रंग याद है : होलियाँ जो खेलीं, न खेलीं

नैनीताल में हमारा घर बड़ा था और बेहतरीन स्कूल। लिहाज़ा जल्द ही हमारे परमप्रिय मौसेतरे भाई मुक्तेश, पुष्पेश और चचेरे भाई मुकुल का भी अड्डा बना। तिस पर अनेक मैदानी परिवारजनों के जो बच्चे नैनीताल के बोर्डिंग स्कूलों में पढ़ रहे थे, उनके लोकल गार्जियन भी हमारे माता-पिता माने गये। सो घर भरा रहता। यहाँ होली की शुरुआत यानी तीनेक सप्ताह पहले से बाल गायकों के दल के दल गाते हुए होली का चन्दा और लकड़ी उगाहने आते रहते : 

आज बिरज में होली हो रे रसिया,

होरी होरी होरी भर झोरी हो रे रसिया...

‘रंग याद है’ शृंखला की दूसरी कड़ी में राजकमल ब्लॉग पर पढ़ें, मृणाल पाण्डे के बचपन की रंगयाद : “होलियाँ जो खेलीं, खेलीं

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हमारे शहर अल्मोड़ा की होली दूर-दूर तक मशहूर थी। पहाड़ में बसे हों कि प्रवासी बनकर कहीं किसी मैदानी शहर में, अल्मोड़े की होली की ख़ासी शोहरत थी। निरन्तर टैगोर, विवेकानन्द, गांधी जी और नेहरू जैसी महान शख़्सियतों की आवत-जावत से पहाड़ी समाज में तब के अल्मोड़े को लगभग वही दर्जा मिला हुआ था, जो योरोप में पेरिस को! शहर में होली बसन्त पंचमी के दिन से ‘बैठी होली’ के ढोलक-मंजीरे के साथ गाये जाने वाले धमाकेदार गायन से शुरू हो जाती थी। फिर रंगभरी एकादशी पर बँधता था चीर यानी इन्द्र ध्वज! उसे शुभ स्थानों यानी मन्दिर नौलों की परिक्रमा कराई जाती तो उस भीड़ में हमारा बालक वृन्द ‘हो हो होलक रे!’ का नारा बुलन्द करते हुए उछलता-कूदता चलता।

कैलै बाँधी चीर हो रघुनन्दन राजा।

गणपति बाँधी चीर, बिरमा बिसनू बाँधी चीर, रामी चन्द्र लै बाँधी चीर हो रघुनन्दन राजा...

मन्दिर में खड़ी होली गाते हुए नर्तक मिलते। वे गोलाकार या अर्ध-गोलाकार समूह में नाचते। कुछेक स्त्रियाँ भी उनमें रहतीं, पर हमको उसमें भागीदारी निषिद्ध थी| सामूहिक नर्तन में चिरन्तन गम्भीरता का मुखौटा लगाये ब्राह्मणों की भागीदारी नहीं होती थी। वे गुरु ठहरे! धत्तेरे की! सब गुरुओं के बीच हमको ही जनमना था रे!

झुकि आयो सहर में व्योपारी, सखि झुकि आयो सहर में व्योपारी

इस व्योपारी को प्यास लगी है, पानी पिला दे नथवारी...

ऐसे गानों पर झूमते हुए मस्तीभरा नाच राजपूत लोग ही नाचते थे। साथ में ढोल बजाते गोरखपन्थी रामनाथ बाजी, जिनकी बड़ी-बड़ी आँखें चरस के सुट्टों से लाल रहतीं। वे एक कान में मुनड़ी (मुद्रा) पहनते और ‘ॐ नाम गुरु को आदेश’ कहकर अपने ढोल पर जो चाँचर ताल बजाते धा धीन, धाधा धीन, ता तीन धागे धीन—तो दर्शकों के पैर ख़ुद ही थिरकने लगते। पर ‘सकल पदारथ या जग माँही, करमहीन नर पावत नाहीं।’ हमारे साथ में ननिहाल के बूढ़े अनुचर ठुल लोहानीज्यु की निरंतर उपस्थिति में एकाध ठुमका लगाने पर सार्वजनिक कान खिंचाई (जिसके लिये वे पूर्णत: अधिकृत थे) सम्भव थी। लिहाज़ा हम बाय स्टैंडर बन कर लुत्फ लेते। मामा का बेटा किसी किसी पंक्ति पर सीटी बजा देता तो लोहानीज्यु आग्नेय नेत्रों से बिना बोले कहते, “लला, घर चलो तब बतलाता हूँ आमा को!” आमा यानी नानी, घर की विराट मातृशक्ति जिनके अदब-कायदे के नियम अनुल्लंघनीय थे।

माँ बताती थीं कि जब उनके पिता जीवित थे घर में होली की महफिल सजती थी और शहर के नामी होली गायक उनमें भाग लेते। उनको और घर की बहू-बेटियों को चिक के पीछे से ही मरदों वाली रंगीन और प्राय: अब्राह्मणीय किस्म की शब्दावली से सजी हुई होली ही देखने-सुनने को मिलती थी। जैसे-जैसे मरद अंग्रेजी किसम के होते गये तैसे-तैसे महिलाओं की बन आई। बड़े घरों में शहर की महिलाएँ आमलकी एकादशी के बाद की कोई तिथि चुन लेतीं और फिर हर साल उनकी बैठी होली के साथ गुझिया, आलू के गुतकों और मलाईदार अदरकी चाय मन धो (मन भर के) बनाये खिलाये जाते। मेरी माँ सुरीली थीं और लोकगीतों की प्रशंसक भी। पर वे गातीं तो हम लोग शरम से हो हो कर बाहर भाग जाते। गणपति की शान में जनता की भारी माँग पर पहली होली अक्सर वे ही उठातीं :

सिद्धि को दाता विघन विनाशन, होली खेलें री मूषक नन्दन...

फिर होली जमने लगती। अधिकतर होलियाँ ब्रजभूमि से ही आईं थीं। सुना किसी अमानत अली खान साहिब को राजा ने रामपूर से बुलवा कर देसी बिरज की होलियाँ सिखवाईं। हरमुनिया मास्टर हरिया की इजा सुर लहरी बजातीं तो घर के भीतर चुपचाप अवगुंठनवती बनी रहनेवाली आवाज़ें मंजीरों पर खनकने लगतीं :

ब्रजमंडल देस देखो रसिया, हमारे मुलुक में गेहूँ बहुत हैं, पीसत नारी छको रसिया!

सास-ननद के दुख भी सुनाई देने लगते :

जल भरने चलीं दूनों बहिना, उधर से आईं जसोदा बहिना

क्या बहना तुझे सास को दुख है, क्या तेरो ससुर परदेस बसना

सात गरभ मेरे कंस ने मारे, अठवाँ गरभ मेरो नवाँ महीना...

गायन और मस्त होता ताल थिरकने लगती :

झनकारो झनकारो झनकारो, गोरी प्यारो लगे है तेरो झनकारो

तुम हो बिरज की सुन्दर नारी, मैं मथुरा को मतवारो...

कोई जनी अचानक उठकर चकफेरियाँ लेती नाचने लगती तो गृहिणी उनकी बलैया लेकर पैसे न्योछावर करती। अल्मोड़ा से बाबू का तबादला नैनीताल हुआ तो यह सब लोकाचार पीछे रह गया। नैनीताल और अल्मोड़ा में वह अन्तर था जो इलाहाबाद और बनारस में। चन्द राजाओं का बसाया नगर अल्मोड़ा काफ़ी हद तक पुरातनपन्थी और ‘दाज्यु अदब’ वालों का विगतजीवी शहर बना रहा और तब के अधिकतर प्रोग्रेसिव परिवार धीरे-धीरे मैदानों में जा बसे। अंगरेज़ का बसाया नैनीताल बीसवीं सदी के भारत की टेमप्लेट बनता चला गया : वकीलों, कान्वेट स्कूलों, बड़ी-बड़ी कोठियों या होटलों में गर्मी बिताने को आने वाले सैलानियों का शहर!

नैनीताल में हमारा घर बड़ा था और बेहतरीन स्कूल। लिहाज़ा जल्द ही हमारे परमप्रिय मौसेतरे भाई मुक्तेश, पुष्पेश और चचेरे भाई मुकुल का भी अड्डा बना। तिस पर अनेक मैदानी परिवारजनों के जो बच्चे नैनीताल के बोर्डिंग स्कूलों में पढ़ रहे थे, उनके लोकल गार्जियन भी हमारे माता-पिता माने गये। सो घर भरा रहता। यहाँ होली की शुरुआत यानी तीनेक सप्ताह पहले से बाल गायकों के दल के दल गाते हुए होली का चन्दा और लकड़ी उगाहने आते रहते :

आज बिरज में होली हो रे रसिया,

होरी होरी होरी भर झोरी हो रे रसिया...

वे पैसा, मिठाई लेकर सन्तुष्ट किये जाते साथ में भृत्यों को हिदायत रहती, “जरा नजर रखना बजार के छोरों पर, गये साल नीचे प्रायरी कॉटेजवालों के बगीचे से कुरसी और गेट उठा ले गये थे जाते-जाते...”

पिता खाने खिलाने के शौकीन थे। उनके तथा पारिवारिक मित्रों के लिए बड़ी-बड़ी डलिया में पाककुशल माँ अपने अनुचरों के साथ नाना तरह के माल पकातीं। गौरा बोज्यू (भाभी) के हाथ की गुझिया उनके जीजाओं में बहुत वज़न रखती थी। ख़ूब हँसी-मज़ाक़ के बीच वे खाई जातीं और जब नोंक-झोंक शुरू होती हमको बाहर जाने का इशारा किया जाता। पर दरवाज़ों के पास मँडराती पब्लिक थी कि सब जानती थी। होली के बाद आता दम्पति टीका जिसमें हमारे किफायतपसन्द पिता तक माँ को खादी ग्रामोद्योग की छापेदार रंगीन रेशमी साड़ी देते। जीजाओं से माँ को मिलते लिफाफे में रुपये, भौजाइयों से खटाऊ मिल की धोतियाँ।

होली की ख़रीदारी में रंगचयन तब इतनी ‘पोलिटिकली करेक्टनेस’ या बन्दिशों का मारा न था, हरे कणों में चमकता कुसुमी रंग का टिन, किसुन छाप हरा नीला रंग, और एक डंका सियाही मोलाये जाते। पिचकारियाँ आतीं पर उनमें वह सिफत न थी जो बाल्टी या टब से मग्गा भर-भर कर फेंके रंग में। जब बाकी सब रँग चुक गये तो पड़ोस के प्रतिस्पर्धी समूहों के मुख पर डंका सियाही पोतकर उनको गुझिया खिलाकर ससम्मान विदा किया जाता। अगले सप्ताह तक स्कूल के सभी सहपाठी चितकबरे नज़र आते। इम्तहान पास होते थे और माँ कहती थीं—अबीर-गुलाल से नींद बहुत आती है, आज की छूट है पर कल से...।

अब न वह होली रही, न वे स्नेही खेलनेवाले और न ही निरन्तर कठोर चेहरा बनाये रखने को बाध्य पर भीतर से सुकुमार मन रखनेवाले मेरे बाबू जैसे पुरुष जो इस दिन सारी वर्जनाएँ तोड़कर होली खेलते, गाते और ठहाके लगाते थे। अब तो चैनलों में, मुहल्ला बैठकों में या पार्टियों में फ़िल्मी होली गायन और मुजरा टाइप नाच ही बचे हैं। भाँग ठंडाई में, गोलगप्पों में वोडका का मिश्रण रंगो सुरूर भरता है। पर जब तक प्रकृति में वसन्त का मद बना रहेगा होली, चौताल, कबीर, फाग यह सब किसी-न-किसी कोने में अँखुए की तरह सर उठाते मिल जाएँगे :

सिन्दूरी की डिबिया खोलो अलबेली, लागो महीनो फागुन को...

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