पहली बार जब इस गाँव को देखा था तो मेरी हिम्मत डगमगा गई थी। आज तक मिट्टी के घर में नहीं रही, बिजली का कोई नामोनिशान नहीं। फर्श से लेकर आँगन तक हर जगह मिट्टी। कहीं आने-जाने की कोई राह नहीं। बारिश में घर टपकने लगता तो गरमियों में रात भर पंखा झलते हुए जागना पड़ता। पूरे दिन साड़ी पहनकर रहना पड़ता और कोई घर आए तो घूँघट लेना पड़ता। मगर दो महीने में लगने लगा कि यह मेरा गाँव हैं और मैं यहीं की बेटी-बहू हूँ।
मेरे दूर देश के होने के कारण लोगों ने मुझे अधिक स्नेह दिया। ज्यादा सहूलियतें दीं और मेरी गलतियों को नजरअन्दाज किया। आज भी लोग मुझे मेहमान की तरह देखते हैं। मैं अच्छी तरह मैथिली बोल लेती हूँ, मगर मुझसे हिन्दी में ही बात करने की कोशिश करते हैं। जो लड़के पंजाब में काम करके लौटते हैं, वे तो पंजाबी में बतियाते हैं। बरसात में कीचड़ में चलने में मुझे परेशानी न हो, इसके लिए माताजी ने खास तौर पर पूरे आँगन में ईंटें बिछवा दी हैं। तो मैं उस दौर की बात बता रही थी कि आमदनी से जुड़ी तमाम परेशानियों के बावजूद जीवन बहुत सुखद था। दिन भर लोगों से बतियाना, हँसी-ठट्ठे करना, गाने सुनना और गानों फिल्मों पर बातें करना, चाय और नाश्तों का दौर। जैसे जीवन में कोई फिक्र ही न हो! माताजी ने साल भर मेरे रसोई में घुसने पर रोक लगा दी थी। तो अब कोई काम ही नहीं था मेरे पास।
मगर इस रूटीन से हर कोई खुश नहीं था। कुछ लोग ऐसे थे बहुत दुखी थे। वे मेरे सबसे करीबी लोगों में से थे। उन्हें खुश करने की कोशिश में ही 'रेडियो कोसी' ने आकार लिया।"
"इन दिनों तुम्हारे चेहरे पर वैसी चमक नजर नहीं आती जैसी शुरुआती दिनों में थी, जब हम लोग यहाँ आए थे। क्या हुआ है प्रहलाद बाबू?" उन दिनों यह सवाल मैं कई बार प्रहलाद से पूछ चुकी थी। प्रह्लाद हर बार मुस्कुरा देता। ज्यादा जोर देने पर कहता कि रोजी-रोजगार का ठिकाना नहीं हुआ तो क्या होगा? मगर धीरे-धीरे मेरी समझ में आने लगा था कि बात महज इतनी नहीं है।
एक बार प्रह्लाद ने इशारा भी किया था कि माँ को हर वक्त लोगों की भीड़ पसन्द नहीं है। हालाँकि परेशानी लोगों से नहीं थी। मसला यह था कि माताजी चाहती थीं कि उन्हें अपनी बहू से बतियाने का मौका मिले, जो मिल नहीं पा रहा था। अपने गाँव के ही बच्चे थे, उन्हें भी कुछ कहा नहीं जा सकता था।
हमारे गाँवों का माहौल बहुत अनौपचारिक है, अनिरूद्ध जी। यहाँ कोई किसी के घर जाने में औपचारिकता नहीं बरतता। फलाँ मामा मुरगों के बाँग देने से पहले भी आँगन में आ सकते हैं, माँ से हालचाल पूछने और रात के दस बजे भी किसी को कोई चिट्ठी पढ़वानी हो तो पंजाब वाली बहू का नाम लेते हुए आँगन में घुस सकता है। इसमें कोई बुराई नहीं है। अब तो सुना है, शहरों में लोग फोन करके टाइम लेते हैं फिर मिलने जाते हैं। मेरे जमाने में तो फोन भी कुछ ही घरों में था।
मगर शायद माताजी के मन में ढेर सारी बातें थीं, जो वह मुझसे करना चाहती थीं, मगर मेरे पास वक्त नहीं था। दिन भर बच्चे और लड़के-लड़कियों से घिरी रहती थीं। दरअसल, माताजी यह भी चाहती थीं कि मैं अपना अधिक वक्त प्रह्लाद के साथ गुजारूँ। सम्भवतः इसी वजह से उन्होंने मुझे घरेलू काम-काज से मुक्त रखा था। और प्रहलाद बाबू क्या सोचते थे, यह तो मुझे मालूम ही नहीं। उन्हें भी मुझसे बातें करने का मौका रात आठ बजे के बाद ही मिलता था। दिन भर वे अलग-अलग बहाने से आँगन आते थे और मुझे लोगों के बीच व्यस्त देखकर लौट जाते थे। लगता था कि वे गुरदासपुर वाले ही दिन हों जब मिलने के लिए चाय, नाश्ते और खाने का मौका ही मिलता हो ।
मैं समझ रही थी, मगर उन लोगों के अपनेपन को ठुकराना भी ठीक नहीं था। वैसे मुझे पता था कि वे गाना सुनने आते हैं। अगर उनके घर में गीत-संगीत सुनने का इन्तजाम हो जाए तो उन्हें दिन भर यहाँ रहने की जरूरत न हो। वह राधा थी, जिसके घर में हमने पहली बार रेडियो बजाया। राधा के बाबूजी कलकत्ता से लौटे थे तो रेडियो लेकर आए थे। दरअसल किसी ने उन्हें थमा दिया था—उधार पैसों के बदले, मगर यहाँ आने पर जब किसी स्टेशन पर कोई चैनल नहीं पकड़ा तो उन्होंने राधा के जरिये मेरे पास भेजा कि पंजाब वाली कनिया से पूछना यह कैसे चलता है।
पंजाब वाली कनिया को पता था कि इस गाँव में कोई रेडियो स्टेशन नहीं पकड़ सकता है। मैं राधा को मना करने ही वाली थी कि उसे रेडियो 82.7 की याद आई जो प्रहलाद और दीपा का साझा अनुसन्धान था। उसने रेडियो का मीटर 82.7 एफएम पर सेट कर दिया और राधा को कहा कि घर ले जाओ, रेडियो बजेगा। इस बीच प्रह्लाद की बनाई मशीन को अपने टेपरिकॉर्ड के पास रख दिया था। अब राधा के रेडियो में गाने आने लगे थे। और वही गाने जो पंजाब वाली कनिया के घर में बजते थे। धीरे-धीरे गाँव में दूसरे लोगों ने भी रेडियो खरीद लिया और उनके घरों में भी गाने बजने लगे। महज एक साल में गाँव में सौ से अधिक रेडियो खरीदे जा चुके थे।
गानों की फरमाइशें होने लगीं और सूचनाएँ भी आने लगी। काम भी बढ़ गया और खर्च भी। ऐसे में गाँव के लोगों ने खुद तय किया कि हर फरमाइश पर पाँच रुपये और हर सूचना पर सात रुपये देंगे। दिन भर में 30-35 फरमाइशें और इतनी ही सूचनाएँ भी आ जाती हैं। हमारे गाँव में ठाठ से रहने के लिए इससे अधिक पैसों की जरूरत ही नहीं है।
और सवाल पैसों का नहीं है। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं जीवन में इतना इम्पोर्टेंट काम करूँगी। वहाँ रहती तो क्या करती? शादी के बाद किसी का घर सँभालती। कहीं नौकरी लग जाती तो नौकरी बजाती। मगर आज पचास गाँव के लोग मुझे सुनते हैं। उन्हें लगता है कि 'रेडियो कोसी' पर उनकी सूचना आ जाएगी तो उनका काम हो जाएगा। मैं सोचती हूँ, यह मेरी खुशनसीबी है कि भगवान ने मेरे लिए ऐसा जीवन चुना।" कहते-कहते दीपा जी का गला रुँधने लगा।
कैमरे की आँख से झाँक रहे अनिरुद्ध के लिए यह परफेक्ट बाइट थी। मगर दीपा जी खुद इस वक्त जिस हालत में थीं, उन्हें नॉर्मल करने के लिए वह क्या कहे, इसकी बाइट उन्हें मिल नहीं रही थी। वह सामान समेटने लगा।
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