दोस्तों के बिछोह ने दिल में दर्द का पहाड़ खड़ा कर दिया था। लेकिन चिट्ठियों ने उनसे ऐसा जोड़ा कि व्यथा की नदी-सी बह जाती थी। शायरों के दीवान या इन्तिख़ाब तो थे नहीं, फुटपाथ से दर्द भरे नगमे या शेर-ओ-शायरी की पतली किताबें लाती और दो लाइन की चिट्ठी में दस लाइन के शेर लिख मारती। तब कहाँ था होश कि सखियों को इश्क की शायरी भेजने का क्या मतलब...

कुछ आज भी याद है...

जैसे―

सागर से सुराही टकराती, बादल को पसीना आ जाता,

तुम जुल्फें अगर बिखरा देती, सावन का महीना आ जाता।

या

जा जा रे चिट्ठी लपकते लपकते,

मेरी दोस्त को कहना नमस्ते...नमस्ते।

या

कुशले कुशल हूँ, कुशल चाहती हूँ,

दिल में लगन है, मिलन चाहती हूँ।

लिखती हूँ खत खून से...

मेरी दोस्त पलट कर लिखती, मजे लेती―

लिखती हो खत क्यों खून से, क्या स्याही नहीं मिलती,

मरती हो क्यों मेरी याद में, क्या वहाँ सखियाँ नहीं मिलतीं...

इस तरह जवाबों ने मुझे मजबूत किया कि मैं जहाँ हूँ वहाँ आसपास सखियाँ तलाशूँ, बनाऊँ और गम का इलाज करूँ। उसी दौरान ठोंकू गोसाई से करीबी बनी थी।

वह “रोटी, कपड़ा और मकान” फिल्म की धूम का जमाना था। जीनत अमान मेरे सिर पर चढ़ कर नाच रही थीं― हाय हाय ये मजबूरी...

स्कूल से लौटते हुए सड़क पर रुक कर लौंडा नाच देखने लगी। मुझे बचपन से नाच, गाने और थियेटर ने बहुत परेशान किया है। कहीं नाच हो तो ठिठक जाती थी। कहीं गाना बज रहा हो तो पीछे-पीछे खिंची चली जाती थी। कोई रूह थी संगीत की प्यासी जो पिछले जन्म से अधूरी प्यास लेकर इस लोक में पैदा हो गई थी और दुर्भाग्य यह कि उसका माहौल घोर संगीत-विरोधी था। रेडियो तो सुन सकती थी, गा नहीं सकती थी। अपनी बड़ी बहनों को सुर में गाते-गुनगुनाते सुनती थी और मन करता था कहूँ- जोर से गाओ दिदिया। ताकि मैं नाच सकूँ। खैर, मैं सड़क पर नाच देखने रुक गई थी। नाच देखने में मजा आ रहा था। तभी किसी ने चिकोटी काटी। मेरी ही उम्र की एक लड़की भी वहीं नाच देख रही थी।

“तुम यहाँ...?” मैं चौकी।

वह बोली― “हाँ, मुझे भी नाच बहुत पसंद है। क्या तुम मेरे घर चलोगी...हम साथ खेलेंगे...”

मैंने उसके घर जाने से मना कर दिया...जाने कहाँ रहती थी। घर पर माँ भी नहीं थी, गाँव गई हुई थीं। हमलोग बाबूजी और नौकर-चाकरों के भरोसे थे। अगले दिन फिर उस लड़की ने मुझे घेरा। आज तुम्हें अपने गाँव ले जाकर रहूँगी।

मैं फँस गई। हालाँकि अप्रैल का महीना था। मॉर्निंग क्लास चल रही थी। मैं आराम से जाकर शाम तक वापस आ सकती थी।

मैं बेखौफ शुरू से थी। उसके साथ उसके गाँव चली गई, स्कूल और मेरे घर से दो कोस दूर। रोज उतनी दूर से वह पगडंडियों पर पैदल चल कर स्कूल आती थी। गर्मी से बेहाल हम उसके घर पहुँचे।

वहाँ जाकर सुखद आश्चर्य। नयी-नयी रस्में देखीं दोस्ती की। यहाँ चर्चा इसलिए कर रही कि मैं आज अपनी उस दोस्त का नाम, चेहरा भूल चुकी हूँ और उसका गाँव भी। दोस्त की माँ ने हमारे भोजन की पहले से भव्य व्यवस्था कर रखी थी। उसके पिता नहीं थे। माँ ही सबकुछ थी। दो पीढ़े आमने-सामने रके थे, हम दोनों का भव्य खाना, पकौड़ियाँ भी, तीन चार तरह की सब्जियाँ...

उसकी माँ ने खाने से पहले कहा― "तू लोग सखि लगा लऽ। हम तैयारी कइले बानी।" उन्होंने फिर हम दोनों को एक जैसे, प्रिंट वाले, वन पीस कुरता पहनाया। हमने एक-दूसरे को टीके लगाए और गले लगे। तय हुआ कि जब सखि लगाते हैं तो एक दूसरे का नाम नहीं लेते। दोनों एक-दूसरे को सखि ही कह कर बुलाएँगे। यह सब रस्म-रिवाज निभाते, करते देर हो गई। मुझे अकेले दो कोस लौटना था। मुझे भयभीत देखकर उसकी माँ और मेरी सखि दोनों घर तक छोड़ने आए। गेट से अंदर करके चले गए। मैं दरवाजे पर पहुँची तो वहाँ बाबूजी, छड़ी लिए हुए बैठे थे। गर्मी की वह दोपहर कितनी तप रही थी, ये छड़ी सड़ाक-सड़ाक पड़ी तो पता चला। मैं तो बिलबिलाती हुई आँगन में भाग कर छुप गई। बाबूजी मुझे अलग कपड़े में देख कर और भड़क उठे। सुबह जो फ्रॉक पहन कर गई थी, वह हाथ में, साथ में कुछ गिफ्ट भी। मत पूछो, क्या हाल हुआ...सफाइयाँ देते-देते थक गई। किस्सा कोताह यह कि अगले दिन से सख्त हिदायत कि मास्साब नजर रखेंगे कि सखि के साथ ज्यादा न रहूँ, या उसके गाँव न चली जाऊँ। इलाके के दारोगा की बेटी, सरकारी स्कूल का मास्टर, भला कैसे न नजर रखे! मैं और सखि दूर-दूर बैठते, क्लास में ही एक-दूसरे को छोटे-छोटे खत लिखा करते। खत क्या, उनमें दर्द का सागर लहराता रहता।

इधर मुझे घर में कामवाली दाई की हमउम्र बेटी, दोस्त के रूप में मिल गई। वह भी मेरी तरह अकेली थी। पिता असम कमाने गए थे, माँ घरों में चौका-बासन करती थीं। उनका ज्यादा वक्त मेरे घर पर ही बीतता था। वह भी साथ में आ जाती थी। उसका नाम याद नहीं आ रहा। चेहरा याद है, साँवली सूरत वाली, गोल चेहरा, खंजन नयन। इतनी चंचल आँखें कि टिकती नहीं थी कहीं। वर्षों तक मैंने वैसी आँखें नहीं देखीं। उसकी सोहबत में मैं बदलने लगी। गोपालगंज में छूटी हुई दोस्तों को खत लिखना कम होता गया। वे खत नहीं, दर्द की दास्ताने थीं। हालाँकि बिछोह की परतें आत्मा पर चढ़ती रहीं। दर्द से पहला ताल्लुक था। सब भुला कर मैं उस साँवली लड़की के संग आसपास के पोखरे में मछलियाँ मारने चली जाया करती थी। वह मुझे मछुआरा गीत सुनाती थी, जिसमें नदी पार कराने का मनुहार होता।

मुझे बोल याद नहीं। लेकिन वह मेरे लिए बाजार से जाल काँटे लेकर आती और हम किसी बरसाती गड्ढे में भी जाल डाल कर मछलियाँ पकड़ने बैठ जाते। उसके पास मछलियों के अनगिनत किस्से होते थे। जिसमें सुनहरी मछलियों का जिक्र होता, जो कभी कभी लड़कियों में बदल जाती थीं। वो सारी मछलियाँ पहचानती थी। आज किसी को यकीन भले न हो, मैंने अपनी इस दोस्त के साथ बारिश की बूँदों के साथ जमीन पर गिरती छोटी-छोटी मछलियाँ देखीं है। हम उन्हें पकड़ कर पानी में डाल आते। वो साँवली लड़की और उसकी लाल फ्रॉक मेरी स्मृति में टँके हैं, तब मैंने उस पर एक छोटी-सी कहानी लिख कर उसको सुनाई थी। वह उसमें उदास रंग घोल देती थी। वह डरती थी कि किसी दिन मेरे साथ मस्ती करती पकड़ी गई तो उसको थप्पड़ पड़ सकता है।

उस कस्बे की पहली होली थी। मेरे भीतर हुड़क उठ रही थी कि केले के थम्ब से पानी निकाल कर लाऊँ। कौन साथ देता। याद है, उसने पूछा था उदासी का सबब। मैंने डबडबाई आँखों से बताया। घर में किसी को अंदाजा नहीं था कि हम कुछ वैसा करने वाले हैं। होली पर जो रंग घोले गए, उनमें वह पानी मिलाया गया था। सुबह तो रंग खेले गए, तब कोई समस्या न हुई। दोपहर बाद जो लोग चुन्नटदार बाजू वाला सफेद मलमल का कुर्ता झाड़ कर आए थे, कान में इत्र की रुई खोंसे, रुमाल में लौंग, इलायची, सुपारी लिए, साथ में थोड़े-से गुलाल, उन पर उस साँवली लड़की ने छुप कर पिचकारी की धार चला दी। आज तक याद है कि पिता जी के सीनियर ऑफिसर अपने चम्पुओं के साथ मटन और पुआ चाँपने के लिए पधारे थे, रंगों की धार देख कर उनका मुंह लाल हो गया। बाबूजी ने आश्वासन दिया― "कोई बात नहीं, धोबी को दे देंगे, रंग उतर जाएगा। कच्चा ही तो है...वैसे भी गुलाबी रंग जल्दी उतरता है। हरा रंग में दिक्कत होती है...चिंता मत करिए...।"

वे न माने। अपने कुर्ते से अतिरिक्त मोह था। वहीं पर कुर्ता उतार कर धुलवाने पर आमादा। बाबूजी ने उन्हें अपना छींटदार कुर्ता दिया, उनका कुर्ता बाल्टी में डूबोया गया कि रंग जल्दी से उतर जाए। सिपाही लगे रहे, चौकीदार रगड़ते रहे...क्या मजाल कि रंग उतर जाए। किसी को समझ में न आए कि इतनी जल्दी पानी में डुबोने के बावजूद रंग उतर नहीं रहा, बल्कि और चटक हो गया था। सूर्ख गुलाबी रंग, ऑफिसर का भुनभुनाते हुए मटन-पुआ चाँपते जाना, ठंढ़ई गटकना, मेरा छुप कर तमाशा देखना और उस साँवली लड़की का कोसों तक पता नहीं।

मीठे पुए और भाँग का असर इतना गहरा हुआ कि ऑफिसर चचा वहीं भूमि पर लोट गए। अनगिनत पुआ खा चुके थे, बाबूजी उनका हाथ रोकें तो कैसे। घर के अंदर से माय बड़बड़ाने लगी थी। उनकी भूख बढ़ती जा रही थी, पुआ समाप्त। वे लाल-लाल आँखों से बाबूजी को घूरें। सब लोग कुछ पल के लिए ठिठक गए थे। पलक झपकते चचा जमीन पर लोट गए। सिपाहियों को समझ में आ गया था कि भाँग ने असर दिखा दिया है। वे लोटे से उनके माथे पर ऊपर पानी उड़ेलने लगे। कोई चापाकल से बाल्टी भर लाया और उनके ऊपर डाल दिया। कोई हाथ पकड़ रहा है, कोई पैर। बाबूजी झुके तो वे चिल्लाए...बाबू साहब, कहाँ जाइएगा...आपको इसी डिस्टीक (बाद में समझे कि वे डिस्ट्रिक, यानी जिला कह रहे हैं) में आना है...कहाँ जाओगे...आना इसी डिस्टिक में है। वे छाती पीट-पीट कर बार-बार यही वाक्य दोहराते। फिर सबकी तरफ मुड़ कर कहते― तुम सबको इसी डिस्टीक में आना है...। जमीन पर से अपनी देह को उठाते और खुद ही अपनी देह को पटक देते। पानी का कोई असर नहीं हो रहा था...फिर पूछते...मेरे ऊपर रंग किसने फेंका था...उसे लाओ मेरे डिस्टीक में...। उसको भी मेरे ही डिस्टीक में आना होगा एक दिन...देख लेना...मेरे डिस्टीक से कोई बच नहीं सकता...। मैं दूर से छुप कर ये सारा मंजर देख रही थी और डिस्टीक को समझने की कोशिश कर रही थी। मुझे क्या पता कि बाबूजी इस घटना के बाद अपना तबादला अपने गृह जिले में करा लेंगे।

इधर गुनहगार साँवली, लाल फ्रॉक वाली लड़की गायब। कई दिन तक वो घर नहीं आई। किसी को ये राज पता नहीं चला कि हल्के गुलाबी रंग जो आसानी से छूट जाते थे, वे धोने के बाद और चटक कैसे हो गए। उसके बाद मेरे सिर से कदली-जल निकालने, रंग में घोलने का भूत उतर गया था। वह लड़की लौटी, मगर हमने कभी इस विषय में बात नहीं की। आज भी स्मृति में उसका धुँधला चेहरा चमकता है, लेकिन सखि-बहिनपा का चेहरा विस्मृत हो चुका है। ये दोनों भी जाने कहाँ होगी आज। क्या कर रही होंगी। मैं उन्हें याद हूँगी या नहीं। और वो लाल फ्रॉक वाली लड़की के परदेसी पिता लौटे होंगे या उसके अनुसार असम की किसी जादूगरनी ने भेड़ बना कर रख लिया होगा। हनी, मधु, किरण, सीमा, मिकी...सब की सब मेरी तरह ही बूढ़ी हो रही होंगी। क्या अपनी स्मृति के कदली-जल में घुले हुए दोस्ती के पक्के रंग बचा कर रखे होंगे ?

या मैं उनकी आत्मा पर कदली-जल में घुले रंग के छींटे मारना बिसर गई थी।

मैं दोस्तों की याद गली से बाहर आकर चचा के साथ वाली होली याद कर रही हूँ. जिसने मुझे हमेशा के लिए “भांग के डिस्टिक” में जाने से रोक रखा है.

हर होली पर आज भी ये तमाम प्रसंग याद आते हैं . ख़ास कर अफ़सर चाचा की जो भांग के नशे में हमेशा इंग्लिश में बोलते थे. मेरे मज़ाक़िया बाबूजी उनको छेड़ते हुए कहते थे- क्या सर ! अब ऑल इंग्लिश !!

चचा उसी अंदाज में इंग्लिश बोलते थे जिस अंदाज में मेरी सखि बोलती थी -“ मारिंग दिस लाठी, फोड़िंग दिस कपार. गोइंग टू रहरिए… रहरिए… करिंग दिस मुक़दमा… ! “

उस होली में चचा इतनी बार “ डिस्टिक “ बोले कि आज भी उसकी प्रेत -छाया हमारी बोलचाल पर हावी है. हर होली में भांग घोली, पिलाई जाती है और ये कहा जाता है- “ पी ले पी ले ..फिर तो सबको इसी डिस्टिक में आना होगा. “

दारोग़ा जी भांग घोंटे

सिपाही पीसे मसल्ला

चौकीदरवा सरवा लाठी पटके

चढ़ जाए डिस्टिक के दुतल्लवा …. जोगी रा सार रररर ! “

फिर जब गर्ल्स होस्टल में होली मनाई तब हमने एक भांग टोली बनाई जिसका नाम ही रखा गया- भंगैल डिस्टिक !

जोगी रा… सरररररा … !

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‘रंग याद है’ शृंखला की अगली कड़ी में पढ़ें, पुष्पेश पन्त के बचपन की रंगयाद : “बचपन की होली और ठिठोली!”