कैसे हुई थी मजदूरी के लिए परदेस जाने की शुरुआत?
अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, अरविंद मोहन की किताब 'बिहारी मजदूरों की पीड़ा' का एक अंश। इसमें मजदूरी के लिए परदेस गमन प्रथा की शुरुआत के कारणों की चर्चा की गई है।

भारत के इतिहास में सिर्फ मजदूरीवाले उद्देश्य से परदेस गमन की व्यवस्थित शुरुआत अंग्रेजी हुकूमत के दौरान ही हुई। उससे पहले मुगल और अन्य मुस्लिम- हिन्दू रजवाड़ों के किले या अन्य निर्माण के अवसर पर ही मजदूरों को उनके घर से लाकर काम कराया गया होगा। सम्भव है, यह जोर-जबरदस्ती से भी हुआ हो। उल्लेखनीय है कि मुस्लिम शासकों के आने के पहले बड़े किले नहीं बना करते थे। प्राचीन भारतीय मन्दिरों, अजन्ता एलोरा जैसी गुफाओं और कलाकृतियों के निर्माण और रचना में भी काफी मानव श्रम लगा होगा। इनके निर्माण भी कई बार राजे- रजवाड़ों ने ही कराए थे पर इनमें जबरिया मजदूरी या गुलामों की मौजूदगी का कोई प्रमाण नहीं मिलता। और जैसा वरिष्ठ लेखक सच्चिदानन्द सिन्हा ने अपनी किताब 'केअर्स एंड क्रिएशन्स' में लिखा है जबरिया मजदूरी या गुलामों से ऐसी कलात्मक रचनाएँ नहीं बनवाई जा सकतीं प्रसिद्ध इतिहासकार एएल बाशम को भी प्राचीन भारतीय समाज का सबसे अद्भुत पहलू गुलामों की गैर मौजूदगी ही लगती है।

इसलिए अचरज नहीं कि अंग्रेजों के आने के पहले तीर्थाटन के लिए, देशाटन के लिए, अध्ययन के लिए परदेसगमन की चर्चा तो हुई है, पर कमाने के लिए कोई परदेस नहीं जाता था। कमाने के सन्दर्भ में परदेसगमन सिर्फ व्यापारी करते थे। लेकिन तब परदेस का अर्थ भी एकदम अलग था। हिन्दुस्तान में यह व्यवस्था लम्बे समय तक चलती रही। और इसने हर गाँव के इलाके को अपनी जरूरतों के लायक लगभग आत्मनिर्भर बनाने का काम किया, जो थोड़ी बहुत कमी थी उसे व्यापारी पूरी कर देते थे।

और इसी व्यापार के लिए जब खस्ताहाल मुगल सम्राटों ने अंग्रेज व्यापारियों को भी देश में आने की अनुमति दी तो उन्होंने क्या-क्या गुल खिलाए, यह सभी जानते हैं। पहली बार एक अखिल भारतीय अति केन्द्रीकृत शासन प्रणाली लागू करने, स्थायी बन्दोबस्त रैयतवाड़ी व्यवस्था के माध्यम से दूर-दराज के इलाकों तक जमींदारों और अपने मुलाजिमों का जाल बिछाकर अंग्रेजों ने देश के हर हिस्से पर अधिकाधिक नियंत्रणवाली व्यवस्था कायम की और 'राज' जमाने के साथ-साथ ही उन्होंने देसी उद्योगों और हस्तशिल्पों को बरबाद करने का योजनाबद्ध अभियान चलाया। बुनकरों-कारीगरों की बदहाली की कथाएँ आज तक चल रही हैं।

गाँव का पूरा गृह उद्योग और शिल्प व्यवसाय चौपट होने का मतलब हुआ खेती पर निर्भरता का बढ़ना। खेती पर जमींदार बैठा दिए गए थे। ज्यादा मजदूर और रैयत मिलने से उनकी आमदनी बड़ी और काम कम होने से मजदूरों की मजदूरी घटी। वे इन जमींदारों से मोल-तोल करके या आन्दोलन के जरिए फसल में मजदूरी का हिस्सा बढ़वा पाने की स्थिति में नहीं रह गए। खेती से इधर अधिकांश काम लगभग ठप्प हो गया। संचार और परिवहन व्यवस्था के सभी जगह पहुँचने से प्राकृतिक संसाधनों और बाजार की जरूरत के अनुसार सस्ता माल पहुँचाने का क्रम शुरू हुआ।

मैनचेस्टर की फैक्टरियों के माल की बिक्री बढ़ाने और करघे-बुनकरों से उन्हें मिलनेवाली चुनौती को समाप्त कराने के लिए यह सब किया गया था। पर जल्दी ही भारत में ही उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों, खनिजों और श्रम शक्ति के उपयोग के लिए फैक्टरियाँ लगाने का दौर चला। गाँवों में अब तक काफी संख्या में लगभग बेकार लोगों की फौज जमा हो गई थी। नए लगनेवाले कारखानों में इनकी जबरिया और फिर स्वैच्छिक भर्ती हुई। यही हाल देश पर अंग्रेजी हुकूमत को मजबूत करने और नए उपनिवेश बढ़ानेवाली फौज के सन्दर्भ में भी हुआ। यहाँ भी पहले जबरिया और फिर स्वैच्छिक भर्ती हुई। नए ब्रिटिश उपनिवेशों में कमाऊ खेती और उद्योग के लिए गिरमिटिया मजदूर ले जाए गए। यह प्रथा यूरोप में मौजूद दासों की खरीद-फरोख्त और पूँजीवादी विकास का अभिन्न अंग बने मजदूरों के प्रवासी बनने की प्रवृत्ति का मिला-जुला रूप लगती है कमाने के लिए परदेस जाने का चलन शुरू होने में ज्यादा दिन नहीं लगे लाखों लोग मात्र कमाने के लिए अपने घर-बार से दूर गए। पुण्य कमाना, शिक्षा पाना, देश-दुनिया का ज्ञान लेना अब परदेस जाने का बहुत ही छोटा कारण रह गया। मजदूरों को उनके निवास से दूर ले जाने का काम कोड़ों के जोर पर भी हुआ और बहला- फुसलाकर भी। फिर खेती में काम और कमाई न होने से परेशान मजदूर खुद भी बाहर निकलने लगे। 

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