विश्व पर्यावरण दिवस और पर्यावरण-संरक्षण के प्रति जनचेतना जगाने वाले गांधीवादी पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र के जन्मदिवस पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उनकी किताब 'पर्यावरण के पाठ' का एक अंश।
मेरा अपना जो छोटा-सा अनुभव है उस आधार पर कह सकता हूँ कि पर्यावरण के प्रति संवेदना आज बढ़ने के बदले घटी है। दिखती है बढ़ी हुई, लेकिन परिणाम नहीं दिखते उस अनुपात में अपने सभी पुराने समाजों में इससे ज्यादा संवेदना थी। उन्होंने अपनी पूरी जीवनशैली उस अपने पर्यावरण के इर्द-गिर्द ढाली थी। उन दिनों में कोई फर्क नहीं था। ऐसा नहीं था कि पर्यावरण की शिक्षा देने से पर्यावरण मजबूत होगा या पर्यावरण के कारण शिक्षा मज़बूत होगी-उस तरह की दो आँखों में यह विषय उन्होंने नहीं बाँटा था। फिर एक बिलकुल भिन्न क़िस्म की शिक्षा प्रणाली अँग्रेज़ों के कारण आयी। वो अपने इलाक़े के पर्यावरण से कटी हुई है। वो बिलकुल एक-सा काम सिखाती है लोगों को। अब चाहे नागालैण्ड में रहता हो उसके पढ़ने वाला या मरुभूमि में रहता हो, उसको अपने इलाक़े से कोई मतलब नहीं। सिर्फ़ साधारण शिक्षा ही नहीं, भूगोल की शिक्षा भी वही है। जानकारी सबकी चाहिए लेकिन उसको बचाने के लिए अपनी क्या परम्पराएँ रही हैं इस सबकी तरफ से लोगों का बिलकुल ध्यान हट गया है।
एक दौर पिछले चार-पाँच साल में यह भी आया है कि पर्यावरण के अलग से कोर्स बने हैं सभी स्तर पर प्राथमिक से लेकर महाविद्यालयों तक कोर्स चलते हैं जो शायद आपने भी पढ़े होंगे। लेकिन इस समय जो कुल मिला कर शिक्षा का वातावरण है, उसमें पर्यावरण में अच्छे नम्बर मैं ले आऊँ, तो जरूरी नहीं है कि मैं अपने पर्यावरण की अच्छी रखवाली भी करूँ। निचले स्तर पर इसकी शिक्षा की बहुत बातचीत हुई तो उसमें आप वर्तमान शिक्षा के दोषों से भी नहीं बच सकते। पर्यावरण की शिक्षा में भी नकल से काम चलेगा। जो लोग शिक्षा की धारा से काट दिये गये हैं, उन्होंने इसको शिक्षा का विषय न मानकर जीवन का विषय बनाया था और जीवन की शिक्षा से बड़ी कोई शिक्षा नहीं होती। उसी में से सब चीजें निकलनी चाहिए। इसलिए मुझे लगता है कि पर्यावरण का पाठ बहुत आगे नहीं ले जायेगा। पढ़ा-लिखा समाज इसमें से बनेगा वो विद्वान ज़रूर होगा लेकिन पर्यावरण के लिए अपने को न्यौछावर करने को तैयार नहीं होगा। उस चतुर में इतनी चतुराई होगी कि समाज के, पर्यावरण के संकट में, वह अपने को बचा लेगा।
किसी एक क्षेत्र विशेष के पर्यावरण का आज की शिक्षा में कोई दख़ल ही नहीं बचा है। इसलिए वो अलग-थलग पड़ा विषय बन गया है इस समय। लेकिन वो चोट करता है धीरज से। काफ़ी अत्याचार सहने के बाद। जब ऐसा कोई संकट समाज पर आता है तो मजबूरी में उसे अपने को अपने पर्यावरण से जोड़ना पड़ता है। अपनी शिक्षा को नहीं जोड़ पाता है वो लेकिन अपने व्यवहार को जोड़ता है। उसका सबसे अच्छा उदाहरण गुजरात का अकाल है। शिक्षा को पर्यावरण से नहीं जोड़ पाया होगा गुजरात का बहुत बड़ा हिस्सा। लेकिन उसने अपने कामों को इसी पर्यावरण से जोड़ा और यह किया कि हमें अपने सब पुराने तालाबों की मरम्मत करनी चाहिए। जितना हो सके छोटे-छोटे नदी नालों को बाँधना चाहिए। एक गाँव में किसी सज्जन ने बहुत ही अच्छी बात कही। उससे शायद यह शिक्षा वाला मामला निकलता है। उन्होंने कहा कि हमने इस अकाल में तीन आधुनिक व्यवस्थाओं को असफल होते देखा। एक हमारे घर में पाईप की सप्लाई, दूसरा हमारे खेत का ट्यूबवैल और तीसरे हमारे मुहल्ले में हैण्डपम्प । तीनों सूख गये इस अकाल में। हमारे तालाब टूटे पड़े थे। तालाब उन्होंने ठीक किये। उसके बाद थोड़ा-सा एक झला गिरा, थोड़ा- सा पानी गिरा। वो तालाब में इकट्ठा हुआ। तालाब ठीक हो गया था। टूट- फूट उसकी उन्होंने ठीक कर दी थी तो पानी नीचे गया और उसने थोड़े ही दिनों में हैण्डपम्प को चालू कर दिया और फिर नलकूप में भी पानी आ गया। तो उन्होंने यह कहा कि हमने तीन आधुनिक चीजों को अपने सामने असफल होते हुए देखा और एक पुरानी व्यवस्था, जिसको हम भूल गये थे, जिससे हम कट गये थे, उसको हमने थोड़ी-सी मेहनत करके ठीक किया तो उसने इन चीज़ों में भी जान डाल दी। इसलिए मुझे लगता है कि शिक्षा में यह बात दूसरे सिरे से जुड़ेगी कि अब हमको अपने स्कूल और कॉलेजों में पानी के प्रबन्ध के बारे में ऐसी शिक्षा देनी चाहिए या नहीं। बहस तो उठ सकती है। हो सकता है कि ये क्षेत्र अपनी औपचारिक शिक्षा में, तकनीकी शिक्षा में तालाबों की बात करें। तो इस तरह से शिक्षा भी हमारे पर्यावरण में जुड़ सकती है।
इस पाठ्यक्रम की एक और बड़ी दिक्कत दिखती है। सरकारी वाक्य है- कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक। एक स्टैण्डर्डराइजेशन समाज में चाहिए एक-सी नौकरियों के लिए। लेकिन शायद एक-से जीवन के लिए नहीं चाहिए। सारा ज़ोर नौकरियों का पढ़ाई पर है। जो होना भी चाहिए। लेकिन वो बहुत कम लोगों को रोज़गार दे पाती है। और उसके बदले बहुत सारे लोगों का रोजगार नष्ट करती है। एक-सा पाठ्यक्रम होने के नाते। गुजरात में नये से नये पानी के प्रबन्ध के साथ पुराने प्रबन्ध को भी कम से कम पूरक तो माना जा सकता था। पर उसको उन लोगों ने उसमें से हटा दिया। और एक बार जब हम बुरी तरह से ठोकर खा चुके हैं तो हमें लगता है कि इस की तरफ़ ध्यान जाना चाहिए।
अभी तो पर्यावरण का विषय भी उतना ही नकली है जितना बाक़ी पढ़ाई का विषय है। उसका अपने लोगों से कोई सम्बन्ध नहीं है।
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